शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' : प्रेमचंद भी थे जिनके प्रशंसक

'' आपकी 'अधूरा चित्र' कहानी अगस्त की 'माधुरी' में देखी और मुग्ध हो गया। सैकड़ों बधाईयां। विषय इतना मनोवैज्ञानिक और उसे ऊपर से इतनी खूबी से निभाया गया है कि पूरा चित्र करूण और व्यथित कल्पना के साथ आंखों के आगे खिंच जाता है। अब आप गल्प लेखकों की पहली सतर में आ गये हैं। ''

--------  महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद का श्री रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' को आठ सितंबर 1935 को लिखे गये पत्र के अंश।

     
    कहानीकार, उपन्यासकार, पत्रकार, प्रकाशक लेकिन दिल से पहाड़ी। उनकी कहानियों से कोई और नहीं बल्कि महान कथाकार प्रेमचंद भी प्रभावित थे। इसके बावजूद रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' को हिन्दी साहित्य में वह स्थान नहीं मिला जिसके वह असल में हकदार थे। आखिर क्यों? अगर इस सवाल का जवाब ढूंढकर गलती में सुधार करने की कोशिश की जाती तो फिर देश के लाखों हिन्दी प्रेमी उस शख्स से अनजान नहीं रहते जिसने 1927 से कथा लेखन की शुरूआत करके एक समय अपनी विशिष्ट पहचान बना ली थी। पिछले दिनों नेशनल बुक ट्रस्ट के कार्यालय जाना हुआ तो तब वहां हिन्दी विभाग के संपादक श्री पंकज चतुर्वेदी ने मेरा परिचय इस महान कथाकार से करवाया। उनकी कहानियों का संकलन हाथ में लेकर मैं उत्साहित था। मर्मस्पर्शी कहानियां जिनमें जीवन मूल्य, जीवन का कठोर यथार्थ समाहित है। जिनमें पहाड़ का संघर्ष भी दिखता है तो युद्ध के दु​ष्परिणामों की झलक भी मिलती है। कहानियों पर संक्षिप्त चर्चा बाद में करेंगे लेकिन पहले मैं आपका परिचय इस शख्सियत से करा देता हूं जिनका नाम है, रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी'।
     पौड़ी गढ़वाल के बड़ेथ गांव में एक अगस्त 1911 को जन्में रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' के पिताजी का नाम गोविन्द प्रसाद और माताजी का नाम सूरजी देवी था। राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल होने के लिये 1927 में इण्टर करने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी। उसी वर्ष यानि 1927 में उनकी पहली कहानी कलकत्ता (अब कोलकाता) से प्रकाशित पत्रिका 'सरोज' में छपी थी। इसके बाद अगले 50 वर्षों तक उनकी सृजन यात्रा चलती रही जिसमें उनके 19 कहानी संग्रह तथा तीन उपन्यास प्रकाशित हुए। पहाड़ी जी हिन्दी के अलावा गढ़वाली में भी समान रूप से लिखते थे। उत्तराखंड के ग्रामीण जीवन पर लिखने वाले वह पहले कथाकार थे। वह अंग्रेजी समाचार पत्रों 'स्टेट्समैन', 'टाइम्स आफ इंडिया', और 'अमृत बाजार पत्रिका' के संवाददाता भी रहे। वह 1940 में लखनऊ में आकाशवाणी से जुड़े। बाद में उन्होंने आजीविका के लिये प्रकाशन व्यवसाय भी अपनाया था। स्वतंत्रता आंदोलन में भी पहाड़ी जी ने सक्रिय भूमिका निभायी। वह 1926 से 1948 तक क्रांतिकारियों के संपर्क में रहे। इस दौरान भूमिगत रहकर ही उन्होंने क्रांतिकारियों की मदद की। बाद में वह वामपंथी आंदोलन में भी सक्रिय रहे। इलाहाबाद उनका कर्मक्षेत्र रहा, लेकिन पहाड़ की अस्मिता पर जोर देने के लिये ही उन्होंने ‘पहाड़ी’ उपनाम अपनाया। 30 अक्टूबर 1997 को उन्होंने अंतिम सांस ली थी।
