शनिवार, 22 अगस्त 2015

गढ़वाली कविता : निर्धन कु शोषण किलै कि च

             जितेंद्र मोहन पंत


गरीब . अमीर कि भारत म या असमानता किलै की च,
  निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।

कैकी बिरल़ी भी नौणी छ्वड़दी छी,
  क्वी रुटि क गफा कु तरसदा ​छिन,
    कैका कुकर हलवा खांदा छिन,
      कैका बच्चा भूखा सींदा छिन।
        देश का धन थै बंटणा म यो भेदभाव किलै की च,
          निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।

जैका भैंसा बंड्या कै छीन,
  वो दूध की बूंद नि पे सकदू,
    जो सर्या दुन्या कु पेट पल़द,
      वो पुटगु भोरी नि खा सकदू।
        काम कन वलौं खुणै, अपणी चीज कु अभाव किलैं की च?
          निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।

क्वी बैठि . बैठि कै राज कैरी
  शासन अपणु चलाणा छीं,
    गरीब का खून थै चुसणा छीं,
      वेका पसीना से नहाणा छीं।
        अमीर गरीब का जीवन से ख्यल्णु रैंदु किलै की च,
          निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।


 क्वी धन का ऊंचा डांडों म,
  घुमदा ही रैंदा जाणू च,
    क्वी कभि ऐथर नि बढ़ी पांदू,
      सदनि ही लमडणु रैंदु च।
        आवा, ये गरीब थै थामा, यो गिरणु किलै की च,
          निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।

आवा जवान भैं बंदो,
  ईं खाई थै मिटा द्ययूंला,
    गरीबै मदद कैरि की
      वैथे ऐथर सरकाई द्ययूंला।
         आज तक देखी कैकी भि, दुन्या सियीं राई किलैं की च,
           निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।

                        नोट : यह कविता 1979 में लिखी गयी थी। 
                       

                        लेखक / कवि का परिचय

      जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में।
      राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक। 
      इसी दौरान समाज, पहाड़ और वहां के जीवन पर कई कविताएं लिखी। 
      बाद में सेना के शिक्षा विभाग कार्यरत रहे। 11 मई 1999 को 37 साल की उम्र में निधन।

शनिवार, 15 अगस्त 2015

क्या है हन्त्या? रहस्य, अंधविश्वास, वास्तविकता या जागरियों का कमाल?

      सेरी के सभी पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं। पिछले दिनों में मेरे पत्रकार मित्र महावीर सिंह ने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी, जिसमें उन्होंने कई सवाल उठाये थे। उन्होंने लिखा था, ''उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है। क्या सचमुच में यह देवभूमि है? कहां हैं हमारे देवी देवता? गर्मियों में स्कूलों की छुटि्टयों के दौरान यहां हर क्षेत्र में हर गांव में होने वाले मेले, पूजा पाठ और ढोल दमाऊ की थाप पर नाचने वाले नर—नारी, क्या सचमुच उस देव अथवा देवी का प्रतिरूप होते हैं? क्या है सच्चाई? क्या आज भी हमारे देवी देवता मनुष्य शरीर में प्रवेश होकर प्रकट होते हैं?'' महावीर भाई ने सवालों की जो झड़ी लगायी है वह किसी को सोचने के लिये मजबूर कर सकती है। बचपन से मैंने इसे अंधविश्वास की श्रेणी में माना लेकिन यह आस्था है और इस शब्द के बहुत मायने होते हैं।

क्या है हन्त्या? रहस्य, अंधविश्वास, वास्तविकता या जागरियों का कमाल?
   
      आपने हन्त्या नचाणा भी सुना होगा यानि अपने मृत पूर्वजों का आह्वान। वह अपने किसी करीबी के शरीर में प्रवेश करते हैं और अपनी मुक्ति के लिये रास्ता भी दिखा देते हैं। देखा होगा कि देवी देवता के साथ साथ जागरी (देवी देवताओं का आह्वान करने वाला) हन्त्या भी नचाता है। कई बार देखा गया है कि जब वह आत्मा यानि रूह किसी के शरीर में प्रवेश करती है तो ऐसा लगता है कि उस व्यक्ति को मानो बहुत पीड़ा हो रही हो। क्या वास्तव में ऐसी रूह अपने करीबी के शरीर में प्रवेश करती है? यह सवाल भी अनुत्तरित है। मैं यहां पर दो घटनाओं का जिक्र कर रहा हूं जिनको लेकर आप अनुमान लगा सकते हैं कि सच्चाई वास्तव में क्या है?
     पहाड़ के अपने पंडित जी एक दिन बातों बातों में एक सच्चा किस्सा सुनाया। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि मैं पंडित जी के शब्दों में ही वह किस्सा आपके सामने पेश कर सकूं। बकौल पंडित जी ....
      ''काफी साल पहले मैं एक बार किदवई नगर में किन्हीं यजमान के यहां गया था। अक्सर जैसे हम पूछ लेते हैं कि आप गढ़वाल में कहां के रहने वाले हैं मैंने भी परिवार के बुजुर्ग से यह सवाल कर दिया। वह कुछ देर चुप रहे और फिर कहा, 'आपने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है। मैं बता नहीं सकता।' मैंने उनसे कहा कि अब तो आपने बात को और रहस्यमयी बना दिया है। आपको बताना पड़ेगा। आखिर में वह मान गये। उन्होंने एक लंबी सांस ली और फिर अपनी कहानी कहने लगे। ''

