गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

​मिलिये बूंखाल में बलि प्रथा बंद करवाने वाले पीताम्बर सिंह रावत से

       पौड़ी गढ़वाल के थैलीसैंण विकासखण्ड के राठ क्षेत्र का ऐतिहासिक बूंखाल कालिंका मेला एक समय पशु बलि प्रथा के लिये विख्यात था। मेले के दिन यहां पशुओं के खून नदियां बह जाती थी। अशिक्षा और अंधविश्वास के कारण वर्षों से यह प्रथा चली आ रही थी। आखिर में एक शख्स ने इस कुप्रथा को रोकने का बीड़ा उठाया। उनके प्रयासों से प्रशासन ने भी सक्रियता दिखायी। इसी का परिणाम है कि पिछले कुछ वर्षों से बूंखाल मेला बिना पशु बलि के शांति के साथ संपन्न होता है। गढ़वाल में पशु बलि प्रथा के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले इस शख्स का नाम है पीताम्बर सिंह रावत जो डुंगरीखाल गांव के रहने वाले हैं। दो साल पहले मैंने अपने ब्लॉग पर पशु बलि प्रथा के खिलाफ ''देवभूमि में बलि प्रथा : बोलो ना बाबा ना'' शीर्षक से एक आलेख लिखा था जिसमें श्री पीताम्बर सिंह रावत के पत्र का भी जिक्र किया था जो उन्होंने जिलाधिकारी को लिखा था। अब श्री रावत ने बलि प्रथा को रोकने के लिये किये गये अपने प्रयासों और इस दौरान की चुनौतियों के बारे में 'घसेरी' को अपनी कहानी विस्तार से बतायी है। 

