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शनिवार, 5 अगस्त 2017

लोकभाषाओं को लेकर मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को खुला खत

माननीय मुख्यमंत्री जी,
     पिछले दिनों के आपके दो ट्वीट पढ़ने को मिले और तभी से मेरा मन था कि आपके साथ इस विषय पर संवाद करूं। मैं पौड़ी गढ़वाल जिले के स्योली गांव का मूल निवासी हूं लेकिन फिलहाल नयी दिल्ली में बसा हुआ हूं। पेशे से पत्रकार हूं और वर्तमान में समाचार एजेंसी पीटीआई भाषा में कार्यरत हूं। यह मेरा संक्षिप्त परिचय है। महोदय, आपने दोनों ट्वीट में स्थानीय बोली या भाषा में लोगों से संवाद करने की बात की है। मुझे आपके ट्वीट से महान नेल्सन मंडेला का कथन याद आ गया। उन्होंने कहा था, ‘‘अगर आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जिसे वह समझता है तो वह उसके केवल दिमाग तक जाएगी लेकिन यदि आप उस से उसकी भाषा में बात करते हैं तो वह उसके दिल तक जाएगी।’’ स्वाभाविक है कि जब स्थानीय भाषा में लोगों से बात करेंगे तो वह उनके दिलों तक जाएगी। 
    आपके ट्वीट से यह भी स्पष्ट होता है कि आप स्थानीय लोकभाषाओं पर मंडरा रहे खतरे को लेकर चिंतित हैं। असल में जिस तरह से गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी आदि उत्तराखंड की तमाम भाषाओं को बोलने वाले लोगों की संख्या में कमी आ रही है तो चिंताग्रस्त होना स्वाभाविक है और मुझे खुशी है कि आप इसके प्रति गंभीर हैं। 
     भैजी मुझे लगता है कि इस संदर्भ में सबसे पहले हमें अपनी लोकभाषाओं के बारे में जानना और फिर उन पर मंडरा रहे खतरों के कारणों का पता लगाना जरूरी है। विश्व भर में स्थानीय भाषाओं पर मंडरा रहे खतरे से यूनेस्को से लेकर भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण तक में चिंता जतायी है। भारत में 1961 की जनगणना में 1652 भाषाओं का जिक्र किया गया है लेकिन 2001 की जनगणना में केवल 122 भाषाओं के बारे में ही बताया गया है। आज ही मैंने एक हिन्दी दैनिक में खबर पढ़ी कि देश की 400 भाषाएं अगले 50 वर्षों में खत्म हो जाएंगी और अचानक ही दिमाग में अपने उत्तराखंड की भाषाएं तैरने लगी। 


