गुरुवार, 16 मार्च 2017

कुमांउनी परंपरा : देवर—भाभी और साली—जीजा को करते हैं टीका

और इस साल मैंने भी अपनी भाभीजी पर टीका लगाकर यह परंपरा निभायी। 

      रिष्ठ मीडियाकर्मी सुश्री क्षिप्रा पांडे शर्मा ने होली के एक दिन बाद अपने फेसबुक पेज पर एक पोस्ट डाली, ''कुँमाऊं का त्यौहार, होली का टीका, जिसमेंं साली-जीजा का, देवर-भाभी का टीका करते हैं। मुबारक हो मेरे देवरों को। साली-जीजा टचवुड।'' मैंने पहली बार इस तरह के त्योहार या परंपरा के बारे में सुना था इसलिए जिज्ञासा बढ़ना स्वाभाविक थी। इसलिए सबसे पहले सुश्री क्षिप्रा से ही इस पर विस्तार से बताने का आग्रह किया और फिर कुमांऊ के अपने मित्रों और कुमांउनी संस्कृति की गहरी जानकारी रखने वाले विशेषज्ञों से भी बात की। निष्कर्ष यह निकला कि कुमांऊ के कुछ क्षेत्रों में इस तरह की परंपरा वर्षों से चली आ रही है।  देश के कई क्षेत्रों में  होली के एक दिन बाद भैया दूज का त्योहार का मनाया जाता है। बृज में भी परंपरा सदियों से चली आ रही है। कुमांऊ की होली में बृज का ही पुट है और यह माना जा सकता है कि वहीं से कुमांऊ में होली के एक दिन बाद टीका लगाने की परंपरा भी शुरू हुई होगी। यह अलग बात है कि यहां कुछ जगहों पर इस स्वरूप बदल गया। देश में कुछ स्थानों पर भैया दूज साल में दो बार मनायी जाती है। पहली होली के तुरंत बाद और दूसरी दीवाली के बाद जो अधिक प्रचलित है। 
      सुश्री क्षिप्रा पांडे शर्मा  के अनुसार होली पर यह सारे गिले शिकवे दूर करने का स्वाभाविक तरीका है। उनके शब्दों में, ''ददा, प्रामाणिकता के साथ तो नहींं कह सकती, पर होली की समाप्ति नोंक -झोंक वाले रिश्ते की प्रगाढ़ता परिलक्षित करता है। सारे गिले-शिकवे दूर। मेरी बहन हर साल अपने जीजा जी को टीका करने जरूर आती है और मेरे चाचा लोग मम्मी को। ..... मैंने अपनी मम्मी से पूछा था और उन्होंने बताया कि जिन लोगों के साथ होली खेली जाती है उनसे ही टीका किया जाता है।'' 
      होली में अक्सर देवर—भाभी, जीजा—साली के बीच रंग गुलाल का खेल चलता है। इसमें किसी के रूठने की संभावना भी बनी रहती है और संभवत: इसलिए होली के एक दिन बाद टीका लगाने की परंपरा शुरू हो गयी। कुमांऊ में होली को लेकर एक गीत भी गाया जाता है, ''देवर संग भाभी खेले, जीजा के संग साली। कांव कांव कौआ बोले, होली है भई होली।। '' 
      कुमांउनी संस्कृति का गूढ़ ज्ञान रखने वाले श्री उदय टमटा ने कहा कि पहले होली के एक दिन बाद टीका के अलावा बलि प्रथा का भी प्रचलन था। मैंने विशेष तौर पर उनसे टीका लगाने के संबंध में बात की तो उन्होंने बताया, ''यह आपसी ​मेल​ मिलाप और संबंधों को सौहार्द बनाये रखने की ही एक पुरानी परंपरा है। बहुत पहले जानवरों की बलि भी दी जाती थी लेकिन अब परंपरा समाप्त हो चुकी है। अब आपस में टीका लगाते हैं और यह हर घर में होता है। ''
      कुमांउनी संस्कृति के जानकार तथा वरिष्ठ पत्रकार श्री विवेक जोशी और श्री शंकर सिंह ने बताया कि यह सिर्फ जीजा—साली या देवर—भाभी तक सीमित नहीं है बल्कि परिवार और अड़ोस पड़ोस में सभी का टीका किया जाता है। 
          मैं गढ़वाल में पला बढ़ा हूं और मैंने यह ऐसी कोई परंपरा अपने क्षेत्र में नहीं देखी। यहां तक कि हमारे ​यहां रक्षाबंधन का त्योहार बड़ी श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन भैया दूज नहीं। फिर भी मैंने वरिष्ठ साहित्यकार, इतिहासकार और लेखक श्री भीष्म कुकरेती से इस बारे में जानकारी चाही तो उन्होंने बताया कि गढ़वाल क्षेत्र में होली के दिन ही टीका लगाने का प्रचलन है। उसके बाद किसी तरह का टीका नहीं लगाया जाता है। 
    वैसे यह अच्छी परंपरा है और इस तरह की सौहार्द और एकजुटता का संदेश देने वाली परंपराओं को आगे बढ़ाने और उन्हें संरक्षण देने की जरूरत है। इसके साथ ही मेरा आग्रह है कि अगर आप इस परंपरा के बारे में अधिक जानकारी रखते हैं तो कृपया जरूर साझा करें। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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बुधवार, 8 मार्च 2017

