रविवार, 8 मई 2016

उत्तराखंड में बोली जाती हैं 13 भाषाएं

कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी। यह कहावत उत्तराखंड पर अक्षरश: लागू होती है। 

   दुनिया आज 'मदर्स डे' मना रही है। मां के लिये भी एक दिन तय कर दिया है, मुझे यह जंचता नहीं है। मां हर दिन याद आती है और हर दिन मां के लिये होता है। पहाड़ों में मां को मां के अलावा ब्वे, बोई, ईजा, आमा कई तरह से पुकारा जाता है। इस पर बाद में चर्चा करेंगे। अभी तो आपसे मैं एक सवाल करता हूं कि उत्तराखंड में कितनी भाषाएं बोली जाती हैं? मैंने यह सवाल कई पहाड़ियों से किया तो उनमें से अधिकतर का जवाब होता था तीन यानि गढ़वाली, कुमांउनी और जौनसारी। आज 'घसेरी' आपको उत्तराखंड की तमाम भाषाओं से अवगत कराने की कोशिश करेगी।
       उत्तराखंड में कुल 13 भाषाएं बोली जाती हैं। यह 'घसेरी' नहीं बल्कि भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण का निष्कर्ष है। उत्तराखंड की भाषाओं को लेकर सबसे पहले सर्वेक्षण करने वाले जार्ज ग्रियर्सन ने भी इनमें से अधिकतर भाषाओं की जानकारी दी थी। ग्रियर्सन ने 1908 से लेकर 1927 तक यह सर्वेक्षण करवाया था। इसके बाद उत्तराखंड की भाषाओं को लेकर कई अध्ययन किये गये। हाल में 'पंखुड़ी' नामक संस्था ने भी इन भाषाओं पर काम किया। यह सभी काम 13 भाषाओं पर ही केंद्रित रहा। इनमें गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, जौनपुरी, जोहारी, रवांल्टी, बंगाड़ी, मार्च्छा, राजी, जाड़, रंग ल्वू, बुक्साणी और थारू शामिल हैं। इस पर मतभेद हो सकते हैं कि ये भाषाएं हैं या बोलियां। मेरा मानना है कि अगर एक बोली का अपना शब्द भंडार है, वह खुद को अलग तरह से व्यक्त करती है तो उसे भाषा बोलने में गुरेज क्या। कई लोगों को मानना है कि उत्तराखंड की भाषाओं की अपनी लिपि नहीं है तो मेरा इस पर जवाब होता है कि अंग्रेजी की भी अपनी लिपि नहीं है। वह रोमन लिपि में लिखी जाती है तो क्या आप उसे भी भाषा नहीं मानोगे। मराठी की देवनागरी लिपि है और हमारे उत्तराखंड की भाषाओं जो साहित्य​ लिखा गया उसमें ​देवनागरी का ही उपयोग किया गया। इस विषय पर आगे कभी लंबी चर्चा हो सकती है। फिलहाल 'घसेरी' के साथ चलिए भाषाओं को लेकर उत्तराखंड की सैर करने।

कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी 


    हम सभी जानते हैं कि उत्तराखंड में दो मंडल हैं गढ़वाल और कुमांऊ। इन दोनों की अपनी अलग अलग भाषाएं हैं। इनसे जुड़े क्षेत्रों की अन्य भाषाएं इनसे प्रभावित हो सकती हैं लेकिन अध्ययन के दौरान 'घसेरी' ने पाया कि उनकी शब्दावली और वाक्य विन्यास में काफी अंतर पाया जाता है। वैसे साथ में चेतावनी भी ​है कि यूनेस्को ने उत्तराखंड की सभी भाषाओं को संकटग्रस्त भाषाओं की श्रेणी में शामिल किया है। इसको संकट में हम ही डाल रहे हैं इसलिए सावधान हो जाइये। गढ़वाली और कुमांउनी यहां की दो मुख्य भाषाएं हैं इसलिए पहले इन्हीं के बारे में जान लेते हैं।



