गुरुवार, 3 सितंबर 2015

माधोसिंह भंडारी, जो 400 साल पहले बन गये थे दशरथ मांझी

माधोसिंह भंडारी की बनायी सुरंग और गांव में उनकी मूर्ति
   हाड़ को काटकर अपने गांव में सड़क लाने वाले दशरथ मांझी आजकल एक फिल्म के कारण चर्चा में हैं। दशरथ मांझी की जब बात चली तो मुझे अनायास ही माधोसिंह भंडारी याद आ गये जो आज से लगभग 400 साल पहले पहाड़ का सीना चीरकर नदी का पानी अपने गांव लेकर आये थे। गांव में नहर लाने के उनके प्रयास की यह कहानी भी काफी हद तक दशरथ मांझी से मिलती जुलती है। माधोसिंह भंडारी गढ़वाल की कथाओं का अहम अंग रहे हैं। इस महान योद्धा से लोगों का परिचय कराने का 'घसेरी' का यह छोटा सा प्रयास है। योद्धा इसलिए क्योंकि वह माधोसिंह थे कि जिन्होंने ति​ब्बतियों को उनके घर में जाकर छठी का दूध याद दिलाया था तथा भारत और तिब्बत (अब चीन) के बीच सीमा रेखा तय की थी। चलिये तो अब मिलते हैं गढ़वाल के महान सेनापति, योद्धा और कुशल इंजीनियर माधोसिंह भंडारी से, जिनके बारे में गढ़वाल में यह छंद काफी प्रसिद्ध है....
               एक सिंह रैंदो बण, एक सिंह गाय का।
                   एक सिंह माधोसिंह, और सिंह काहे का।।

(यानि एक सिंह वन में रहता है, एक सींग गाय का होता है। एक सिंह माधोसिंह है। इसके अलावा बाकी कोई सिंह नहीं है।)

सौण बाण कालो सिंह का बेटा माधोसिंह 

    माधोसिंह को लेकर कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। इन सबका अध्ययन करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उनका जन्म मलेथा गांव में हुआ था। (कुछ कहानियों में यह भी कहा गया है कि उनकी बहन का विवाह इस गांव में हुआ था जबकि एक किस्सा यह भी कहता है कि मलेथा उनकी ससुराल थी)। मलेथा गांव देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में बसा हुआ है। यह सत्रहवीं सदी के शुरूआती वर्षों यानि 1600 के बाद की बात है जब माधोसिंह का बचपन मलेथा गांव में बीता होगा। उनके पिता का नाम कालो भंडारी था जो स्वयं वीर पुरूष थे। यह कह सकते हैं कि माधोसिंह की रगों में एक योद्धा का खून ही दौड़ रहा था। शुरूआत करते हैं कालो भंडारी से। यह सम्राट अकबर के जमाने की बात है। कहा जाता है कि अकबर, कुमांऊ में चंपावत के राजा गरूड़ ज्ञानचंद और सिरमौर के राजा मौलीचंद की तपोवन के आसपास स्थित उपजाऊ भूमि को लेकर गढ़वाल के राजा मानशाह (1591 से 1610) से ठन गयी थी। ये तीनों इस भूमि में अपना हिस्सा चाहते थे। राजा मानशाह ने उनका आग्रह ठुकरा दिया। दिल्ली दरबार और चंपावत को उनका यह फैसला नागवार गुजरा। दोनों ने युद्धकला में निपुण अपने दो . दो सिपहसालारों को वहां भेज दिया। राजा मानशाह ने कालो भंडारी से मदद मांगी जिन्होंने अकेले ही इन चारों को परास्त किया था। तब राजा ने कालो भंडारी को सौण बाण (स्वर्णिम विजेता) उपाधि दी थी और तब से उनका नाम सौण बाण कालो भंडारी पड़ गया था।
    अब वापस लौटते हैं माधोसिंह भंडारी पर। वह गढ़वाल के राजा महीपत ​शाह के तीन बहादुर सेनापतियों में से एक थे लेकिन इन तीनों (माधोसिंह के अलावा रिखोला लोदी और बनवारी दास) में माधोसिंह ही ऐसे थे जिन्हें गढ़वाल और कुमांऊ के योद्धाओं में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार माधोसिंह ने कुछ समय रानी कर्णावती के साथ भी काम किया था।  कहा जाता है कि एक बार जब वह श्रीनगर दरबार से लगभग पांच मील की दूरी पर स्थित अपने गांव पहुंचे तो उन्हें काफी भूख लगी थी। उन्होंने अपनी पत्नी (एक किस्से के अनुसार भाभी) से खाने देने को कहा तो उन्हें केवल रूखा सूखा खाना दिया गया। जब माधोसिंह ने कारण पूछा तो पत्नी ने ताना दिया कि जब गांव में पानी ही नहीं है तो सब्जियां और अनाज कैसे पैदा होगा? माधोसिंह को यह बात चुभ गयी। रात भर उन्हें नींद नहीं आयी। मलेथा के काफी नीचे अलकनंदा नदी बहती थी जिसका पानी गांव में नहीं लाया जा सकता था। गांव के दाहिनी तरफ छोटी नदी या गदना बहता था जिसे चंद्रभागा नदी कहा जाता है। चंद्रभागा का पानी भी गांव में नहीं लाया जा सकता था क्योंकि बीच में पहाड़ था। माधोसिंह ने इसी पहाड़ के सीने में सुरंग बनाकर पानी गांव लाने की ठानी थी। कहा जाता है कि उन्होंने श्रीनगर दरबार और गांव वालों के सामने भी इसका प्रस्ताव रखा था लेकिन दोनों जगह उनकी खिल्ली उड़ायी गयी थी। आखिर में माधोसिंह अकेले ही सुरंग बनाने के लिये निकल पड़े थे।


