रामलीला। यह शब्द भले ही अब उतना आकर्षित नहीं करता है लेकिन कभी हमारे लिये इसके खास मायने होते थे। रामलीला माताओं, बहनों, बहू, बेटियों के लिये असूज यानि आश्विन महीने में खेतों में दिन भर की कमरतोड़ मेहनत के बाद रात में कुछ समय साथ में बिताने का मौका देती थी। रामलीला गांव के युवाओं को पर्दा उठने के बाद अपने अंदर छिपे कलाकार को सामने लाने का अवसर देती थी। रामलीला गांव के माहौल को राममय बनाने का काम करती थी। रामलीला एक समय में गांव में लोगों के मनोरंजन के लिये वही भूमिका निभाती थी जिसकी जगह आज एकता कपूर के धारावाहिकों और कपिल की कामेडी नाइट्स ने ली है। यह पहाड़ों की सत्तर और अस्सी या फिर नब्बे की दशक के शुरुआती वर्षों की रामलीला थी। यह वह दौर था तब घरों में बुद्ध बख्शा नहीं पहुंचा था या फिर कुछ घरों तक ही उसकी घुसपैठ थी और तिस पर भी ले देकर एक दूरदर्शन था जो रामायण और महाभारत केवल एक दिन रविवार को और वह भी सुबह दिखाता था।
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पहाड़ों में होने वाली रामलीला का एक दृश्य। फोटो सौजन्य ... श्री दीनदयाल सुंद्रियाल। |
तो चलिये मेरे साथ पहाड़ों की आज से 20 . 30 साल पुरानी रामलीला का आनंद उठाने के लिये। पहाड़ों में असूज के महीने में बहुत काम होता है। इसलिए कोशिश की जाती थी कि रामलीला कुछ दिन बाद (दशहरे के बाद भी) शुरू की जाए ताकि लोगोें पर काम का अधिक भार नहीं रहे और वे मनोयोग से इसका आनंद ले सकें। यह वह समय होता है जब पहाड़ों में ठंड दस्तक देनी शुरू कर देती है। पहले बिजली नहीं होती थी तो पेट्रोमैक्स (गैस) की रोशनी में रामलीला खेली जाती थी। बिजली आने के बाद भी एक या दो गैस तैयार रखे जाते थे। आखिर बिजली का क्या भरोसा। जब तय हो जाता था कि रामलीला अमुक तारीख से होनी है तो फिर जिज्ञासा का विषय यह होता था कि राम कौन बना है और रावण कौन। इसी तरह से अन्य पात्र भी होते थे। राम, सीता और रावण ही नहीं बल्कि हनुमान, अंगद, छवि राजा, ताड़िका, कुंभकर्ण आदि कुछ ऐसे पात्र होते थे जिनका जिक्र होते ही बरबस किसी खास शख्स का नाम जुबान पर आ जाता था। अच्छी ढील ढौल वाला और खूब गर्जन तर्जन करने वाला व्यक्ति ही रावण बनता था। स्वर सुरीला है तो फिर उसे राम या सीता बना दिया जाता। हां पहाड़ों की रामलीला की खासियत यह थी कि इसमें महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष पात्र ही निभाते थे। महिलाओं की भूमिका रामलीला में यही होती थी कि वे महिला पात्रों की साड़ी अच्छी तरह से लगा देती थी। रामलीला से पहले रिहर्सल में सभी पात्रों को अच्छी तरह से जांचा परखा जाता था। इसी दौरान धनुष, बाण, गदा आदि अस्त्रों को भी तैयार किया जाता था।
रामलीला अमूमन सात या आठ दिन की ही होती थी। सातवें दिन की रात को रावण बध और आठवें दिन सुबह से लेकर दोपहर तक राजतिलक। हर दिन रामलीला की शुरुआत आरती से होती थी। प्रत्येक दिन दिन नयी आरती। कभी मां दुर्गा तो कभी राम, कृष्ण या विष्णु की। इससे पहले फीता यानि रिबन काटने की रश्म निभायी जाती थी। आखिर मोटा पैसा तो इसी से आता था। फीता कौन काटेगा इसके लिये काफी माथापच्ची करनी पड़ती थी। अगर कोई नौकरी से छुट्टी पर आया है तो उसे फीता काटने के लिये तैयार कर दिया जाता था। किसी के घर में कुछ अच्छा काम हुआ हो तो वह खुद ही इसके लिये हामी भर देता था। रिबन काटने वाला भी अपने सामर्थ्य के हिसाब से पैसे दे देता था, 11 रूपये से लेकर 51 रूपये तक। 101 रूपये बहुत कम।