     अब उन बुजुर्ग की वह कहानी जो उन्होंने पंडित जी को बतायी थी .....

     ''यह आजादी से पहले की बात है। मैं तब 18 या 19 साल का था। शादी हो चुकी थी और घरवालों ने परदेस की तरफ धकेल दिया कि अब तो मुझे कुछ काम करना होगा। टिहरी गढ़वाल के अपने गांव से किसी परिचित का पता लेकर दिल्ली आ गया। पहाड़ी लोग सरल और ईमानदार होते हैं और इसलिए यहां आकर किसी सेठ साहूकार के यहां घर या दुकान पर उन्हें काम मिल जाता है। मैं भी जिन महानुभाव का पता लेकर आया था वह भी ऐसे ही किसी सेठ के घर में काम करते थे। उन्होंने साफ इन्कार कर दिया कि मैं उनके साथ नहीं रह सकता था। अब न मैं घर वापस जाने की स्थिति में और दिल्ली में किसी अन्य व्यक्ति को भी नहीं जानता था। फुटपाथ मेरा आसरा बन गया था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आजादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। अंग्रेज सरकार लोगों को परेशान कर रही थी। मुझे भी एक दिन फुटपाथ से उठाकर जेल में ठूंस दिया गया। आजादी मिलने के बाद जब जेल से बाहर निकला तो स्थिति भयावह थी लेकिन घरवाले, गांव वाले, रिश्तेदारों को जब पता चलेगा कि मैं जेल में बंद था तो वे क्या सोचेंगे? बस इस वजह से गांव नहीं गया और फिर से मेहनत मजदूरी करने में लग गया। इसके एक डेढ़ साल बाद जब मुझे लगा कि अब मैं सक्षम बन गया हूं तो गांव जाने की तैयारी कर ली। ''
     ''बहुत खुश था कि गांव में मुझे देखकर मां पिताजी, भाई बहन और पत्नी सभी को बहुत खुशी होगी। बड़े उल्लास के साथ गांव में कदम रखा लेकिन गांव के जिस भी शख्स की नजर मुझ पर पड़ी उसके चेहरे पर मैंने कई सवाल तैरते हुए देखे। मैं समझ गया कि गांव में सब कुछ सही नहीं है। कुछ तो गड़बड़ है। घर में पहुंचा तो सब हक्के बक्के। खुशी के बजाय उनके चेहरे पर हवाईयां तैर रही थी। मां पिताजी जरूर खुश थे। गांववालों और घरवालों ने यह मान लिया था कि स्वतंत्रता मिलने के बाद जो दंगे हुए उनमें मेरी मौत हो गयी है। मेरी पत्नी का विवाह मेरे छोटे भाई से कर दिया गया और तब उनका एक बच्चा भी हो गया था। मैंने कभी इसके लिये अपने भाई, पत्नी या माता पिता को दोष नहीं दिया क्योंकि परिस्थितियां ही ऐसी थी। मैंने इन बदले हुए रिश्तों को स्वीकार कर लिया लेकिन तभी मुझे पता चला कि मेरी पत्नी जो अब मेरे छोटे भाई की पत्नी बन गयी है उस पर मेरी हन्त्या भी आयी थी और मेरी नारायणबलि भी कर दी गयी क्योंकि मेरे कारण होने वाले कष्टों से बचने के लिये यही उपाय मेरी रूह और जागरी ने बताया था। मैं सन्न रह गया। नारायणबलि की तो कोई बात नहीं लेकिन जब मैं जिंदा था तो मेरी रूह कहां से यहां आकर उसके शरीर में प्रवेश कर गयी थी। मुझे यह भी पता चला कि वह बहुत रोयी थी। उसने यह भी बताया था कि किस तरह से मौत हुई थी। मुझे मारा जा रहा था। उसके शरीर के जरिये मेरी रूह ने बताया था कि मुझे बहुत पीड़ा हो रही थी और मैं मां पिताजी को याद कर रहा था। उस हन्त्या की पीड़ा से तब मां पिताजी ही नहीं पूरा गांव रो पड़ा था। ''