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सुरंग बनी पर बेटे की जान गयी 

     माधोसिंह शुरू में अकेले ही सुरंग खोदते रहे लेकिन बाद में गांव के लोग भी उनके साथ जुड़ गये। कहा जाता है कि सुरंग खोदने में लगे लोगों का जोश बनाये रखने के लिये तब गांव की महिलाएं शौर्य रस से भरे गीत गाया करती थी। माधोसिंह की मेहनत आखिर में रंग लायी और सुरंग बनकर तैयार हो गयी। यह सुरंग आज भी इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है और मलेथा गांव के लिये पानी का स्रोत है। इस सुरंग से माधोसिंह के बेटे गजेसिंह का नाम भी जोड़ा जाता है। इसको लेकर दो तरह की कहानियां हैं। पहली कहानी के अनुसार माधोसिंह ने अपनी पत्नी को सख्त हिदायत दे रखी थी कि वह गजेसिंह को उस स्थल पर नहीं आने दे जहां सुरंग खोदी जा रही थी। एक दिन जिद करके गजेसिंह वहां पहुंच गया और पहाड़ से बड़ा सा पत्थर लुढ़ककर उसके सिर पर लगा जिससे उसकी मौत हो गयी। बाद में जब सुरंग में पानी आया तो वह उस जगह तक पहुंचा था जहां पर गजेसिंह की मौत हुई थी। दूसरी कहानी इसके ठीक विपरीत हैं लेकिन इसका जिक्र बहुत कम किस्सों में किया जाता है। कहते हैं कि जब सुरंग बनकर तैयार हो गयी तो काफी प्रयासों के बावजूद भी चंद्रभागा नदी का पानी उसमें नहीं गया। सभी गांववासी परेशान थे। रात को माधोसिंह के सपने में उनकी कुलदेवी प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सुरंग में पानी तभी आएगा जब वह अपने इकलौते बेटे गजेसिंह की बलि देंगे। माधोसिंह हिचकिचा रहे थे लेकिन जब गजेसिंह को पता चला तो वह तैयार हो गया और उसने अपने माता पिता को भी मना लिया। गजेसिंह की बलि दी गयी और पानी सुरंग में बहने लगा।इस दूसरी कहानी के पक्ष में हालांकि कोई ठोस सबूत नहीं है और इसलिए पहला किस्सा ही अधिक मान्य है।
    कहते हैं कि इसके बाद माधोसिंह वापस श्रीनगर आ गये और फिर कभी अपने गांव नहीं लौटे लेकिन उन्होंने गांव को जो सौगात दी उसकी वजह से मलेथा आज भी हरियाली से भरा खुशहाल गांव बना हुआ है।