गढ़वाली : गढ़वाल मंडल के सातों​ जिले पौड़ी, टिहरी, चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, देहरादून और हरिद्वार गढ़वाली भाषी लोगों के मुख्य क्षेत्र हैं। कुमांऊ के रामनगर क्षेत्र में गढ़वाली का असर देखा जाता है। माना जाता है कि गढ़वाली आर्य भाषाओं के साथ ही विकसित हुई लेकिन 11—12वीं सदी में इसने अपना अलग स्वरूप धारण कर लिया था। इस पर हिन्दी के अलावा मराठी, फारसी, गुजराती, बांग्ला, पंजाबी आदि का भी प्रभाव रहा है लेकिन गढ़वाली का अपना शब्द भंडार है जो काफी विकसित है और हिन्दी जैसी भाषा को भी अपने शब्द भंडार से समृद्ध करने की क्षमता रखती है। ग्रियर्सन ने गढ़वाली के कई रूप जैसे श्रीनगरी, नागपुरिया, बधाणी, सलाणी, टिहरियाली, राठी, दसौल्या, मांझ कुमैया आदि बताये थे। बाद में कुछ साहित्यकारों ने मार्च्छा, तोल्छा, जौनसारी का भी गढ़वाली का ही एक रूप माना। गढ़वाली भाषाविद डा. गोविंद चातक ने श्रीनगर और उसके आसपास बोली जाने वाली भाषा को आदर्श गढ़वाली कहा था। वैसे भी कहा गया है, ''कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी। ''
कुमांउनी : कुमांऊ मंडल के छह जिलों नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत और उधमसिंह नगर में कुमांउनी बोली जाती है। वैसे इनमें से लगभग हर जिले में कुमांउनी का स्वरूप थोड़ा बदल जाता है। गढ़वाल और कुमांऊ के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोग दोनों भाषाओं को बोल और समझ लेते हैं। कुमाउंनी की कुल दस उप बोलियां हैं जिन्हें पूर्वी और पश्चिमी दो वर्गों में बांटा गया है। पूर्वी कुमाउंनी मेंकुमैया, सोर्याली, अस्कोटी तथा सीराली जबकि पश्चिमी कुमाउंनी में खसपर्जिया, चौगर्खिया, गंगोली, दनपुरिया, पछाईं और रोचोभैंसी शामिल हैं। कुमांऊ क्षेत्र में ही भोटिया, राजी, थारू और बोक्सा जनजातियां भी रहती हैं जिनकी अपनी बोलियां हैं। पुराने साहित्यकारों ने इसे 'पर्वतीय' या 'कुर्माचली' भाषा कहा है।
जौनसारी : गढ़वाल मंडल के देहरादून जिले के पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र को जौनसार भाबर कहा जाता है। यहां की मुख्य भाषा है जौनसारी। यह भाषा मुख्य रूप से तीन तहसीलों चकराता, कालसी और त्यूनी में बोली जाती है। इस क्षेत्र की सीमाएं टिहरी ओर उत्तरकाशी से लगी हुई हैं और इसलिए इन जिलों के कुछ हिस्सों में भी जौनसारी बोली जाती है। जार्ज ग्रियर्सन ने इसे पश्चिमी पहाड़ी की बोली कहा था। कहने का मतलब है कि इसे उन्होंने हिमाचल प्रदेश की बोलियों के ज्यादा करीब बताया था। इसमें पंजाबी, संस्कृ​त, प्राकृत और पाली के कई शब्द मिलते हैं।
जौनपुरी: यह ​टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड में बोली जाती है। इसमें दसजुला, पालीगाड़, सिलवाड़, इडवालस्यूं, लालूर, छःजुला, सकलाना पट्टियां इस क्षेत्र में आती हैं। टिहरी रियासत के दौरान यह काफी पिछड़ा क्षेत्र रहा लेकिन इससे यहां की अलग संस्कृति और भाषा भी विकसित हो गयी। यह जनजातीय क्षेत्र है। डा. चातक के अनुसार यमुना के उदगम के पास रहने के कारण इन्हें यामुन जाति कहा जाता था। कभी इस क्षेत्र को यामुनपुरी भी कहा जाता था जो बाद में जौनपुरी बन गया।
रवांल्टी :  उत्तरकाशी जिले के पश्चिमी क्षेत्र को रवांई कहा जाता है। यमुना और टौंस नदियों की घाटियों तक फैला यह वह क्षेत्र है जहां गढ़वाल के 52 गढ़ों में से एक राईगढ़ स्थित था। इसी से इसका नाम भी रवांई पड़ा। इस क्षेत्र की भाषा गढ़वाली या आसपास के अन्य क्षेत्रों से भिन्न है। इस भाषा को रवांल्टी कहा जाता है। डा. चातक ने पचास के दशक में 'गढ़वाली की उप बोली रवांल्टी, उसके लोकगीत' विषय पर ही आगरा विश्वविद्यालय से पीएचडी की थी। वर्तमान समय में भाषा विद और कवि महावीर ​रवांल्टा इस भाषा के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