पहाड़ों की रामलीला अमूमन रावण, कुंभकर्ण और विभीषण की तपस्या से शुरू होती थी। यदि श्रवण की कथा डालनी है तो फिर पहले यह नाटक खेला जाता था। ब्रह्मा अक्सर उसी व्यक्ति को बना दिया जाता था जिसे राम की भूमिका निभानी हो। ब्रह्मा प्रकट होते और रावण के पास आकर कहते ''एवमस्तु तुम बड़ तप कीना ....।'' यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया कि रावण तब पूरे जोश में क्यों वरदान मांगता था। प्रोज मास्टर की भूमिका अहम होती थी। उसे आप निर्देशक कह सकते हो। पात्र को अपने कान खुले रखने पड़ते थे क्योंकि प्रोज मास्टर धीमे से संवाद बोलता था जो उसे जोर से दोहराने पड़ते। गलती की गुंजाइश न के बराबर होती थी। सीन समाप्त होने पर प्रोज मास्टर ही सीटी बजाकर पर्दे की डोरी खींच देता और फिर अगले सीन की तैयारी में जुट जाता। रामलीला का सबसे व्यस्त इंसान। इस बीच यदि सीन तैयार होने में देरी है तो कुछ कामिक टाइप के लोगों को पहले ही तैयार कर दिया जाता था। लोगों को हंसाने के लिये जोकर या मसखरे खास तौर पर रामलीलाओं में बुलाये जाते थे। बीच में दानदाताओं के नामों की घोषणा भी की जाती थी।
मन मोह लेती था राम सीता का पहला मिलन
रामलीला आगे बढ़ती थी। शिव का कैलाश एक कुर्सी बन जाती थी जिसके ऊपर चादर पड़ी रहती। शिव कुर्सी पर विराजमान हो जाते और पार्वती उसके हत्थे पर। रावण को वही कुर्सी हिलानी पड़ती थी। रामजन्म और फिर राम का मुनियों की रक्षा के लिये वन में जाना। राम की भूमिका निभाने वाले पात्र को चौपाई गाने में माहिर होना पड़ता था। आखिर ताड़िका बध के समय भी राम को ''अरी दुष्ट पापिनी तू जड़ नारी, नहीं जाने हम हैं धनुर्धारी ...'' जैसी चौपाई गानी पड़ती थी। सुबाहू और लक्ष्मण का युद्ध भी रोमांचक होता था।
लेकिन वह राम और सीता का पहला मिलन होता जो मन मोह लेता। सीता अपनी सखियों के साथ गाती ''पूजन को अंबे गौरी चलियो सखी सहेली ...। '' सीता के पात्र की पहली परीक्षा यहीं पर होती। लक्ष्मण भी बड़े भाई से कहता कि ''देखो जी देखो महाराज कि वह है ललनी ..।'' और फिर राम अपनी चौपाई पर आ जाते '' तात जनक तनया यह सोई धनुष यज्ञ जेहि कारण होई ...। '' सीता स्वयंवर का तो सभी बेसब्री से इंतजार करते थे। रामलीला का सबसे लंबा और रोमांचक सीन जिसमें हास्य भी होता और रोमांच भी। राजा ऐसे पात्र होते थे जो राजा कम और मसखरे ज्यादा लगते थे। इनमें छवि राजा की भूमिका अहम होती थी। लोगों को हंसाने की जिम्मेदारी उसी पर रहती। जब वह बोलता ''....पांच बुलाये पंद्रह आये , पंद्रह चौके साठ ...'' यदि तब जनता हंसी नहीं तो मतलब वह अपनी भूमिका में खरा नहीं उतरा। धनुष टूटने के बाद इंतजार रहता था परशुराम . लक्ष्मण संवाद की। यहां पर परशुराम के साथ लक्ष्मण के पात्र की भी अग्निपरीक्षा होती थी। यदि दोनों मंझे होते थे और पूरी तैयारियों के साथ आते थे तो फिर समां बंध जाता था।
लेकिन वह राम और सीता का पहला मिलन होता जो मन मोह लेता। सीता अपनी सखियों के साथ गाती ''पूजन को अंबे गौरी चलियो सखी सहेली ...। '' सीता के पात्र की पहली परीक्षा यहीं पर होती। लक्ष्मण भी बड़े भाई से कहता कि ''देखो जी देखो महाराज कि वह है ललनी ..।'' और फिर राम अपनी चौपाई पर आ जाते '' तात जनक तनया यह सोई धनुष यज्ञ जेहि कारण होई ...। '' सीता स्वयंवर का तो सभी बेसब्री से इंतजार करते थे। रामलीला का सबसे लंबा और रोमांचक सीन जिसमें हास्य भी होता और रोमांच भी। राजा ऐसे पात्र होते थे जो राजा कम और मसखरे ज्यादा लगते थे। इनमें छवि राजा की भूमिका अहम होती थी। लोगों को हंसाने की जिम्मेदारी उसी पर रहती। जब वह बोलता ''....पांच बुलाये पंद्रह आये , पंद्रह चौके साठ ...'' यदि तब जनता हंसी नहीं तो मतलब वह अपनी भूमिका में खरा नहीं उतरा। धनुष टूटने के बाद इंतजार रहता था परशुराम . लक्ष्मण संवाद की। यहां पर परशुराम के साथ लक्ष्मण के पात्र की भी अग्निपरीक्षा होती थी। यदि दोनों मंझे होते थे और पूरी तैयारियों के साथ आते थे तो फिर समां बंध जाता था।
