शनिवार, 8 अप्रैल 2017

चुटकी में हुआ था एडमिशन और स्कूल में खाते थे बेंत

गांव का मेरा स्कूल। हमारे समय में इसके आसपास की जमीन बंजर थी लेकिन अब वनीकरण से जंगल उग आया है। कभी यह मिट्टी पत्थरों का बना था जिसमें बरसात में अक्सर पानी टपकता रहता था। अब उसकी जगह पक्की इमारत बना दी गयी है। 

     पिछले दिनों दिल्ली में एडमिशन को लेकर जबर्दस्त मारामारी रही। मैं किसी बड़ी कक्षा नहीं, नर्सरी, केजी कक्षाओं की बात कर रहा हूं। प्रत्येक माता पिता ने अपने बच्चे के लिये कई स्कूलों के फार्म भरे। जो भाग्यशाली थे उनका नंबर आ गया। अनायास ही खयाल आया कि स्कूल में मेरा एडमिशन कैसे हुआ होगा?  वह 1975 का साल था, क्योंकि तब मैं पांच साल का हो गया था। पिताजी सजग थे इसलिए वह स्वयं ही गांव के स्कूल यानि आधारिक विद्यालय स्योली में मेरा एडमिशन करवाने के लिये लेकर गये थे। गांव में प्रधान थे, मितभाषी थे और अपने जमाने के हाईस्कूल पास थे। सभी उनकी काफी इज्जत करते थे। मास्टर जी भी। इसलिए गुरूजी ने उनके लिये कुर्सी लगवायी और तब उन्होंने मेरा पूरा नाम लिखवाया, धर्मेन्द्र मोहन पंत। जन्मतिथि भी ज्यों की त्यों 31 मार्च 1970 क्योंकि उन्हें जन्मतिथि में घटत बढ़त पसंद नहीं थी। इसलिए हम सभी भाई बहनों (चचेरे भाई बहनों सहित) की जन्मतिथि वास्तविक है। मुझे 'कच्चा एक' में रखा गया था पढ़ने लिखने में ठीक ठाक था इसलिए कुछ महीनों बाद 'पक्का एक' में रख दिया गया था। नर्सरी, केजी जैसा भी कुछ होता है यह तो मुझे दिल्ली आने के बाद पता चला था। 
     यह तो रही मेरे एडमिशन की कहानी। मेरी पत्नी के एडमिशन की कहानी इसके ठीक उलट है। गांव के स्कूल में अध्यापिका उन्हीं के गांव की थी, इसलिए सब कुछ उन पर छोड़ दिया गया। घर का नाम शिक्षिका महोदया को याद था लेकिन शायद वह उन्हें अधूरा सा लगा। यही वजह थी कि उन्होंने अंजू के साथ लता जोड़कर नाम कर दिया अंजू लता। अब बात आयी जन्मतिथि की जिसे उन्होंने घर में पूछ लिया था, लेकिन रजिस्टर में लिखते समय उन्हें केवल तारीख याद रही। महीना और वर्ष दोनों भूल गयी। महिलाएं अपनी उम्र कम करके बताती हैं। इसमें कुछ कुछ सच्चाई भी है लेकिन अंजूलता जी एडमिशन के समय लगभग दो साल बड़ी हो गयी थी। गांव की मास्टरनी जी ने 14 दिसंबर 1973 को 14 फरवरी 1972 कर दिया था। जब तक 'महिलाओं की उम्र संबंधी कमजोरी' का असर अंजूलता जी पर दिखता तब तक वह दसवीं पास कर चुकी थी। ​शादी के बाद अपने नाम के साथ उग आयी लता को तो उन्होंने उखाड़ फेंक दिया लेकिन महारानी का जन्मदिन अब भी साल में दो बार आ जाता है। शुक्र है कि उन्हें 14 दिसंबर ही याद रहता है नहीं तो पत्नी के दो . दो जन्मदिन पर अपुन का तो दीवाला निकलना पक्का था। 
        ये दोनों ही सच्ची कहानियां हैं और इनका जिक्र मैंने यहां पर इसलिए किया क्योंकि हमारी तरह गांवों में रहने वाले कई बच्चों का एडमिशन इस तरह से हुआ होगा। कुछ का नाम बदला होगा तो कुछ की जन्मतिथि। तब नाम और जन्मतिथि दोनों के लिये प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं पड़ती थी। कुछ लोग दसवीं का फार्म भरते समय नाम और जन्मतिथि में सुधार कर देते हैं क्योंकि उसे प्रमाणिक माना गया है। हर किसी के स्कूल में प्रवेश लेने की अपनी अलग कहानी होगी। आप चाहो तो इसे यहां साझा यानि ​शेयर कर सकते हो। इसके लिये नीचे एक टिप्पणी वाला कालम बनाया गया है। बहरहाल आज एडमिशन के बहाने मेरी इच्छा अपने स्कूली दिनों को याद करने की है। स्कूलों के संबंध में 70 और 80 के दशक के हम पहाड़ी विद्यार्थियों की यादें लगभग एक जैसी हैं और इसलिए उम्मीद कर रहा हूं कि आपको इसमें कुछ अपनापन लगेगा। 
       मेरा स्कूल था तो मेरे गांव का ही लेकिन वह गांव से लगभग तीन किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर स्थित था। उबड़ खाबड़ रास्ता जिसके बीच में एक गदना (पहाड़ों में बहने वाली छोटी नदी) भी पड़ता था। बरसात के दिनों में उसे पार करना हमारे लिये हमेशा चुनौती होती थी। गदना पार करते ही खड़ी पहाड़ी लगती थी जिसे हम उछलते कूदते पार कर लेते थे। हमें शुरू से ही गुरूजनों को सम्मान देना सिखाया गया था और इसलिए उनका नाम तक जुबान पर नहीं लाते थे। उस कुर्सी पर मैं कभी नहीं बैठा जिस पर गुरूजी बैठते थे। हमारे लिये तो चटाईयां हुआ करती थी जो मिट्टी से बने कमरों में धूल से सनी रहती थी। स्कूल से छुट्टी के समय इन चटाईयों को बाहर मैदान में ले जाकर दो बच्चे दोनों तरफ से पकड़कर जोर जोर से झाड़ते थे तो धूल का बड़ा सा गुबार निकलता था जिससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि हमारे जांघिये या पैंट के पीछे वाले हिस्से की क्या स्थिति रहती होगी। आज बच्चे हर दिन नयी ड्रेस पहनकर स्कूल जाते हैं लेकिन हम एक पोशाक को हफ्ते दस दिन तक तो खींच ही लेते थे। मुझे याद है कि स्कूल की पोशाक हुआ करती थी खाकी पैंट या जांघिया और नीली कमीज। मां उसे इतवार के दिन धोती थी। 