जाड़ : उत्तरकाशी जिले के जाड़ गंगा घाटी में निवास करने वाली जाड़ जनजाति की भाषा भी उनके नाम पर जाड़ भाषा कहलाती है। उत्तरकाशी के जादोंग, निलांग, हर्षिल, धराली, भटवाणी, डुंडा, बगोरी आदि में इस भाषा के लोग मिल जाएंगे। जाड़ भोटिया जनजाति का ही एक अंग है जिनका तिब्बत के साथ लंबे समय तक व्यापार रहा। इसलिए शुरू में इसे तिब्बत की 'यू मी' लिपि में भी लिखा जाता था। अभी इस बोली पर काफी खतरा मंडरा रहा है।
बंगाणी : उत्तरकाशी जिले के मोरी तहसील के अंतर्गत पड़ने वाले क्षेत्र को बंगाण कहा जाता है। इस क्षेत्र में तीन पट्टियां— मासमोर, पिंगल तथा कोठीगाड़ आती हैं जिनमें बंगाणी बोली जाती है। यूनेस्को ने इसे उन भाषाओं में शामिल किया है जिन पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है।
मार्च्छा : गढ़वाल मंडल के चमोली जिले की नीति और माणा घाटियों में रहने वाली भोटिया जनजाति मार्च्छा और तोल्छा भाषा बोलती है। इस भाषा में तिब्बती के कई शब्द मिलते हैं। नीति घाटी में नीति, गमसाली और बाम्पा शामिल हैं जबकि माणा घाटी में माणा, इन्द्रधारा, गजकोटी, ज्याबगड़, बेनाकुली और पिनोला आते हैं।
जोहारी : यह भी भोटिया जनजाति की एक भाषा है ​जो पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी क्षेत्र में बोली जाती है। इन लोगों का भी तिब्बत के साथ लंबे समय तक व्यापार रहा इसलिए जोहारी में भी तिब्बती शब्द पाये जाते हैं।
थारू : उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के तराई क्षेत्रों, नेपाल, उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्राों में ​थारू जनजाति के लोग रहते हैं। कुमांऊ मंडल में यह जनजाति मुख्य रूप से उधमसिंह नगर के खटीमा और सितारगंज विकास खंडो में रहती है। इस जनजाति के लोगों की अपनी अलग भाषा है जिसे उनके नाम पर ही थारू भाषा कहा जाता है। यह कन्नौजी, ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली का मिश्रित रूप है।
बुक्साणी : कुमाऊं से लेकर गढ़वाल तक तराई की पट्टी में निवास करने वाली जनजाति की भाषा है बुक्साणी। इन क्षेत्रों में मुख्य रूप से काशीपुर, बाजपुर, गदरपुर, रामनगर, डोईवाला, सहसपुर, बहादराबाद, दुगड्डा, कोटद्वार आदि शामिल हैं।
रंग ल्वू : कुमांऊ में मुख्य रूप से पिथौरागढ़ की धारचुला तहसील के दारमा, व्यास और चौंदास पट्टियों में रंग ल्वू भाषा बोली जाती है। इसे तिब्बती—बर्मी भाषा का अंग माना जाता है जिसे प्राचीन समय से किरात जाति के लोग बोला करते थे। दारमा घाटी में इसे रङ ल्वू, चौंदास में बुम्बा ल्वू और ब्यास घाटी में ब्यूंखू ल्वू के नाम से जाना जाता है।
राजी : राजी कुमांऊ के जंगलों में रहने वाली जनजाति थी। यह खानाबदोश जनजाति थी जिसने पिछले कुछ समय से स्थायी निवास बना लिये हैं। नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़, चंपावत और ऊधमसिंह नगर जिलों में इस जनजाति के लोग रहते हैं। यह भाषा तेजी से खत्म होती जा रही है।
         मने शुरुआत 'मां' से की थी तो अब जान लें कि उत्तराखंड की भाषाओं में मां के लिये क्या बोला जाता है। वैसे यहां की भाषाओं में अब मां आम प्रचलित है लेकिन पहले ब्वे, बोई या ईजा भी बोला जाता था। मां के लिये उत्तराखंड की भाषाओं के शब्द ....
गढ़वाली ... ब्वे, अम्मा, बोई। कुमांउनी, जोहारी, रंग ल्वू ... ईजा, अम्मा। जाड़ ... आं। बंगाणी ... इजै। रवांल्टी ... बुई, ईजा। जौनपुरी ... बोई। जौनसारी ... ईजी। थारू ... अय्या। राजी ... ईजलुअ, इहा। मार्च्छा ... आमा।
         उत्तराखंड की भाषाओं पर आगे भी आपको महत्वपूर्ण जानकारी देने की कोशिश करूंगा। फिलहाल इतना ही। कैसा लगा यह आलेख जरूर बताएं। आपका अपना धर्मेन्द्र पंत। 