     ''मैं इतना सुनकर धप्प से बैठ गया। बस यही सवाल मेरे मन में कौंध रहा था कि आखिर सब हुआ कैसे? मन कसैला हो गया। तुरंत मां पिताजी से विदा लेकर गांव से निकल गया और फिर कभी गांव का रूख नहीं गया। गढ़वाल में कई जगह गया लेकिन कभी गांव नहीं गया। लेकिन मेरा सवाल अब भी अनुत्तरित है कि उसके शरीर में मेरी रूह ने कैसे प्रवेश किया जबकि मैं जिंदा था? जब जवाब नहीं मिला तो मैंने यह मान लिया कि हन्त्या जैसा कुछ होता ही नहीं है। लेकिन क्या आप मेरे सवाल का जवाब दोगे?''
     न बुजुर्ग का पंडित जी के लिये किया गया सवाल उन्होंने मेरी तरफ दाग दिया। तब मुझे गांव की एक घटना याद आयी। मैं बचपन से ही जागरी, डौंर थाली, देवी देवता हन्त्या नचाने को पसंद नहीं करता था। मुझे लगता था कि किसी व्यक्ति के शरीर में देवता या रूह के प्रवेश में डौंर और थाली से निकलने वाली तरंगों का भी योगदान होता है। एक दिन मुझे पता चला कि गांव के फलां भाई साहब के शरीर में कभी उनकी मां की हन्त्या आयी थी। वह भाई हमेशा परदेस में रहे। हिन्दी में ही बोलते थे। बेहद पढ़ाकू और राजनीति से लेकर विज्ञान तक की अच्छी समझ रखने वाले। उनसे जब भी बातें हुई तो लगा कि वह अंधविश्वासी नहीं हैं। जब पता चला कि उन पर एक बार हन्त्या आयी थी तो उन्हीं से जवाब जानने के लिये चल पड़ा। उन्होंने जो मुझे बताया वह इस तरह से है, ''हां धर्मेन्द्र यह सही है कि मुझ पर मेरी मां की हन्त्या आयी थी। जागरी हन्त्या के जागर लगा रहा था। मैं भी सभी लोगों के साथ बैठा हुआ था। अचानक मुझे कुछ अजीब सा महसूस होने लगा। मुझे लगा कि मेरा शरीर जैसे हवा में तैर रहा है और धीरे धीरे मैंने खुद को काफी ऊपर हवा में तैरता हुआ पाया। इस बीच नीचे जागरी के सामने क्या हो रहा था मुझे पता नहीं। कुछ मिनट बाद जब मैं होश में आया तो पसीने से तरबतर था और काफी थका हुआ महूसस कर रहा था। मुझे बताया गया कि मेरे शरीर में मेरी मां की हन्त्या नाची थी। ऐसा क्यों हुआ इसका जवाब मैं भी आपको नहीं दे सकता। मैंने जो अनुभव किया था उसको मैंने आपको बता दिया है। ''
     अब ये दो​ किस्से आपके सामने हैं। क्या आपके पास कोई जवाब है कि क्या वास्तव में हन्त्या जैसा कुछ होता है या यह भी महज भ्रम है जिसकी सचाई और वास्तविकता से असल में जागरी भी अनभिज्ञ हैं? नीचे टिप्पणी वाले कालम में अपने अनुभव या जवाब जरूर प्रेषित करें। आपका धर्मेन्द्र पंत