     पहाड़ी जी के चर्चित कहानी संग्रहों में — अधूरा चित्र (1942), बया का घोंसला (1944), सफर (1945), बड़े भैजी (1945) नया रास्ता (1946), मौली (1946), छाया में (1947), शेषनाग की थाती (1947), कैदी और बुलबुल (1951), पहाड़ी की प्रेम कहानियां (1976) आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा उन्होंने तीन उपन्यास — निर्देशक (1944), सराय (1946) और चलचित्र (1948) भी लिखे। ये तीनों उपन्यास उन्होंने फिल्मों के लिये लिखे थे। इसके अलावा उन्होंने बच्चों के लिये भी कहानियां लिखी हैं।
     ब पहाड़ी जी की कहानियों की बात करें। नेशनल बुक ट्रस्ट में उनकी 18 कहानियों का संकलन प्रकाशित किया है। वरिष्ठ लेखक, भाषाविद, अनुवादक और चिंतक डा. गंगा प्रसाद विमल ने इन कहानियों को संकलित किया है। उनके शब्दों में, '' रमा प्रसाद घिल्डियाल को पर्वतीय होने के कारण सहज ही सृजनात्मक पीठिका के रूप में उपलब्ध था और उन्होंने उसी सूत्र के सहारे दरिद्र, दलित ओर स्त्री या अबला जैसे पक्षों को अपने सृजनात्मक कर्म के प्रमुख विषय चुने जो इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ में साहित्यिक विमर्श के परिपक्व व केंद्रीय विषय बने और एक तरह से प्रवृति सूचक सूत्रों के रूप में याद किये जाते हैं। ''
    असल में पहाड़ी जी यथार्थवादी लेखक थे। जब उनका जन्म हुआ तो उसके तुरंत बाद ही प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया। इसके बाद जब उन्होंने सबसे अधिक साहित्य सृजन​ किया तब दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था। इसकी स्पष्ट छाप उनकी कहानियों में देखने को मिल जाती है। संक्रांति, नागफांस, अतिथि, पतझड़, ब्रैंडकोट, नाता रिश्ता, चीन के आंचल में कुछ ऐसी ही कहानियां हैं जिनमें पहाड़ी जी यही संदेश देना चाहते हैं कि युद्ध से किसी का भला नहीं हो सकता है। बंगाल के अकाल के जीवंत वर्णन के लिये समालोचक उन्हें आज भी याद करते हैं। प्रेमचंद के साहित्य पर काम करने वाले लेखक और प्राध्यापक श्री कमल किशोर गोयनका के शब्दों में, ''पहाड़ी और उनकी पीढ़ी के लेखकों के लिए साहित्य और जीवन एक था, यश और धन-पद के लिए आज जैसा पागलपन न था और न साहित्य दक्षिण-वाम में बंटा हुआ था। ऐसा नहीं था कि सब कुछ पवित्र और शुद्ध था, किंतु साहित्य कर्म में पूरी ईमानदारी, तटस्थता और समर्थता थी। मेरे लिए पहाड़ी ऐसे ही लेखक थे जिन्होंने अपने साथ से पर्वतीय जीवन के नए द्वार खोले और पाठकों को मौलिक साहित्य प्रदान किया।''
     पहाड़ी जी ने स्त्री पुरूष संबंधों को बहुत ही अच्छी तरह से उकेरा है। अधूरा चित्र, सफर, सपने की दुनिया, निरूपमा, वह किसकी तस्वीर थी, रामू और भाभी, बया का घोंसला आदि में वह स्त्री पुरूष संबंधों की नई तरह से व्याख्या पेश करते हैं। जिस 'अधूरा चित्र' कहानी की प्रेमचंद ने भी सराहना की वह एक मार्मिक कथा है जिसमें विजातीय विवाह और प्रेमिका की असाध्य बीमारी का बहुत मर्मस्पर्शी शब्दों में वर्णन किया गया है। छोटा देवर, ब्रैंडकोट में पहाड़ की स्पष्ट झलक दिखती है। छोटा देवर में एक संवाद है, ''तेरी ब्वारी तो राणी बौराणी लग रही थी। मैं गिताड़ होता तो तुम पर गीत लिखता....''।
     अगर भाषा की बात करें तो कवि शमशेर बहादुर सिंह ने उनकी भाषा को 'कविता की व्यंजना लिये हुए' बताया है। उनके अनुसार, '' पहाड़ी ने नई भाषा का सृजन किया है। उनका वाक्य विन्यास तथा शैली एकदम ऐसे है जो कविता की सी व्यंजना लिये हुए है। ''
     'रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' संकलित कहानियां' पुस्तक को राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट) ने प्रकाशित किया है। इसकी कीमत 275 रूपये है और यह आनलाइन (http://www.nbtindia.gov.in/books_detail__19__indian-literature__2618__rama-prasad-ghildiyal-pahare.nbt) भी उपल​ब्ध है।

