शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

सुंदरियाल फाट का सबसे बड़ा गांव है कुई

                                दीनदयाल सुंदरियाल 'शैलज'

 उत्तराखंड के पौड़ी जिले के पोखड़ा ब्लाक स्थित कुई गांव का विहंगम दृश्य
       ह मेरा गाँव कुई है जो पोखड़ा ब्लॉक मे पट्टी किंमगडीगाड (चौंदकोट) क्षेत्र का सात गाँव सुंदरियाल फाट (कुई, मजगाँव, किलवास, भटोडू (भरतपुर), कोलखंडी (सुंदरई), नौल्यू, डबरा) का सबसे बड़ा गाँव है। प्रसिद्ध घुमंतू लेखक राहुल सांकृत्यायन की "मेरी हिमालय यात्रा" के अनुसार सुंदरियाल ब्राह्मण कर्नाटक प्रदेश से उत्तराखंड मे आए हैं। हो सकता है कि बद्रीनाथ धाम कि यात्रा मे आए कोई पूर्वज मंदिर मे ही पूजा अर्चना या अन्य कोई सेवा मे बद्रीनाथ क्षेत्र मे बस गए हो जिन्हें बाद मे मंदिर प्रशासन व गढ़ नरेश ने सुंदरई (चौंदकोट गढ़ी के दक्षिण का इलाका) और आस पास बसने के लिए जगह दी हो। इस धारणा को इसलिए बल मिलता है कि कुई समेत सुंदरियाल जाती के सभी गाँव को “गूँठ” गाँव कहा जाता है अर्थात वे राजा व मंदिर कर से मुक्त गाँव थे। इन गाँवो को "बद्रीनाथ चढ़े" गाँव भी कहते थे।
      एक धारणा ये भी है कि चौंदकोट गढ़ी के थोकदार गोरला रावत, व अन्य राजपूत सिपहासालार गोसाईं लोगों के साथ पुरोहित कार्यों के लिए राज दरबार ने सुंदरियाल ब्राह्मणों को सुंदरई गाँव मे बसाया था। इस बात कि पुष्टि इससे भी होती है कि आसपास के गाँव, दांथा, मालकोट, चमनाऊ, सौंडल आदि गाँव मे राजपूत परिवारों मे सुंदरियाल आज भी पुरोहित का काम सम्पन्न कर रहे हैं। मूल रूप से सुंदरई गाँव (जहां अब खेत हैं) में बसे परिवार किसी दुर्घटना के बाद कुई-मजगांव मे बस गए फिर वहाँ से उपरोक्त अन्य गावों के अलावा ढूंगा, एरोली, पढेरगाँव (तलाई) तथा गुज़ड़ू इलाके मे डूंगरी, पंजेरा, बसोली आदि जगहों पर जाकर बस गए। 