        पिछले दो दशकों में पहाड़ी गांव पलायन से जूझ रहे हैं। गांव खाली हो गये और स्कूल भी। लेकिन जब हम पढ़ा करते थे तो गांव भी भरा था और स्कूल भी। हमारा गांव बड़ा है और फिर खरल और दणखंड के बच्चे भी हमारी स्कूल में ही पढ़ने के लिये आते थे। प्रार्थना के समय प्रत्येक कक्षा की अलग पंक्ति होती थी और एक पंक्ति में 12 से 15 बच्चे तो होते ही थे। आज सुना है कि गांवों के स्कूलों में कुल जमा दस बच्चे नहीं होते हैं। स्कूल का एक मानीटर होता था। पांचवीं के बच्चे को स्कूल का मानीटर बना दिया जाता था। गुरूजी के आने तक स्कूल में अनुशासन बनाये रखने का जिम्मा उसी का होता था। पांचवीं में यह जिम्मेदारी मैंने भी निभायी थी। हमारी स्कूल में दो शिक्षक थे और अपनी सुविधा के लिये हमने ही उनकी उम्र के हिसाब से उन्हें नाम दे दिया था, 'बड़ा गुरूजी' और 'छोटा गुरूजी'। बड़े गुरूजी कड़क थे, अनुशासन प्रिय थे और पढ़ाई में ढिलायी उन्हें कतई पसंद नहीं थी। इसलिए हर बच्चा दुआ करता था कि वह छुट्टी पर रहें। छोटे गुरूजी थोड़ा खेलकूद में भी विश्वास रखते थे इसलिए बच्चों को उनके साथ ज्यादा मजा आता था। 
     स्कूल दूर था इसलिए गुरूजी के चाय पानी की व्यवस्था भी बच्चों को ही करनी पड़ती थी। सभी के लिये निर्देश था कि वह अपने साथ एक लकड़ी लेकर जरूर आये। प्रार्थना के समय मानीटर जांच करता कि कौन लकड़ी लेकर आया है और कौन नहीं। जो नहीं लेकर आता उसे वह गुरूजी से सजा दिलवाता। पानी भी दूर से लाना पड़ता था। दो बच्चे एक लट्ठे के बीच में बाल्टी लटकाकर पानी भर लाते थे। इसके लिये बारी लगी हुई थी। दूध के लिये भी बारी लगती थी और हर शाम को बारी के अनुसार किसी एक बच्चे को दूध की बोतल सौंप दी जाती थी। दूध चाय बनाने के लिये। चाय पत्ती और चीनी की व्यवस्था गुरूजन खुद ही करते थे। चाय बनाने का जिम्मा लड़कियों का होता था। तब 12 — 13 साल की लड़की भी पांचवीं में पढ़ती थी और वे चूल्हे चौके में निपुण होती थी। मेरे साथ दो लड़कियां पढ़ती थी। पांचवीं के बाद उन्होंने स्कूल छोड़ दी और फिर कुछ साल बाद उनकी शादी भी हो गयी। अब वे नानी . दादी बन गयी होंगी। 
      बड़े गुरूजी स्कूल के पास में स्थित दूसरी पहाड़ी के रास्ते से आते थे। सब की नजर उस पहाड़ी पर होती थी और जैसे ही उनका सिर दिखता सारे बच्चे चौंकन्ने हो जाते थे। डर कहो या सम्मान लेकिन सभी बच्चों का व्यवहार एकदम से ऐसे बदलता था कि मानो गुरूजी के पास कोई दिव्य दृष्टि है जिससे वह यहां हमारी हरकतें देख लेंगे। बड़े गुरूजी दूसरे गांव से आते थे और अक्सर छोटे गुरूजी से पहले स्कूल में पहुंच जाते थे। इस बीच खुद को पढाई में तल्लीन दिखाने के लिये सामूहिक कविता पाठ भी शुरू हो जाता। सामूहिक कविता पाठ मतलब एक स्वर में सभी का किसी एक ​कविता को पढ़ना। मिट्टी और पत्थरों से बने मेरे स्कूल में एक बरामदा और दो कमरे थे जिनमें से एक कमरा बरसात में अक्सर टपकता रहता था। पांचवीं के बच्चे बरामदे में बैठते थे। एक कमरे में पहली और दूसरी तो दूसरे में तीसरी और चौथी के बच्चे बैठते थे। अब ऐसे में एक पंक्ति से आवाज उठ रही है, ''काली काली कूं कूं करती ..... '' तो दूसरी पंक्ति से स्वर गूंजता, ''यदि होता मैं किन्नर नरेश में .....''। हर कविता की अपनी लय होती थी और ऐसे में इस ​मधुर, मनमोहक माहौल का अंदाजा आप खुद ही लगा लीजिए। पांचवी कक्षा में परशुराम . लक्ष्मण संवाद था जिसे रामलीला के दिनों में बच्चे बड़े चाव से पढ़ते थे। गणित में पहले पहाड़े याद किये और बाद में चक्रवृद्धि ब्याज से लेकर​ भिन्न तक में अपनी बुद्धि खपायी। गणित पर गुरूजी का खास जोर होता था। पांचवीं तक अंग्रेजी नहीं होती थी। इस भाषा से मेरा पाला पहली बार छठी कक्षा में पड़ा था।