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रविवार, 9 अगस्त 2015

गांवों में अब भी किलोवाट पर भारी पड़ते हैं सेर, पाथा

     गांव में जब मां खेतों में काम करने चली जाती थी तो हर पहाड़ी पुत्र की तरह कई बार घर में खाना या यूं कहें कि दाल चावल बनाने की जिम्मेदारी मेरी होती थी। अपनी चचेरी बहन से खाना बनाना भी सीख लिया। मां ने चावल की माप बता दी थी। वही मुट्ठी, तामी, माणा या सेर के हिसाब से। इसके बाद मां ने उंगलियों के माप से भी बता दिया था कि भात बनाने के लिये उंगलियों की इस लाइन तक पानी होना चाहिए। पिताजी को भूमि मापन की अच्छी जानकारी थी। अगर किसी ने अपना 'वाडु' (दो परिवारों के खेतों को अलग अलग करने के लिये बीच में में बड़ा सा पत्थर रोप दिया जाता है जिसे वाडु कहते हैं) दूसरे खेत की तरफ खिसकाकर अपना हिस्सा बढ़ा दिया तो झगड़ा हो जाता था। पिताजी जब न्याय पंचायत स्योली के सरपंच थे तो उन्होंने इस तरह के कुछ मामलों को सुलझाया भी था। अक्सर मैंने उन्हें कहते हुए सुना था कि फलां व्यक्ति का खेत इतने नाली या बिस्वा है। उत्तराखंड में माप के लिये अब भी माणा, सेर या नाली, बिस्वा चलता है। आओ आज इसी पर चर्चा करें। 

अनाज के पैमाने ... माणा से लेकर मण तक 

    त्तराखंड में पहले अनाज तोलने के लिये तराजू नहीं हुआ करते थे और इसलिए ग्राम या किलो जैसे माप लोग नहीं जानते थे। अनाज, तेल, घी, दूध आदि तोलने के लिये अलग से पैमाने होते हैं। ऐसा नहीं है कि यह चलन अब खत्म हो गया है। अब भी माणा, पाथा, नाली, सेर, दूण आदि चलता है हालांकि इनको अब किलो में तोला जा रहा है। पहले तोल के लिये खास तरह के बर्तन बने होते थे। इनमें जितना अन्न, तेल आदि समा जाए उसी तौल के अनुसार इनके नाम भी पड़ गये। माणा या माणू, पाथा या पाथू आदि। ये तांबा, लोहे, पीतल, लकड़ी और बांस या रिंगाल के बनाये जाते थे। उत्तराखंड में कई घरों में अब भी तौल के ये बर्तन मिल जाएंगे। लोहे या पीतल के बने पाथे बेलनाकार होते हैं। पाथे का निर्माण वही कारीगर करता था जिसका उसे पूरा ज्ञान हो। इसको सुंदर बनाने के लिये पहले इस पर नक्कासी भी की जाती थी। टांगने के लिये कड़े भी लगा दिये जाते थे। आजकल कुछ अन्य बर्तनों ने भी माणा और पाथा की जगह ले लिया है। आपने उन सफेद मग को देखा होगा जो सेना में जवानों को मिलते थे। उन्हें गांवों में एक माणी या माणु या माणा के रूप में उपयोग किया जाता है। इसी तरह से वनस्पति घी या किसी अन्य सामान का एक किलो का डिब्बा सेर का रूप ले लेता है।
माणा या माणी और सेर के लिये इनका भी प्रयोग किया
 जाता है। फोटो : प्रियंका घिल्डियाल खंतवाल
     अब पहले बात करते हैं अनाज तोलने के माप को लेकर। अनाज को तोलने को सबसे छोटा माप मु्ट्ठी होता था यानि एक सामान्य व्यक्ति की मुट्ठी में जितना अनाज आ जाए उतना एक मुट्ठी हुआ। कुछ लोग मुट्ठी के बजाय अंज्वाल (दोनों हाथों को खोलकर ​उसमें जितना अनाज आ जाए) का भी उपयोग करते है। तीन मुट्ठी को एक पाव मान लिया जाता था जिसे तामी कहा जाता था। आज भी गांव की शादियों या इस तरह के काम जहां काफी लोगों के लिये भोजन तैयार किया जाना हो, सर्यूल (मुख्य खानशामा) सेर, पाथा आदि के हिसाब से ही दाल और चावल बनाता है। आटा भी पाथा के पैमाने से ही दिया जाता है। बेटियों को मायके से विदाई के वक्त दिया जाने वाले अनाज को दोण इसलिए कहा गया क्योंकि उसका वजन एक दोण यानि 32 किलो होता था। यही नहीं पहले लोग उधार भी सेर या पाथे से नापकर देते थे। यदि किसी को दस पाथा अनाज दिया जाता था तो वह ब्याज सहित उसे लौटाता था। यानि वापस करते समय वह दो तीन पाथा अधिक देता था। पाथा, सेर में तब तक अनाज डाला जाता है जब तक कि उसमें एक भी अतिरिक्त दाना डालने की जगह नहीं ​बच जाए। इन पैमानों को आप इस तरह से समझ सकते हैं। ....