      रावत जी आपने एक पुरानी कहावत सुनी होगी ‘‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बाणी।’’ उत्तराखंड में यह अक्षरशः लागू होती है। यहां भाषाओं की भरमार है लेकिन देश भर की 800 से अधिक भाषाओं पर सर्वे करने वाली सरकारी संस्था ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडियन लैंग्वेज’ यानि पीएलएसआईएल ने इसमें उत्तराखंड की 13 भाषाओं को स्थान दिया था। ‘भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण’ में भी इन 13 भाषाओं को ही रखा गया है। इन भाषाओं में गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, जौनपुरी, रवांल्टी, बंगाणी, जाड़, जोहारी, बुक्साणी, राजी, मार्च्छा, थारू और रंघल्वू शामिल हैं। यूनेस्को ने एक सारणी तैयार की थी जिसमें विश्व की उन सभी भाषाओं को शामिल किया था जो असुरक्षित हैं या जिन पर खतरा मंडरा रहा है। उत्तराखंड की दो प्रमुख भाषाओं गढ़वाली और कुमांउनी को इसमें ‘असुरक्षित’ वर्ग में रखा गया था। जौनसारी और जाड़ जैसी भाषाएं ‘संकटग्रस्त’ जबकि बंगाणी ‘अत्याधिक संकटग्रस्त’ की श्रेणी में आ गयी। अगर वर्तमान स्थिति नहीं बदली तो हो सकता है कि आने वाले 10—12 वर्षों में ही बंगाणी लोकभाषा खत्म हो जाए। भोटान्तिक भाषाएं जैसे जोहारी, मार्च्छा व तोल्छा, जाड़ आदि ‘संकटग्रस्त‘ बन गयी हैं। राजी तो लगभग खत्म होने के कगार पर है। गढ़वाली और कुमांउनी उत्तराखंड की प्रमुख भाषाएं हैं लेकिन इन दोनों पर हिन्दी और अंग्रेजी पूरी तरह से हावी हैं। ऐसे में बाकी भाषाओं की स्थिति अधिक दयनीय बन गयी है। 
     यूनेस्को के अनुसार, ‘‘यदि किसी भाषा को तीन पीढ़ी के लोग बोलते हैं तो वह सुरक्षित है, यदि दो पीढि़यां बोल रही हैं तो वह संकट में है और यदि केवल एक पीढ़ी बोल रही है तो उस भाषा पर गंभीर संकट मंडरा रहा है।’’ इस कसौटी पर अगर हम उत्तराखंड की भाषाओं को रखते हैं तो स्थिति गंभीर है और अपनी अगली पीढ़ी को अगर अब भी हमने अपनी भाषाओं के प्रति जागरूक नहीं किया तो फिर आगे हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएंगे। 
    भैजी सबसे बड़ा सवाल यह है कि उत्तराखंड की लोकभाषाएं अगर ''संकटग्रस्त'' बनीं तो क्यों? आपको याद होगा ​कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन का मुख्य मुद्दा था ‘पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी’ को पहाड़ में रोकना है लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। उत्तराखंड राज्य के गठन से पहले ही पहाड़ के गांव खाली होने शुरू हो गये थे। उत्तराखंड की भाषाएं आज अगर संकट से गुजर रही हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण है पलायन है। सबसे पहले आपको पलायन रोकने और शहरों में बस चुके पहाड़ियों को गांवों की तरफ आकर्षित करने के लिये ठोस कदम उठाने होंगे। पलायन के पीछे रोजगार बड़ा कारण है और सचाई यह है कि अब तक उत्तराखंड में स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा करने के सरकार की तरफ से कोई विशेष प्रयास नहीं किये गये। बेहतर शिक्षा और चिकित्सा का अभाव भी एक कारण है जिसके लिये लोग दिल्ली, देहरादून, मुंबई जैसे शहरों में बस गये तथा नयी पीढ़ी के लिये गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी आदि अपनी भाषा पीछे छूट गयी। लोगों के दिमाग में यह बात बैठ गयी है कि यदि हम अपने बच्चों को अपनी भाषा सिखाते हैं तो वे पिछड़ जाएंगे। इसके लिये अब आपको खुद अपनी भाषाओं का 'ब्रांड एंबेसडर' बनना होगा। आपको लोगों को अपने घरों में स्थानीय भाषा में बात करने के लिये प्रेरित करना होगा। जैसा कि आपने अपने ट्वीट में कहा है, अगर आप उस पर पूरी तरह से अमल करते हैं तो लोगों को भी इससे प्रेरणा मिलेगी। लोगों के दिमाग में यह बात बिठानी होगी कि अपनी भाषा में बात करना हीन भावना नहीं बल्कि सम्मान की बात है। यह संदेश घर घर तक पहुंचाने में आप अहम भूमिका निभा सकते हैं। 
