सोमवार, 14 मार्च 2016

रोमन देवी फ्लोरा उत्तराखंड में बन गयी फूलदेई

"फूल देई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार...... । फोटो ... अनूप पटवाल।  
     
       ज हम बात करेंगे फूलदेई और भिटोली की। फूलदेई चैत्र संक्रांति को मनाया जाता है और फूलों से जुड़े होने के कारण इसे फूल संक्रांति भी कहते हैं। उत्तराखंड में इसका खास महत्व है। यह बच्चों का त्योहार है जो इसे विशेष बना देता है। यह बसंत ऋतु के आगमन का त्योहार है। बच्चे सुबह लेकर घर घर फूलों की डाली लेकर बसंत का स्वागत करते हैं। फूल संक्रांति प्रकृति से जुड़ा त्योहार है। बसंत अपनी छटा बिखेरना शुरू कर देता है। बसंत के आगमन के साथ ही बुरांश, आड़ू, मेलु, खुबानी, पुलम खिलने लगते हैं और सरसों के फूल इसकी छटा में चार चांद लगा रहे होते हैं। 
        बच्चों विशेषकर अविवाहित लड़कियों के लिये बसंत का आगमन विशेष महत्व का होता है। गांव की लड़के और लड़कियां चैत्र संक्रांति से एक दिन पहले ही शाम को फूलों (विशेष रूप से सफेद और पीले) को रिंगाल की टोकरी में एकत्रित कर देते हैं। फूलों के साथ गेहूं और जौ की नन्हें पौधों की हरियाली भी लायी जाती है। बच्चे सुबह लेकर नहाने के बाद प्रत्येक घर में जाकर फूलों और हरियाली को दहलीज पर चढ़ाते हैं। बच्चे उनकी सुख शांति और समृद्धि की कामना करते हैं। घर की गृहणियां इससे पहले गाय के गोबर से घर और देहरी (घर के प्रवेश द्वार) को लीप के रखती है। घर की देहरी पर ऐपण सजाकर चावल और गेहूं रखा जाता है जो फूल लेकर आने वाले बच्चों को दिया जाता है। इसके अलावा बच्चों को कौणी, झंगोरा, गुड़ और रूपये मिलते हैं। बच्चे देहरी का पूजन करते समय गाते हैं   "फूल देई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारम्बार नमस्कार, पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई।" पौड़ी गढ़वाल के कई गांवों में तो यह त्योहार पूरे महीने मनाया जाता है और गांव की लड़कियां हर दिन सुबह लेकर अपने पड़ोसियों की दहलीज पर फूल रख कर आती हैं।  इस अवसर पर लड़कियां गाती हैं  '' फूलदेई फूलदेई फूल संगरांद, सुफल करो-नयो साल तुमुक श्री भगवान। रंगीला सजीला फूल,ऐंगी डाला -बोट्ला हरया ह्वेग्येगी। पौन-पंछी, दौडी गैना, डाल्युं फूल है सदा रैन। ''

रोम ने शुरू की थी बसंत पूजन की परंपरा 


     संत के पूजन की यह परंपरा असल में रोम से शुरू हुई थी। रोम की पौराणिक कथाओं के अनुसार फूलों की देवी का नाम 'फ्लोरा' था। इसको लेकर वहां कुछ कहानियां भी हैं। वहां फूलों से सजी एक खूबसूरत किशोरी के रूप में बसंत को पूजा जाता है। 'फ्लोरा' शब्द लेटिन भाषा के 'फ्लोरिस' से लिया गया है जिसका अर्थ होता है 'फूल'। वहां इसके लिये विशेष तौर पर छह दिन तक 'फ्लोरिया महोत्सव' मनाया जाता था जिसमें देवी 'फ्लोरा' यानि बसंत की पूजा होती थी। इसी तरह से यूनान में एक देवी क्लोरिस की पूजा की जाती थी। रोमन कवि पबलियस ओविडियस नासो (जो ओविड के नाम से अधिक मशहूर हैं) की किताब  'फास्टी' में एक पौराणिक कथा का जिक्र है जिसके अनुसार क्लोरिस को पश्चिमी हवा के अवतार और बसंत के जनक जेफाइरस ने चूमा जिससे वह 'फ्लोरा' में तब्दील हो गयी। यह भी कहा जाता है कि सैबाइन जाति के राजा टाइटस टैटियस ने रोम का इस देवी से परिचय कराया था। देवी 'फ्लोरा' का 268 ईसा पूर्व में पहला मंदिर बनाया गया था और 238 ईसा पूर्व से 'फ्लोरिया महोत्सव' 28 अप्रैल से तीन मई के बीच मनाया जाने लगा। आज भी वहां कुछ स्थानों पर विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में इस महोत्सव का आयोजन होता है। रोम में यह सूर्य पर आधारित कैलेंडर की शुरुआत होती है जबकि हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार सूर्य कैलेंडर की शुरुआत चैत्र संक्रांति से मानी जाती है। 
     फ्लोरा को रोम में एक ऐसी देवी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है जो बासंती वस्त्रों में लिपटी है, जिसके हाथों में फूलों की टोकरी और सिर पर फूल और पत्तों का मुकुट है। फूलों से बनने वाला शहद इस देवी को अर्पित किया जाता है। 'फ्लोरा' नाम अब भी वहां पेड़ पौधों के लिये उपयोग ​किया जाता है। 