            तीन मुट्ठी बराबर एक तामी या एक पाव
            दो तामी बराबर एक माणा या वर्तमान समय का आधा किलो।
            दो माणा या वर्तमान समय का एक किलो बराबर एक सेर या एक कूड़ी
            दो सेर या चार माणा बराबर एक पाथा।
            16 पाथा या 32 सेर बराबर एक दूण या दोण
            40 सेर या एक बिशोथा या बीसी बराबर एक मण
            16 मण या 20 दूण बराबर एक खार

भूमि के नाप : ज्यूला गया तो आया नाली, बिस्वा

    त्तराखंड में अब भूमि का नाप नाली, बिस्वा, बीघा और एकड़ आदि में किया जाता है। अब दिल्ली और कुछ अन्य राज्यों की तरह फुट, गज, मीटर आदि भी प्रचलन में आ गये हैं लेकिन पहले चौखूंटा ज्यूला या चक्र ज्यूला में नाप लिया जाता था। चौखुंटा ज्यूला में माप का सबसे छोटा पैमाना लेमणी होता था यानि इतनी भूमि की उसमें एक दोण बीज बोया जा सके। इसी हिसाब से आगे भी भूमि का नाप तय कर दिया गया था। ज्यूला सबसे बड़ी माप मानी जाती थी जो 16 दोण बीज के बराबर मानी जाती थी। चक्र ज्यूला में एक ज्यूला चार दोण बीज के बराबर होता था।
      समय के साथ उत्तराखंड में भूमि के नाप के पैमाने भी बदलने लगे। ज्यूला की जगह बीसी, बिस्वा, बीघा और एकड़ ने ले ली। महान इतिहासकार पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी ने अपनी पुस्तक 'गढ़वाल का इतिहास' के पेज 244 में बीसी बनाने का तरीका इस तरह से बताया है, '' खेत की लंबाई के गजों की चौड़ाई के गजों से गुणा करके गुणनफल को 240 से भाग देकर जो निकले वह नाली है। अर्थात 240 वर्ग गज की एक नाली, 20 नाली की एक बीसी होती है। ''
     इसके बाद मुट्ठी, नाली आदि में ही भूमि का नाप होने लगा। सोलह मुट्ठी में एक नाली होती है। वर्तमान समय के हिसाब से यदि इस नाप तो देखें तो एक नाली लगभग 240 वर्ग गज होता है। अब बिस्वा का प्रचलन है। उत्तराखंड में एक बिस्वा लगभग 48.4 वर्ग गज का होता है। 20 बिस्वा का एक बीघा होता है। (भारत में प्रत्येक जगह भूमि नाप के अलग अलग तरीके हैं। राजस्थान यही एक बिस्वा लगभग 96 वर्ग गज हो जाता है। कई जगह पक्का बिस्वा और कच्चा बिस्वा चलता है और उसी हिसाब से उसके नाप भी बदल जाते हैं।) बीस बिस्वा का एक बीघा होता है।
   त्तराखंड में पहले धातुओं को तोलने के भी अपने पैमाने थे। अब सोने के भाव ग्राम से तय होते हैं लेकिन पहले 'तोला' और 'पल' से इन्हें तोला जाता था। पांच तोले का एक पल होता था। चांदी तोलने के लिये रत्ती और माशा होते थे। आठ रत्ती का एक माशा होता है और 12 माशे का एक काच या तोला होता है।
     यहां तक कि घास और लकड़ी के लिये भी अलग अलग पैमाने होते है। घास में अंग्वाल से लेकर पूला या पूली, बिठग और पलकुंड तक का पैमाना है। किसी कार्य में कितनी लकड़ियां लगेंगी इसका अनुमान 'कठगल' से लगाया जाता है। कठगल लकड़ियों के ढेर को कहते हैं। 
    इसके अलावा हर वस्तु को मापने या नापने के कुछ और भी तरीके हैं या होंगे। आपको यदि पता हो तो कृपया नीचे टिप्पणी वाले कालम में उनका जिक्र जरूर करें। घसेरी को आपकी टिप्पणियों का इंतजार रहेगा। (धर्मेन्द्र पंत)

