सोमवार, 18 अप्रैल 2016

सम्मान के साथ दीजिए न्यौता (न्यूतु)

खुद निमंत्रण पत्र दीजिए और साथ में ले जाईये अरसा। 
        शादियों का मौसम चल रहा है। पहाड़ों में भी हर तरफ ढोल दमौ या बैंड बाजाओं की धुनें सुनाई दे रही हैं। मेरे पास भी शादी के कई न्यौते आ रखे हैं। हम इसे वैसे 'न्यूतु' कहते हैं। इसी से न्यूतेर बना है। न्यूतेर मतलब वे लोग जिन्हें आमंत्रित किया गया है। न्यूतु देने की हमारी एक खास परंपरा होती थी लेकिन आजकल बहुत कम लोग उसको अपना रहे हैं। इससे कभी कभी मन कसैला भी हो जाता है। लोगों ने एक बहुत सरल तरीका अपना लिया है। कार्ड छपवा दिये और फिर किसी करीबी रिश्तेदार के पास उन्हें पहुंचा दिया कि फलां फलां को कार्ड पहुंचा देना। उनके पास एक फोन करने की भी फुरसत नहीं हैं। अब जिसके पास कार्ड हैं उसे जरूर फोन करना पड़ता है। कुछ इस तरह '' आपका कार्ड मेरे पास आया है। मेरे पास समय नहीं है। लेकिन याद रख लेना फलां तारीख को शादी है और आपके लिये कार्ड आया है। '' न्यौता देने का अजीब तरीका है यह। प्रौद्योगिकी के विकास के साथ अब व्हाट्सएप पर न्यौते दिये जा रहे हैं। बस हो गयी जिम्मेदारी खत्म। जरा सोचिये कि आप जिस व्यक्ति को न्यौता देने उसके घर तक नहीं जा सकते हो उससे कैसे उम्मीद करते हो कि वह आपके घर शादी में आएगा। यदि वह आपके घर तक पहुंचता है तो यह उसका एहसान मानिये। शादी कोई खेल नहीं है, ऐसा तो सभी लोग कहते हैं तो फिर इसके हर पक्ष को गंभीरता से लीजिए और न्यूतु इसमें सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। 
         यदि आप किसी तीसरे व्यक्ति के हाथ निमंत्रण पत्र भेजते हैं तो फिर हो सकता है कि वह व्यक्ति शादी में नहीं आये। मैंने कुछ वर्ष पहले तय किया था कि ऐसे लोगों के यहां शादियों में नहीं जाऊंगा जिन्हें न्यौता देने का सलीका भी नहीं है लेकिन मजबूरी या गांव गुठ्यार के लोगों से मिलने की लालसा में कई बार चला जाता हूं। वाट्सएप के निमंत्रण पर भी ऐसी संभावना बनी रहती है कि क्या पता वह 'न्यूतेर' नहीं आये। यह आपकी हैसियत पर भी निर्भर करता है कि न्यूतेर आपके बेमन से दिये गये न्यौते को स्वीकार करता है या नहीं। बेमन इसलिए क्योंकि भारतीय परंपरा में न्यौता देने के तरीके ऐसे नहीं होते हैं जिनका मैंने ऊपर जिक्र किया है। आदर्श स्थिति तो यह है कि आप स्वयं न्यौता देने जाएं। आपके बेटे या बेटी की शादी एक ही दिन होनी है। इस अवसर को यादगार बनाने के लिये अपने सगे संबंधियों, रिश्तेदारों को प्यार और मनुहार करके बुलाये। कार्ड आपने कितना भी धांसू छपवा दिया हो, उसमें भले ही कितनी सजावट क्यों नहीं कर दी हो, उससे वीडियो ही क्यों न चिपका दिया हो, यदि वह पूरे हर्ष और उल्लास के साथ उसे पाने वाले के पास नहीं पहुंचा तो फिर आपके इस दिखावे का कोई मतलब नहीं बनता है। तुलसीदास तो बहुत पहले कह गये थे, ''आवत ही हरसै नहीं, नयनन नहीं सनेह, तुलसी तहाँ न जाइये, चाहे कंचन बरसे मेह।'' मैं इस मामले में तुलसीदास का पूरी श्रद्धा से अनुकरण करता हूं। आप घर जाकर प्यार और मनुहार करके बुलाएंगे तो वे आपके बच्चों को आशीर्वाद देने के लिये जरूर आएंगे। वे आपके काम में हाथ भी बंटाएंगे और यह सब कुछ आपके न्यौता देने के तरीके पर निर्भर करेगा। 