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      गुरूजी के स्कूल परिसर में प्रवेश करते ही सभी बच्चे हाथ जोड़कर खड़े हो जाते और गुरूजी के पास पहुंचते ही सभी के मुंह से निकलता 'गुरूजी प्रणाम।' गुरूजी जब तक बैठने के लिये नहीं कहते तब तक उसी मुद्रा में रहते। इसके बाद हाजिरी लगती थी। अपना नाम सुनते ही बच्चा जोर से एक रटा रटाया शब्द बोलता था, 'उपस्थित महोदय।' अगर आपको बीच में पेशाब लग गयी हो तो 'श्रीमान जी क्या मैं लघुशंका जा सकता हूं' बोलते थे। कई अवसरों पर चार पांच बार बोलने पर ही गुरूजी के कान तक आग्रह पहुंच पाता था और अनुमति मिलते ही हम स्कूल परिसर के बाहर निवृत होकर आ जाते थे। हाफटाइम के समय हम घर से लायी रोटी का सेवन करते। वह भी अपने कमरों में नहीं बल्कि स्कूल परिसर में स्थित खेतों में बैठकर। रोटी के साथ सब्जी या फिर किसी खास चीज का लूण होता था जैसे लया का लूण (सरसों को गरम करके उसे नमक के साथ पीसकर तैयार किया जाता है) आदि। 
         जवाब गलत देने या कोई शरारत करने पर मार पड़ती। गुरूजी के आगे हाथ करने पर सटाक से बेंत पड़ती  थी। हाथ लाल हो जाता लेकिन मजाल क्या कि कोई घर में बता दे। असल में पहाड़ों की अ​र्थव्यवस्था मनीआर्डर पर आधारित रही है। कम से कम से नब्बे के दशक तक तो स्थिति ऐसी ही थी। अधिकतर के पिताजी सेना, दिल्ली, देहरादून या इसी तरह के किसी शहर में काम करते थे और मां को चूल्हा चौका, गाय बछड़ों और खेती से इतनी फुरसत ही कहां मिलती कि वह अपने लाल के लाल हाथों को देख सके। इसके अलावा कोई अगर घर में कहता तो उल्टे मार पड़ती कि जरूर तूने कोई गलत काम किया होगा तभी मार पड़ी। मैं अपना काम समय पर करता था। पढ़ाई में अच्छा था और शरारतें नहीं करता था ​इसलिए मुझे मार कम पड़ी लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिनका 'बेंत खाना' दिनचर्या में शामिल था। लड़कियों को मार नहीं पड़ती थी। 
           गर्मियों में सुबह आठ बजे से स्कूल लगता था तो सर्दियों में दस बजे से। जनवरी के पूरे महीने छुट्टी रहती थी और इसलिए हम बेसब्री से इस महीने का इंतजार करते थे। तब हमारा काम खेलने के अलावा कुछ नहीं होता था। बाकी महीनों में हमेशा स्कूल में उपस्थित रहते थे। स्कूल की छुट्टी कब होनी है इसके लिये कोई समय तय नहीं था। गुरूजी का मन किया तो वह समय से पहले स्कूल छोड़ दें या फिर 15 . 20 मिनट और बिठाकर रख दें। छुट्टी का समय करीब आने पर सभी की निगाह गुरूजी पर टिक जाती कि कब वह बच्चों को अपनी चटाई झाड़कर लाने और फिर मानीटर को घंटी बजाने का आदेश दें। फिर तो हम उतराई . चढ़ाई वाले रास्ते पर दौड़ लगाते। घर में जाते ही बस्ता या पाटि (लिखने के लिये लकड़ी की तख्ती) एक तरफ पटककर भरपेट भोजन करते और फिर गांव के बच्चों के साथ खेल में मशगूल हो जाते। 
      आधारिक विद्यालय स्योली से पांचवीं पास करने के बाद मैं छह से 12 तक राजकीय इंटर कालेज नौगांवखाल का छात्र रहा। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक करने के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय से ही राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर किया। इस बीच भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की डिग्री भी ली जिसके दम पर आज मेरी आजीविका चल रही है। लेकिन सच कहूं तो सबसे अधिक गुदगुदाने वाली यादें प्राइमरी स्कूल से ही जुड़ी हैं। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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11 टिप्‍पणियां:

  1. वाह सरजी, बहुत ही अच्छा। पुरानी यादें हैं ये सब। क्योंकि हमनें भी देखा हे ये सब। पढ़ते पढ़ते आँखे नम हो गई, सच में।
    बहुत कुछ याद आ गया आज।
    मुझे भी कुछ याद आया वो ये कि मै अपनी कक्षा म़े सबसे लम्बी थी और उम्र में सबसे छोटी , और इस कारण प्रार्थना के समय गुरूजी सबसे पीछे खड़ा करते थे। बुरा लगता था उस समय, कभी रो भी जाती थी। आज याद आती है वो बात, तो हंसी आती है।

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  2. मै भी अध्यापिका हूँ और अापकी पत्नी की तरह न जाने कितनों का नामकरण किया है मैंने, बस एक बात का ध्यान रखती थी 30 या 31 फरवरी न लिख दूं।

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  3. Very true ..हमारी भी यही कहानी है। हमारी तो गुरू जी के बर्तन धोने की बारी भी लगी रहती थी। वो गुरू जी का थोड़ा सा छोडा हुआ दाल भात कितना स्वादिष्ट होता था। बहुत याद आती है। मैं भी 14 अप्रैल 1970 की ही हूं।

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  4. PANT JI, KAFI HAD TAK HAMARI BHI YEHI KAHANI HAI, US WAQT YAISA HI HOTA THA..... BAHUT ACHCHA LAGA...BACHPAN KI YAAD TAJA KAR DI AAPNE....