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शनिवार, 1 अगस्त 2015

मेरे बचपन का 'शहर' कालौंडांड यानि लैन्सडाउन

बादलों का शहर लैन्सडाउन और मुख्य बाजार। फोटो : श्रीदेव उनियाल और ठाकुर मनमोहन सिंह रावत।
   चपन में अक्सर पिताजी के साथ लैन्सडाउन जाया करता था। दादी के लिये वह हमेशा कालौंडांड और मां के लिये लैन्सीडौन रहा लेकिन गढ़वाल राइफल्स के जवान पिताजी के लिये लैन्सडाउन। उन्होंने ही समझाया था कि गढ़वाली लोगों के लिये तो वह कालौंडांड या कालूडांड ही था लेकिन अंग्रेजों का शासन था। उन्हें यह नाम जंचा नहीं और उन्होंने लार्ड लैन्सडाउन का नाम उसे दे दिया। लार्ड लैन्सडाउन का नाम असल में सर हेनरी चाल्र्स कीथ पेटी फिट्जमौरिस था जो लैन्सडाउन के पांचवें मार्क्वस (इंग्लैंड में अमीरों को दी जाने वाली पदवी) थे। लैन्सडाउन हमें भी जंच गया और कालौंडांड पुरानी पीढ़ी के साथ ही मर गया। लार्ड लैन्सडाउन 1884 से 1888 तक भारत के वायसराय रहे थे। वे इससे पहले कनाडा के गवर्नर जनरल थे इसलिए वहां भी एक कस्बे का नाम लैन्सडाउन है। मैंने इसे कालौंडांड बनते भी देखा है और अब लैन्सडाउन तो है ही। मैंने यहां काले घने बादलों को इसकी पहाड़ियों पर विचरण करते हुए कई बार देखा है। ऐसे बादल कि दिन में अंधेरा हो जाए। इसके अलावा यहां बांज के जंगल भी हैं। यही वजह थी कि हमारे पुरखों ने इसे कालौंडांड नाम दिया। मतलब काला पहाड़। यह स्वीकार करने में हिचक नहीं कि यदि अंग्रेजों ने हमसे कालौंडांड छीना तो लैन्सडाउन को कुछ खूबसूरत इमारतें भी दी। यहां अंग्रेजों के जमाने के बंगले अब भी देखे जा सकते हैं। स्वच्छता और सुंदरता ही मुझे अक्सर लैन्सडाउन खींचकर ले आती थी। इसलिए तो एक बार दूर दूसरी पहाड़ी पर स्थित मंजकोट (बड़े भाई की ससुराल) से सुबह लेकर लैन्सडाउन घूमने के लिये निकल पड़ा था। पहले दो तीन किमी नीचे घाटी में उतरना और फिर मैतगढ़ से जयहरीखाल तक चार . पांच किमी की खड़ी चढ़ाई। जयहरीखाल से लैन्सडाउन तक बांज के जंगल के बीच से गुजरती साफ सुथरी सड़क का तो हर मोड़ जाना पहचाना सा लगता था। अब भले मोटरवाहनों की संख्या बढ़ गयी है लेकिन फिर भी यदि शांति और सुकून चाहिए तो कभी इस सड़क पर टहलने के लिये जरूर निकलना।

सवा सौ साल पहले अंग्रेजों ने मिटा दिया था कालौंडांड 

बादल घिरे और अंधेरा हुआ। तभी कहा होगा
                कालौंडांड यानि काला पहाड़। फोटो: श्री​देव उनियाल

     लैन्सडाउन उत्तराखंड के गढ़वाल जिले में 1706 मीटर यानि 5,597 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां सेना की गढ़वाल राइफल्स का मुख्यालय और ट्रेनिंग सेंटर है। गढ़वाल रेजीमेंट का इतिहास 100 साल से भी पुराना है। फील्ड मार्शल सर एफएस राबर्ट्स ने 1886 में गढ़वाल की अलग से रेजीमेंट बनाने की सिफारिश की थी और पांच मई 1887 को इसकी स्थापना कर दी गयी। गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन चार नवंबर 1887 को लेफ्टिनेंट कर्नल ई पी मैनवारिंग के नेतृत्व में कालौंडांड पहुंची थी। तब लैन्सडाउन का नाम कालौंडांड ही था। इसका नाम 21 सितंबर 1890 को बदला गया लेकिन गढ़वाली लोगों की जुबान पर यह नाम रचने बसने में दशकों लग गये थे। गढ़वाल राइफल्स की यहां जो पहली बैरक बनी थी उसे मैनवारिंग लाइन्स नाम दिया गया था। लैन्सडाउन की स्वच्छता का बड़ा श्रेय गढ़वाल राइफल्स को जाता है, क्योंकि यहां का कैंटोनमेंट बोर्ड शहर, पार्क और सड़कों की सफाई और सुंदरता का ध्यान रखता है।
      लैन्सडाउन बांज, चीड़ और देवदार के पेड़ों से घिरा है। इनके बीच में बुरांश के भी पेड़ हैं। लाल लेकिन बड़े फूलों के कारण बुरांस का पेड़ दूर से अलग ही नजर आ जाता है। बसंत में जब बुरांश का फूल अपने पूरे शबाव पर होता है तो वह लोगों को इन जंगलों की तरफ आने के लिये आकर्षित करता है। अंग्रेजों के जमाने में यह काफी लोकप्रिय और पसंदीदा पहाड़ी स्थल था लेकिन बाद में मसूरी, नैनीताल लोगों को अधिक आकर्षित करने लगे और लैन्सडाउन एक शांत पहाड़ी स्थल बना रहा। अब भी लैन्सडाउन के प्रति लोगों का आकर्षण बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन मैं आपको सलाह दूंगा कि यदि आप दिल्ली या आसपास के शहरों में रहते हैं तो सप्ताहांत में घूमकर आईये लैन्सडाउन। मैं गारंटी देता हूं वहां की खूबसूरती, पहाड़, जंगल आपका मनमोह देंगे। लैन्सडाउन जाने और वहां घूमने के लिये दो दिन का समय पर्याप्त है।