आपका धर्मेन्द्र पंत


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रविवार, 5 फ़रवरी 2017

जब मैं पहली बार बाराती बना .....

आजकल बारात के स्वागत के समय प्रवेश द्वार पर रिबन बांध दिया जाता है। पहले युवक मंगल दल के सदस्य स्वागत करते थे और स्वागत गीत गाने के साथ नारे लगाते थे। 

    भैजी ने जब ग्रेजुएशन करने के बाद नौकरी के लिये शहरों की तरफ रूख किया तो तब मैं 13 साल का था। भैजी के दूर परदेस में जाने से मन उदास था लेकिन उसका कोई कोना उल्लास से भी भरा था। अब गांव में किसी लड़के की शादी होने पर बारात में जाने का मौका मुझे मिलेगा क्योंकि बुबाजी (पिताजी) शादियों में केवल औपचारिकता के लिये शरीक होते थे। पहले भैजी ने बारात में जाने की जिम्मेदारी निभायी और स्वाभाविक था कि अब मेरी बारी थी। ऐसी जिम्मेदारी जिसे मैं खुशी खुशी लेने के लिये ही नहीं बल्कि छीनने के लिये तैयार बैठा था। मां—पिताजी को भी बता दिया था कि अब यह जिम्मेदारी मेरी है। आखिर कब तक मैं दूसरों को ही नमकीन, बिस्कुट और लड्डू का आनंद उठाते हुए देखता। गांव में लड़कियों की शादियों में आने वाले बारातियों को चाय के साथ नमकीन, बिस्कुट के स्वाद से मिलने वाले आनंद को अधिकतर समय मैंने केवल अहसास किया था। जिंदगी में एक अवसर आया था जब मैं पहली बार बाराती बना था। तब मैं 10-11 साल का था। गांव की एक शादी में पिताजी के अलावा भैजी को अलग से बाराती बनने का न्यौता दिया था। मैंने जिद पकड़ ली कि जब पिताजी को मिलने वाले न्यौते पर भैजी बाराती बनते हैं तो इस बारे मुझे मौका मिलना चाहिए। भैजी साथ में थे इसलिए मुझे अनुमति मिल गयी। नये कपड़े तो नहीं थे लेकिन मेरे पास तब जो सबसे सुंदर कपड़े थे उन्हें पहन लिया। मां ने बालों में तेल लगाकर, उन्हें कंघी से अच्छी तरह संवारकर तैयार कर दिया था। भैजी को हिदायत मिल चुकी थी कि वह मेरा ध्यान रखें। 
     बारात निकल पड़ी और मैं बड़ी शान से उसमें चल रहा था। ढोल दमौ की थाप पर कुछ लोग नाच रहे थे लेकिन मुझे ऐसा लग रहा था कि गांव के प्रत्येक व्यक्ति की नजर मुझ पर ही है। ऐसे में थोड़ा इतरा कर चलना लाजिमी था। बारात गांव से निकल पड़ी और गांव के ठीक आगे खड़ी चढ़ाई (जिसे हम चांद की धार कहते थे) से होकर हमें पहाड़ी के दूसरी तरफ उतराई होते हुए दूर बसे एक गांव में जाना था। मैं भी बारात के आगे चलने वाले सफेद रंग के ध्वज के पीछे चलते हुए चढ़ाई चढ़ने लगा। यहां पर पहले मैं आपको बारात के साथ चलने वाले सफेद और लाल रंग के ध्वज के बारे में बता देता हूं। उत्तराखंड में प्रचलन है कि जब दूल्हा अपने घर से निकलकर दुल्हन के घर जाता है तो आगे सफेद रंग का ध्वज (निशाण) होता और पीछे लाल रंग का। यह प्रथा भी सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। निशाण का मतलब है निशान या फिर संकेत। इसका संदेश यह होता है कि हम आपकी पुत्री का वरण करने आये हैं और शांति के साथ विवाह संपन्न करवाना चाहते हैं। इसलिए सफेद ध्वज आगे रहता है। लाल रंग का ध्वज इस संदेश के साथ जाता था कि शादी के लिये वे युद्ध करने के लिये भी तैयार हैं। जब विवाह संपन्न हो जाता है तो फिर घर वापसी के समय लाल रंग का निशाण आगे और सफेद रंग का पीछे होता है। लाल रंग का ध्वज तब इसलिए आगे रखा जाता है जिसका मतलब यह होता है कि वे विजेता बनकर लौटे हैं और दुल्हन को साथ लेकर आ रहे हैं।