मौत से पहले तय की थी ​तिब्बत की सीमा

    माधोसिंह को इसके बाद तिब्बती सेना से लड़ने के लिये भेजा गया जो गढ़वाल की तरफ बढ़ रही थी। इसी समय छोटा चीनी युद्ध के दौरान माधोसिंह की मौत हुई थी। इससे पहले हालांकि वह गढ़वाल और तिब्बत (अब भारत और चीन) की सीमा तय कर चुके थे। उनकी मौत को लेकर भी एक किस्सा कहा जाता है जिसका जिक्र महान इतिहासकार पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी ने अपनी पुस्तक 'गढ़वाल का इतिहास' में किया है। कहा जाता था कि तिब्बती सैनिक माधोसिंह के नाम से ही घबराते थे। माधोसिंह ​विजय प्राप्त करते हुए आगे बढ़ रहे थे लेकिन इस बीच रोग लगने से उनका निधन हो गया। अपनी मौत से पहले माधोसिंह ने अपने सेना से कहा कि यदि तिब्बतियों को पता चला कि उनकी मौत हो गयी है तो वे फिर से आक्रमण कर देंगे, इसलिए यह खबर किसी को पता नहीं चलनी चाहिए। पंडित रतूड़ी के अनुसार माधोसिंह ने कहा था, ''लड़ते और पीछे हटते चले जाना और मेरे शव को तेल में भूनकर, कपड़े में लपेट बक्से में बंद करके हरिद्वार ले जाकर दाह करना। ''
    सैनिकों और सरदारों से ऐसा ही किया और हरिद्वार में माधोसिंह का दाह संस्कार करके उसकी सूचना श्रीनगर दरबार को दी। शिवप्रसाद डबराल (उत्तराखंड का इतिहास) और भक्तदर्शन (गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां) ने भी अपनी अपनी किताबों में यह माना है कि माधोसिंह की मौत छोटा चीनी में हुई थी। उनके अनुसार उनकी मौत 1635 में हुई, लेकिन कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध 1640 के बाद लड़ा गया था और माधोसिंह की मौत इसी के बाद हुई थी।
    यह थी गढ़वाल के वीर माधोसिंह की कहानी। आपको भी उनसे जुड़ा कोई किस्सा याद होगा तो जरूर शेयर करें। माधोसिंह से जुड़े कई गीत भी बने हुए हैं। उनको भी नीचे टिप्पणी में साझा करने का निवेदन है। (धर्मेन्द्र पंत)

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14 टिप्‍पणियां:

  1. Thanks for sharing Bhaiya. I want to sit with you to understand the history of Uttranchal. This is something which is very intriguing.

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    1. सच कहूं भरत तो मैं भी अब तक सागर से कुछ बूंद ही ले पाया हूं लेकिन जितना भी पढ़ा वास्तव में दिलचस्प है। इसलिए मैं चाहता हूं कि बाकी लोग भी इसके बारे में जानें और समझें। माधोसिंह भंडारी, तीलू रौतेली, रानी कर्णावती जैसे कई शूरवीर और वीरांगनाएं उत्तराखंड में हुई हैं लेकिन इतिहास में उनका खास जिक्र नहीं है और इसलिए आम व्यक्ति उनसे परिचित नहीं है।

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    2. क्योंकि उत्तराखंड के वीरो ने आपने वीरता सिर्फ़ उत्तराखंड में ही दिखाई हे ईसलिये ईन वीरु का नाम का खास ज़िक्र नहि हे