पीताम्बर सिंह रावत की बलि प्रथा के खिलाफ लड़ी गयी जंग की कहानी, उन्हीं की जुबानी


श्री पीताम्बर सिंह रावत, अपने नाती और नातिन के साथ। 
       न 1999 तक मेरी भी बलि प्रथा में काफी रुचि रहती थी और दो बार मैंने भी बूंखाल में बागी (भैंसा) और खाडु (मेंढ़ा) की बलि दी थी। इसी दौरान मैंने अपने भाइयों को बागी को मारते हुए देखा। बागी तड़प रहा था और मेरे दोनों भाई बारी बारी से उसकी गर्दन काट रहे थे। उस समय मैं काफी व्यथित हो गया। मैं अंदर से काफी पीड़ा महसूस कर रहा था। बस मैंने तुरंत ही बूंखाल मै बलि प्रथा रोकने का संकल्प ले लिया। यह काम कतई आसान नहीं था यह मैं अच्छी तरह से जानता था, क्योंकि बूंखाल में चोपड़ा गाँव के चक्करचोटया, गोदा गाँव के गोदियाल पुजारी और मलंड गाँव की भूमि इन तीनों गाँव के लोगों का कहना था कि जो भी बूंखाल में बलि प्रथा रोकने की कोशिश करेगा उसी समय उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। । यहां तक कि प्रशासन भी वहां कुछ नहीं कर पाता था। कालीमठ के गब्बर सिंह राणा को उन्होंने जान से मारने की धमकी थी। लगभग सारे सामाजिक कार्यकर्ता नाकाम रहे। उसके बाद मुंबई की डांडी कांठी संस्था से जुड़े लोगों ने भी प्रयास किये लेकिन वे भी कामयाब नहीं हो पाये। 
     मैंने भी संकल्प ले रखा था। मैं अकेले ही अपना संकल्प पूरा करने में लग गया। एकबारगी मैंने सोचा कि मैं अकेला हूं और अकेले इतना बड़ा काम करना मुश्किल है। इतना मैं समझ चुका था कि लोगों को समझाने और उनके साथ बहस करने से कोई फायदा नहीं हैं।  इसलिए पहले मैंने पहले खुद भगवान की शरण ली। मैं भगवान को ही अपना साथी मानने लग गया। चार साल बीत गए लेकिन इन चार वर्षों में मुझे अन्दर ही अन्दर रास्ता दिखायी दिया। फिर मैंने आठ मार्च 2005 को शिवरात्रि  के दिन महाराष्ट्र के चारोटी से पहली पैदल यात्रा शुरू  कर दी। यह यात्रा 16 मार्च 2005 मध्यप्रदेश के झाबुआ में सम्पन्न हुई। इस यात्रा में मुझे काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा लेकिन इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा। मेरा हौसला दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। सन 2006 में मैंने श्राद्धीय नवरात्रि को आठ दिन की यात्रा की। यह यात्रा मेरी गुजरात के अंबा जी की थी इस यात्रा में मुझे कोई खास परेशानी नहीं हुई। सन 2007 में मैंने राजस्थान की यात्रा की। तीन दिन की इस यात्रा में मेरे साथ 36 घंटे तक पांच कुत्तों ने साथ दिया। इसके एक दिन के बाद हरिद्वार से बूंखाल तक की यात्रा मैंने 51 घन्टे में पूरी की। उसके बाद अपने गांव से माता जी की डोली लेकर बूंखाल गया। तब मेरे भाईयों के साथ—साथ सारे गाँव वालों ने मेरा साथ दिया। दो महीने के बाद मेला था और उस समय गांव में हमारे सगे संबंधियों ने बागी की बलि दी। मेरे भाईयों ने भी इस बलि का समर्थन किया। 
 बुखांल देवी मंदिर में बलि प्रथा रोकने के लिये
श्री पीताम्बर सिंह रावत का जिलाधिकारी को लिखा पत्र।
     न 2008 को श्राद्ध के समय मैं बूंखाल गया। मैंने सब्बल, कुदाल और तगारा लिया तथा तीन दिन में बलि कुंड को पत्थरों से बंद कर दिया। मजेदार बात यह है कि उन तीन दिनों में किसी को पता नही चल पाया कि बलि कुंड बंद हो गया चौथे दिन नवरात्र का पहला दिन था उस दिन मैंने खुद ही खुलासा कर दिया कि मैंने बलि कुंड बंद कर दिया है। इससे मेला समिति में खलबली मच गयी। उस समय उन लोगों के साथ मेरी काफी बहस हुई। जब मैंने उनसे कहा कि जब मैने बलि कुंड बंद करने में तीन दिन लगाये तो आप लोगों की चमत्कारी शक्तियां कहां गई थी? उन्होंने मुझे क्यों नहीं रोका? मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे साथ में कोई शक्ति थी जिसने तुम लोगों को अन्धा कर दिया था। जब मैंने यह बात कही तो माहौल कुछ शांत हुआ लेकिन नौवें दिन तक उन पर फिर से अंधविश्वासी शक्तियां हावी हो गयी और उन्होंने बलि कुंड को फिर से खाली कर दिया। मै भी यही चाहता था कि बलि कुंड को वही लोग खोलें। मैंने बचपन से ही वहां के बारे में कई कहानियां सुनी थी। एक कथा के अनुसार कुंड के अन्दर गोरखाओं ने काली मां को गाड़ के रखा है। (एक अन्य कहानी इस तरह से है कि पहले यहां स्थि​त मूर्ति तमाम तरह की बीमारियों और आपदाओं के बारे में ग्रामीणों को पूर्व में ही आगाह कर देती थी। जब 1791 में गोरखा आक्रमण के समय देवी ने आवाज देकर ग्रामीणों को आगाह किया। इसकी भनक गोरखाओं को लग गयी और उन्होंने देवी की मूर्ति का सिर काटकर उसके धड़ को उल्टा करके दफना दिया तथा देवी माँ का सिर वे अपने साथ ले गये, जिसकी पूजा आज भी पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल में होती है।)
    इसके एक साल बाद यानि सन 2009 में श्राद्ध के समय मैं केदारनाथ धाम गया। वहां मैंने बाबा केदारनाथ से आशीर्वाद लिया कि मैं बलि प्रथा रोकने के अपने प्रयासों में सफल रहूं। केदारनाथ से ही मैं सीधे श्रीनगर पहुंचा जहां मैंने एक गैंती ली और पैदल रास्ते चलकर खिर्सू, चौबट्टा होते हुए चोपड़ा गाँव पहुँचा। रात के करीब दस से ग्यारह बजे का समय था। मैं गोदा गांव से होकर गुजरा तो सभी सो चुके थे। मैं वहां से बूंखाल गया और मैंने बलि कुंड के अन्दर जाकर बलि बेदी को निकाला और फिर रात में ही उसे गंगा में विसर्जित कर दिया। बूंखाल मैं मैंने जो भी कार्य किये वो सब अमावस के दिन व रात को किए। इन सब कार्यों को करने के लिए मुझे कितने मुश्किलों का सामना करना पड़ा इसका अन्दाजा आप खुद लगा सकते हो। इसी दौरान मैंने विषम सामाजिक परिस्थितियों में अपनी बेटी की शादी भी की थी।