उत्तराखंड की कुछ प्रसिद्ध महिलाएं

                             अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (आठ मार्च) पर विशेष


मुगलों की नाक काटने वाली रानी कर्णावती 

        भारतीय इतिहास में जब रानी कर्णावती का जिक्र आता है तो फिर मेवाड़ की उस रानी की चर्चा होती है जिसने मुगल बादशाह हुमांयूं के ​लिये राखी भेजी थी। इसलिए रानी कर्णावती का नाम रक्षाबंधन से अक्सर जोड़ दिया जाता है। लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि इसके कई दशकों बाद भारत में एक और रानी कर्णावती हुई थी और यह गढ़वाल की रानी थी। इस रानी को मुगलों की नाक काटने के लिये जाना जाता है और इसलिए कुछ इतिहासकारों ने उनका जिक्र नाक क​टी रानी या नाक काटने वाली रानी के रूप में किया है। रानी कर्णावती ने गढ़वाल में अपने नाबालिग बेटे पृथ्वीपतिशाह के बदले तब शासन का कार्य संभाला था जबकि दिल्ली में मुगल सम्राट शाहजहां का राज था। रानी कर्णावती वह पवांर वंश के राजा महिपतशाह की पत्नी थी। जब महिपतशाह की मृत्यु हुई तो उनके पुत्र पृथ्वीपतिशाह केवल सात साल के थे। राजगद्दी पर पृथ्वीपतिशाह ही बैठे लेकिन राजकाज उनकी मां रानी कर्णावती ने चलाया। इस दौरान जब मुगलों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया तो रानी कर्णावती ने उन्हें छठी का दूध याद दिलाया था। गढ़वाल की सेना ने मुगल सेना को हरा दिया था। मुगल सैनिकों के हथियार छीन दिये गये थे और आखिर में उनके एक एक करके नाक काट दिये गये थे। कहा जाता है कि जिन सैनिकों की नाक का​टी गयी उनमें सेनापति नजाबत खान भी शामिल था।  विस्तार से पढ़ने के लिये क्लिक करें "मुगल सैनिकों की नाक काटने वाली गढ़वाल की रानी कर्णावती"