भिटोली में झलकता है भाई बहन का प्यार 


     ह तो रही फूलदेई की कहानी। अब चैत्र संक्रांति और इस महीने के दौरान पहाड़ों से जुड़ी कुछ अन्य प​रपंराओं का भी जिक्र कर लेते हैं। यही नहीं पहले गांव में ढोल और दमाऊ वादक भी हर घर में जाकर शुभकामना देते थे। वे चैती गाते थे। जैसे कि ''तुमरा भंडार भरियान, अन्न-धनल बरकत ह्वेन, ओंद रयां ऋतु मास, ओंद रयां सबुक संगरांद। फूलदेई फूलदेई फूल संगरांद।'' (तुम्हारे भंडार भरे रहें, अन्न धन की वृद्धि हो, ऋतुए और महीने आते रहें और सबके लिये सक्रांति का पर्व खुशियां लेकर आता रहे)। वे गणेश से लेकर ग्राम देवता के गीतों से परिवार की सुख समृद्धि की कामना करते थे। इसी दिन के बाद वे गांव की हर विवाहिता के ससुराल जाकर वहां दान मांगने (कई जगह इसे बडौ कहा जाता है) के लिये जाते थे। अब यह परपंरा लगभग खत्म हो गयी है। 
     चैत के महीने में ही विवाहित बेटियों, जिन्हें धियाण कहते हैं, के लिये कलेवा भी पहुंचाया जाता है। इसे 'भिटोली' कहा जाता है अर्थात भेंट करना। ​भाई अपनी बहन से मिलने के लिये उसके मायके जाता है। वह अपने साथ कलेवा और कपड़े लेकर जाता है। कोशिश ये रहती है कि कलेवा अच्छे से अच्छा हो ताकि ससुराल सब उसकी तारीफ करें। बहन अपने अड़ोस पड़ोस में कलेवा बांटती है। पुराने जमाने में भाई के आने से बहन खुश हो जाती थी क्योंकि तब संचार का कोई साधन नहीं था और इससे उसे अपने मायके की कुशल क्षेम भी मिल जाती थी। 
       भिटोली के पहले कलेवा जाता था। बाद में इसका स्थान मिठाई ने लिया। फिर भाईयों ने खुद जाने के बजाय रूपये भेजने शुरू कर दिये और आजकल मोबाइल और व्हाट्सएप के जरिये ही  'भिटोली' का पर्व संपन्न हो जाता है। आज के लिये बस इतना ही। उम्मीद है फुलदेई से लेकर भिटौली तक का यह संक्षिप्त वर्णन आपको रूचिकर लगा होगा। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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3 टिप्‍पणियां:

  1. चैत्र मास की संक्रान्ति को फूलदेई के रुप में मनाया जाता है, जो बसन्त ऋतु के स्वागत का त्यौहार है। इस दिन छोटे बच्चे सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं और वहां से प्योली/फ्यूंली, बुरांस, बासिंग आदि जंगली फूलो के अलावा आडू, खुबानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं और एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्ते, नारियल और इन फूलों को सजाकर हर घर की देहरी पर लोकगीतों को गाते हुये जाते हैं और देहरी का पूजन करते हुये गाते हैं-
    इस दिन से लोकगीतों के गायन का अंदाज भी बदल जाता है, होली के फाग की खुमारी में डूबे लोग इस दिन से ऋतुरैंण और चैती गायन में डूबने लगते हैं। ढोल-दमाऊ बजाने वाले लोग जिन्हें बाजगी, औली या ढोली कहा जाता है। वे भी इस दिन गांव के हर घर के आंगन में आकर इन गीतों को गाते हैं। जिसके फलस्वरुप घर के मुखिया द्वारा उनको चावल, आटा या अन्य कोई अनाज और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है। बसन्त के आगमन से जहां पूरा पहाड़ बुरांस की लालिमा और गांव आडू, खुबानी के गुलाबी-सफेद रंगो से भर जाता है। वहीं चैत्र संक्रान्ति के दिन बच्चों द्वारा प्रकृति को इस अप्रतिम उपहार सौंपने के लिये धन्यवाद अदा करते हैं। इस दिन घरों में विशेष रुप से सई(- यह उत्तराखण्ड का एक लोक व्यंजन है, इसे चावल के आटे से बनाया जाता है। चावल के आटे को दही में गूंथा जाता है। उसे घी में काफी देर तक भूना जाता है, जब यह भुनकर भूरा होने लगे तो इसमें स्वादानुसार चीनी मिला दी जाती है।) बनाकर आपस में बांटा जाता है।..

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  2. बहुत अछि जानकारी दी है आपने http://sangeetaspen.com

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