'डाली' बनाईये, अरसा का 'न्यूतु' दीजिए 

       मैं तो पहाड़ी बंधुओं से अपील करूंगा कि वे न्यौता देने में अपनी परंपरा को अपनाये। हमारे लिये वह न्यूतु बन जाता है। आप दिल्ली में रहते हैं या मुंबई में या किसी अन्य शहर या गांव में अरसा या अर्सा बनाकर न्यूतु भेजिए। हम एक कार्ड और कुछ लड्डुओं के कारण अपने रीति रिवाज और परंपराओं को ही भूल गये हैं। पहाड़ों में न्यूतु अरसा, भूड़ा, पूड़ी और स्वालों का दिया जाता था। इसे गढ़वाली में 'डाली या डली' कहा जाता है। शादी से कुछ दिन पहले डाली बनती है और फिर से इसे सभी रिश्तेदारों के पास पहुंचा दिया जाता है। हमारे यहां वर्षों से शादियों में अरसा, पूड़ी से ही न्यौता दिया जाता रहा है। डाली वाले दिन गांव वाले न्यौता देने के लिये इधर उधर गांवों में जाने में सहयोग करते थे। इसे 'डाली द्यूणु यानि देना' कहते हैं। गांवों में कई को डाली नहीं दी जाती थी या उन्हें न्यौता नहीं ​जाता था। यदि आपकी डाली में अरसा भी शामिल हैं तो इसका मतलब है कि आपको शादी के लिये न्यौता दिया गया है। कुछ लोगों को सिर्फ पूड़ी और भूड़ा दे दिया जाता था मतलब आपको नहीं न्यौता गया है। न कोई सवाल न कोई जवाब। इतना महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है न्यौता देने में अरसा। कुछ लोगों को अलग से न्यौता दिया जाता था। इनमें पंडित जी, मंगलेर, औजी, सुहागन नारी, पांच कन्या आदि शामिल होती थी। इनमें से पंडित जी को आज भी याद किया जाता है लेकिन उन्हें भी न्यौता देने का तरीका बदल गया है। ​बहाना बनाना आसान होता है उनका समाधान भी है। आप अपने बेटे या बेटी की शादी में 15 से 20 दिन पहले 'डाली' तैयार करवा दीजिए और फिर जाईये अपने रिश्तेदारों के घर अरसा की डाली लेकर। अधिकतर आपके इस प्रयास की सराहना करेंगे। आप कार्ड भी छपवाईये लेकिन उसे स्वयं लेकर जाईये। यदि प्रत्येक को आप चार अरसा भी देते हैं तो इसे कहेंगे सोने पे सुहागा। दिल्ली में लोग कार्ड देने में भी आलस्य बरतते हैं तो अरसा उन पर भारी पड़ जाएगा लेकिन प्रयास तो करने होंगे। यह हमारी सभ्यता है, हमारी संस्कृति है, हमारी परंपरा है। 
     आजकल कुछ लोग एक सवाल उठाते हैं अरसा कैसे बनता है। मैं पहले भी घसेरी में अरसा के बारे में जानकारी दे चुका हूं। अरसा बनाने की विधि के लिये आप ''दोण और कंडी से होती है (थी) बेटी की विदाई'' पर क्लिक करिये। इससे आपको पता चल जाएगा कि अरसा कैसे बनाया जाता है। बस मेरी इतनी प्रार्थना है कि यदि आप शादी . ब्याह में किसी को आमंत्रित करते हैं तो उसे सम्मा​न से न्यौता दीजिए। हमारी संस्कृति कहती है, 'अतिथि देवो भव:। इसलिए अतिथि को आदर सत्कार के साथ आमंत्रित करिये। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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रविवार, 3 अप्रैल 2016