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  5. कितना सुन्दर चित्रण किया आपने बचपन की य़ादो का, कुछ अपनी भी पढाई ऐसे ही हुई गांव में, पहाडी बचपन की य़ादे ताजा कर दी आपने और आखे भर आयी .

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  6. वाह। महोदय जी सच में आपकी कहानी में सच्चाई है और मैं भी उनमें से एक हूं जो 90 के दशक में इन सब से दो चार हुआ था। मन को अंदर तक झकझोर दिया आपने और अब तो ये सब कहाँ है पहाड़ों पर। बस सन्नाटा छाया हुआ है।

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  7. पन्त जी मैने भी प्राथमिक विद्यालय स्योली मे अध्यापन किया है आज आपने इस विद्यालय की याद दिला दी ।मैने 1996 से 1998 तक इस विद्यालय मे सेवा की है और यह मेरे सेवाकाल का प्रथम विद्यालय था जो कि हमेशा याद आता है । इस विद्यालय की सबसे अच्छी बात यह थी कि यह सुनसान जगह पर बना था । सामने खरल , ऊपर हले और नीचे दूर स्योली दिखता था । विद्यालय से पूर्व मे घास का जंगल था । लेकिन अब शायद विद्यालय की बिल्डिंग दूसरी जगह शिफ्ट हो गयी है । आपका बहुत बहुट धन्यवाद।

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  8. सादर प्रणाम पंत जी...����.
    वाह जी...वाह...।
    सच्चाई और रोमांच से भरी हुई बचपन की यादें...और आपने अपने अनुभवों व सटीक तथा जीवंत लेखनी से मेरी भी बचपन की यादें ताजा कर दी।
    श्रीमान जी.. मै भी नब्बे के दशक में प्राइमरी में पढता था, धन्यवाद जी..।।

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  9. Dharmendra ji you have beautifully described your days in primary school .Like yours every one else who had studied in the primary and middle schools has almost similar expirences .Out of so many memoirs I would like a few तो share. here. अध्यापक के भोजन कर चुकने के बाद दो छात्रों को बतरन साफ करने कहते ही दौड़ कर जाना और पहले थोड़ा बचाया गया स्वादिष्ट खाने पर टूट पड़ना फिर सफाई करना आदि।

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  10. मज़ा आ गया । जैसे मैं आधारिक विद्यालय भटवारों पट्टी खटली पौड़ी गढ़वाल पहुँच गया। १९६५-६६ का । हमारे स्कूल में छुट्टी के वक़्त एक और रस्म होती थी । पहाड़े बोलने के- दो एकम दो. दो दुनि चार। बड़े ज़ोर शोर से शुरू पहाड़े १९ के पहाड़े तक आवाज़ धीमी पड़ जाती थी और पुनः २० के पहाड़े पर पंचम शूर में आ जाते थे। २० का पहाड़ा ख़त्म होते ही गाँव के लिए दौड़ लग जाती थी। अपने घर की ताज़ी रोटी छोड़ कर दोस्त के घर की बासी चऊन की रोटी में अलग ही स्वाद आता था ।
    सुना वो दोस्त नहीं रहा । स्कूल छोड़ने के बाद कभी नहीं मिले। पर याद ताज़ा रहती हैं।
    धन्यवाद ऐसे संस्मरण के लिए।

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  11. बचपन की सुनहरी यादों का रोमाचंक
    सफरनामा, लग रहा है कि बचपन लौट आया है, कल की ही बातें लग रही हैं.. टाट पट्टी से निकली धूल अब किसी निर्जन स्थल पर जा कर समाधिस्थ हो गई है। पाटी, बोधग्या...रिगांल की कलम अब केवल स्मृति के स्मारक मे ही शायद परिदृश्य हो पाएं.. हृदय से साधुवाद माननीय पंत साहब।

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