प्रत्येक दिन के लिये तय होता था कि किस दिन रामलीला कहां तक खेलनी है। राम को वनवास होने पर जब वह नदी पार करते तो एक साड़ी दोनों तरफ से आर पार पकड़ ली जाती थी। उसे हिलाते और केवट के साथ राम, लक्ष्मण और सीता उसे पार करते। सीता का गीत समाप्त होते ही साड़ी लांघकर नदी पार हो जाती थी। शूपर्णखा और मंथरा कौन बनेगा इसके लिये काफी माथापच्ची करनी पड़ती थी। शूपर्णखा ने 'हाय रे नाक कट गयी' कहकर यदि लोगों में हंसी और बच्चों में डर भर दिया तो समझो वह अपने काम में सफल हो गया। रावण केवल एक शॉल अपने मुकुट के ऊपर से ओढ़ लेता और सीता हरण के लिये उसका भेष बदल जाता। हनुमान, बाली और सुग्रीव के पात्रों पर पूरी लिपस्टिक लगा दी जाती। बेचारों को बाद में चेहरा साफ करने में काफी परेशानी होती थी। हनुमान के समुद्र पार करते समय भी नदी बनी साड़ी ही समुद्र बन जाती। अशोक वाटिका में हनुमान यह सुनिश्चित करता कि उसमें अधिक से अधिक फल लगे हों। किसी के बगीचे से मौसमी फल या फिर कुछ सेब, केले खरीदकर मंच पर लटका दिये जाते। हनुमान उसे आधा खाकर जनता की तरफ फेंक देता। लंका दहन के लिये हनुमान की पूंछ लंबी कर दी जाती। उसे मशाल लगायी जाती। हनुमान को हिदायत रहती कि वह आग लगने के तुरंत बाद जनता के बैठने के बीच में बने रास्ते पर एक दो चक्कर लगाये और फिर तुरंत पर्दे के पीछे चला जाए जहां आग बुझाने के लिये पानी की पूरी तैयारी रहती थी। जब युद्ध शुरू होता तो लक्ष्मण के मूर्छित होने पर वही थाली पर्वत बन जाती जिससे दिन के शुरू में आरती हुई थी। उसमें अधिक से अधिक दिये जला दिये जाते थे। युद्ध कई तरह से लड़ा जाता लेकिन रावण की सेना के जिस भी बड़े सेनानायक को मरना होता वह तभी जमीन पर गिरता जब पीछे से पटाखा फूट जाए। कई बार पटाखा फुस्स हो जाता तो संदेश पहुंचा दिया जाता। ''मार दे यार पटाखा फुस्स हो गया। '' सबसे बड़ा पटाखा रावण के लिये सुरक्षित होता था।
राजतिलक के दिन सुबह से ही गांव में उत्सव सा माहौल रहता था। राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान वास्तव में वन में भेज दिये जाते। उनका मेकअप वहीं होता था। इधर तैयारियां चलने लगती। खूब ढोल नगाड़े बजते। भरत और शत्रुघ्न के साथ पूरे गांववासी राम को लेने आधे रास्ते तक जाते। इसके बाद सब मंच पर लौटते और राम राजा के कपड़े पहनकर सिंहासन पर विराजमान हो जाते। लोगों को पहली बार मंच पर आने का मौका इसी दिन मिलता था। वे राम, लक्ष्मण और सीता के पांव छूकर आशीर्वाद लेते और अपनी तरफ से कुछ भेंट भी रख जाते थे। मेरी खुद की रामलीला से कई यादें जुड़ी हैं। मैं रामलीला में राम भी बना तो उससे पहले महिला पात्र भी। हर पात्र का अलग आनंद होता था। कुछ इसी तरह से होती थी सत्तर और अस्सी के दशक की रामलीला।
आपका धर्मेन्द्र पंत
राजतिलक के दिन सुबह से ही गांव में उत्सव सा माहौल रहता था। राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान वास्तव में वन में भेज दिये जाते। उनका मेकअप वहीं होता था। इधर तैयारियां चलने लगती। खूब ढोल नगाड़े बजते। भरत और शत्रुघ्न के साथ पूरे गांववासी राम को लेने आधे रास्ते तक जाते। इसके बाद सब मंच पर लौटते और राम राजा के कपड़े पहनकर सिंहासन पर विराजमान हो जाते। लोगों को पहली बार मंच पर आने का मौका इसी दिन मिलता था। वे राम, लक्ष्मण और सीता के पांव छूकर आशीर्वाद लेते और अपनी तरफ से कुछ भेंट भी रख जाते थे। मेरी खुद की रामलीला से कई यादें जुड़ी हैं। मैं रामलीला में राम भी बना तो उससे पहले महिला पात्र भी। हर पात्र का अलग आनंद होता था। कुछ इसी तरह से होती थी सत्तर और अस्सी के दशक की रामलीला।
आपका धर्मेन्द्र पंत