    पीताम्बर सिंह रावत 
    पता: गांव व पोस्ट डुंगरी खाल, 
    पट्टी बाली कंडारस्यूं  
    जिला पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड। 

        उत्तराखंड के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में योगदान देने वाले व्यक्तियों, संस्थाओं और संगठनों से लोगों का परिचय कराने का यह 'घसेरी' का छोटा सा प्रयास है। ऐसे लोग जो निस्वार्थ भाव से अपना काम करते हैं और जिसका श्रेय उन्हें कभी नहीं मिल पाता। इसमें घसेरी के सभी पाठकों का सहयोग अपेक्षित है। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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सोमवार, 4 दिसंबर 2017

उत्तराखंड के आभूषण : गुलबंद से लेकर तगड़ी तक

उत्तराखंड की महिलाओं के कुछ विशेष आभूषण होते हैं जिनमें मांगटीका, गुलबंद, नथ या नथुली आदि प्रमुख हैं। 


      भारतीय महिलाओं का आकर्षण है आभूषण और यहां हर प्रांत और स्थान के अनुसार आभूषण भी बदल जाते हैं। मैं यहां पर उत्तराखंड की बात करूंगा जहां हर अंग के लिये कुछ खास आभूषण होते हैं। भारत के हर प्रांत की तरह उत्तराखंड में भी सोने और चांदी के ही आभूषण प्रचलित हैं। प्राचीन समय से चले आ रहे कई आभूषण अब कम प्रचलन में हैं तो कुछ जेवर ऐसे भी हैं जो फिर से पहाड़ी महिलाओं में अपनी जगह बना रहे हैं। 
    उत्तराखंड के आभूषणों पर चर्चा करने से पहले एक सवाल मन में उठा कि महिलाएं ही अधिक आभूषण क्यों पहनती हैं? इस बारे में कुमांऊ क्षेत्र के विद्वान डॉ. शेर सिंह पांगती ने अपनी किताब 'वास्तुकला के विविध आयाम' में लिखा है, ''आभूषणों का प्रारंभिक उपयोग मूल्यवान वस्तुओं जैसे सोना-चांदी के विभिन्न प्रकार के रत्नों को पारिवारिक आय की जमा पूंजी के रूप में सुरक्षित रखने के लिए शरीर में धारण करने से हुआ, ताकि इनके खो जाने अथवा चोरी हो जाने की संभावना न रहे। पहले घरों को सुरक्षित रखने के लिए ताले उपलब्ध नहीं थे और न बैंक व लॉकर की व्यवस्था थी। ऐसे में आभूषणों को शरीर पर धारण करके ही सुरक्षित रख पाना संभव था। परिवार की स्त्रियां घर से बाहर कम निकलती थी, इसलिए उनको उसका जिम्मा सौंपा गया। धीरे-धीरे अपनी संपत्ति व वैभव को समाज के समक्ष प्रदर्शन करने की परंपरा के चलते मूल्यवान धातुओं को सुंदर रूप देकर आभूषण के रूप में धारण करने का चलन हुआ।''
      उत्तराखंड में भी अधिकतर आभूषण महिलाओं से ही जुड़े हैं। उत्तराखंड के पुरूषों में एक समय कुंडल पहनने का प्रचलन था जिन्हें मुरकी या बुजनि कहा जाता है। अब भी कई क्षेत्रों में पुरूषों को मुरकी पहने हुए देखा जा सकता है। 'घसेरी' में यहां पर मुख्य रूप से महिलाओं से जुड़े आभूषणों का जिक्र किया गया है। 

