शनिवार, 19 मार्च 2016

गांव की मेरी होली और होली गीत

 हम होली वाले देवें आशीष, गावें बजावें जी देवें आशीष..... घसेरी के पाठकों को होली की शुभकामनाएं। 


       मां ने हां कर दी थी लेकिन पिताजी को मनाना टेढी खीर था। उन्हें घर . घर जाकर होली खेलना और चंदा मांगना पसंद नहीं था। आखिर मां का सहारा लिया और पिताजी भी मान गये। उम्र यही नौ दस साल रही होगी। मेरे दोस्त भी मेरी तरह उत्साह और उमंग से भरे थे। सबसे पहले तैयार करनी थी ढोलकी। मैं खुद ही एक ढोलकी तैयार करने में जुट गया। उसमें भी मां की मदद ली। एक बेलनाकार बड़ा सा डब्बा (मां उसे एक किलो का डब्बा बोलती थी) मिल गया। उसका मुंह तो खुला ही था, दूसरी तरफ का हिस्सा काटकर पूरा खोखला बना दिया। इसके बाद व्यवस्था की गयी मजबूत से प्लास्टिक की। पहले बरसात में महिलाएं खेतों में काम करने के लिये सिर पर प्लास्टिक  डालकर ले जाती थी जो निराई . गुड़ाई करते समय उनकी पीठ को भी बचाता था। ऐसा ही एक पुराना प्लास्टिक मिल गया। लचीली लकड़ी ली और उसे डब्बे के गोलाकार आकार के बराबर काटकर उसके दोनों छोर बांध दिये। इससे वह गोल हो गया। अब उस पर ऊपर से प्लास्टिक को रखकर उसे लकड़ी के साथ अच्छी तरह से सील दिया। इसे पुड़की कहते हैं। अब दोनों पुड़ियों को कसकर रस्सी से जोड़ दिया। बीच में एक रस्सी गले में डालने के लिये भी लगा दी और बन गयी ढोलकी। मेरे कुछ दोस्तों ने भी अपनी ढोलकी बना दी थी। 
       होली खेलने के लिये तैयारियां शुरू हो गयी थी। मेरा गांव स्योली काफी बड़ा है और तब तो सभी गांववासी गांव में ही बसते थे। मतलब पलायन की हवा चंद लोगों पर ही लगी थी। भरा पूरा गांव था। स्वाभाविक था की होली की भी दो तीन टोलियां बन जाती थी और उस समय भी ऐसा हुआ। बड़े लड़के तो अलग खेल ही रहे थे छोटे बच्चों की भी तैल्या ख्वाल और मैल्या ख्वाल की दो टोलियां बन गयी थी। झगड़ा होने पर डर ढोलकी का ही रहता था क्योंकि ऐसी स्थिति में विरोधी दल सबसे पहले उसे फोड़ने की कोशिश करता। एक पुराने कपड़े से झंडा भी तैयार कर दिया था। झंडा पकड़ने वाला (उसे हम जोकर बोलते थे और इसके लिये आखिर में उसे कुछ अलग से पैसे मिल जाते थे) भी तैयार कर दिया था। 
      यह तो पहले ही पता था कि फलां दिन से होली खेलनी है। सात दिन होली खेलनी थी और इसलिए यह भी तय कर दिया कि किस दिन किन . किन घरों में जाना है। सातवीं रात होलिका दहन करना था। हमने भी बड़े लड़कों को देखकर पयां की टहनी पर (पहाड़ों में पयां का पेड़ हर जगह नहीं पाया जाता है इसलिए उसके बजाय मेलु या चीड़ के पेड़ का इस्तेमाल किया जाता है) एक चीर बांध दी। वहीं पर पेड़ की पूजा की और होली के गीत गाये। इस तरह से हम होल्यार (होली खेलने वाली बच्चों की टोली) बन गये थे। मां को कुछ होली गीत याद थे जो उन्होंने मुझे सिखा दिये थे। अगले दिन तो हमारे उत्साह का कोई ठिकाना ही नहीं था। हम फिर से पयां के पेड़ के पास इकट्ठा हुए, वहां पर पूजा की और फिर टहनी काटकर पहले से ही तय किये गये स्थान पर स्थापित कर दिया। यहां पर पत्थरों से छोटी कूड़ी बनायी जिसके अंदर एक दिया समा सके। यह भी पहले ही तय कर दिया था कि किस दिन किस के घर से तेल आएगा। 

गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी की संगीतमय होली। दोनों फोटो "सतपुली एकेश्वर फेसबुक पेज" से ली गयी हैं।

