सोमवार, 7 नवंबर 2016

जब मुझे दिल्ली से वापस पहाड़ भेजने आया था 'देवदूत'

                                                                                                                 
       ह नब्बे के दशक के शुरूआती वर्षों की एक मायूस शाम थी। नौकरी अब जरूरत बन गयी थी। दिन भर की तलाश के बाद वापस ठिकाने पर लौटने के लिये बस की एक सीट पर सिमटा था मैं। भीड़ तब भी थी और जाम भी। करोलबाग की लाल बत्ती पर हर दुपहिया और चौपहिया सवार अपना वाहन आगे निकालने  की जुगत में दिख रहा था। सबको घर पहुंचने की जल्दबाजी थी। मुझे नहीं। दुपहिया वाहन पर बैठा एक नवविवाहित जोड़ा चुहलबाजी कर रहा था। कौतुहल भी जागा और ईर्ष्या भी हुई।
      ''क्या अभी पढ़ रहे हो?''
      ''जी, नहीं। ''
      पास में बैठे बुजुर्ग ने तंद्रा तोड़ दी थी। सवाल का जवाब हां भी था और न भी। हर पहाड़ी युवा की तरह बीए करने के बाद मैं भी दिल्ली की गलियों में भटकने के लिये आ गया था। कुछ तो दसवीं और 12वीं करने के बाद ही दिल्ली का रूख कर गये थे।  मैं अब प्राइवेट छात्र के रूप में एमए कर रहा था।
''अच्छा तो अब नौकरी कर रहे हो?'' बुजुर्ग का अगला सवाल था।
       ''नहीं तलाश रहा हूं। '' जब पहली बार पहाड़ से बाहर निकला था तो भैजी ने सिखाया था कि किसी भी अनजान व्यक्ति को अपने बारे में नहीं बताना इसलिए स्वर हल्का सा तल्ख हो गया था।
      ''बेटा कहां के रहने वाले हो आप?'' इस बार उनके शब्दों में जिज्ञासा के साथ स्नेह भी था।
     ''पौड़ी ....गढ़वाल।'' मैं अब भी उनमें दिलचस्पी नहीं ले रहा था, इसलिए टालू रवैया अपनाया।
     ''पहाड़ तो इतने सुंदर हैं। फिर दिल्ली क्यों आ गये।'' अब इसका क्या जवाब देता वह तो मैं पहले ही दे चुका था। लेकिन सेवानिवृति की जिंदगी जी रहे वह बुजुर्ग मुझसे मुखातिब होकर बोले जा रहे थे।
      ''आपको वहीं कोई रोजगार तलाश करना चाहिए। दिल्ली में कुछ नहीं रखा है। बेटा मैं अपने अनुभव से बोल रहा हूं यहां तो दो वक्त की रोटी तो मिल जाएगी लेकिन चैन कभी नहीं मिलेगा। ''
       वह धाराप्रवाह बोले जा रहे थे और मेरी खीझ बढ़ती जा रही थी। अब इन्हें कैसे समझाऊं की घर की आर्थिक स्थिति कैसी है और मां पिताजी ने मुझे किस उम्मीद से दिल्ली भेजा है? कुछ बातें वह सही भी कह रहे थे। दिल्ली आने पर कुछ दिन तक आंखों में जलन रही लेकिन अब एक महीना हो चुका था और आंखें अभ्यस्त हो गयी थी।
    ''बेटा ऐसा नहीं हो सकता कि पहाड़ में रोजगार की कमी होगी। बस उसे तलाश करने की जरूरत है। मैं पहाड़ का नहीं हूं लेकिन आप वहां के रहने वाले हो और आपको यह अच्छी तरह से पता होगा कि वहां कैसे ​बेहतर तरीके से जिंदगी जी सकती है। आपको दिल्ली का मोह छोड़ देना चाहिए। ''
     मेरी खीझ अब बढ़ गयी थी और आखिर में साहस करके मैं सीधे शब्दों में उनसे पूछ ही बैठा, ''क्या आप मुझे कहीं नौकरी दिला सकते हो। ''
    मेरे सवाल से शायद उन्हें निराशा हुई। वह थोड़ी देर मौन रहे और मैंने सोचा चलो बला टली। पटेल नगर आने वाला था। उन्होंने अपने झोले से डायरी निकाली। मेरी उम्मीद जाग गयी। शायद ये मेरा कुछ काम कर देंगे। उन्होंने डायरी का निचला हिस्सा फाड़कर उस पर अपना फोन नंबर लिखा और मुझे थमाया।
     ''बेटा मेरी इतनी हैसियत नहीं है कि मैं आपको नौकरी दिला पाऊं लेकिन ये मेरा नंबर है। मेरे सुझाव पर गौर करना और अगर आपको लगे कि दिल्ली छोड़कर वापस पहाड़ लौट जाना चाहिए तो मुझे जरूर फोन करना। मैं मदद करूंगा। ''
    वह कागज की पर्ची मेरे हाथ में थमाकर सीट से उठ गये। मैंने कुछ देर तक उन्हें देखा और फिर मुंह फेर लिया। पर्ची अब भी हाथ में थी। उन बुजुर्ग के बस से उतरते ही पर्ची तार तारकर होकर खिड़की से बाहर लहरा रही थी।
    ''फोन करूंगा तो फिर बुढ़ा यही बड़बड़ाएगा कि पहाड़ लौट जा, पहाड़ लौट जा। कैसे चला जाऊं वापस पहाड़। क्या करूंगा वहां? कुछ भी तो नहीं रखा है वहां। सरकारी नौकरी के नाम पर अगर मिल गयी तो मास्टरी करो और क्या है? बुढ़े को कुछ पता नहीं चला आया भाषण देने।''
      वो दिन और आज की दोपहर। घर से दफ्तर आने को बस में बैठा हूं। ज्यादा कुछ नहीं बदला है लेकिन हवा दमघोंटू है। सांस लेना मुश्किल और आंखें चरमरा रही हैं। पता है वह बुजुर्ग और उनके लिखे फोन नंबर की पर्ची के पुर्जे अब कहीं नहीं मिलेंगे लेकिन आज उनकी सलाह पर गौर करना चाहता हूं।
  धर्मेन्द्र पंत 


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