गांव के खेतों में 'पयां' के फूलों की बहार और गांव की गलियां


प्रकृति का वरदान है मेरा गांव 

      मेरे गाँव के उत्तर मे अमेली पर्वत श्रेणी है जिसके मूल मे चौंदकोट गढ़ी के किले के भग्नावशेष आज भी मौजूद हैं। चौंदकोट गढ़ी गढ़वाल की 52 गढ़ों मे से एक है जो इस क्षेत्र के गढ़ाधिपतियों व थोकदारों का किला रहा होगा। बचपन मे बड़े बूढ़ों से सुना था की 7000 फीट ऊंचे इस किले से नयार नदी की निचली मैदानी भाग (राइसेरा व जूनिसेरा) तक एक भूमिगत सुरंग भी थी जिसे युद्ध काल मे सुरक्षित रास्ते के रूप मे प्रयोग किया जाता रहा होगा। चौंदकोट क्षेत्र मे 16वीं शताब्दी मे गोरला थोकदारों व उनकी वंशज वीरांगना तीलू रौतेली ने भी इस गढ़ी से युद्ध संचालन किया होगा जिसके पवाड़े हमने बचपन मे सुने हैं।
    कुई के पूर्व मे गाँव दांथा-मालकोट की धार है व सामने सूदूर दीवा पर्वत श्रृंखला का विहंगम दृश्य नजर आता है जो सीमांत कुमाऊं तक फैला है। दक्षिण दिशा मे कोलगाड़-पिंगलपाखा (छेतर पर्वत माला) तथा पश्चिम में रिंगवाड़स्यु-मवाल्स्यू पट्टी का इलाका है जो गाँव के ठीक ऊपर चौतरा (चबूतरा की तरह) की धार से दिख जाता है। यहा से पौड़ी-बूबाखाल की पहाड़ियों के अलावा हिमालय की बर्फीली चोटियों के दर्शन भी हो जाते है। रिंगवाड़स्यु में बिछखोली व मवालस्यू मे चुरेड़गाँव भी सुंदरियाल गाँव हैं जो मूल रूप से कुई से गए हैं। 
     पहाड़ों में अभी कई गांव पानी की समस्या से जूझ रहे हैं लेकिन हमारे गांववासी सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें कभी ऐसी परेशानी से नहीं जूझना पड़ा। साठ के दशक तक हमारे गाँव के चारों ओर पानी के लगभग एक दर्जन स्रोत थे जो अब घटकर छह रह गए है फिर भी भीषण गर्मियों मे भी हमारे गाँव मे पानी की कमी नहीं होती। दूरस्थ स्रोतों से लाया गया पानी कुई को रास नहीं आता इसीलिए यहां सारी सरकारी पेयजल योजनाएं कुछ समय बाद ही दम तोड़ गई। हमारा गाँव मोटर मार्ग से भी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। गाँव के ऊपर चौबट्टाखाल – दमदेवल तथा नीचे से चौबट्टाखाल-पोखड़ा मोटर मार्ग है। इसके अतिरिक्त गाँव से होकर चौबट्टाखाल–दांथा जीप रोड बनी है। गाँव का मुख्य बाज़ार चौबट्टाखाल लगभग एक किलोमीटर दूर है। चौबट्टाखाल में इंटर कालेज और डिग्री कालेज होेने से आसपास के अन्य गांवों सहित हमारे गांव को भी फायदा हुआ है।

गांव में रामलीला का मंचन। गांव के ऊपर स्थित काली मां का मंदिर सभी फोटो : दीनदयाल सुंदरियाल 'शैलज'

पलायन और सरकारी उपेक्षा का दर्द भी झेल रहा है कुई

   प्राकृतिक सुंदरता व तमाम सुविधावों के बावजूद असिंचित कृषि भूमि, रोजगार की कमी, जीविका के पुराने जमाने के संसाधनों के लुप्तप्राय होने, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव तथा आधुनिकता की प्रतिस्पर्धी दौड़ से पलायन की मार हमारे गाँव को भी झेलनी पड़ी है। सन 1960–70  के दौरान लगभग 85-90 परिवार वाले गाँव में अब मात्र 40-42 परिवार रह गए है। इनमे से भी 10-12 परिवार गाँव से हरिद्वार, देहारादून, ऋषिकेश जाने को तैयार बैठे हैं। गाँव के प्राइमरी स्कूल मे घटते बच्चों की संख्या से स्कूल बंद होने के कगार पर है। गाँव के  अधिकतर परिवार देहारादून, दिल्ली, मुंबई, जैसे शहरों मे स्थायी रूप से रहने लगे हैं। गॉंव के बीच खंडहर होते मकान चिंता का विषय तो है ही, गाँव की सुंदरता को भी दाग लगा रहे हैं।
    उत्तराखंड के अन्य पहाड़ी गावों की तरह मेरा गाँव भी सरकारी उपेक्षा ओर ग्रामवासियों की उदासीनता के कारण उजड़ रहा है। गर्मियों की छुट्टियों मे बेशक कुछ दिन रौनक होती है पर पर अधिकतर लोग गाँव मे किसी शादी ब्याह अथवा देवी देवता के पूजन के लिए ही आते है। कुई मे जेठ 17 गते हर साल श्री बदरीनाथ जी का भंडारा होता है जिसमें भाग लेने कभी कभी कुछ परिवार परदेश से आ जाते है। यह परम्परा अगली पीढ़ी भी निभाएगी या नहीं इसमे संदेह है। वर्ष 2014 मे गाँव मे 11 साल बाद रामलीला का आयोजन हुआ जिसमे नई पीढ़ी के बच्चों ने बड़े उल्लास से भाग लिया। मै इसे भविष्य के लिए शुभ संकेत मानता हूँ।