होली गीत खोलो किवाड़ से देवें आशीष तक 


    शाम को दिया जलाया और सबसे पहले 'कूड़ी' का पूजन करने के बाद हम निकल गये गांव में होली खेलने। एक ढोलकी बजाता तो बाकी ताली। प्रत्येक घर के चौक में घूम घूमकर होली खेलते और कुछ देर बाद एक लड़का घर वालों को तिलक लगाने के लिये जाता। उसके साथ दूसरा बंदा भी होता था जिसके पास थैला होता। पैसे मिले तो जेब में और चावल या गिंदणी (गुड़) मिला तो थैले में। हमें पता था कि प्रत्येक नये घर में पहुंचने पर शुरुआत किस होली गीत से करनी है। आपने भी गाया होगा ''खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर, दर्शन दीज्यो माई अंबे झुलसी रहो जी। जगमग जोत जले दिन राती, दर्शन दीज्यो माई अंबे झुलसी रहो जी। '' इसके बाद हर घर में कुछ नया होली गीत गाने की कोशिश की। कई गीत सही आते भी नहीं थे लेकिन बच्चे थे इसलिए टूटे फूटे गीत भी चलते थे। जब बड़े हो गये तब जरूर लय में और सही होली गायी।  कोई एक बंदिश गाता यानि भाग लगाता और बाकी उसके सुर में सुर मिलाते। होली के गीतों में स्थानीय पुट होने के साथ देवी देवताओं, कृष्ण लीला और प्रकृति का वर्णन होता। जैसे '' हर हर पीपल पात जय देवी आदि भवानी, कहां तेरो जनम निवास जय देवी आदि भवानी ....।'' या फिर '' को जन खेल घड़िया हिंडोला, को जन डोला झुकाये रहे हर फूलों से मथुरा छायी रहे। कृष्ण जी खेलें घड़िया हिंडोला, राधा जी डोला झुकाये रहे हर फूलों से ...।'' हम सभी बच्चों को वैसे कुछ गीत काफी रटे हुए थे। जैसे कि '' चम्पा चमेली के नौ दस फूला ..। '' और '' मत मारो मोहन लाला पिचकारी, काहेे को तेरा रंग बनो है काहे की तेरी पिचकारी, मत मारो ....। '' इसी तरह से ''झुकी आयो शहर में व्योपारी, इस व्योपारी को भूख लगी है, खाना खिला दे नथवाली ...''  बाद में पता चला कि यह कुमांऊ में बैठकी होली का अपभ्रंश था। (कुमांऊ में बैठकी होली काफी प्रसिद्ध है लेकिन गढ़वाल में भी कई जगह बैठकी होली का प्रचलन था और इसमें भी वही गीत होते थे कुमांऊ में गाये जाते हैं। इनमें से कुछ गीत बचपन में हमारे होठों पर भी चढ़े हुए थे जैसे 'मथुरा में खेले एक घड़ी, काहे के हाथ में डमरू बिराजे, काहे के हाथ में लाल छड़ी ...' या ' जल कैसे भरूं जमुना गहरी, ठाडे भरूं राजाराम देखत है बैठी भरूं भीगे चुनरी...। ')
      होली गीत गाते हुए एक नजर उस लड़के पर भी होती थी जो दान मांगने गया हो। जैसे ही पता चला कि होली का दान कहें या इनाम मिल गया है तो फिर आशीर्वाद देने के लिये एक गीत हुआ करता था '' हम होली वाले देवें आशीष, गावें बजावें जी देवें आशीष। बामण जीवें लाखों बरस, बामणि जीवें लाखों बरस, जी रयां पुत्र अमर रयां नाती....। '' अब घर की स्थिति देखकर आशीष आगे बढ़ाया जाता था। यदि लड़का बड़ा हो रहा है तो '' ह्वे जयां तुमरो नौनु बिवोण्या (आपका बेटा शादी के लायक बन जाए) '' यदि शादीशुदा है और बच्चे नहीं हैं तो फिर '' ह्वे जयां तुमरो नाती खिलौण्या (आपके घर में पोते का जन्म हो)। साथ में ही यह भी जतला दिया जाता था कि हमें देने से उन्हें फायदा ही फायदा होगा। कुछ इस तरह से '' जो हम द्यालू, वैथै शिव द्यालु '' या फिर  ''जौंला द्याया होली कु दान, वूं थै द्यालु श्री भगवान '' और कुछ इस तरह भी '' होली कु दान स्वर्ग समान।''
     दान में क्या मिलते थे 10, 25, 50 पैसे या फिर ज्यादा हुआ तो एक रूपया। कोई दो रूपया दे देता तो हमारी नजर में वह महीनों तक सम्मानीय रहता। मुझे याद है कि जब पहली बार मैंने होली खेली थी तो हमारे पास 21 रूपये और कुछ पैसे हुए थे। थोड़ा चावल और गिंदणी भी थी। सात दिन की कमाई। इनमें से कुछ पैसों के रंग लेकर आ गये थे। सातवीं रात को होली खेलने के बाद हम उस घर में जमा हो गये जिसके पास में कूड़ी थी। कूड़ी के आसपास दिन से ही खूब लकड़ियां, घास इकट्ठा कर दिया था। रात ढलते ही होलिका दहन कर दिया। मस्ती के साथ साथ चिल्ला चिल्लाकर गा रहे थे '' होली फुकेगे प्रह्लाद बचिगे''। अगले दिन सुबह उठकर रंग और गुलाल का खेल। पिताजी ने मेरे लिये बांस की पिचकारी बनायी थी जो वर्षो तक चली थी। दूर तक पानी फेंकती थी। जब बच्चे थे तो अपने आपस में रंग गुलाल लगाते और पानी फेंकते लेकिन जब बड़े हुए तो हम भी गांव की भाभियों के साथ होली खेलते थे। भाभियां भी देवरों को छकाने में माहिर हुआ करती थी। सुबह जल्दी उठकर खेतों में काम करने चली जाती थी। इनमें से कुछ रंग और पानी की मार से बच जाती थी तो कुछ फिर भी भिगो दी जाती थी। 
      रंग गुलाल का खेल होने के बाद मां ने गर्म पानी से खूब रगड़कर नहलाया। कुछ रंग फिर भी रह गया था। धूप सेंकी और फिर सारे लड़के इकट्ठे हो गये। जो चावल और गिंदणी मिले थे उसका बढ़िया सा मीठा भात (खुक्सा) बनाया। जो कमाई हुई थी उससे नौगांवखाल जाकर खाने की अन्य चीजें भी खरीदकर ले आये। तब 20 रूपये में काफी सामान आ जाता था। किसी बड़े की मदद से खाना तैयार हुआ, उसे छककर खाया और इस तरह से संपन्न हो गयी थी मेरी पहली होली। जब हम बड़े हुए थे तो हमारे पास बाकायदा एक अदद ढोलकी हुआ करती थी। हारमोनियम थी। बांसुरी वादक था और एक बार तो हम अपने गांव से बाहर दूसरे गांव भी होली खेलने गये थे। 