मनमोहक ही नहीं औषधि भी है बुरांश

बसंत में पहाड़ों में बुरांश की निराली छटा बरबस ही आकर्षित कर देती है। 
     आज सुबह दीदी ने व्हाट्सएप पर फूलों से लद बुरांश के पेड़ की तस्वीर भेजी तो गांवों में बिताये दिनों की याद ताजा हो गयी। जब चौबट्टाखाल से स्नातक कर रहा था तो वहां से लगभग दस किमी दूर स्थित अपने गांव पैदल ही आता था। महाविद्यालय से निकलते ही भूख लगने लगती थी लेकिन बसंत ऋतु में चिंता नहीं होती थी। जंगल से गुजर रही सड़क के रास्ते आगे आने पर बायीं तरफ बुरांश का बड़ा सा पेड़ था। उसमें से एक अच्छा सा बुरांश का फूल तोड़ा और फिर उसकी एक एक पंखुड़ी को चबाते हुए नौगांवखाल तक का रास्ता कट जाता था। इससे आगे के लिये भी पर्याप्त ऊर्जा मिल जाती थी। तब मैं इतना ही जानता था कि बुरांश स्वास्थ्य के अच्छा होता है लेकिन यह पता नहीं था कि वास्तव में यह तो गुणों की खान है। फूल की सुंदरता पेड़ पर होती है लेकिन अपने औषधीय गुणों के कारण शायद बुरांश की किस्मत में खिलने के बाद चटनी, शरबत, जूस आदि के रूप में परिवर्तित होकर लोगों के जीवन में उमंग और उल्लास भरना है। 
       अगर आपको बुरांश की सुंदर छटा देखनी है तो आजकल पहाड़ों में चले जाईये। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, नेपाल से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक आपको लाल चटख रंग का यह फूल स्वागत में पलक पांवड़े बिछाये हुए दिखेगा। उत्तराखंड की विभिन्न भाषाओं और बोलियों के कवियों गी​तकारों ही नहीं बल्कि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' से लेकर श्रीकांत वर्मा तक कई कवि इससे प्रभावित थे। सुमित्रानंदन पंत ने कुमांउनी में बुरांश के बारे में लिखा है। उनके शब्दों में ''जंगल में जो स्थान बुरांश का है वह किसी अन्य चीज का नहीं। '' गढ़वाली के सुप्रसिद्ध गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने बसंत को लेकर कई गीत रचे हैं और स्वाभाविक है कि बुरांश के बिना पहाड़ों में बसंत का गुणगान करना मुश्किल है। एक जगह पर वह लिखते हैं, 'डांडयूं खिलणा होला बुरांशी का फूल, पाख्युं हैंसणी होली फ्योंली मुलमुल'। इस तरह से अन्य गी​तकारों ने भी बुरांश को अपने गीतों में बहुत अधिक तवज्जो दी है। कवि महेशानंद गौड़ 'चंद्रा' का यह गीत काफी प्रसिद्ध है, ''चल रूपा बुरांश क, फूल ​बणि जौला, छमछम हीट छींछाड़ियूं को पाणी पेई औला।'' कुमांउनी में कई गीतों में बुरांश का वर्णन है। जैसे कि ''पारा भीडा बुरूंशी फूली छौ मैं ज कूंछू मेरी हीरू अरै छौ।'' या ''बुरांश दादू तू बड़ा उतालू रे औरू फूल तू फूलण नी देन्दो।''
        बुरांश बसंत ऋतु में जंगलों में खिलने वाला फूल है। यह 1500 से 3500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित स्थानों पर पाया जाता है। इसका पेड़ सामान्यत: 10 से 15 मीटर तक लंबा होता है। नगालैंड के कोहिमा के माउंट जाफू में 1993 में बुरांश का 108 फुट लंबा पेड़ पाया गया था जो गिनीज बुक आफ रिकार्ड में दर्ज है। बुरांश के अलावा इसे बुरूंश, लाली गुरांस (विशेषकर नेपाल में), बुरास, बराह, इरास आदि नामों से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम 'रोडोडेंड्रन आरबोरियम' है जो लाल, गुलाबी और सफेद रंग का होता है। इनमें लाल रंग का बुरांश औषधीय गुणों से भरपूर होता है। यह उत्तराखंड का राज्य वृक्ष, हिमाचल प्रदेश और नगालैंड का राज्य पुष्प और नेपाल का राष्ट्रीय पुष्प है। 