संतोषी माता मंदिर से सूर्यास्त का मनोरम दृश्य। फोटो : मोना पार्थसारथी

कब जाएं लैन्सडाउन

     साल में वैसे किसी भी समय आप लैन्सडाउन जा सकते हैं लेकिन गर्मियों के लिये यह आदर्श स्थल है। बरसात में तो लैन्सडाउन वास्तव में कालौंडांड बन जाता है लेकिन काली घटाओं और घने कोहरे के बीच कुछ समय बिताना है तो सावन के महीने में आप इस पहाड़ी स्थल की सैर कर सकते हैं। सितंबर से नवंबर के बीच का समय भी लैन्सडाउन की सैर के लिये आदर्श समय है। जनवरी और फरवरी में यहां बहुत अधिक ठंड पड़ती है। तब यहां बर्फ भी गिर जाती है।

पहले कोटद्वार और फिर लैन्सडाउन

      ब आप पूछेंगे कि लैन्सडाउन जाना कैसे है। यदि आप दिल्ली में रहते हैं या दिल्ली के रास्ते जाना चाहते हैं तो फिर सबसे बढ़िया विकल्प रेलगाड़ी और बसें हैं। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से रात को सवा दस बजे मसूरी एक्सप्रेस निकलती है जिसमें कुछ डब्बे कोटद्वार के लिये लगे रहते हैं। बस सवार हो जाइये रेलगाड़ी में और सुबह आप पहुंच जाएंगे कोटद्वार जो लैन्सडाउन का सबसे करीबी रेलवे स्टेशन भी है। दूसरा उपाय बसें हैं। मोरीगेट के अंतरराज्यीय बस अड्डे से रात 11 बजे तक कोटद्वार के लिये उत्तराखंड परिवहन निगम और उत्तरप्रदेश परिवहन निगम की बसें लगातार चलती रहती हैं। किराया भी ज्यादा नहीं है। ये बसें सुबह चार से पांच बजे तक आपको कोटद्वार पहुंचा देंगी। देहरादून, बरेली, आगरा, जयपुर, चंडीगढ़ आदि शहरों से भी कोटद्वार के लिये बसें आती हैं। आप अपनी गाड़ी से भी जा सकते हैं क्योंकि दिल्ली से कोटद्वार की दूरी केवल 208 किमी है और सफर में चार या पांच घंटे लगेंगे।
गढ़वाल राइफल्स का मुख्यालय है लैन्सडाउन। फोटो : मोना पार्थसारथी
      कोटद्वार से लैन्सडाउन के लिये बसें और टैक्सियां बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन के पास में ही लगी रहती हैं। यहां पर आपको बसों के ड्राइवर और कंडक्टर लैन्सडाउन, लैन्सडाउन चिल्लाते हुए मिल जाएंगे। घुस जाईये किसी बस या टैक्सी में और यह सस्ते में आपको लैन्सडाउन पहुंचा देगी। आप यहां से टैक्सी बुक करके भी जा सकते हैं। एक या डेढ़ घंटे में आसानी से कोटद्वार से लैन्सडाउन पहुंचा जा सकता है। रास्ते में पहले दुगड्डा पड़ेगा। उसके आगे से बायीं तरफ एक रास्ता गुमखाल तो दूसरा लैन्सडाउन के लिये निकल जाएगा। कोटद्वार से लैन्सडाउन केवल 40 किमी दूर है। अगर आप मसूरी या देहरादून से लैन्सडाउन जाना चाहते हैं तो तब भी तीन या चार घंटे में पहुंच सकते हैं। मसूरी से लैन्सडाउन की दूरी लगभग 200 किमी है। इसके लिये भी आपको पहले कोटद्वार ही आना पड़ेगा। एक रास्ता पौड़ी से भी यहां आता है लेकिन वह काफी लंबा है और उसमें समय भी अधिक लगेगा। पौड़ी से लैन्सडाउन 78 किमी दूर है। यदि आप हवाई यात्रा करके लैन्सडाउन के करीब पहुंचना चाहते हैं तो आपको देहरादून के जौली ग्रांट हवाई अड्डे पर उतरना पड़ेगा। वहां से लैन्सडाउन 150 किमी दूर है।