गांवों में आजकल दिन की शादियां होने लगी हैं। इसलिए शादियों की रंगत भी फीकी पड़ गयी है।

   त्साह से लबरेज होने के कारण मुझे चढ़ाई तो बहुत आसान लग रही थी। मां ने हिदायत दे रखी थी कि बारात के पीछे नहीं चलना है। जब भी गांव में बारात आती थी तो मां कहती थी कि उसके पीछे नहीं चलना चाहिए। इसके पीछे उनके अपने तर्क थे। कुछ डरावने किस्से भी। बारात के छामाखाल पहुंचने पर सड़क के दर्शन हो गये थे। यहां पर ढोल वादक ने अपनी कला का भरपूर प्रदर्शन किया तो मसकबाज और दमौ वादक ने उसका पूरा साथ दिया। युवा लड़के थिरकने लगे और उनसे कुछ दूरी पर मेरे भी पांव चलने लगे। अभी शमां बंधा ही था कि तभी सड़क में दूसरी तरफ से एक और बारात आती दिखायी दी। एक बुजुर्ग ने आवाज लगायी कि दूल्हे को छिपाओ। मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। हमें सड़क के नीचे वाले रास्ते पर निकलना था और हमारी बारात ने तुरंत वह रास्ता पकड़ लिया। दूल्हे को उनके कुछ दोस्त घेरे हुए थे ताकि दूसरे दूल्हे की नजर उस पर नहीं पड़े। पता चला कि कमोबेश यही स्थिति दूसरे दूल्हे की होगी। बाद में मां ने बताया कि दो दूल्हों या दुल्हनों का मिलन अशुभ माना जाता है।
    बारात जब दुल्हन के गांव में पहुंची तो सभी घराती स्वागत के लिये तैयार बैठे थे। उस समय आज के जमाने की तरह गेट पर रिबन बांधने का रिवाज नहीं था। गांव का युवक मंगल दल बारातियों का गीत और नारों से स्वागत करता था। गांव में अब भी यह प्रचलन है। युवक मंगल दल के दो सदस्य आगे कपड़े का बना बड़ा बैनर पकड़ते है जिस पर लिखा होता था 'अमुक गांव का युवक मंगल दल आपका स्वागत करता है।' बारात के इस स्वागत के लिये बाद में युवक मंगल दल के सदस्यों को कुछ इनाम भी मिलता है। हमारा भी स्वागत पूरे जोर शोर से किया गया। घराती गांव वाले लड़के गा रहे थे, ''स्वागत प्यारे, बंधु हमारे स्वागत हम सब करते हैं, दया करोगे, लाज रखोगे यही भरोसा रखते हैं .....'' बीच—बीच में नारे में लगा रहे थे जैसे ''हर्ष—हर्ष, जय—जय। बाल युवक मंगल दल आपका स्वागत करता है। वर—वधु की जोड़ी अमर रहे।'' स्वागत करने के बाद युवक मंगल दल के सदस्यों की ही जिम्मेदारी थी वे हमारी आवभगत करें। आवभगत का मतलब सभी बारातियों को पहले पानी के लिये पूछना और फिर उन तक चाय, नमकीन, बिस्कुट और कोई मिठाई पहुंचाना। पहले मिठाई का मतलब होता था लड्डू। मेरे मुंह में तो अभी से पानी आ रहा था।