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19 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद जानकारीपरक लेख धर्मेन्द्र जी !
    गढ़वाली की उपबोलियाँ तो गढ़वाली से काफ़ी मिलती-जुलती हैं लेकिन कुछ बोलियाँ जैसे मार्छा बिलकुल भिन्न है. मैं बचपन में चमोली जिले में रहा हूँ और जोशीमठ-तपोवन में रहते हुए इसे सुनता रहा हूँ. भोटिया जनजाति के लोग भी दो प्रकार की भाषाएँ बोलते हैं, एक सामान्य गढ़वाली और दूसरी अपनी मार्छा भाषा, अपने लोगों के बीच. इस भाषा का एक भी शब्द समझ पाना मुश्किल है. मेरे मित्र अपने पिता-दादा के हवाले से बताते थे कि तिब्बत से व्यापार (खासतौर पर जड़ी-बूटी और नमक) हुआ करता था और घोड़ों के जरिये पहाड़ों और दर्रों से होते हुए एक-दूसरे देश में आया-जाया करते थे. संभवतः इसीलिए तिब्बती भाषा का प्रभाव उनकी बोली पर पड़ा हो. आपके ऐसे अन्य लेखों का इन्तजार रहेगा और हाँ खेल से जुड़े लेखों का भी ! :)