कुमांऊ की बैठकी होली


     यदि हम उत्तराखंड की होली की बात करें तो पहले यहां विशेषकर कुमांऊ में बैठकी होली खेली जाती थी। शास्त्रीय संगीत पर आधारित इस होली के बारे में कहा जाता है कि उसकी शुरुआत 1860 के आसपास रामपुर के उस्ताद अमानत उल्ला खां ने किया था। बैठकी होली के गायन की शुरुआत पौष मास के पहले रविवार से शुरू हो जाती है। इसके अलग अलग चरण होते हैं। यह होली रंगों से नहीं रागों से खेली जाती है क्योंकि इसमें आपको दादरा, ठुमरी, राग धमार, राग श्याम कल्याण, राग भैरवी सभी सुनने को मिल जाएंगे। बैठकी होली की शुरुआत आध्यात्मिक और भक्त्मिय होली गायन से होती है। बाद के चरणों में कृष्ण, राधा और गोपियों के बीच हास परिहास, प्रेमी . प्रेमियों की तकरार, देवर भाभी से जुड़े गीतों तक पहुंच जाती है। इन गीतों की विशेषता यह है कि ये ब्रज भाषा में होते हैं। 
    आपने भी अपने गांवों में कभी न कभी होली खेली होगी। कैसी थी आपकी होली जरूर बतायें। घसेरी के सभी पाठकों को होली की हार्दिक शुभकामनाएं। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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सोमवार, 14 मार्च 2016

रोमन देवी फ्लोरा उत्तराखंड में बन गयी फूलदेई

"फूल देई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार...... । फोटो ... अनूप पटवाल।  
     