टिप इन टाप से लेकर भुल्ला ताल, हर जगह है मस्त

      लैन्सडाउन में रूकने के लिये कुछ सस्ते होटल और रेस्ट हाउस हैं लेकिन गढ़वाल मंडल विकास निगम का रेस्ट हाउस जो मुख्य शहर से ऊपर पहाड़ी पर स्थित है और यहां से आप लैन्सडाउन का मनोहारी दृश्य भी देख सकते हैं। बेहतर होगा कि आप गढ़वाल मंडल विकास निगम के दिल्ली या देहरादून कार्यालय से पहले कमरे बुक करालें।
      अब लैन्सडाउन तो पहुंच गये लेकिन घूमने कहां जाएं। अगर आपको पर्वत श्रृंखलाओं की लंबी कतार और घाटियां देखनी हैं तो टिप इन टाप पर चले जाइये। पर्यटन विभाग ने यहां पर लकड़ी की कुछ झोपड़ियां भी बनायी हैं। आप आराम से यहां पर एक या दो दिन बिता सकते हैं। भुल्ला ताल (गढ़वाली में भुल्ला छोटे भाई को कहा जाता है) के शांत और स्वच्छ माहौल में भी कुछ समय जरूर बिताना। यह कृत्रिम झील है जो गढ़वाल राइफल्स ने बनायी थी। लैन्सडाउन में पानी की कमी शुरू से रही है और उसकी पूर्ति को ध्यान में रखकर यह झील बनायी गयी। आप यहां वोटिंग का भी लुत्फ उठा सकते हैं। क्वीन्स लाइन पर चर्च अंग्रेजों के जमाने की यादें ताजा कर देता है। क्वीन्स लाइन डेनमार्क की एलेक्जेंडरा (एलेक्जेंडरा कैरोलिना मैरी चारलोटी लौसी जूलिया) के नाम पर रखा गया जो इंग्लैंड के महाराजा इडवर्ड सप्तम की रानी थी। इसका निर्माण 1901 से 1910 के बीच कराया गया था। यह टिप इन टॉप के रास्ते पर पड़ता है।
लैन्सडाउन का आकर्षण है भुल्ला ताल। फोटो : श्रीदेव उनियाल
      सेना और उससे जुड़ी चीजों में दिलचस्पी रखते हैं तो दरवान सिंह संग्रहालय होकर आ जाइये। संतोषी माता का मंदिर भी यहां की खूबसूरती में चार चांद लगाता है। मुख्य बाजार से डेढ़ से दो किमी की दूरी पर भीम पकौड़ा है। यहां एक पत्थर के ऊपर दूसरा पत्थर बड़ी कुशलता से रखा हुआ है। कहा जाता है कि जब पांडव वनों में भटक रहे थे तो एक रात उन्होंने यहां भी बितायी और भीम ने इन पत्थरों को एक दूसरे के ऊपर रखा है। यह चट्टान आसानी से हिलायी जा सकती है लेकिन यह कभी गिरती नहीं। और हां यहां 'लवर्स लेन' भी है। बांज, चीड़ और देवदार के पेड़ों से घिरी सड़क। ट्रेकिंग पर निकल जाइये। यह घूमने के लिये आदर्श स्थल है। यदि आपके पास समय है तो लैन्सडाउन से लगभग 40 किमी की दूरी पर ​ताड़केश्वर महादेव का मंदिर है। सुंदर, सुरम्य और शांत स्थल। यहां भगवान शिव का मंदिर है जो देवदार के पेड़ों से घिरा है। यह गढ़वाल स्थित सिद्धपीठों में से एक है। लैन्सडान से टैक्सी लेकर आप आसानी से ताड़केश्वर महादेव जा सकते हैं। मुख्य सड़क से यह मंदिर लगभग एक किमी की चढ़ाई पर है। शिवरात्रि के दिन यहां बड़ा मेला लगता है। 
       तो फिर देर किस बात की। घूम आइये एक दिन दो तीन दिन के लिये लैन्सडाउन और फिर लिख भेजिये कि आपको कैसे लगा मेरे बचपन का यह 'शहर'। (धर्मेन्द्र पंत)

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