    मुख्यमंत्री जी उम्मीद है कि आपको यह पत्र उबाऊ नहीं लग रहा होगा। लेकिन भैजी यह गंभीर विषय है क्योंकि जब भाषा जिंदा रहती है तो उसके साथ भूगोल, इतिहास, संस्कृति, सरोकार, कृषि, बागवानी, पशुपालन, परंपराएं, पूरी संस्कृति और सामाजिक सरोकार भी जिंदा रहते हैं। भाषा बदलने के कारण पहाड़ की संस्कृति और परंपराएं भी प्रभावित हो रही हैं। 
    त्तराखंड की भाषाओं को बचाने के लिये कहा जा रहा है कि इसे पाठ्यक्रम में शामिल कर देना चाहिए। मैं भी इस कदम का समर्थक हूं। यूनेस्को की महानिदेशक इरिना बुकोवा का कहना है कि ‘‘अच्छी शिक्षा के लिये मातृभाषा जरूरी अवयव है जो असल में महिलाओं ओर पुरुषों के साथ उनके समाज को भी मजबूत बनाने की नींव है।’’ पिछले साल मैंने अपने ब्लॉग में उत्तराखंड की भाषाओं पर लिखा था तो सवाल उठे थे कि क्या इन लोकभाषाओं को भाषा कहना सही होगा क्योंकि यह भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हैं और इसकी लिपि भी नहीं है। मैंने तब पीपुल्स लिंगुइस्टिक सर्वे के संयोजक गणेश देवी के एक बयान का सहारा लिया था। उन्होंने कहा था, ‘‘जिसकी लिपि नहीं है उसे बोली कहने का रिवाज है। इस तरह से तो अंग्रेजी की भी लिपि नहीं है। उसे रोमन में लिखा जाता है। किसी भी लिपि का उपयोग दुनिया की किसी भी भाषा के लिये हो सकता है। जो भाषा प्रिंटिंग टेक्नोलोजी में नहीं आयी, वह तो तकनीकी इतिहास का हिस्सा है न कि भाषा का अंगभूत अंग। इसलिए मैं इन्हें भाषा ही कहूंगा।’’ संविधान भी हमें इन भाषाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने की छूट देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350ए में प्राथमिक स्तर पर अपनी भाषा में शिक्षा की सुविधा देने की बात की गयी है। 
    भैजी एक बड़ा सवाल यह भी है कि उत्तराखंड की भाषाओं को यदि पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है तो उन्हें किस तरह से समायोजित किया जाए क्योंकि 13 भाषाओं के अलग अलग नहीं रखा जा सकता है। मुझे इसका एक सरल उपाय लगता है कि तीन मुख्य भाषाओं गढ़वाली, कुमांउनी और जौनसारी को उनके क्षेत्रों के हिसाब से पाठ्यक्रम में शामिल करके उनके ज्यादा करीबी भाषाओं के कुछ अध्याय उसमें शामिल किये जा सकते हैं। पाठ्यक्रम में वहां की संस्कृति, वहां के लोक गीतों, मुहावरों, लोक कथाओं, लोकोक्तियों, किवदंतियों, पहेलियों आदि को शामिल किया जा सकता है। कहने का मतलब है कि पाठ्यक्रम रोचक होना चाहिए। 
    रावत साहब अगर भाषा पाठ्यक्रम का हिस्सा बनती है तो वह रोजगार भी पैदा करेगी। अगर उत्तराखंड की भाषाओं को आप किसी तरह से रोजगार से जोड़ने में सफल रहते हैं तो नयी पीढ़ी खुद ही इन भाषाओं को सीखने का प्रयास करेगी। अभी उत्तराखंड की भाषाओं का सबसे कमजोर पक्ष यही है कि वे रोजगार की भाषाएं नहीं हैं। उनका आर्थिक पक्ष बेहद कमजोर है। हमें अपनी भाषाओं को नयी तकनीकी से भी जोड़ना होगा। हमें स्थानीय भाषाओं की उन विभिन्न पत्र पत्रिकाओं को सहयोग देना होगा जिनमें से अधिकतर आर्थिक संकट के कारण दम तोड़ रही हैं या किसी तरह खींचतान के जिनका प्रकाशन किया जा रहा है। 
   भैजी आखिर में मैं यही कहूंगा कि प्रत्येक भाषा का एक संपूर्ण इतिहास और भूगोल होता है। जब एक भाषा खत्म होती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान भी लुप्त हो जाता है। इस संपूर्ण ज्ञान को बचाने की जिम्मेदारी अब आपके मजबूत कंधों पर है। हम सब आपके साथ हैं। हमारा सहयोग हमेशा आपके साथ बना रहेगा। शुभकामनाओं सहित। 
                 आपका भुला 
                धर्मेन्द्र पंत 
                एक पलायक पहाड़ी 
           ‘‘दशा और दिशा : उत्तराखंड की लोकभाषाएं’’ के लेखक