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शनिवार, 18 जुलाई 2015

पहाड़ियों के प्रकृति प्रेम को दर्शाता है हरेला

    हाड़ प्रकृति के सबसे करीब हैं और पहाड़ी इस प्रकृति के वासी हैं। उत्तराखंड में कई तरह की पूजा होती हैं और इनमें से अधिकतर का संबंध प्रकृति से होता है। पेड़, पहाड़, पंदेरा (जलस्रोत) का पूजन लगभग हर प्रकार की पूजा में होता है। यहां प्रकृति पूजन से जुड़े कुछ त्योहार भी हैं और इनमें हरेला भी शामिल है जो मुख्य रूप से कुमांऊ क्षेत्र में मनाया जाता है। यह सामाजिक समरसता और नयी ऋतुओं के स्वागत का त्यौहार भी है जो साल में तीन बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और साल में आखिरी बार दशहरे के समय यानि नवरात्रों में, लेकिन इस बीच श्रावण मास में मनाया जाने वाले हरेला को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है क्योंकि हरियाली का आगमन इसी समय होता है। ग्रीष्म, वर्षा और शीत ऋतु की शुरूआत चैत्र, श्रावण मास और फिर दशहरे से होती है। कुमांऊ की संस्कृति पर गहरी पैठ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार शंकर सिंह के अनुसार, ''श्रावण मास का त्यौहार ही असली हरेला है। यह हरियाली के आगमन का पर्व है और हरियाली सावन में आती है। हमारे पुरखों को लगा होगा कि जो प्रकृति हमें इतना कुछ देती है, सुख समृद्धि बनाये रखने के लिये उसकी पूजा जरूरी है। आज के भौतिकवादी युग में जबकि मानव प्रकृति पर हावी होने की कोशिश में लगा है तब हरेला जैसे पर्वों का महत्व अधिक बढ़ जाता है। हरेला हमें यह सिखाता है कि प्रकृति सर्वश्रेष्ठ है।'' 
     श्रावण यानि सौण को भगवान शिव का महीना माना जाता है और इसलिए इस समय के हरेला का महत्व सबसे अधिक है। भगवान शिव कैलाश पर्वत पर रहते हैं जो हिमालय का हिस्सा है। हरिद्धार को उनकी ससुराल माना जाता है। भगवान शिव के लिये श्रावण मास के हर सोमवार को व्रत भी रखा जाता है और शिवजी के मंदिर में पूजा अर्चना होती है। यह भी माना जाता है कि श्रावण मास की संक्रांति को भगवान शिव और पार्वती का विवाह हुआ था और इस खुशी में हरेला पर्व मनाया जाने लगा था। 
  श्रावण मास का खास त्यौहार हरेला
          हरेला में एक दिन का नहीं बल्कि नौ . दस दिन तक चलने वाला त्यौहार है। चैत्र में इसकी शुरूआत संक्राति से होती है और  है। श्रावण में संक्राति के दिन हरेला होता है और इससे नौ दिन पहले इसकी शुरूआत हो जाती है। आश्विन मास में नवरात्र के समय में जबकि आम भारतीय परिवार भी अपने घरों में हरियाली उगाता है। इसे नयी ऋतु के अलावा नयी फसल की शुरूआत का का पर्व भी माना जाता है। अच्छी फसल के लिये एक तरह से प्रकृति के प्रतीक भगवान शिव की पूजा की जाती है। कई जगह इस दिन वृक्षारोपण भी किया जाता है। यह बच्चों, युवाओं के लिये बड़ों से आशीर्वाद लेने का पर्व भी है। हरेला पर गाये जाने वाले गीत में आशीर्वाद ही निहित होता है। अब इस गीत को ही देख लीजिए।
    जी रया, जागि रया
    धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जया
    सूर जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
    दूब जस फलिये,
    सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।
      इसका मतलब है ... जीते रहो, जागरूक बनो। आकाश जैसी ऊंचाई, धरती जैसा विस्तार मिले, सूर्य जैसी शक्ति और सियार जैसी बुद्धि प्राप्त करो। दूब की तरह पनपकर अपनी कीर्ति फैलाओ। उम्र इतनी अधिक लंबी हो कि चावल भी सिलबट्टे पर पीस कर खाने पड़ें और बाहर जाने के लिये लाठी का सहारा लेना पड़े, मतलब दीर्घायु बनो। 

क्यों नाम पड़ा हरेला?