    आशीष नैथानी

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    1. आपने सही कहा नैथानी जी। इसको लेकर मतभेद हैं कि जौनपुरी, रवांल्टी, बंगाणी को गढ़वाली की उपबोली कहा जाए या अलग भाषा। टिहरियाली भी गढ़वाली से थोड़ा भिन्न है। लेकिन मैंने सिर्फ उन 13 भाषाओं का वर्णन किया है जो भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण ने बतायी हैं। भोटान्तिक भाषाएं जितनी भी हैं उनमें तिब्बती शब्दों की भरमार है। इसका कारण यह रहा है कि 1962 के भारत . चीन युद्ध से पहले इन लोगों का तिब्बत के साथ व्यापार चलता था। अब उनके ​कई तिब्बती शब्द लुप्त होते जा रहे हैं। खेल पत्रकार होने के कारण खेलों पर तो रोज ही लिखता हूं लेकिन असली आनंद अपने पहाड़ के बारे में लिखने में ही मिलता है।

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  2. ज्ञानवर्धक लेख!...लेकिन ये भाषाएं कहलाएंगी या बोलियां?...और अगर ये वाकई भाषाएं हैं तो फिर इनमें हिन्दी कहां है?...क्षमा चाहूंगा, क्या ये लेख उत्तराखंड को संवैधानिक तौर पर मिले 'हिन्दीभाषी प्रदेश' के दर्जे पर प्रश्नचिह्न लगाता प्रतीत नहीं होता?

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    1. आपने सही सवाल उठाया है भैजी। पिछले दिनों मुझे इन तमाम भाषाओं के विद्वानों से बात करने का मौका मिला था। तब भी यह सवाल उठा था कि क्या उत्तराखंड की भाषाओं को भाषा की श्रेणी में रखा जा सकता है। कारण यही है कि यहां की कोई भी भाषा भारतीय संविधाान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं है और उत्तराखंड हिन्दी को अपनी राजभाषा मानता है। वैसे आपकी जानकारी के लिये बता देना चाहता हूं कि भारत सरकार ने एक संस्था गठित की थी 'पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडियन लैंग्वेज’ यानि पीएलएसआईएल जिसने देश की 800 भाषाओं पर काम किया और इनमें उत्तराखंड की 13 भाषाओं को जगह दी। भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण ने भी इनके लिये भाषा शब्द का उपयोग किया है। उत्तराखंड सरकार का उत्तराखंड भाषा संस्थान भी इन 13 भाषाओं को मानता है। यहां तक कि इनके शास्त्रीय शब्दकोष को तैयार किया जा रहा है। शास्त्रीय व्याकरण का अब भी अभाव है। वैसे संविधान के ही अनुच्छेद 345 में कहा गया है कि ''किसी राज्य का विधान मंडल, उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में किसी से किसी एक या अधिाक भाषाओं को या हिन्दी को उस राज्य के सभी या किन्हीं शासकीय प्रायोजनों के लिये प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के रूप में अंगीकार कर सकेगा।’’ इसके अलावा कई भाषा विद बोलियों को भाषा की श्रेणी में रखने में नहीं हिचकिचाते हैं। पीपुल्स लिंगुइस्टिक सर्वे के संयोजक गणेश देवी के अनुसार, ''जिसकी लिपि नहीं है उसे बोली कहने का रिवाज है। इस तरह से तो अंग्रेजी की भी लिपि नहीं है। उसे रोमन में लिखा जाता है। किसी भी लिपि का उपयोग दुनिया की किसी भी भाषा के लिये हो सकता है। जो भाषा प्रिंटिंग टेक्नोलोजी में नहीं आयी, वह तो तकनीकी इतिहास का हिस्सा है न कि भाषा का अंगभूत अंग। इसलिए मैं इन्हें भाषा ही कहूंगा।’’ बिहार और उत्तर प्रदेश भी हिन्दी भाषी प्रदेश हैं लेकिन यह आप भी जानते हैं कि वह उनमें कई तरह की भाषाएं बोली जाती हैं।

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    2. धर्मेन्द्र जी, मेरा प्रश्न अनुत्तरित है कि 'फिर हिन्दी कहां रह गयी'? या फिर देहरादून-हरिद्वार-ऋषिकेश वाले हम तथाकथित (हिन्दीभाषी) 'कठमाली'उत्तराखंडी नहीं हैं?