    दुल्हन के घर के पास में बड़ी चांदनी (शामियाना) लगा रखी थी। उसके अंदर गांव के विभिन्न घरों से मांगकर कुर्सियां सजायी गयी थी। कुछ चारपाईयां लगी थी। नीचे दरियां बिछी हुई थी। सभी बच्चों को नीचे दरियों में बैठने का आदेश मिल चुका था। बड़े बुजुर्ग कुर्सियों या चारपाई पर विराजमान थे। पास में ही दूल्हे को मिलने वाला पलंग और उस पर चमचमाती चादर और रजाई रखी थी। दूल्हे के दोस्तों ने उस पर कब्जा जमा लिया था। गैस (पेट्रोमैक्स) की रोशनी से नहा रही थी चांदनी। उस समय गांवों में प्रचलन था कि बारात पहुंचने पर दुल्हन की सहेलियां मांगल गीत गाती और मजाकिया अंदाज में दूल्हे, उसकी तरफ के पंडित, उसके दोस्तों आदि को 'मांगल में ही गालियां' देकर छेड़ती। जैसे ..., ''अरे ब्योला तु बामण नि ले जाणू ....। हमरा गांऊ कुकर भुख्यूंच, ब्योला कु बबा उबर लुक्युंच ....। '' इनमें आग्रह भी होता था जैसे, ''छ्वटी बटै कि बड़ि बणाई सैंती पालि की, ये फूल थै रख्यां जवैं संभालि कि.....। '' इस दौरान बारात में आये युवा नौजवान भी लड़कियों से नैन मटका करने की कोशिश करते। उन्हें भी मांगल में ही गालियां पड़ती।
     मेरी नजर नमकीन बिस्कुट पर थी। उसे पहले बड़े बुजुर्गों में बांटा जा रहा था। मन में धुकधुकी लगी थी कि कहीं मेरी बारी आते आते नमकीन बिस्कुट खत्म नहीं हो जाए। जहां पर मैं बैठा था कि वहां पर भी अब दो युवक चाय, नमकीन—बिस्कुट से भरी कागज प्लेटें बांटने लगे थे। एक कांच में गिलास में भरकर चाय देता और दूसरा नमकीन से भरा पैकैट या प्लेट पकड़ाता। अब मुझे बाराती होने का असली आनंद मिलने वाला था। लेकिन यह किस्सा मेरे साथ ही घटने वाला था। बाराती बच्चों के बीच में मैं छूट गया। अब वे दूसरी तरफ बैठे बारातियों की आवभगत कर रहे थे। मेरे आंसू निकल पड़े। मेरी निगाहें भैजी को खोज रही थी। केवल उन्हीं से मैं अपनी व्यथा कह सकता था। भैजी पीछे बैठे थे। मैं तुरंत ही उनके पास चला गया और फिर सुबकने लगा। मैंने उन्हें कारण बताया तो उन्होंने ढाढस बंधाते हुए अपनी प्लेट मुझे दे दी। मैं तो नयी प्लेट लेने की जिद पर अड़ा था। पास में बैठे गांव के एक चाचाजी को जब माजरा पता चला तो उन्होंने स्वागतकर्मियों को हड़काया। अब तो तुरंत ही मेरे पास चाय और नमकीन बिस्कुट की प्लेट पहुंच गयी। अब तक हालांकि जिस आनंद की मैंने कल्पना की थी वह काफूर हो चुका था।
अठारह साल पहले भी बारात पहुंचने पर 
वरमाला का चलन शुरू हो गया था। मैंने भी ऐसा 
किया था। मेरी शादी का एक चित्र।
     कुछ देर बाद पंडित जी पिठाई लेकर आ गये और उनके साथ लिफाफों में बंद दक्षिणा। पंडित जी और लिफाफा पकड़ाने वाले दोनों से कोई चूक नहीं हुई। मैंने तुरंत लिफाफा खोला तो भैजी ने सनकाया (सनकाण यानि इशारा, संकेत करना) भी कि मैं अभी ऐसा नहीं करूं। लिफाफे के अंदर एक रूपये के चमचमाते नोट ने कुछ देर पहले के मेरे सारे अवसाद को खत्म कर दिया था। लिफाफा भैजी को सौंप दिया। रात का भोजन करने के बाद कुछ बाराती अपने