       ज हम बात करेंगे फूलदेई और भिटोली की। फूलदेई चैत्र संक्रांति को मनाया जाता है और फूलों से जुड़े होने के कारण इसे फूल संक्रांति भी कहते हैं। उत्तराखंड में इसका खास महत्व है। यह बच्चों का त्योहार है जो इसे विशेष बना देता है। यह बसंत ऋतु के आगमन का त्योहार है। बच्चे सुबह लेकर घर घर फूलों की डाली लेकर बसंत का स्वागत करते हैं। फूल संक्रांति प्रकृति से जुड़ा त्योहार है। बसंत अपनी छटा बिखेरना शुरू कर देता है। बसंत के आगमन के साथ ही बुरांश, आड़ू, मेलु, खुबानी, पुलम खिलने लगते हैं और सरसों के फूल इसकी छटा में चार चांद लगा रहे होते हैं। 
        बच्चों विशेषकर अविवाहित लड़कियों के लिये बसंत का आगमन विशेष महत्व का होता है। गांव की लड़के और लड़कियां चैत्र संक्रांति से एक दिन पहले ही शाम को फूलों (विशेष रूप से सफेद और पीले) को रिंगाल की टोकरी में एकत्रित कर देते हैं। फूलों के साथ गेहूं और जौ की नन्हें पौधों की हरियाली भी लायी जाती है। बच्चे सुबह लेकर नहाने के बाद प्रत्येक घर में जाकर फूलों और हरियाली को दहलीज पर चढ़ाते हैं। बच्चे उनकी सुख शांति और समृद्धि की कामना करते हैं। घर की गृहणियां इससे पहले गाय के गोबर से घर और देहरी (घर के प्रवेश द्वार) को लीप के रखती है। घर की देहरी पर ऐपण सजाकर चावल और गेहूं रखा जाता है जो फूल लेकर आने वाले बच्चों को दिया जाता है। इसके अलावा बच्चों को कौणी, झंगोरा, गुड़ और रूपये मिलते हैं। बच्चे देहरी का पूजन करते समय गाते हैं   "फूल देई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारम्बार नमस्कार, पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई।" पौड़ी गढ़वाल के कई गांवों में तो यह त्योहार पूरे महीने मनाया जाता है और गांव की लड़कियां हर दिन सुबह लेकर अपने पड़ोसियों की दहलीज पर फूल रख कर आती हैं।  इस अवसर पर लड़कियां गाती हैं  '' फूलदेई फूलदेई फूल संगरांद, सुफल करो-नयो साल तुमुक श्री भगवान। रंगीला सजीला फूल,ऐंगी डाला -बोट्ला हरया ह्वेग्येगी। पौन-पंछी, दौडी गैना, डाल्युं फूल है सदा रैन। ''

रोम ने शुरू की थी बसंत पूजन की परंपरा 


     संत के पूजन की यह परंपरा असल में रोम से शुरू हुई थी। रोम की पौराणिक कथाओं के अनुसार फूलों की देवी का नाम 'फ्लोरा' था। इसको लेकर वहां कुछ कहानियां भी हैं। वहां फूलों से सजी एक खूबसूरत किशोरी के रूप में बसंत को पूजा जाता है। 'फ्लोरा' शब्द लेटिन भाषा के 'फ्लोरिस' से लिया गया है जिसका अर्थ होता है 'फूल'। वहां इसके लिये विशेष तौर पर छह दिन तक 'फ्लोरिया महोत्सव' मनाया जाता था जिसमें देवी 'फ्लोरा' यानि बसंत की पूजा होती थी। इसी तरह से यूनान में एक देवी क्लोरिस की पूजा की जाती थी। रोमन कवि पबलियस ओविडियस नासो (जो ओविड के नाम से अधिक मशहूर हैं) की किताब  'फास्टी' में एक पौराणिक कथा का जिक्र है जिसके अनुसार क्लोरिस को पश्चिमी हवा के अवतार और बसंत के जनक जेफाइरस ने चूमा जिससे वह 'फ्लोरा' में तब्दील हो गयी। यह भी कहा जाता है कि सैबाइन जाति के राजा टाइटस टैटियस ने रोम का इस देवी से परिचय कराया था। देवी 'फ्लोरा' का 268 ईसा पूर्व में पहला मंदिर बनाया गया था और 238 ईसा पूर्व से 'फ्लोरिया महोत्सव' 28 अप्रैल से तीन मई के बीच मनाया जाने लगा। आज भी वहां कुछ स्थानों पर विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में इस महोत्सव का आयोजन होता है। रोम में यह सूर्य पर आधारित कैलेंडर की शुरुआत होती है जबकि हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार सूर्य कैलेंडर की शुरुआत चैत्र संक्रांति से मानी जाती है। 
     फ्लोरा को रोम में एक ऐसी देवी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है जो बासंती वस्त्रों में लिपटी है, जिसके हाथों में फूलों की टोकरी और सिर पर फूल और पत्तों का मुकुट है। फूलों से बनने वाला शहद इस देवी को अर्पित किया जाता है। 'फ्लोरा' नाम अब भी वहां पेड़ पौधों के लिये उपयोग ​किया जाता है। 