      रेला मतलब हरियाली। इस पर्व से नौ दिन पहले 'सतनज' यानि सात अनाज को मिलाकर घर में हरियाली उगायी जाती है। पांच अनाजों का भी उपयोग किया जा सकता है। रिंगाल की टोकरी या मिट्टी के बर्तन में मिट्टी डालकर उसमें गेंहू, जौ, उड़द, भट्ट, सरसौं, मक्का, गहथ तिल आ​दि के बीज डाले जाते हैं। इसे हर दिन सींचा जाता है और सांकेतिक तौर पर इसकी गुड़ाई की जाती है। दसवें दिन परिवार का मुखिया या ब्राहमण मंत्रोच्चार के साथ हरेला काटता है। इसे पतीसणा कहते हैं। घर की सबसे बुजुर्ग महिला परिजनों को तिलक, चंदन के साथ हरेला लगाती है। इसे पैरों, घुटने, कंधों और सिर में रखा जाता है। इसे कानों में भी लगाया जाता है। इसके बाद ही अमूमन महिलाएं '' जी रया, जागि रया ....'' का आशीर्वाद देती हैं। हरेला को अपने परिवार तक ही सीमित नहीं रखा जाता है बल्कि इसे अड़ोस पड़ोस में भी बांटा जाता है। हरेला सामूहिक रूप से गांवों के मंदिरों में भी उगाया जाता है जहां पर पूजा का काम पुजारी करता है। परिवार को कोई सदस्य यदि घर से बाहर हो तो उसके लिये लिफाफे में रखकर हरेला भेजा जाता है। इस बार श्रावण मास का हरेला कल यानि 17 जुलाई को था।  हरेला के दिन कई तरह के पकवान भी पकाये जाते हैं जिसमें उड़द की पकोड़ियां यानि भूड़ा, स्वाले आदि प्रमुख हैं।