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शनिवार, 15 अक्टूबर 2016

जौनसार के दो गांवों के बीच होता है अद्भुत 'गागली युद्ध'

       त्तराखंड के गढ़वाल मंडल का एक क्षेत्र है जौनसार जहां जौनसारी भाषा बोली जाती है। यह पूरा क्षेत्र भी उत्तराखंड के तमाम अन्य क्षेत्रों की तरह अपनी अनूठी परंपराओं के लिये विख्यात है। मसलन जब देश भर में दशहरा पूरे धूमधाम से मनाया जाता है तब यहां पाइंता पर्व मनाया जाता है और इस दौरान जौनसार बावर के दो गांवों उत्पाल्टा और कुरोली के बीच युद्ध होता है जिसे 'गागली युद्ध' कहा जाता है। अरबी के पत्तों और डंठलों से होने वाले इस अनोखे युद्ध को देखने के लिये दूरदराज के गांवों के लोग भी आते हैं तथा शुरूआत से लेकर अंत तक इसमें संघर्ष के साथ मनोरंजन का पुट भरा रहता है।

गागली युद्ध का यह वीडियो श्री जितेंद्र लखेड़ा ने उपलब्ध कराया है

        दशहरे के दिन पूरे भारत में रावण दहन किया जाता है लेकिन यहां ऐसी कोई परंपरा नहीं है। पिछले 200 से भी अधिक वर्षों से इस अवसर पर उत्पाल्टा व कुरोली गांवों के बीच दशहरे के दिन गागली युद्ध होता है। ढोल—नगाड़ों की थाप, रणसिंघा की रणभेरी समान ध्वनि के बीच दोनों गांवों के लोग देवधार के जंगल में पहुंचते हैं जहां उनके बीच अरबी के डंठलों और पत्तों से युद्ध होता है। जौनसारी भाषा में अरबी को गागली कहते हैं और इसलिए इसे 'गागली युद्ध' कहा जाता है। युद्ध के लिये एक महीने पहले से ही तैयारी कर ली जाती है। अरबी के डंठलों को काटकर सुखाया जाता है। युद्ध के दिन दोनों पक्ष अपने शौर्य का भरपूर प्रदर्शन करते हैं। हंसी ठिठोली भी चलती है। लगभग एक घंटे के युद्ध के बाद दोनों पक्ष आपस में गले मिलते हैं। एक दूसरे को पाइंता पर्व की बधाई देते हैं और फिर उत्पाल्टा गांव के सार्वजनिक स्थल पर तांदी, हारूल, रासो जैसे नृत्यों से समां बांधा जाता है। इन नृत्यों में दोनों गांव के बच्चों से लेकर महिलाएं और पुरूष सभी हिस्सा लेते हैं। इसके साथ ही लोग अपने स्थानीय देवताओं महासू, चालदा, शिलगुर, विजट, परशुराम आदि के मंदिरों में पूजा करते हैं। उत्पाल्टा और कुरोली के अलावा अन्य गांवों के लोग भी इस दिन पाइंता पर्व मनाते हैं और अपने इन इष्टदेवों के मंदिरों में जाकर परिवार की खुशहाली के लिये कामना करते हैं। 

पश्चाताप के लिये होता है 'गागली युद्ध'