भिटोली में झलकता है भाई बहन का प्यार 


     ह तो रही फूलदेई की कहानी। अब चैत्र संक्रांति और इस महीने के दौरान पहाड़ों से जुड़ी कुछ अन्य प​रपंराओं का भी जिक्र कर लेते हैं। यही नहीं पहले गांव में ढोल और दमाऊ वादक भी हर घर में जाकर शुभकामना देते थे। वे चैती गाते थे। जैसे कि ''तुमरा भंडार भरियान, अन्न-धनल बरकत ह्वेन, ओंद रयां ऋतु मास, ओंद रयां सबुक संगरांद। फूलदेई फूलदेई फूल संगरांद।'' (तुम्हारे भंडार भरे रहें, अन्न धन की वृद्धि हो, ऋतुए और महीने आते रहें और सबके लिये सक्रांति का पर्व खुशियां लेकर आता रहे)। वे गणेश से लेकर ग्राम देवता के गीतों से परिवार की सुख समृद्धि की कामना करते थे। इसी दिन के बाद वे गांव की हर विवाहिता के ससुराल जाकर वहां दान मांगने (कई जगह इसे बडौ कहा जाता है) के लिये जाते थे। अब यह परपंरा लगभग खत्म हो गयी है। 
     चैत के महीने में ही विवाहित बेटियों, जिन्हें धियाण कहते हैं, के लिये कलेवा भी पहुंचाया जाता है। इसे 'भिटोली' कहा जाता है अर्थात भेंट करना। ​भाई अपनी बहन से मिलने के लिये उसके मायके जाता है। वह अपने साथ कलेवा और कपड़े लेकर जाता है। कोशिश ये रहती है कि कलेवा अच्छे से अच्छा हो ताकि ससुराल सब उसकी तारीफ करें। बहन अपने अड़ोस पड़ोस में कलेवा बांटती है। पुराने जमाने में भाई के आने से बहन खुश हो जाती थी क्योंकि तब संचार का कोई साधन नहीं था और इससे उसे अपने मायके की कुशल क्षेम भी मिल जाती थी। 
       भिटोली के पहले कलेवा जाता था। बाद में इसका स्थान मिठाई ने लिया। फिर भाईयों ने खुद जाने के बजाय रूपये भेजने शुरू कर दिये और आजकल मोबाइल और व्हाट्सएप के जरिये ही  'भिटोली' का पर्व संपन्न हो जाता है। आज के लिये बस इतना ही। उम्मीद है फुलदेई से लेकर भिटौली तक का यह संक्षिप्त वर्णन आपको रूचिकर लगा होगा। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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शुक्रवार, 11 मार्च 2016

बसंत

 बसंत                               
                                                          जितेंद्र मोहन पंत 


फूली सरसों ने बासंती चादर फैलाई, 
सूखी धरती पर फिर से हरियाली छायी।
गेंहूॅं की बलियों में यौवन रंगत आई, 
खिलते बुरांश से वन की आभा मन को भायी। 
आओ हम भी इस मौसम से रंग उधार लें, 
बहुरंगी रंगों से अपना जीवन निखार लें। 

                              नभचर ने लो शुरू कर दिया कलरव गान, 
                             छेड़ रही है पुरवैया सन सन करती मधुर तान। 
                             बौराये आमों से कोयल बांट रही है शांति ज्ञान,
                             मोरों के नव—पर भर आए, बढ़ा रहे सौंदर्य शान।
                             आओ हम भी संगीत को अपने उर में भर दें
                              रूखेपन को त्याग सुदर्शन खुद को कर दें। 

                                                  सूखे पत्तों को त्याग हरित अब हर डाली है, 
                                                   बहुरंगी पुष्पों से भरी हुई धरती थाली है। 
                                                   पुष्पों पर अली गुंजन से हर्षित माली है, 
                                                   प्रकृति के मुख पर छायी यौवन लाली है। 
                                                   आओ हम भी नव किसलयित हो जाएं,
                                                    खिलते सुमनों की तरह हर पल मुस्काएं। 

                                                                        सर्दी की सिहरन से तन को मुक्ति मिली है,
                                                                         देखो! कैसी सौंधी—सौंधी सी धूप खिली है। 
                                                                          तन मन को भाता मौसम सम शीतोष्ण बना है,
                                                                           ना गर्मी, ना सर्दी ताप मनभावक बना है। 
                                                                           आओ हम भी इस मौसम से 'समता' सीखें,
                                                                            धैर्य धरें, सुख—दुख में अविचलित रहना सीखें। 



लेखक / कवि का परिचय

जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक। इसी दौरान पहाड़ और वहां के जीवन पर कई कविताएं लिखी। बसंत की अनुपम छटा को अभिव्यक्त करने के साथ सकारात्मक संदेश देने वाली यह कविता 20 मार्च 1995 को कवि ने तब लिखी थी जब वह पेट से नीचे वाले हिस्से को लकवा मार जाने के कारण आर्मी हास्पिटल दिल्ली में जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे।