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गुरुवार, 9 जुलाई 2015

झंगोरा : बनाओ खीर या सपोड़ो छांछ्या

     सुबह लेकर अखबार में पढ़ा की उत्तराखंड की झंगोरा की खीर राष्ट्रपति भवन के मेन्यू में शामिल कर ली गयी है। खुशी मिली और साथ में मुंह पानी भी आ गया। कुछ लोगों के लिये यह शब्द नया हो सकता है लेकिन मुझे नहीं लगता कि जो व्यक्ति कुछ दिन भी पहाड़ में रहा हो वह झंगोरा से अपरिचित हो। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी यह नारा अक्सर सुनने को मिल जाता था, '' मंडुवा . झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे।'' 
पौष्टिकता से भरपूर होता है झंगोरा
     उत्तराखंड में झंगोरा की खेती सदियों से की जा रही है और एक समय इसका उपयोग चावल के स्थान पर भात की तरह पकाकर खाने के लिये किया जाता था। चावल की बढ़ती पैठ के कारण दशकों पहले ही पहाड़ों में इसे दूसरे दर्जे के भोजन की सूची में धकेल दिया था। यह अलग बात है कि चावल की तुलना में झंगोरा अधिक पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक है और इसकी खेती के लिये उतनी मेहनत भी नहीं करनी पड़ती है जितनी की धान उगाने के लिये। उत्तराखंड में जिन खेतों की मिट्टी मुलायम और उपजाऊ होती है वहां धान बोया जाता है और जो खेत थोड़ा पथरीला हो वहां झंगोरा की खेती की जाती है। इसके धान के खेत के किनारे भी रोपा जाता है। एक समय आया जबकि उत्तराखंड के किसानों का इससे मोहभंग हो गया था लेकिन अब वे धीरे धीरे इसके गुणों से परिचित हो रहे हैं। इसलिए पहाड़ी खेतों के फिर से झंगोरा की तरह लहलहाने की उम्मीद की जा सकती है। यदि आप इस लेख को पढ़ रहे हों तो लोगों को झंगोरा उत्पादन के लिये प्रेरित कर सकते हैं। कई खेतों में झंगोरा के साथ कौणी भी बो दी जाती है। कौणी का दाना पीला होता है और मरीजों के लिये इसकी खिचड़ी काफी उपयोगी होती है।
     झंगोरा खरीफ ऋतु की फसल है क्योंकि पानी के लिये यह बरसात पर निर्भर रहती है। पहाड़ों में झंगोरा की खेती करने के लिये खेत को हल से जोता जाता है और इसमें झंगोरा छिड़क दिया जाता है। बरसात में इसकी निराई, गुड़ाई, रोपाई की जाती है। इधर बारिश हुई और गांवों के लोग खेतों में झंगोरा को व्यवस्थित तरीके से लगाने के लिये चले जाते हैं। वैसे इसकी बुवाई मार्च से मई तक कर दी जाती है और बरसात इसको नया जीवन देती है। सितंबर . अक्तूबर में कटाई का काम चलता है। इसकी लंबी बालियां मनमोहक होती हैं, जिन्हें मांडकर या कूटकर झंगोरा का एक एक दाना अलग कर दिया जाता है। तब यह भूरे रंग का होता है। इसके भूरे रंग के छिलके को निकालने के लिये ओखली (उरख्यालु) में कूटा जाता था जिसके अंदर का दाना सफेद होता है। इसी दाने का उपयोग खीर, खिचड़ी या चावल की तरह पकाने के लिये किया जाता है। पहाड़ी घरों में आज भी झंगोरा से छंछ्या बनाया जाता है जो वहां के लोगों में काफी लोक​​प्रिय है। 
      पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब अपने ग्रीष्मकालीन प्रवास पर नैनीताल जाते थे तो झंगोरा की खीर उनका पसंदीदा व्यंजन होता था। ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स और उनकी पत्नी कैमिला पार्कर जब नवंबर 2013 में भारत दौरे पर आये तो वे उत्तराखंड भी गये थे। वहां उन्हें झंगोरा की खीर परोसी गयी थी जिसकी उन्होंने काफी तारीफ की थी। यहां तक उन्होंने इसे बनाने की विधि भी पूछी थी। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को इस साल मई में उत्तराखंड प्रवास के दौरान राजभवन में झंगोरा की खीर परोसी गयी थी। यहीं से इस पहाड़ी व्यंजन का राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने का रास्ता साफ हुआ था। गढ़वाल मंडल विकास निगम पहले ही इसे अपने मेन्यू में शामिल कर चुका है।
     माना जाता है कि झंगोरा मध्य एशिया से भारत में पहुंचा और उत्तराखंड की जलवायु अनुकूल होने के कारण वहां इसने अपनी जड़ें मजबूत कर ली। भारत के कुछ प्राचीन ग्रंथों में भी इसका वर्णन मिलता है। चीन, अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों में भी इसकी खेती की जाती है। झंगोरा का वैज्ञानिक नाम इक्निकलोवा फ्रूमेन्टेसी है। हिन्दी में इसे सावक या श्याम का चावल कहते हैं। राष्ट्रीय पोषण संस्थान केे अनुसार झंगोरा में कच्चे फाइबर की मात्रा 9.8 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 65.5 ग्राम, प्रोटीन 6.2 ग्राम, वसा 2.2 ग्राम, खनिज 4.4 ग्राम, कैल्शियम 20 मिलीग्राम, लौह तत्व पांच मिलीग्राम और फास्फोरस 280 ग्राम पाया जाता है। 
     यह सभी जानते हैं कि खनिज और फास्फोरस शरीर के लिये बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। झंगोरा में चावल की तुलना में वसा, खनिज और लौह तत्व अधिक पाये जाते हैं। इसमें मौजूद कैल्शियम दातों और हड्डियों को मजबूत बनाता है। झंगोरा में फाइबर की मात्रा अधिक होने से यह मधुमेह के रोगियों के लिये उपयोगी भोजन है। झंगोरा खाने से शरीर में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। यही वजह है कि इस साल के शुरू में उत्तराखंड सरकार ने अस्पतालों में मरीजों को मिलने वाले भोजन में झंगोरा की खीर को शामिल करने का सराहनीय प्रयास किया। उम्मीद है कि इससे लोग भी झंगोरा की पौष्टिकता को समझेंगे और चावल की जगह इसको खाने में नहीं हिचकिचाएंगे। असलियत तो यह है कि जो चावल की जगह झंगोरा खा रहा है वह तन और मन से अधिक समृद्ध है। 