      गागली युद्ध से एक कहानी जुड़ी है। स्थानीय किवदंतियों के अनुसार रानी और मुन्नी नाम की दो बहनें थी। दोनों ही एक साथ कुएं या तालाब में पानी भरने के लिये जाती थी। एक दिन रानी की पानी भरते समय कुएं में गिरने से मौत हो गयी। मुन्नी तुरंत ही घर पहुंची और उसने गांव वालों को सारी घटना विस्तार से बता दी। गांव वालों ने मुन्नी पर ही आरोप लगा दिया कि उसने रानी को धक्का देकर कुंए में फेंका। मुन्नी की किसी से नहीं सुनी। उसे दोषी मान लिया गया। वह पहले ही अपनी सहेली की मौत से सदमे में थी और गांव वालों के आरोपों से दुखी होकर उसने भी कुएं में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। ग्रामीणों को बाद में अपनी गलती का अहसास हुआ। अब पछतावा करने के अलावा कुछ नहीं बचा था। उन्हें रानी और मुन्नी के श्राप का डर सताने लगा। ऐसे में वे महासू देवता की शरण में गये। देवता ने उन्हें दशहरे के दिन दोनों बहनों की मूर्तियां बनाकर कुएं में विसर्जित करने की सलाह दी। तब से ही पश्चाताप के रूप में गागली युद्ध होता है। इससे दो दिन पहले रानी और मुन्नी की मूर्तियां तैयार करके उनकी पूजा होती है और पाइंता यानि दशहरे के दिन उन्हें कुएं में विसर्जित कर दिया जाता है। 
       उत्तराखंड का हर क्षेत्र ऐसी ही दिलचस्प कहानियों और प​रपंराओं से समृद्ध है। 'घसेरी' के पाठकों से गुजारिश है कि ऐसी परंपराओं को आम लोगों तक पहुंचाने के लिये अपना सहयोग करें। आप घसेरी के लिये इन विषयों पर लिख सकते हैं। यदि गागली युद्ध के बारे में अधिक जानकारी या चित्र हों तो उन्हें भी भेज सकते हैं। पहाड़ से जुड़ा ऐसे किसी विषय पर लिखकर आप मुझे चित्र सहित dmpant@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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रविवार, 8 मई 2016

उत्तराखंड में बोली जाती हैं 13 भाषाएं

कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी। यह कहावत उत्तराखंड पर अक्षरश: लागू होती है। 

   दुनिया आज 'मदर्स डे' मना रही है। मां के लिये भी एक दिन तय कर दिया है, मुझे यह जंचता नहीं है। मां हर दिन याद आती है और हर दिन मां के लिये होता है। पहाड़ों में मां को मां के अलावा ब्वे, बोई, ईजा, आमा कई तरह से पुकारा जाता है। इस पर बाद में चर्चा करेंगे। अभी तो आपसे मैं एक सवाल करता हूं कि उत्तराखंड में कितनी भाषाएं बोली जाती हैं? मैंने यह सवाल कई पहाड़ियों से किया तो उनमें से अधिकतर का जवाब होता था तीन यानि गढ़वाली, कुमांउनी और जौनसारी। आज 'घसेरी' आपको उत्तराखंड की तमाम भाषाओं से अवगत कराने की कोशिश करेगी।
       उत्तराखंड में कुल 13 भाषाएं बोली जाती हैं। यह 'घसेरी' नहीं बल्कि भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण का निष्कर्ष है। उत्तराखंड की भाषाओं को लेकर सबसे पहले सर्वेक्षण करने वाले जार्ज ग्रियर्सन ने भी इनमें से अधिकतर भाषाओं की जानकारी दी थी। ग्रियर्सन ने 1908 से लेकर 1927 तक यह सर्वेक्षण करवाया था। इसके बाद उत्तराखंड की भाषाओं को लेकर कई अध्ययन किये गये। हाल में 'पंखुड़ी' नामक संस्था ने भी इन भाषाओं पर काम किया। यह सभी काम 13 भाषाओं पर ही केंद्रित रहा। इनमें गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, जौनपुरी, जोहारी, रवांल्टी, बंगाड़ी, मार्च्छा, राजी, जाड़, रंग ल्वू, बुक्साणी और थारू शामिल हैं। इस पर मतभेद हो सकते हैं कि ये भाषाएं हैं या बोलियां। मेरा मानना है कि अगर एक बोली का अपना शब्द भंडार है, वह खुद को अलग तरह से व्यक्त करती है तो उसे भाषा बोलने में गुरेज क्या। कई लोगों को मानना है कि उत्तराखंड की भाषाओं की अपनी लिपि नहीं है तो मेरा इस पर जवाब होता है कि अंग्रेजी की भी अपनी लिपि नहीं है। वह रोमन लिपि में लिखी जाती है तो क्या आप उसे भी भाषा नहीं मानोगे। मराठी की देवनागरी लिपि है और हमारे उत्तराखंड की भाषाओं जो साहित्य​ लिखा गया उसमें ​देवनागरी का ही उपयोग किया गया। इस विषय पर आगे कभी लंबी चर्चा हो सकती है। फिलहाल 'घसेरी' के साथ चलिए भाषाओं को लेकर उत्तराखंड की सैर करने।

कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी 


    हम सभी जानते हैं कि उत्तराखंड में दो मंडल हैं गढ़वाल और कुमांऊ। इन दोनों की अपनी अलग अलग भाषाएं हैं। इनसे जुड़े क्षेत्रों की अन्य भाषाएं इनसे प्रभावित हो सकती हैं लेकिन अध्ययन के दौरान 'घसेरी' ने पाया कि उनकी शब्दावली और वाक्य विन्यास में काफी अंतर पाया जाता है। वैसे साथ में चेतावनी भी ​है कि यूनेस्को ने उत्तराखंड की सभी भाषाओं को संकटग्रस्त भाषाओं की श्रेणी में शामिल किया है। इसको संकट में हम ही डाल रहे हैं इसलिए सावधान हो जाइये। गढ़वाली और कुमांउनी यहां की दो मुख्य भाषाएं हैं इसलिए पहले इन्हीं के बारे में जान लेते हैं।



गढ़वाली : गढ़वाल मंडल के सातों​ जिले पौड़ी, टिहरी, चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, देहरादून और हरिद्वार गढ़वाली भाषी लोगों के मुख्य क्षेत्र हैं। कुमांऊ के रामनगर क्षेत्र में गढ़वाली का असर देखा जाता है। माना जाता है कि गढ़वाली आर्य भाषाओं के साथ ही विकसित हुई लेकिन 11—12वीं सदी में इसने अपना अलग स्वरूप धारण कर लिया था। इस पर हिन्दी के अलावा मराठी, फारसी, गुजराती, बांग्ला, पंजाबी आदि का भी प्रभाव रहा है लेकिन गढ़वाली का अपना शब्द भंडार है जो काफी विकसित है और हिन्दी जैसी भाषा को भी अपने शब्द भंडार से समृद्ध करने की क्षमता रखती है। ग्रियर्सन ने गढ़वाली के कई रूप जैसे श्रीनगरी, नागपुरिया, बधाणी, सलाणी, टिहरियाली, राठी, दसौल्या, मांझ कुमैया आदि बताये थे। बाद में कुछ साहित्यकारों ने मार्च्छा, तोल्छा, जौनसारी का भी गढ़वाली का ही एक रूप माना। गढ़वाली भाषाविद डा. गोविंद चातक ने श्रीनगर और उसके आसपास बोली जाने वाली भाषा को आदर्श गढ़वाली कहा था। वैसे भी कहा गया है, ''कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी। ''
कुमांउनी : कुमांऊ मंडल के छह जिलों नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत और उधमसिंह नगर में कुमांउनी बोली जाती है। वैसे इनमें से लगभग हर जिले में कुमांउनी का स्वरूप थोड़ा बदल जाता है। गढ़वाल और कुमांऊ के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोग दोनों भाषाओं को बोल और समझ लेते हैं। कुमाउंनी की कुल दस उप बोलियां हैं जिन्हें पूर्वी और पश्चिमी दो वर्गों में बांटा गया है। पूर्वी कुमाउंनी मेंकुमैया, सोर्याली, अस्कोटी तथा सीराली जबकि पश्चिमी कुमाउंनी में खसपर्जिया, चौगर्खिया, गंगोली, दनपुरिया, पछाईं और रोचोभैंसी शामिल हैं। कुमांऊ क्षेत्र में ही भोटिया, राजी, थारू और बोक्सा जनजातियां भी रहती हैं जिनकी अपनी बोलियां हैं। पुराने साहित्यकारों ने इसे 'पर्वतीय' या 'कुर्माचली' भाषा कहा है।