सिर पर पहने जाने वाले आभूषण


शीशफूल : शीशफूल को महिलाएं जूड़े में पहनती हैं। 
मांगटीका : मांगटीका अपने नाम के अनुसार मांग में पहना जाता है। इसे अमूमन किसी त्योहार, देवकार्य, शादी या फिर किसी अन्य शुभकार्य के अवसर पर पहना जाता है।  इस तरह का एक अन्य जेवर होता है जिसे वाड़ी कहते हैं। 

नाक में पहने जाने वाले आभूषण 


नथ या नथुली : उत्तराखंड की महिलाओं को विशिष्ट पहचान दिलाती है नाक में पहने जाने वाली कुंदन जड़ी बड़ी नथ। इसके बिना उनका श्रृंगार अधूरा माना जाता है। इसे विशेष तरह की कारीगरी से तैयार किया जाता है। गढ़वाल में टिहरी नथ और छोटी नथ का प्रचलन है। इसे विवाहित महिलाएं पहनती हैं। 
बुलाक : उत्तराखंड विशेषकर गढ़वाल की महिलाएं नाक के बीच एक गहना पहनती हैं जिसे बुलाक कहते हैं। इसे अपनी सामर्थ्य के अनुसार छोटा या लंबा बनवाया जाता है। कुछ बुलाक इतनी लंबी होती हैं कि वह ठुड्डी से भी नीचे तक पहुंच जाती हैं। इसे बेसर भी कहा जाता है। 
फु​ल्लि : नाक में पहने जाने वाली लौंग। यह असल में नथ का विकल्प है। नथ को हमेशा नहीं पहना जा सकता है इसलिए महिलाएं इसे उतारकर लौंग या फुल्लि पहनती हैं। यह काफी छोटे आकार की होती है और इसलिए इसे किसी भी समय आसानी से पहना जा सकता है।

कानों में पहने जाने वाले आभूषण 


मुर्खली : चांदी की बालियां जिन्हें महिलाएं कानों के ऊपरी हिस्से में पहनती हैं।      
बाली : सोने के बने कुंडल। 
कर्णफूल या झुमकी : झुमकी पहाड़ी महिलाओं का भी पारंपरिक आभूषण है। कर्णफूल भी इसी का एक रूप है। लंबी झूमकी जिसके बीच में नग लगे होते हैं। 

गले में पहने जाने वाले आभूषण 


गुलबंद या गुलोबंद : गुलुबंद, गुलबंद या गुलोबंद एक आकर्षक जेवर है जिसे सोने की डिजाइनदार टिकियों को पतले गद्देदार पट्टे पर सिलकर तैयार किया जाता है। गुलुबंद गढ़वाली, कुमांउनी, भोटिया और जौनसार की विवाहित महिलाओं का प्रमुख आभूषण रहा है। मंगनी यानि मांगड़ या सगाई के समय पहले गुलबंद पहनाने का ही प्रचलन था। (विस्तार से आगे दिया गया है)
हंसुळी या हांसुळी : चांदी का बना जेवर जो काफी वजनी होता है। इसे प्राचीन समय में अधिक पहना जाता है। महिलाओं के अलावा छोटे बच्चों को भी हंसुळी पहनायी जाती है लेकिन उसका वजन कम होता है। महिलाएं जिस हंसुळी को पहनती हैं उसका वजन तीन तोला तक होता है। 
चरेऊ : यह एक तरह से मंगलसूत्र का ही विकल्प है जिसे सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। सुहागिन महिला अपने गले में काले मनकों की माला पहनती हैं। इन्हीं मालाओं के बीच में सामर्थ्य के अनुसार चांदी या सोना लगाकर मंगलसूत्र तैयार किया जाता है। इसे  चरेनु भी कहा जाता है। 
तिमाण्यां : सोने के तीन मनकों से बना गले का आभूषण। 
 गले के अन्य आभूषणों कंठी, तिलहरी, चंद्रहार, हार, लाकेट आदि शामिल हैं।

हाथ में पहने जाने वाले आभूषण 


पौंची या पौंजी : इन्हें कलाईयों में पहना जाता है। कंगन के आकार के होते हैं जिनमें सोने या चांदी के दाने लगे होते हैं। इन्हें भी गुलबंद की तरह कपड़े की पट्टी पर जड़कर तैयार किया जाता है। 
मुंदड़ी : मु​द्रिका या अंगूठी। मुंदरि या गुंठी भी कहा जाता है। 
धागुली या धागुले : छोटे बच्चों के हाथों में पहनाये जाने वाले चांदी के कड़े। यह सादे और डिजाइनर दोनों तरह के होते हैं। 
इनके अलावा स्यूंण, स्यूंणा या सांगल कंधे पर लगाया जाता है जो कि सेफ्टी पिन की तरह होता है। बाजू पर भी एक आभूषण पहनने का प्रचलन रहा है जिसे गोंखले कहा जाता है। 