युवा वीरांगना तीलू रौतेली 

          केवल 15 वर्ष की उम्र में रणभूमि में कूद कर सात साल तक अपने दुश्मन राजाओं को छठी का दूध याद दिलाने वाली गढ़वाल की वीरांगना थी 'तीलू रौतेली'। इस महान वीरांगना का जन्म कब हुआ। इसको लेकर कोई तिथि स्पष्ट नहीं है। गढ़वाल में आठ अगस्त को उनकी जयंती मनायी जाती है और यह माना जाता है कि उनका जन्म आठ अगस्त 1661 को हुआ था। उस समय गढ़वाल में पृथ्वीशाह का राज था। इसके विपरीत जिस कैंत्यूरी राजा धाम शाही की सेना के साथ तीलू रौतेली ने युद्ध किया था उसने इससे पहले गढ़वाल के राजा मानशाह पर आक्रमण किया था जिसके कारण तीलू रौतेली को अपने पिता, भाईयों और मंगेतर की जान गंवानी पड़ी थी। तीलू रौतेली ने इसका बदला चुकता करने की ठानी और आखिर में वह इसमें सफल रही। इस वीरांगना ने केवल 22 साल की उम्र में प्राण त्याग दिये थे लेकिन इतिहास में वह अपना नाम हमेशा के लिये अजय अमर कर गयी। विस्तार से पढ़ने के लिये क्लिक करें "तीलू रौतेली ..वर्षों पहले बन गयी थी लक्ष्मीबाई"

शराबबंदी की समर्थक टिंचरी माई 

        लीसैंण के मंज्यूड़ गांव में 1917 को जन्मी दीपा नौटियाल ने बचपन में ही अपने माता पिता को गंवा दिया था। चाचा ने बचपन में ही उनकी शादी सेना के जवान से कर दी जो युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गया। तब दीपा की उम्र 19 साल की थी। वह संन्यासिन बनी और बाद में पहाड़ लौटकर यहां की कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाने लगी। उन्होंने पहाड़ में शराबबंदी के लिये आवाज उठायी। अंग्रेज अफसर से डरे बिना अपने गांव में टिंचरी यानि शराब की दुकान जला डाली। तभी से लोग उन्हें टिंचरी माई कहने लगे। उन्होंने अपना पूरा जीवन सामाजिक कार्यों में समर्पित कर दिया था। उन्हें इच्छागिरी माई के नाम से भी जाना जाता है। टिंचरी माई ने 19 जून 1992 को अंतिम सांस ली थी। 

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बिशनी देवी शाह 

        देश के स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड की महिलाओं का भी अहम योगदान रहा और इनमें बिशनी देवी शाह प्रमुख हैं। उनका जन्म 12 अक्तूबर 1902 को बागेश्वर में हुआ था और वह किशोरावस्था से ही स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ी थी और देश के आजाद होने तक इसमें सक्रिय रही। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भी अहम भूमिका निभायी थी। स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े होने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। इस महान स्वतंत्रता सेनानी का वर्ष 1974 में 73 वर्ष की उम्र में निधन हुआ। 

सुप्रसिद्ध लेखिका शिवानी 

     त्तराखंड की प्रसिद्ध उपन्यासकार शिवानी उर्फ गौरा पंत का जन्म 17 अक्तूबर 1923 को हुआ था।  उन्होेंने 12 साल की उम्र से लिखना शुरू किया और फिर 21 मार्च 2003 को अपने निधन तक लगातार लेखन से जुड़ी रही। उनकी लिखी कृतियों मे कृष्णकली, भैरवी, आमादेर शन्तिनिकेतन, विषकन्या चौदह फेरे, कृष्णकली, कालिंदी, अतिथि, पूतों वाली, चल खुसरों घर आपने, श्मशान चंपा, मायापुरी, कैंजा, गेंदा, भैरवी, स्वयंसिद्धा, विषकन्या, रति विलाप आदि प्रमुख हैं। हिंदी साहित्य जगत में शिवानी को ऐसी लेखिका के रूप में याद किया जाता है जिन्होंने अपनी कृतियों में उत्तर भारत के कुमाऊं क्षेत्र के आसपास की लोक संस्कृति की झलक दिखायी और किरदारों का बहुत सुंदर तरीके से चरित्र चित्रण किया। हिंदी के अलावा उनकी संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू तथा अंग्रेजी पर भी अच्छी पकड़ थी। 