लिये सोने की जगह तलाश करने लगे। बाकी बारातियों को अभी रात्रि मनोरंजन के लिये बुलाये गये जोकरों को देखना था। इच्छा तो मेरी भी थी लेकिन तभी मुझे नमकीन—बिस्कुट नहीं मिलने पर उस गांव के लड़कों को हड़काने वाले चाचाजी आ गये। उन्होंने बताया कि उन्हें सोने की जगह मिल गयी है। चारपाई एक है और मैं उनके साथ सो जाऊंगा। अभी हम लेटे ही थे कि कुछ और बाराती जगह की तलाश में पहुंच गये। चाचाजी ने चुपके से मेरे कान में कहा, ''चौड़े होकर सोजा नहीं तो इनमें से कोई हमारे साथ घुस जाएगा।'' मैंने तुरंत आदेश पर अमल किया। 
     सुबह रात का बचे खाने का ही नाश्ता किया, चाय पी और फिर उस गांव के लड़कों के साथ क्रिकेट खेलने लग गये। बाकी वेदी में चले गये क्योंकि वहां पर भी गांव की लड़कियों की गालियों से दूल्हे, उसके साथियों और अन्य की पूजा होने वाली थी। इस दौरान खूब मजाक और चुहलबाजी होती। मुझे तो वर्षों बाद पता चला कि इसका अलग आनंद है। हालांकि धीरे धीरे यह प्रथा खत्म होती गयी और अब शायद ही किसी गांव में बारात आने पर लड़कियां 'मांगल में मजाकिया गालियां' देती होंगी। दिन का खाना करने के बाद बारात जाने से पहले फिर से पिठाई लगी। फिर से एक रूपये की दक्षिणा मिली। दक्षिणा मिलते ही कुछ लोग गांव की तरफ कूच करने लगे। मैं भी उनके साथ हो लिया। मुझे दुल्हन का दहाड़ें मारकर रोना कभी अच्छा नहीं लगा और अब यहां भी यही होने वाला था। दूल्हे के साथ कुछ बाराती विशेषकर उसके साथी रह जाते। दुल्हन की सहेलियां गांव से दूर तक उसे छोड़ने के लिये आती और इस बीच भी खूब मजाक चलता था। भले ही मुझे तब इससे मतलब नहीं था। रास्ते में मुझे मेरे गांव की लड़कियां दिखी। वे दुल्हन को लेने आयी थी। मैं तो जल्द से जल्द घर पहुंचकर मां के सामने बारात के अपने पहले अनुभव को बयां करने के लिये बेताब था।
       इसके बाद मैं कई बार बाराती बना। तेरह साल की उम्र ही चाय पीनी छोड़ दी थी और कुछ वर्षों बाद नमकीन—बिस्कुट का मोह भी खत्म हो गया। पिछले कुछ वर्षों से तो बारात में मिलने वाली दक्षिणा का खुलकर विरोध भी कर रहा हूं। अब बाराती बनना औपचारिकता पूरी करने जैसा होता है। उसमें पहले जैसा आनंद और उत्साह नहीं बचा है। गांव में दिन की शादियां हो रही हैं और शहरों में तो यह दो तीन घंटे का खेल है। मेरी शादी भी शहर में हुई। दिल्ली से गुड़गांव गयी थी मेरी बारात। आज से ठीक 18 साल पहले पांच फरवरी 1999 को अंजू मेरी जीवनसंगिनी बनी थी। ऐसे में मैंने अपनी पहली बारात की कुछ यादें ताजा करने की कोशिश की। आपको कैसे लगी ब्लॉग के नीचे कमेंट वाले कालम में यह जरूर बतायें। आपका धर्मेन्द्र पंत


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