सोमवार, 6 अगस्त 2018

पेट के लिये उपयोगी होता है मेळु


       पने महान उत्तराखंडी गायक श्री नरेंद्र सिंह नेगी का एक गीत सुना होगा, मेळु—घिंघोरा की दाणी खैजा, छुया दुल्युं को पाणी पेजा। घसेरी में आज बात करेंगे इसी मेळु की जिसके फूल मन को हर्षित करते हैं और फल दिल को लुभाते हैं। मेळु आम पहाड़ी जीवन में रचा बसा फल है जिसकी खेती नहीं की जाती बल्कि काफल की तरह इसे भी जंगली फल कहा जाता है। यह नाशपाती प्रजाति का जंगली वृक्ष है और यही वजह है कि इसे अंग्रेजी में Himalayan Wild Pear या Himalayan Pear या Indian wild pear कहते हैं। इसके अलावा मेळु को स्थानीय भाषाओं में अलग अलग नामों से जाना जाता है। इसे मेहल, मोल, कैंठ, आदि भी कहते हैं। मेळु को हिन्दी में मेहल मोल, उर्दू में बतांगी, कश्मीरी में तांगी तथा नेपाली में मयल और पासी कहा जाता है। इसका वानस्पतिक नाम Pyrus pashia है और यह रोजेसियाइ (Rosaceae) परिवार से संबंध रखता है। मेळु 750 मीटर से 2700 मीटर की ऊंचाई तक पाया जाता है जिसके कारण उत्तराखंड में अधिकतर स्थानों पर इसके पेड़ देखने को मिल जाएंगे। उत्तराखंड के अलावा मेळु भारत में हिमाचल प्रदेश, कश्मीर, पूर्वोत्तर के राज्यों तथा अन्य देशों में अफगानिस्तान, दक्षिण पश्चिम चीन, उत्तरी पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमा, थाईलैंड, लाओस और वियतनाम में भी पाया जाता है। इसके पेड़ की लंबाई छह से दस मीटर तक होती है जिसकी टहनियों पर कांटे होते हैं। यही कारण है कि मेळु का उपयोग बाड़ बनाने के लिये भी किया जाता है। इसकी पत्तियों का स्वाद कसैला होता है लेकिन भेड़—बकरियां इन्हें बड़े चाव से खाती हैं। इसकी पत्तियां खाने से गाय, बकरियां अधिक दूध देती हैं। हाथ पांवों को मुलायम बनाने के लिये मेळु की नयी पत्तियों को पीसकर लगाया जाता है।

मेळु के बारे में यह वीडियो भी देखें....





        ब बात करते हैं मेळु की यानि मेळु के फल की। मेळु पर मार्च—अप्रैल यानि बसंत में फूल लगते हैं। पहाड़ों में सीढ़ीनुमा खेतों के किनारे पर उगने वाले यह पेड़ तब सफेद फूलों से लकदक बना रहता है और उस समय इसकी छटा देखते ही बनती है। मई—जून से इसमें फल लगने शुरू हो जाते हैं जो नवंबर—दिसंबर तक पक जाते हैं। मेळु का फल पकने पर भूरे रंग का हो जाता है जिस पर सफेद और पीले धब्बे होते हैं। यह पोषक तत्वों से भरपूर होता है और इसका चिकित्सकीय महत्व भी है। खेतों में काम करने गये स्थानीय लोग भूख मिटाने के लिये मेळु का फल खाते हैं लेकिन यह कब्ज के लिये बेहद लाभकारी होता है। इसका फल खाने से प्यास भी कम हो जाती है। मेळु के फलों का जूस पाचन विकार, पेचिस, डायरिया, गले में दर्द, पेट दर्द, एनीमिया, आंखों की समस्या आदि में भी उपयोगी होता है। मेळु का फल खाने से मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं। उत्तराखंड में स्थानीय निवासी इसके फल के रस से मवेशी की आंखों की बीमारियों का उपचार करते हैं। पेट संबंधी रोगों के लिये तो मेळु का फल और पेड़ की छाल बेहद उपयोगी होती है। इसकी छाल का उपयोग गले में दर्द, बुखार, पेप्टिक अल्सर, गैस्ट्रिक अल्सर और टायफाइड बुखार में किया जाता है। प्रयोगों से पता चला है कि मेळु का फल एंटीआॅक्सीडेंट होता है। मेळु के फल में 6.8 प्रतिशत शर्करा, 3.7 प्रतिशत प्रोटीन, 0.4 प्रतिशत पेक्टिन, थोड़ी मात्रा में विटामिन सी, 0.026 प्रतिशत फास्फोरस, 0.475 प्रतिशत पोटेशियम, 0.061 प्रतिशत कैल्सियम, 0.027 प्रतिशत मैग्नीशियम और 0.006 प्रतिशत लौह तत्व पाये जाते हैं। 
         मेळु की लकड़ी काफी मजबूत और टिकाऊ होती है। इससे कृषि उपकरण, छड़ी, कंघी आदि बनायी जाती है।
         तो यह थी मेळु के बारे में जानकारी। आशा है कि अब आप मेळु खाने से नहीं हिचकिचाओगे। पहाड़ों से जुड़ी ऐसी ही कई रोचक जानकारियां आगे भी घसेरी के जरिये आप तक पहुंचायी जाएगी। घसेरी का अपना यूट्यूब चैनल भी है जिसे सब्सक्राइब करना न भूलें। यह बिल्कुल मुफ्त है। इसका लिंक नीचे दिया गया है। आपका धर्मेन्द्र पंत 

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri) 


badge