जौनसारी : गढ़वाल मंडल के देहरादून जिले के पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र को जौनसार भाबर कहा जाता है। यहां की मुख्य भाषा है जौनसारी। यह भाषा मुख्य रूप से तीन तहसीलों चकराता, कालसी और त्यूनी में बोली जाती है। इस क्षेत्र की सीमाएं टिहरी ओर उत्तरकाशी से लगी हुई हैं और इसलिए इन जिलों के कुछ हिस्सों में भी जौनसारी बोली जाती है। जार्ज ग्रियर्सन ने इसे पश्चिमी पहाड़ी की बोली कहा था। कहने का मतलब है कि इसे उन्होंने हिमाचल प्रदेश की बोलियों के ज्यादा करीब बताया था। इसमें पंजाबी, संस्कृ​त, प्राकृत और पाली के कई शब्द मिलते हैं।
जौनपुरी: यह ​टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड में बोली जाती है। इसमें दसजुला, पालीगाड़, सिलवाड़, इडवालस्यूं, लालूर, छःजुला, सकलाना पट्टियां इस क्षेत्र में आती हैं। टिहरी रियासत के दौरान यह काफी पिछड़ा क्षेत्र रहा लेकिन इससे यहां की अलग संस्कृति और भाषा भी विकसित हो गयी। यह जनजातीय क्षेत्र है। डा. चातक के अनुसार यमुना के उदगम के पास रहने के कारण इन्हें यामुन जाति कहा जाता था। कभी इस क्षेत्र को यामुनपुरी भी कहा जाता था जो बाद में जौनपुरी बन गया।
रवांल्टी :  उत्तरकाशी जिले के पश्चिमी क्षेत्र को रवांई कहा जाता है। यमुना और टौंस नदियों की घाटियों तक फैला यह वह क्षेत्र है जहां गढ़वाल के 52 गढ़ों में से एक राईगढ़ स्थित था। इसी से इसका नाम भी रवांई पड़ा। इस क्षेत्र की भाषा गढ़वाली या आसपास के अन्य क्षेत्रों से भिन्न है। इस भाषा को रवांल्टी कहा जाता है। डा. चातक ने पचास के दशक में 'गढ़वाली की उप बोली रवांल्टी, उसके लोकगीत' विषय पर ही आगरा विश्वविद्यालय से पीएचडी की थी। वर्तमान समय में भाषा विद और कवि महावीर ​रवांल्टा इस भाषा के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
जाड़ : उत्तरकाशी जिले के जाड़ गंगा घाटी में निवास करने वाली जाड़ जनजाति की भाषा भी उनके नाम पर जाड़ भाषा कहलाती है। उत्तरकाशी के जादोंग, निलांग, हर्षिल, धराली, भटवाणी, डुंडा, बगोरी आदि में इस भाषा के लोग मिल जाएंगे। जाड़ भोटिया जनजाति का ही एक अंग है जिनका तिब्बत के साथ लंबे समय तक व्यापार रहा। इसलिए शुरू में इसे तिब्बत की 'यू मी' लिपि में भी लिखा जाता था। अभी इस बोली पर काफी खतरा मंडरा रहा है।
बंगाणी : उत्तरकाशी जिले के मोरी तहसील के अंतर्गत पड़ने वाले क्षेत्र को बंगाण कहा जाता है। इस क्षेत्र में तीन पट्टियां— मासमोर, पिंगल तथा कोठीगाड़ आती हैं जिनमें बंगाणी बोली जाती है। यूनेस्को ने इसे उन भाषाओं में शामिल किया है जिन पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है।