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  2. धन्यवाद पंत जी आपने वीर माधौ सिंह के जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला, मैंने पहले भी टिप्पणी की थी, उत्तराखंड प्रदेश हिमाचल और हरियाणा से फिल्मों के क्षेत्र में बहुत आगे निकल चुका है परन्तु आश्चर्य इस बात पर भी है क्यों बौद्धिक जनो का ध्यान माधौ सिंह के जीवन पर फिल्म बनाने का नही गया होगा ? यह प्रश्न मैंने फिल्म क्षेत्र से जुड़े लोगों से भी भी किया परन्तु सभी ने निरुत्तर रहना ही उचित समझा । पंत जी उत्तराखंड के लोगों की उपस्थिति प्रिंट मीडिया में काफी अधिक रही हैं अनेक विद्वान लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना परचम अतीत में लहरा चुके हैं , आज यही हाल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी है । आपके लेख पढ़कर बहुत शकुन मिलता है एवं विस्तृत जानकारी भी मिलती रहती है । आप लोग उत्तराखंड के महान विभूतियों की सुन्दर एवं महत्वपूर्ण जानकारी जन जन तक पहुंचा रहें हैं ।आप इस भूमि के सुपुत्र हैं इसलिए भी माँ भारती विशेषकर "जन्मभूमि उत्तराखण्ड " आपके इस उपकार को युग युग तक याद रखेगी ।

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  3. adbhut. Aise ekal ekal lekhon ka sankalan kr ke pustak ke roop me bhee prakashit keejiyega kalantr me .

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    1. धन्यवाद। आपकी सलाह पर जरूर गौर करूंगा भैजी।

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  4. Amazing bhaiji or bhi bht interesting h kumaoun n garhwal k bare m vo b arur btaye . also I want to hv some discussion with you.

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    1. शुक्रिया प्रदीप। कोशिश है कि उत्तराखंड से जुड़ी गा​थाओं का यहां जिक्र किया जाए। आप लोगों से भी सहयोग की उम्मीद है। आप मुझे dmpant@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।

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  5. Jub take sooraj chand rahega madho singh terange naam rahega...
    Thanks pant jii

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  6. उस दिन घर मे जब दशरथ मांझी फिल्म की बात चल रही थी तो मेरे मन मे भी माधोसिंघ भण्डारी की कहानी उमड़ घुमड़ कर रही थी। धर्मेंद्र पंत ने इमेरे मन की बात पूरी कर दी। साधुवाद

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  7. बड़ी खुसि हवै यु लेख पौड़ि कि। माधो सिंह भंडारी निर्विवाद एक भौत बड़ा भड़ छाया। हाँ इतिहासकार अर मुलका का गीतेरु से बि यनि विनति च कि यीं बलि वलि बात थैंन सुणौण मा गर्व महसूस नि कारा। बलिपरथा हमरा समाज मा एक अभिशाप च अर जब हम अपणा पुरणयों कि यीं कुरीत थैंन बड़ि चड़ि कि बतौंदा त मुलुक मा यनि मानसिकता वला लोखु थैंन हौर बल मिलदो। लेख का वास्ता घसेरी/पंत जी कु पुनः आभार।

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  8. एक सिंघ रैंदो बण, एक सिंघ गाय का, एक सिंघ महाराणा प्रताप सिंघ ,और सिंघ कहे का।

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  9. मैं मलेथा गांव गया हूं। मैंने भी यह सुरंग देखी है। सुरंग न केवल लंबी है बल्कि् यह आकार में उंची भी हैं। कोई भी आम व्यक्ति झुकते हुये इसके भीतर जा सकता है। मलेथा गांव में आज भी पानी इसी सुरंग से आता है। श्रीनगर की तरफ जाने वाली सडक के उपर मलेथा गांव हैं जबकि नीचे अलकनंद नदी है। लेकिन उस समय नीचे नदी का पानी उपर गांव में पहुंचाने के साधन नहीं रहे होंगे इसलिये माधोसिंह भंडारी ने गांव के पीछे बहने वाले गधेरे को ही पहाड के बीच सुरंग बनाकर गांव में पहुंचा दिया। सचमुच महान कार्य किया उन्होंने।

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