बुरांश के औषधीय गुण  


     रिष्ठ पत्रकार अरूण जैन ने एक किस्सा सुनाया। उन्हें पहाड़ों में घूमने का शौक है। उनके शब्दों में, ''एक बार पहाड़ों में काफी चलने के बाद मैं बहुत थकान महसूस कर रहा था। तब किसी ने मुझे बुरांश का शरबत पिलाया था। मैंने पहली बार यह शरबत पिया था। पीने में तो सामान्य सा लगा लेकिन इसके बाद मेरी थकान रफूचक्कर हो गयी। मेरी स्फूर्ति लौट आयी थी। मुझे लगा कि मैंने शरबत नहीं अमृत पिया। '' वास्तव में किसी अमृत से कम नहीं है बुरांश और उससे बना शरबत। उत्तराखंड में तो इसके शरबत से मेहमानों का स्वागत किया जाता है। यह शरीर में ताजगी लाता है और थकान दूर करने में सहायक होता है। इसकी चटनी भी बनायी जाती है। इसकी पत्तियों की खाद बनायी जाती है। इनको जलाने से कीड़े मकौड़े नहीं आते हैं। 
     बुरांश पोटेशियम, कैल्शियम, आयरन, विटामिन सी से भरपूर होता है। अध्ययनों के अनुसार में क्यूरेसिटिन, रियुटिन और कोमारिक अम्ल जैसे सक्रिय जैविक यौगिक भी बुरांश के फूल में पाये जाते हैं। ये तीनों सेब में भी पाये जाते हैं और इनकी मौजूदगी के कारण ही कहा जाता है कि 'रोज एक सेब खाने का मतलब बीमारियों से दूर रहना।' विभिन्न अध्ययनों में पाया गया है कि फ्लैवोनोइड क्वेरसेटिन, फेनोलिक्स, सैपोनिन्स, टैनिन आदि औषधीय तत्वों से भरपूर फाइटोकेमिकल्स पाये जाते हैं। 
     आपने गांवों में देखा होगा कि कुछ बीमारियों में बुरांश की पत्तियों और उसके फूल का उपयोग किया जाता है। मसलन सिरदर्द या हाथ पांव में जलन होने पर इसकी पत्तियों का लेप लगाना, घावों पर पंखुड़ियों को पीस कर लगाना, पेट की जलन दूर करने के लिये बुरांश का शरबत पीना या इसकी पंखुड़ियों का चबा चबा कर खाना। गांवों में एलर्जी, अस्थमा और मौसम बदलने पर होने वाली बीमारियों से बचने के लिये लोग इसकी पंखुड़ियों का सेवन करते थे। नेपाल में लोग वर्षों से मधुमेह के रोग के लिये इसका उपयोग करते रहे हैं और जो नवीनतम शोध बुरांश पर किये गये हैं उनके अनुसार हृदय रोगियों और मधुमेह के रोगियों के लिये बेहद उपयोगी है। टाइप एक और टाइप दो के डायबिटीज के रोगी भी इसका उपयोग कर सकते हैं। उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करने में भी यह अपनी भूमिका निभाता है। कोलेस्ट्राल को नियंत्रित करने में इसकी भूमिका होती है। दिल के लिये इसका शरबत या जूस काफी उपयोगी होता है। इसका नियमित सेवन करने से दिल का दौरा पड़ने की संभावना कम हो जाती है। यह यकृत यानि लीवर के रोगों को भी दूर करने की क्षमता रखता है। बुरांश में लौहतत्व होते हैं और इसलिए हीमोग्लोबिन की कमी दूर करने में भी यह सहायक होता है। 
    बुरांश गुर्दा यानि किडनी और पेशाब की जलन को दूर करने में सहायक होता है। यहां तक कि यदि मुंह में छाले हैं तो इसकी पंखुड़ियों को चबाने से राहत मिलती है। इसकी पंखुड़ियों और पत्तियों से पाउडर बनाया जाता है जिनका सेवन करने से डायरिया में राहत मिलती है। पेचिस में इसका सेवन उपयोगी होता है क्योंकि इसमें फ्लैवोनोइड्स, टैनिस, स्टेरोल आदि फाइटोकैमिकल्स पाये जाते हैं। बुरांश के कुछ गुण कैंसर जैसी बीमारी नहीं होने देते हैं। इसमें एंटीऑक्सीडेंट पाये जाते हैं जिससे यह शरीर के खराब तत्वों का नष्ट करता है। कहने का मतलब है कि यह रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। एंटीऑक्सीडेंट होने के कारण इसका जूस पीने से त्वचा में भी निखार आता है। बुरांश के फूल से चेहरे पर लगाने के लिये लेप (फेसपैक) भी तैयार किया जाता है। यह लेप फूलों के पाउडर और शहद को मिलाकर तैयार किया जाता है।
    कहने का मतलब है कि बुरांश का जूस बेफिक्र होकर ​पियें लेकिन बहुत अधिक मात्रा में नहीं क्योकि अति तो किसी भी चीज की अच्छी नहीं होती है। बुरांश का पेड़ दिखे तो एक फूल लेकर उसकी पंखुड़ियों को चबाकर खाने से आपको लाभ ही मिलेगा। इसका महत्व समझें और फूलों को बर्बाद नहीं करें। यदि इसका उपयोग नहीं करना है तो उसे पेड़ पर ही रहने दें। उम्मीद है विभिन्न स्रोतों से  बुरांश के बारे में ली गयी यह जानकारी आपको उपयोगी लगी होगी। बुरांश को लेकर अपने अनुभव जरूर साझा करें। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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