बुधवार, 2 मार्च 2016

पंडित नैनसिंह रावत, जिन्होंने कदमों से नाप दिया था पूरा तिब्बत

       रा कल्पना करिये कि आपको किसी मार्ग की दूरी कदमों से नापनी है। हर एक कदम समान दूरी पर रखना है। इंच भर भी इधर या उधर नहीं। ...और फिर सटीक दूरी बतानी है। आपको लग गया होगा कि यह काम आसान नहीं है। अगर तिब्बत जैसे पठार और पहाड़ी इलाके में इस तरह से दूरी नापने और मानचित्र तैयार करने का काम किया जाए तो फिर हर कोई यही कहेगा कि यह तो नामुमकिन है। लेकिन पंडित नैन सिंह रावत ने आज से लगभग 150 साल पहले अपने कदमों से मध्य एशिया को नापकर इस क्षेत्र का मानचित्र तैयार कर दिया था। इससे मध्य एशिया के भूगोल, समाज और वहां से जुड़े तथ्यों को समझने में बहुत मदद मिली। चाहे पहाड़ चढ़ना हो या उतरना हो या फिर समतल मैदान हो, पंडित नैन सिंह साढ़े 33 इंच का एक कदम रखते। उनके हाथों में मनकों की एक माला होती थी। एक माला में 108 मनके होते हैं लेकिन वह अपने पास 100 मनके वाली माला रखते थे। वह 100 कदम चलने पर एक मनका गिरा देते और 2000 कदम चलने के बाद वह उसे एक मील मानते थे। इस तरह से 10,000 कदम पूरे होने पर सभी मनके गिरा दिये जाते। यहां पर पांच मील की दूरी पूरी हो जाती थी। इस महान अन्वेषक ने ही पहली बार दुनिया को यह बताया कि तिब्बत की सांगपो और भारत में बहने वाली ब्रह्मपुत्र असल में एक ही नदी है। सिंधु, सतलुज और सांगपो के उदगम स्थल और तिब्बत में उसकी स्थिति से भी विश्व को पंडित नैन सिंह ने ही अगवत कराया था। वह पहले व्यक्ति जिन्होंने तिब्बत की राजधानी ल्हासा की सही स्थिति और ऊंचाई बतायी थी। उन्होंने तिब्बत की कई झीलों का नक्शा तैयार किया जिनके बारे में इससे पहले कोई नहीं जानता था। आईये आज हम उत्तराखंड के इस महान अन्वेषक का संक्षिप्त परिचय आपसे करवाते हैं।

शिक्षक बनकर मिली उपाधि 'पंडित'

    पंडित नैन सिंह रावत का जन्म पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील स्थित मिलम गांव में 21 अक्तूबर 1830 को हुआ था। उनके पिता अमर सिंह को लोग लाटा बुढा के नाम से जानते थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जल्द ही पिता के साथ भारत और तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गये। इससे उन्हें अपने पिता के साथ तिब्बत के कई स्थानों पर जाने और उन्हें समझने का मौका मिला। उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी जिससे आगे उन्हें काफी मदद मिली। हिन्दी और तिब्बती के अलावा उन्हें फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। इस महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार ने अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी। उन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर समय खोज और मानचित्र तैयार करने में बिताया।
     पंडित नैनसिंह के अलावा उनके भाई मणि सिंह और कल्याण सिंह और चचेरे भाई किशन सिंह ने भी मध्य एशिया का मानचित्र तैयार करने में भूमिका निभायी थी। इन्हें जर्मन भूगोलवेत्ताओं स्लागिंटवाइट बंधुओं एडोल्फ और राबर्ट ने सबसे पहले सर्वे का काम सौंपा था। नैन सिंह दो साल यानि 1857 तक इन भाईयों से जुड़े रहे और इस दौरान उन्होंने मानसरोवर और राकसताल झीलों के अलावा पश्चिमी तिब्बत के मुख्य शहर गढ़तोक से लेकर ल्हासा तक का दौरा किया था। इस दौरे से लौटने के बाद नैनसिंह अपने गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक बन गये थे और यहीं से उन्हें पंडित नाम मिला। तब किसी भी पढ़े लिखे या शिक्षक के लिये पंडित शब्द का उपयोग किया जाता था। वह 1863 तक अध्यापन का काम करते रहे। 

जीएसटी से जुड़कर दी अमूल्य जानकारी 

 