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    3. हिन्दी हमारी राजकीय भाषा है। मैंने पहले भी लिखा था कि मैंने केवल उन भाषाओं का जिक्र ​किया है जिन्हें भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण में जगह दी गयी थी। हरिद्वार, रिषिकेश और देहरादून में हिन्दी बोलने वाले अधिकतर वही लोग हैं​ जिनके पूर्वज गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, मार्च्छा या अन्य भाषा बोलते थे। हिन्दी पूरे उत्तर भारत की भाषा है और जब व्यापक स्तर पर भाषाओं की बात आएगी तो स्थानीय भाषाएं पीछे छूट जाएंगी और तब बात केवल हिन्दी की होगी। उत्तराखंड को भी तब हिन्दी भाषी प्रदेश में दिखाया जाएगा। पलायन के बाद तो हर शहर में बसने वाले पहाड़ियों की यही स्थिति है। आज की सबसे बड़ी चिंता यही है कि अगली पीढ़ी अपनी भाषा नहीं बोल रही है। यूनेस्को की रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि किसी भाषा को तीन पीढ़ियां बोल रही हैं तो वह सुरक्षित है। यदि दो पीढ़ियां बोल रही हैं तो वह संकट की तरफ बढ़ रही है और एक पीढ़ी बोलती है तो वह भाषा संकट में है। उत्तराखंड के कई परिवारों में गढ़वाली या कुमांउनी केवल दो पीढ़ियों तक सीमित रह गयी है। भविष्य में यह एक पीढ़ी तक चली जाएगी।

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    4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    5. आपके निम्नलिखित कथन से आंशिक रूप से ही सहमत हुआ जा सकता है -

      "हरिद्वार, रिषिकेश और देहरादून में हिन्दी बोलने वाले अधिकतर वही लोग हैं​ जिनके पूर्वज गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, मार्च्छा या अन्य भाषा बोलते थे।"

      ...पुस्तक "गढ़वाल का इतिहास" (लेखक : रतूड़ी ??? जी) के अनुसार गढ़वाल और कुमाऊँ के मूल निवासी 'खस' कहलाते थे/हैं जबकि अन्य तमाम (और अधिकाँश) निवासी मुगलों के ज़ुल्म से बचने और धर्मं को बचाने के लिए महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान समेत देश के विभिन्न हिस्सों से भागकर इन दुर्गम पहाड़ों में आए थे| राजस्थान में आज भी 'लखेड़ाओं' और 'रावतों' के कई गाँव हैं| महाराष्ट्र में पूना के पन्त और जोशी ब्राह्मणों से हर कोई परिचित है| मेरी दादी देहरादून के 'डोभालावाला' के मूल निवासी 'पन्त' खानदान से थीं और रिश्ते में मशहूर साहित्यकार सुभाष पन्त की बुआ थीं| पहाड़ से इस 'पन्त' खानदान का कभी कोई सम्बन्ध रहा हो, इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता| शायद इनके पूर्वज महाराष्ट्र से भागकर आए उन 'पंतों' में से होंगे जिन्होंने पहाड़ों पर जाने के बजाय तराई के इन इलाक़ों में ही बसना बेहतर समझा होगा| यही बात मुझपर भी लागू होती है, मूल रूप से देहरादून के गुच्चूपानी के पास स्थित काण्डली गाँव का रहने वाला हमारा परिवार चार पीढ़ी पहले - मेरे लकड़दादा के समय में - देहरादून के नवादा गाँव में आकर बस गया था क्योंकि काण्डली और आसपास के गाँवों को अंग्रेजों ने फ़ौजी छावनी के लिए अपने अधिकार में ले लिया था| हमारे ही खानदान की एक शाखा मसूरी की तलहटी में बसे भगवन्तपुर गाँव में जा बसी थी जहां हमारी कुलदेवी 'बालासुन्दरी' का मंदिर है| मशहूर कहानीकार और आकाशवाणी के जानेमाने प्रोड्यूसर सत्येन्द्र शरत इसी शाखा का हिस्सा हैं| पहाड़ से हमारे सम्बन्ध का भी कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता| और यही कहानी देहरादून के तमाम गाँवों के अधिकाँश मूल निवासी परिवारों की है जिनमें अजबपुर के रावत और चंदेल और बद्रीपुर के चौधरी भी शामिल हैं और ये तमाम लोग हिन्दीभाषी हैं|

