मंगलवार, 16 अगस्त 2016

घी संक्रांति या घी—त्यार : घी नहीं खाया तो बनोगे घोंघा

घी संक्रांति का त्योहार हमें आलस त्यागने और कर्मठ बनने का संदेश देता है। 

      रक संहिता में कहा गया है कि ''घी- स्मरण शक्ति, बुद्धि, ऊर्जा, बलवीर्य, ओज बढ़ाता है। घी वसावर्धक है। यह वात, पित्त, बुखार और विषैले पदार्थों का नाशक है।'' इस शुरूआत का मतलब यह नहीं है कि आज मैं आपको दूध से बने दही और उसे मथकर तैयार किये गये मक्खन को धीमी आंच पर पिघलाकर तैयार होने वाले घी के गुणों के बारे में बताने जा रहा हूं। असल में मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि आज घी संक्रांति या घिया संक्रांद या घी—त्यार है। गढ़वाल में इसे आम भाषा में घिया संक्रांद और कुमांऊ में घी—त्यार कहते हैं। उत्तराखंड में लगभग हर जगह आज के दिन घी खाना जरूरी माना जाता है। इसके पीछे एक डर भी छिपा हुआ है और वह है अगले जन्म में गंडेल यानि घोंघा बनने का। पहाड़ों में यह बात प्रचलित है जो घी संक्रांति के दिन घी का सेवन नहीं करता वह अगले जन्म में गंडेल (घोंघा) बनता है। शायद यही वजह है कि नवजात बच्चों के सिर और पांव के तलुवों में भी घी लगाया जाता है। यहां तक उसकी जीभ में थोड़ा सा घी रखा जाता है। 
      उत्तराखंड में यूं तो प्रत्येक महीने की संक्रांति को कोई त्योहार मनाया जाता है। इनमें भाद्रपद यानि भादौ महीने की संक्रांति भी शामिल है। इस दिन सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करता है और इसलिए इसे सिंह संक्रांति भी कहते हैं। इस वर्ष आज यानि 16 अगस्त 2016 को सूर्य सिंह राशि में प्रवेश कर रहा है और सुधि ब्राह्मणजनों के अनुसार भाद्रपद संक्रांति का पुण्य काल दोपहर 12 बजकर 15 मिनट से आरंभ होगा। उत्तराखंड में भाद्रपद संक्रांति को ही घी संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। इस दिन यहां हर परिवार जरूर घी का सेवन करता है। जिसके घर में दुधारू पशु नहीं होते गांव वाले उनके यहां दूध और घी पहुंचाते हैं। जब तक गांव में था तब तक मां पिताजी ने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि कम से कम घिया संक्रांद के दिन हमें घी खाने को जरूर मिले। 
      घी संक्रांति के अलावा कुछ क्षेत्रों विशेषकर कुमांऊ में ओलगी या ओलगिया का त्योहार भी मनाया जाता है जिसमें शिल्पकार अपनी बनायी चीजों को गांव के लोगों को देते हैं और इसके बदले उन्हें धन, अनाज मिलता है। यह प्रथा चंद्रवंशीय राजाओं के समय से पड़ी। तब राजाओं को कारीगर अपनी चीजों को भेंट में देते थे और इसके बदले उन्हें पुरस्कार मिलता था। जो दस्तकार या शिल्पकार नहीं होते थे वे साग सब्जी, फल, मिष्ठान, दूध, दही, घी राजदरबार में ले जाते थे। 
       घी संक्रांति प्रकृति और पशुधन से जुड़ा त्योहार है। बरसात में प्रकृति अपने यौवनावस्था में होती है और ऐसे में पशु भी आनंदित हो जाते हैं। उन्हें इस दौरान खूब हरी घास और चारा मिलता है। कहने का मतलब है कि आपका पशुधन उत्तम है। आपके पास दुधारू गाय भैंस हैं तभी आप घी का सेवन कर सकते हैं। घोंघा बनने का मतलब यह है कि अगर आप मेहनती नहीं हैं, आलसी हैं तो फिर आपकी फसल अच्छी नहीं होगी और आपका पशुधन उत्तम नहीं होगा। आप आलसी हैं और इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का अच्छी तरह से उपयोग नहीं कर पाते। यहां पर घोंघा आलस्य का प्रतीक है। जिसकी गति बेहद धीमी होती है और इस कारण बरसात में अक्सर रास्ते में पांवों के नीचे कुचला जाता है। 
     घी संक्रांति के दिन कई तरह के पकवान बनाये जाते हैं जिनमें दाल की भरवां रोटियां, खीर और गुंडला या गाबा (पिंडालू या पिनालू के पत्तों से बना) प्रमुख हैं। यह भी कहा जाता है कि इस दिन दाल की भरवां रोटियों के साथ घी का सेवन किया जाता है। तो फिर देर किस बात की आप भी सेवन करिये घी का और मनाईये घी संक्रांति। मैं तो जा रहा हूं घी के साथ रोटी खाने। तब तक के लिये नमस्कार। आपका धर्मेन्द्र पंत  

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2 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तराखंड की संस्कृति और परम्परा वाकई में बहुत अनोखी है। आपने अच्छी जानकारी साँझा की है। अधिक जानकारी के लिए आप मेरे लेख को भी पढ़ सकते है।घी संक्रांति

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