     ब्रिटिश राज में सर्वे आफ इंडिया ने दस अप्रैल 1802 को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे (जीटीएस) की शुरुआत की थी। इस सर्वे का उद्देश्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा मध्य एशिया और महान हिमालय का मानचित्र तैयार करना था। इसके कुछ वर्षों बाद 1830 में रायल ज्योगार्फिकल सोसायटी की भी स्थापना हुई थी। यह भी संयोग था कि पंडित नैनसिंह रावत का जन्म भी उसी साल हुआ था। तब तिब्बत ब्रिटेन के लिये भी एक रहस्य ही बना हुआ था और वह जीटीएस के जरिये इसका मानचित्र तैयार करना चाहता था। पंडित नैन सिंह और उनके भाई 1863 में जीटीएस से जुड़े और उन्होंने विशेष तौर पर नैन सिंह 1875 तक तिब्बत की खोज में लगे रहे। नैन सिंह और उनके भाई मणि सिंह को तत्कालीन शिक्षा अधिकारी एडमंड स्मिथ की सिफारिश पर कैप्टेन थामस जार्ज मोंटगोमेरी ने जीटीएस के तहत मध्य एशिया की खोज के लिये चयनित किया था। उनका वेतन 20 रूपये प्रति माह था। इन दोनों भाईयों को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे के देहरादून स्थित कार्यालय में दो साल तक प्रशिक्षण भी दिया गया था।
      जीटीएस के अंतर्गत पंडित नैन सिंह काठमांडो से लेकर ल्हासा और मानसरोवर झील का नक्शा तैयार किया। इसके बाद वह सतलुज और सिंध नदी के उदगम स्थलों तक गये। उन्होंने 1870 में डगलस फोर्सिथ के पहले यरकंड यानि काशगर मिशन और बाद में 1873 में इसी तरह के दूसरे मिशन में हिस्सा लिया था। इस मिशन में उनके साथ किशन और कल्याण सिंह भी थे। पंडित नैन सिंह इस दौरे में हालांकि महत्वपूर्ण खोज नहीं कर पाये। इस बीच 1874 की गर्मियों में मिशन लेह पहुंचा तो तब तक कैप्टेन मोंटगोमेरी की जगह कैप्टेन हेनरी ट्रोटर ने ले ली थी। जीटीएस के सुपरिटेंडेंट जनरल जेम्स वाकर के निर्देश पर कैप्टेन ट्रोटर ने पंडित नैन सिंह ने लेह से ल्हासा तक तिब्बत के उत्तरी भाग का मानचित्र तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। उनका यह सबसे कठिन दौरा 15 जुलाई 1874 को लेह से शुरू हुआ था जो उनकी आखिरी खोज यात्रा भी साबित हुई। इसमें वह लद्दाख के लेह से होते हुए ल्हासा और फिर असम के तवांग पहुंचे थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण जानकारियां जुटायी जो बाद में बहुत उपयोगी साबित हुई। उन्हें ल्हासा से बीजिंग तक जाना था लेकिन ऐसा संभव नहीं होने पर सांगपो यानि ब्रह्मपुत्र या भूटान के रास्ते भारत आने के निर्देश दिये गये थे।

लेह से लेकर ल्हासा और तवांग : सबसे दुर्गम लेकिन महत्वपूर्ण यात्रा 

 