      कुल मिलाकर मैं यही कहना चाहता हूँ कि तमाम भारतीय भाषाओं और बोलियों के प्रति हमारे मन में पूर्ण सम्मान है और होना भी चाहिए, बस मेरी आपत्ति केवल इतनी है कि अगर तमाम बोलियां खुद को भाषा का दर्जा देने पर आमादा हो जाएँगी तो अंतत: गाज़ हिन्दी पर ही गिरेगी| ऐसे में हम हिन्दीवाले ही हिन्दी के सबसे बड़े शत्रु कहलाएंगे|

      ........ससम्मान !!!

      हटाएं
    6. शिशिर जी काफी पहले भी संभवतः इसी ब्लॉग पर अथवा कहीं और मैने आपका ये 'हिंदी भाषी उत्तराखंडियों' का मुद्दा पढ़ा था, जिन्हें कि आम भाषा में उत्तराखंड की तराई में 'कठमालि' कहते हैं। मैं पौड़ी का हूँ और कालांतर में मेरा भी विवाह देहरादून की एक युवती से हुआ जिसका परिवार स्वयं को कठमालि(खैर मैं तो उन्हे गढ़वाली ही मानता हूँ) कहता है। आपके द्वारा ही उल्लेखित गाँव काण्डली की मेरी सास हैं जो कि कुकरेती हैं और उनका विवाह भाऊवाला के एक डोभाल परिवार में हुआ।तब से मेरी रुचि इनके विषय में काफी बढ़ गई। मैं स्वयं पंत जी की बात से शत प्रतिशत सहमत हूँ कि तराई में बसने वाले गढ़वाली/कुमाऊँनी कालांतर में खासकर मैदानी इलाकों से वैवाहिक संबंध बनाने के बाद कठमालि कहे जाने लगे, इसके पीछे भी मेरे अनुसार हम गढ़वालियों की नस्लीय सोच ही रही होगी क्योंकि अभी भी यहाँ से मैदानी इलाकों में रिश्ता करना अच्छी नज़र से नही देखा जाता। तराई में बसने वाले गढ़वालियों की अपनी सामाजिक,आर्थिक और भौगोलिक वजहें रही होंगी जो उन्हें पास में ही बसे मैदानी समुदायों से रिश्ते करने पड़े होंगे और वह स्वाभाविक भी है।

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    7. अब बात आती है आपके जातियों के पलायन वाले मुद्दे पर। पहले तो आपको बता दूं मात्र उत्तराखंड में ही नही पूरे मानव जगत में ,पूरे भारत में जातियाँ, समुदाय आर्थिक,राजनैतिक कारणों से पलायन करती रही हैं। राजस्थान की राजपूत जातियाँ, शकों और हूणों के साथ आर्याई जातियों के मिश्रण से बनीं मानी जाती हैं, पंजाबियों के dna में 5 %तक ग्रीक dna एलिमेंट मिलता है, उच्च जातीय असमी थाईलैंड से आये बताए जाते हैं, नेपाल का राजवंश उत्तर भारती मूल का है। कश्मीर के ब्राह्मण पूरे उपमहाद्वीप में फैले हैं। तो एक बात तो मान लीजिए हम उत्तराखंडी कोई अकेले नही हैं जो पलायन करके बसे हों।