झंगोरा से बनने वाले भोज्य पदार्थ

     त्तराखंड में नवरात्रों या व्रत आदि के समय में भी झंगोरा का उपयोग किया जाता है लेकिन आम दिनों में इसे चावल की तरह पकाया जाता है या फिर इसकी खीर, खिचड़ी, छंछ्या या छछिंडु बनाया जाता है। झंगोरा की खीर भी चावल की खीर की तरह की बनायी जाती है। यदि आप 300 ग्राम के करीब झंगोरा लेते हैं तो उसमें 150 ग्राम चीनी और लगभग डेढ़ लीटर दूध मिलाया जाता है। झंगोरा को पहले 15 से 20 मिनट तक पानी में भिगो कर रख दो और इस बीच दूध को उबाल दो। उबले हुए दूध में झंगोरा मिला दो और अच्छी तरह से पकने तक इसमें करछी चलाते रहो। इसके बाद चीनी मिलाओ। स्वाद बढ़ाना है तो काजू, किसमिस, बादाम, चिरौंजी जैसे ड्राई फ्रूट भी मिला सकते हो। अब इसे आप गरमागर्म परोसो या ठंडा होकर खाओ, स्वाद लाजवाब होता है।
    जिस तरह से चावल को पकाते हैं झंगोरा को उस तरह से इसका भात पकाकर दाल के साथ खाया जाता है। इसके अलावा इसकी खिंचड़ी भी पकायी जाती है। छंछ्या के लिये छांछ में झंगोरा मिलाकर उसे पकाया जाता है। इसे नमकीन और मीठा दोनों तरह से बना सकते हैं। इसके अलावा अब झंगोरा की रोटी और उपमा भी बनाया जाने लगा है। आपका धर्मेन्द्र पंत (इनपुट ... निर्मला घिल्डियाल)