    पंडित नैनसिंह की इस यात्रा का प्रबंध विलियम जानसन ने करना था जो पहले जीएसटी से जुड़े रहे थे और तब कश्मीर के महाराजा के वजीर थे। पंडित के साथ सामान ढोने के लिये भेड़ों को रखा गया। यह अजीबोगरीब फैसला था। सबसे बड़ी चिंता पंडित और उनके दल की सुरक्षा को लेकर था क्योंकि इस यात्रा के दौरान उन्हें एक नये मार्ग से होकर जाना था और लुटेरे उन पर हमला कर सकते थे। बाद में तय किया गया था कि पंडित नैन सिंह अपने साथ कुछ रुपये लेकर जाएंगे और जब वह ल्हासा पहुंचेंगे तो लोपचाक मिशन के लोग उन्हें बीजिंग(तब पीकिंग) तक की यात्रा के लिये बाकी बची धनराशि सौंप देंगे। लोपचाक मिशन प्रत्येक तीन साल में लद्दाख से ल्हासा तक होने वाली यात्रा थी। उस वर्ष उसे पंडित नैन सिंह की यात्रा के कुछ दिनों बाद ही शुरू होना था। नैन सिंह को बीजिंग में ब्रिटिश मिनिस्टर को कैप्टेन ट्रोटर का पत्र सौंपना था जो फिर समुद्र के रास्ते उन्हें कोलकाता भेजने की व्यवस्था करते। नैन सिंह ने किसी तरह की साजिश से बचने के लिये यह बात फैलायी कि वह फिर से यरकंड जा रहे हैं। उनके साथ उनका नौकर चंबेल, दो तिब्बती और और एक स्थानीय व्यक्ति के अलावा 26 भेड़ें थी। इन सभी ने पुजारियों की पोशाक पहन रखी थी और नौ दिन की यात्रा के बाद वे तिब्बत की सीमा पर पहुंचे। नैनसिंह अपेक्षित तेजी से नहीं चल पा रहे थे क्योंकि उनके साथ भेड़ें भी थी। उन्होंने आसानी से सीमा पार करके तिब्बत में कदम रखा। पंडित और उनके साथी यहां पैंगोंग झील तक पहुंचे और तब पहली बार उन्होंने इस क्षेत्र का मानचित्र तैयार किया। इसके बाद उन्होंने तिब्बत के उत्तरी क्षेत्र में स्थित कई झीलों का मानचित्र तैयार किया जिनके बारे में पहले किसी को भी पता नहीं था। पैंगोंग से टेंगरी नोर के बीच वह खम्पास लोगों के क्षेत्र में भी पहुंचे जिनके बारे में कहा जाता था कि वे ल्हासा से यहां आये थे। खम्पास जाति लूटपाट करने के लिये भी जानी जाती थी लेकिन संयोग से पंडित का एक नौकर पहले भी इन लोगों से मिल चुका था और उनमें से कुछ को जानता था। इसलिए उनका रास्ता आसानी से कट गया। पंडित ने इसके बाद थोक दारूकपा क्षेत्र की स्वर्ण खदानों की स्थिति का पता लगाया। आखिर में कई विषम परिस्थितियों से गुजरने के बाद पंडित और उनके साथियों ने 18 नवंबर 1874 को ल्हासा में प्रवेश किया। तब तक उनके साथ चार या पांच भेड़ ही बच गयी थी। बाकी या तो बीमार पड़ गयी थी या फिर उन्हें मारकर खा दिया गया था।
      दुर्भाग्य से उनके ल्हासा पहुंचने से पहले ही यह अफवाह फैल गयी चीनी उनकी यात्रा से वाकिफ हैं और वे जानते है कि एक ब्रिटिश एजेंट भारत से ल्हासा आ रहा है। उन्होंने अपने एक नौकर को यह पता करने के लिये भेजा कि क्या लोपचाक मिशन बाकी पैसे लेकर पहुंच गया है लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी। धन के अभाव में उन्हें बीजिंग तक जाने की योजना छोड़नी पड़ी। वह पहले भी ल्हासा गये थे और उन्हें पहचाने जाने का डर था। उन्होंने लोपचाक मिशन के आने का इंतजार नहीं किया। अब तक जो भी जानकारी उन्होंने जुटायी थी उसे अपने दो विश्वासपात्रों के हाथों वापस लेह पहुंचा दिया ताकि वह कैप्टेन ट्रोटर तक पहुंच सके। पंडित नैन सिंह ने जल्द ही ल्हासा छोड़ दिया और सांगपो यानि ब्रह्मपुत्र के रास्ते भारत के लिये निकल पड़े। उन्होंने दो दिन तक पैदल चलने के बाद नाव से सांगपो नदी पार की और इस दौरान इसकी गति और गहरायी भी नापी। उन्होंने इस नदी के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां जुटायी जो बाद में काफी उपयोगी साबित हुई। वह आखिर में कारकांग दर्रे से असम के शहर तवांग तक पहुंचे थे। (तवांग अब अरूणाचल प्रदेश का हिस्सा है)। पंडित नैन सिंह 24 दिसंबर को तवांग पहुंचे थे लेकिन वहां उन्हें वहां व्यापारी मानकर बंदी बना दिया गया और 17 फरवरी तक वह स्थानीय लोगों के कब्जे में रहे। आखिर में उन्हें छोड़ दिया गया। वह एक मार्च 1875 को उदयगिरी पहुंचे और वहां स्थानीय सहायक कमांडर से मिले जिन्होंने टेलीग्राम करके कैप्टेन ट्रोटर को उनके सही सलामत लौटने की खबर दी। सहायक कमांडर ने ही उनकी गुवाहाटी तक जाने की व्यवस्था की जहां उनका फिर से सांगपो से मिलन हुआ जो अब ब्रह्मपुत्र बन चुकी थी। गुवाहाटी से वह कोलकाता गये थे। इस तरह से पंडित ने लेह से लेकर उदयगिरी तक 1405 मील की यात्रा की थी। द ज्योग्राफिकल मैगजीन में 1876 में पहली बार उनका कार्यों पर लेख प्रकाशित हुआ था।
 

भारत सरकार ने ली 139 साल बाद सुध 


     पंडित नैन सिंह को उनके इस अद्भुत कार्यों के लिये देश और विदेश में कई पुरस्कार पदक भी मिले। रायल ज्योग्राफिकल सोसायटी ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था। उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान करते हुए कर्नल युले ने कहा था कि किसी भी अन्य जीवित व्यक्ति की तुलना में एशिया के मानचित्र तैयार करने में उनका योगदान सर्वोपरि है। पेरिस के भूगोलवेत्ताओं की सोसायटी ने उन्हें स्वर्णजड़ित घड़ी प्रदान की। ब्रिटिश सरकार ने 1877 में उन्हें भारतीय साम्राज्य का साथी यानि सीआईई की उपाधि से नवाजा। उन्हें रूहेलखंड में एक गांव जागीर के रूप में और साथ में 1000 रूपये दिये गये थे। भारतीय डाक विभाग ने उनकी उपलब्धि के 139 साल बाद 27 जून 2004 को उन पर डाक टिकट निकाला था। उनकी यात्राओं पर कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। इनमें डेरेक वालेर की 'द पंडित्स' तथा शेखर पाठक और उमा भट्ट की 'एशिया की पीठ पर' महत्वपूर्ण हैं। इस महान अन्वेषक का 1895 में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था।
      कैसे लगी आपको इस महान खोजकर्ता के बारे जानकारी जरूर बतायें आपका धर्मेन्द्र पंत ।

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