चिपको की प्रणेता : गौरा देवी 

      गौरा देवी विश्व प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन की जननी रही हैं। उनका जन्म 1925 में हुआ था। वह पहाड़ में जंगलों की अंधाधुंध कटाई का विरोध करने के लिये गौरा देवी अपनी साथियों के साथ पेड़ों से चिपक गयी थी। तब पहाड़ों में वन निगम के माध्यम से ठेकेदारों को पेड़ काटने का ठेका दिया जाता था। गौरा देवी को जब पता चला कि पहाड़ों में पेड़ काटने के ठेके दिये जा रहे हैं तो उन्होंने अपने गांव में महिला मंगलदल का गठन किया। गौरा देवी कहा करती थी कि वन हमारे भगवान हैं इन पर हमारे परिवार और हमारे मवेशी पूर्ण रूप से निर्भर हैं। उनका विवाह 11 वर्ष में हो गया था और 22 साल की उम्र में उनके पति का निधन हो गया था। उन्होंने इसके बाद अपने बेटे की पर​वरिश करने के साथ अपना जीवन गांव और जंगल की रक्षा के लिये समर्पित कर दिया था। उन्हें 1986 में पहले वृक्ष मित्र पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। पेड़ों की रक्षा के लिये अपना जीवन समर्पित करने वाली गौरा देवी ने चार जुलाई 1991 को अंतिम सांस ली।

जागर को नयी पहचान दी बसंती बिष्ट ने 

     त्तराखंड में देवी देवताओं के स्तुति गान यानि जागर गायन का काम मुख्य रूप से पुरूष करते हैं लेकिन श्रीमती बसंती बिष्ट ने न सिर्फ इस विधा से जुड़ी बल्कि उन्होंने देश विदेश में जागर गायन को पहचान भी दिलायी। वह मां भगवती नंदा के जागरों के गायन के मशहूर हैं। अपनी मां से जागर गायन सीखने वाली बसंती देवी को भारत सरकार ने लोक संगीत के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिये वर्ष 2017 में पदमश्री से सम्मानित किया। वह उत्तराखंड आंदोलन से भी जुड़ी रही और इस बीच वह अपने गीतों के जरिये इस आंदोलन को मजबूती देती रही। बसंती बिष्ट ने नंदा देवी की जागरों की एक पुस्तक ‘नंदा के जागर- सुफल ह्वे जाया तुम्हारी जात्रा’ भी लिखी है। 

भारत की पहली एवरेस्ट विजेता महिला बछेंद्री पाल 

       उत्तराखंड में साहसिक खेलों में अहम योगदान देने वाली महिलाओं की बात आती तो सुश्री चंद्रप्रभा ऐतवाल और फिर बछेंद्री पाल का नाम स्वाभाविक ही जुबान पर आ जाता है। ये दोनों ही पर्वतारोहण से जुड़ी थी। पिथौरागढ़ के धारचूला गांव में 24 दिसंबर 1941 को जन्मीं चंद्रप्रभा ने पर्वतारोहण की विभिन्न अभियानों की अगुवाई की और उन्हें पदमश्री और अर्जुन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बछेंद्री पाल ने पर्वतारोहण को नये आयाम तक पहुंचाया। 24 मई 1954 को उत्तरकाशी के नकुरी में जन्मी बछेंद्री पाल ने 23 मई 1984 को एवरेस्ट फतह किया था और ऐसा करने वाली वह भारत की पहली महिला पर्वतारोही बनी थी। उन्हें 1984 में पदमश्री और इसके दो साल बाद अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 
  
         उत्तराखंड की कई अन्य महिलाओं ने भी विभन्नि क्षेत्रों में विशिष्ट उपलब्धियां हासिल की। इनकी सूची काफी लंबी है जैसे कि उत्तराखंड की पहली महिला कुलपति प्रो. सुशीला डोभाल (1977 में पहली बार और 1984—85 में दूसरी बार गढ़वाल विश्वविद्यालय की कुलपति बनी थी), उत्तराखंड की पहली महिला आईएएस अधिकारी ज्योति राव पांडेय, भारत की पहली महिला मेजर जनरल माया टम्टा, बैडमिंटन में विशेष छाप छोड़ने वाली मधुमिता बिष्ट, भारतीय महिला क्रिकेट टीम की स्पिनर एकता बिष्ट आदि प्रमुख हैं। यहां पर कई नामों का जिक्र नहीं हो पाया। उम्मीद है कि घसेरी के पाठक टिप्पणी वाले कालम में इस कमी को पूरा करेंगे। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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