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शनिवार, 4 जुलाई 2015

चलो भैजी कौथिग जौंला

     चपन में जब कौथिग की बात आती थी तो मेरे लिये इसका मतलब अपने गांव की कुलदेवी नंदादेवी, पास में स्थित जणदादेवी, माध्योसैण या फिर ईसागर यानि एकेश्वर के कौथिग तक सीमित था। असल में तब ये कौथिग हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा हुआ करते थे और हम इनका बेसब्री से इंतजार करते थे। पहनने को नये कपड़े मिलते थे और इन कौथिग यानि मेलों में सीटी, बांसुरी खरीदने से लेकर जलेबी खाने और बर्फ की आईसक्रीम चूसने का मौका मिल जाता था। कोई दूर का रिश्तेदार मिल जाता तो जेब में दस . बीस पैसे या ज्यादा हुआ तो चवन्नी, अठन्नी डालकर चला जाता तो उसके लिये मन में इज्जत बढ़ जाती थी। नंदादेवी और जणदादेवी कौथिग के लिये हम पांच . दस पैसे इकट्ठा करके रखते थे। जेब में यदि चार . पांच रूपये होते तो कौथिग का आनंद दुगुना हो जाता था। यह 70 और 80 के दशक का किस्सा है जब मैं गांव की संस्कृति और समाज में अपना बचपन बिता रहा था। कौथिग आज भी होते हैं लेकिन दुनिया का डिजिटलीकरण होने के बाद मुझे नहीं लगता कि पहाड़ का आज का बच्चा इन मेलों को लेकर उतना ही उत्साहित होगा जितना कभी मैं या मेरी पीढ़ी के लोग या मेरे से पहले के बच्चे हुआ करते थे। कभी इन कौथिगों में जनसैलाब उमड़ पड़ता था। मैंने देखा है जणदादेवी और एकेश्वर में तिल रखने की जगह तक नहीं बचती थी लेकिन अब ऐसा नहीं है। कौथिग के दिन एकेश्वर के डांडों में लोगों की भीड़ अब महज कल्पना है।
जणदादेवी कौथिग का विहंगम दृश्य। फोटो .. श्री दीनदयाल सुंद्रियाल
     चपन में एक गीत भी सुना था 'गौचरा को मेला लग्यूं च भारी, मेला म अयीं ह्वेली दीदी, भुली स्याली ....'।  गौचर का मेला एक व्यावसायिक मेला था जिसकी शुरूआत 1943 में हुई थी लेकिन देवभूमि उत्तराखंड में अधिकतर मेले किसी देवस्थल से संबंध रखते हैं। किसी भी देवी या देवता के मंदिर के पास किसी नियत तिथि को कौथिग लगता है। इस तरह से कौथिग में धार्मिक कार्यों के अलावा लोगों को अपने सगे संबंधियों से मिलने और वर्ष भर की अपनी खट्टी मीठी यादों को साझा करने का मौका मिलता था। कोई बेटी अपने मां पिताजी, भाई बहन और गांव वालों से मिलने के लिये इन कौथिगों का बेसब्री से इंतजार करती थी। इसलिए अक्सर कौथिगों में शा​म को विछोह का एक मार्मिक दृश्य भी पैदा हो जाता था। किसी भाग्यशाली बेटी को कौथिग के ​बहाने अपने मायके एक दो दिन बिताने के लिये मिल जाते थे। उसके चेहरे की खुशी यहां पर शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती है। इस तरह की खुशी और पीड़ा की कल्पना आज की 'मोबाइल पीढ़ी' नहीं कर सकती है।
    कौथिग किसी धार्मिक स्थल पर ही लगने का मतलब था कि जाते ही सबसे पहले देवी या देवता को भेंट चढ़ाना। एक पैसे से लेकर दस पैसे तक। कोई सवा रूपया भी रख लेता था। हमें यही कहा जाता था कि जब तक भेंट नहीं चढ़ायी तब तक कौथिग में कुछ खाना पीना नहीं। एक गलत परंपरा भी इन कौथिगों से जुड़ी थी और वह थी पशुबलि देने की। अमूमन बकरों की बलि दी जाती थी। यदि 'अठवाण' होती तो भैंसे की बलि भी दी जाती। मेरे लिये बचपन यह कौथिगों का नकारात्मक पहलू रहा। इधर बकरे का सिर धड़ से अलग होता और दूसरी तरफ लोगों में उसके रक्त का टीका लगाने की होड़ मच जाती। खुशी इस बात की है कि धीरे धीरे लोगों में जागरूकता आयी है और अब कई कौथिगों में बलि प्रथा लगभग समाप्त हो गयी है। कौथिगों में ढोल, दमाउ, हुड़का, डौंर, रणसिंघा आदि बजाये जाते हैं। ढोल की थाप पर यूं कहें कि कौथिगों में पांडव नृत्य या​नि पंडौं पर तो अच्छे खासों के पांव थिरकने लगते थे। कुछ लोगों के शरीर में देवी देवताओं का प्रवेश भी इन कौथिगों का एक हिस्सा रहा है।
   कभी उत्तराखंड के हर गांव में कौथिग होता था। अमूमन इनकी शुरूआत बैशाखी के दिन से होती थी और सितंबर अक्तूबर तक इन सीजन रहता था। अब इनकी संख्या घट गयी है। इसके बावजूद कई कौथिग आज भी उत्तराखंड की पहचान है। इनमें गौचर मेला, श्रीनगर का बैकुंठ चतुर्दशी मेला, उत्तरकाशी का माघ मेला, कोटद्वार के कण्वाश्रम में लगने वाला बसंत पंचमी मेला, अल्मोड़ा का नंदादेवी मेला, बागेश्वर का उत्तरायणी मेला, लोहाघाट का देवीधूरा मेला, टनकपुर का पूर्णागिरी या कालसन मेला, भीमताल में लगने वाला हरेला मेला, काठगोदाम के पास जियारानी का मेला, मुंडणेश्वर का मेला आदि प्रमुख हैं। अकेले पौड़ी गढ़वाल में ही 50 से अधिक बड़े कौथिग लगते हैं। इनमें मुंडणेश्वर, एकेश्वर, जणदादेवी, सल्ट महादेव, अदालीखाल, बिनसर, देवलगढ़, कौड़िया लैंसडाउन का ज्यूनि सेरा का मेला, ताड़केश्वर, संगलाकोटी, देवराजखाल, गिंदी कौथिग, बुंगी कौथिग, नैनीडांडा, रिखणीखाल, बेदीखाल, बीरौंखाल, घंडियाल, नयार घाटी का सत्यवान साबित्री मेला, दीवा मेला, कांडई कौथिग, दनगल (सतपुली), कांडा, थैलीसैण, बैंजरों, लंगूरगढ़ी, डांडा नागराज का कौथिग आदि प्रमुख हैं।
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