मार्च्छा : गढ़वाल मंडल के चमोली जिले की नीति और माणा घाटियों में रहने वाली भोटिया जनजाति मार्च्छा और तोल्छा भाषा बोलती है। इस भाषा में तिब्बती के कई शब्द मिलते हैं। नीति घाटी में नीति, गमसाली और बाम्पा शामिल हैं जबकि माणा घाटी में माणा, इन्द्रधारा, गजकोटी, ज्याबगड़, बेनाकुली और पिनोला आते हैं।
जोहारी : यह भी भोटिया जनजाति की एक भाषा है ​जो पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी क्षेत्र में बोली जाती है। इन लोगों का भी तिब्बत के साथ लंबे समय तक व्यापार रहा इसलिए जोहारी में भी तिब्बती शब्द पाये जाते हैं।
थारू : उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के तराई क्षेत्रों, नेपाल, उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्राों में ​थारू जनजाति के लोग रहते हैं। कुमांऊ मंडल में यह जनजाति मुख्य रूप से उधमसिंह नगर के खटीमा और सितारगंज विकास खंडो में रहती है। इस जनजाति के लोगों की अपनी अलग भाषा है जिसे उनके नाम पर ही थारू भाषा कहा जाता है। यह कन्नौजी, ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली का मिश्रित रूप है।
बुक्साणी : कुमाऊं से लेकर गढ़वाल तक तराई की पट्टी में निवास करने वाली जनजाति की भाषा है बुक्साणी। इन क्षेत्रों में मुख्य रूप से काशीपुर, बाजपुर, गदरपुर, रामनगर, डोईवाला, सहसपुर, बहादराबाद, दुगड्डा, कोटद्वार आदि शामिल हैं।
रंग ल्वू : कुमांऊ में मुख्य रूप से पिथौरागढ़ की धारचुला तहसील के दारमा, व्यास और चौंदास पट्टियों में रंग ल्वू भाषा बोली जाती है। इसे तिब्बती—बर्मी भाषा का अंग माना जाता है जिसे प्राचीन समय से किरात जाति के लोग बोला करते थे। दारमा घाटी में इसे रङ ल्वू, चौंदास में बुम्बा ल्वू और ब्यास घाटी में ब्यूंखू ल्वू के नाम से जाना जाता है।
राजी : राजी कुमांऊ के जंगलों में रहने वाली जनजाति थी। यह खानाबदोश जनजाति थी जिसने पिछले कुछ समय से स्थायी निवास बना लिये हैं। नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़, चंपावत और ऊधमसिंह नगर जिलों में इस जनजाति के लोग रहते हैं। यह भाषा तेजी से खत्म होती जा रही है।
         मने शुरुआत 'मां' से की थी तो अब जान लें कि उत्तराखंड की भाषाओं में मां के लिये क्या बोला जाता है। वैसे यहां की भाषाओं में अब मां आम प्रचलित है लेकिन पहले ब्वे, बोई या ईजा भी बोला जाता था। मां के लिये उत्तराखंड की भाषाओं के शब्द ....
गढ़वाली ... ब्वे, अम्मा, बोई। कुमांउनी, जोहारी, रंग ल्वू ... ईजा, अम्मा। जाड़ ... आं। बंगाणी ... इजै। रवांल्टी ... बुई, ईजा। जौनपुरी ... बोई। जौनसारी ... ईजी। थारू ... अय्या। राजी ... ईजलुअ, इहा। मार्च्छा ... आमा।
         उत्तराखंड की भाषाओं पर आगे भी आपको महत्वपूर्ण जानकारी देने की कोशिश करूंगा। फिलहाल इतना ही। कैसा लगा यह आलेख जरूर बताएं। आपका अपना धर्मेन्द्र पंत। 

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