कमर पर पहने जाने वाले आभूषण 


तगड़ी : चांदी से बना आभूषण जिसे बेल्ट की तरह कमर पर पहना जाता है। पुराने जमाने में महिलाएं हमेशा इसे पहनकर रखती थी क्योंकि कहा जाता था कि लगातार काम करते रहने के बावजूद इससे कमरदर्द नहीं होता है। इसे करधनी, कमरबंद भी कहा जाता है। करधनी यानि सोने चाँदी आदि का बना हुआ कमर में पहनने का आभूषण जिसमें कई लड़ियाँ या पूरी पट्टी होती है।

पांवों में पहने जाने वाले आभूषण 


झिंगोरी, झांजर, इमर्ति, पौटा, पायल, पाजेब और धागुले : पायल चांदी की बनी होती हैं। उत्तराखंड में क्षेत्र के अनुसार इनका आकार प्रकार और नाम बदल जाते हैं। गढ़वाल में महिलाएं चूड़ीनुमा पायल पहनती हैं जिन्हें धगुला या धागुले कहते हैं। पौटा जैसे गहने अब प्रचलन में नहीं हैं। 
बिछुए : पैरों की उंगलियों में पहना जाता है। ये चांदी के बने होते हैं और इन्हें सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। 

         अब बात करते हैं गुलबंद की जिसके बारे में मैंने पिछले दिनों फेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी। इस पर कई ​तरह की टिप्पणियां मिली। पत्रकार श्रीमती प्रज्ञा बड़थ्वाल ध्यानी ने लिखा, ''यह अब भी फैशन में है। मेरे पास नथ, गुलुबंद, पौंची ओर हंसुली है। तिमांण्या बनवाना है। '' श्री नेगीदा लखोरिया ने गुलबंद के बारे में विस्तार से बताने का अच्छा प्रयास किया। उन्होंने लिखा, ''गुलबन्द से पूर्व क्या आभूषण पहनाया जाता रहा होगा? स्वर्ण गुलबन्द से पूर्व मंगणि के समय मांगी गई कन्या के मस्तक पर भावी स्वसुर द्वारा तिलक करके चांदी का हांसुळ पहनाया जाता था। वही आभूषण मुख्य परम्परागत आभूषण था। समयांतर में मखमली पट्टे पर सात या नौ पट्टिकाओं वाला गलूबन्द हांसलि के स्थान पर पहनाया जाने लगा। यह आभूषण केवल एक आभूषण मात्र था चूंकि इसमे लगा स्वर्ण शरीर से स्पर्श नहीं करता था तो इस आभूषण का लाभकारी प्रभाव भी कुछ नहीं था क्योंकि आभूषणों का निरन्तर त्वचा से स्पर्श करते रहना एक्यूप्रेशर तो करता ही है साथ साथ स्पर्श घर्षण से स्वर्ण या रजत की आवश्ययक मात्रा भी शरीर में पहुंचती रहती है।"
       गढ़वाली के वरिष्ठ कवि श्री दीनदयाल सुंद्रियाल ने टिप्पणी की, ''पुराने ज़माने में गरीबी अधिक थी तो हरेक मंगनी करने के लिए हँसुली या गुलुबंद का इंतज़ाम नही कर पाता तो किसी रिश्तेदार या गॉव की बहू बेटी का गहना लेजाकर भी मंगनी हो जाती थी। कहते है पूरे गांव के लड़कों की मंगनी एक हँसुली से भी हो जाती थी। आपसी सद्भाव का एक बड़ा उदाहरण।''
    सच में यह प्यार और सद्भाव ही पहाड़ के लोगों को दूसरों से अलग करता है। उम्मीद है आपको उत्तराखंड के आभूषण पसंद आए होंगे। कैसा लगा जरूर बताना। 
आपका धर्मेन्द्र पंत 

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