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    8. अब बात आती है भाषाई सामुदायिक पहचान(ethno linguistic identity) की ,जो कि कम से कम उत्तर भारत में पिछले 800-900 बर्षों में ही स्थापित हुई है, क्योंकि उत्तर भारतीय भाषाओं का इतिहास ही ज्यादा पुराना नही है, दक्षिण की भाषाएँ अवश्य ही काफी पुरातन हैं। अब बात आती है आपके द्वारा घोषित उत्तराखंड के "हिंदी भाषी समुदाय" की जो कि बकौल आपके गढ़वाली या कुमाऊँनी नही कहलायेंगे क्योंकि वह आपके अनुसार पहाड़ों में बसे ही नही। आपको बता दूँ कि यदि आपके पुरखे तराई में भी बसे होंगे(जिसकी संभावना काफी कम है) तो भी उनकी भाषा हिंदी तो कहीं से भी नही हो सकती, क्योंकि स्वयं हिंदी(जिस मानक रूप का आप और हम प्रयोग कर रहे हैं) का इतिहास मात्र 250 साल का है, स्वयं भारतेंदु के समय तक लेखक ब्रज में लिखना अधिक उचित समझते थे। तार्किक रूप से देखा जाए तो सबसे पहले अपनी ही भाषाओं में बात करते रहे होंगे, महाराष्ट्र से आने वाले मराठी , राजस्थान से आने वाले मारवाड़ी/हाड़ौती, बिहार वाले मैथली(ध्यान रहे कि किसी भी स्थान पर आज से 250-300 वर्ष पहले 'हिंदी' नही बोलते थे).ऐसी स्थिति पहाड़ में गए हुए लोगों की भी हुई होगी और इसीलिए उन्होंने आपस में बात करने हेतु एक ऐसी भाषा बनाई होगी जिसमें उनकी और पहले से रह रहे खस समुदाय की भाषा का मिश्रण हो, यही कारण है कि गढवाली और कुमाऊँनी पर तिब्बती, नैपाली के साथ साथ मराठी, मारवाड़ी तक का प्रभाव और कन्नड़, तेलगू जैसे भाषाओं के शब्द देखने को मिलते हैं। अब जब भाषा विकसित हुई तो राज्य भी बना और यह सर्वविदित है कि गढ़वाल राज्य कम से कम हज़ार साल पुराना तो है ही और शुरू से ही इस राज्य की राजभाषा गढ़वाली रही है(अभिलेख गढ़वाली में मिले हैं)।आपको बता दूं कि मानस खंड के समय से ही देहरादून और ऋषिकेश के इलाके गढ़वाल नरेश के आधिपत्य में ही आते थे। यदि आपके अनुसार जो लोग तराई में आकर बसे होंगे वे लोग एक गढ़वाल नरेश के राज्य में होते हुए, एक गढ़वाली राज्यभाषा वाले राज्य में होते हुए आपस में किस भाषा में बात करते होंगे? हिंदी तब थी नही और विभिन्न क्षेत्रों से आकर बसे लोग आपस में किस एक भाषा में बात कर सकते थे? शिक्षा का इतना प्रसार था नही, कुछ चंद पढ़े लिखे पंडितों के अलावा संस्कृत कोई जानता नही था। तो परम स्वाभाविक है कि उन्होंने गढ़वाली ही सबसे पहले सीखी होगी आपसी संचार हेतू।

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    9. अब बात आती है तराई की बसावट की।तो 1676 गुरु राम राय के आने से पहले देहरादून का कोई खास उल्लेख है नही आधुनिक इतिहास में। तराई घनघोर जंगलों से पटा पड़ा एक ऐसा क्षेत्र था जो कि न केवल उत्तराखंड के पहाड़ों और गंगीय मैदानों के बीच में भौगोलिक सीमा बल्कि एक सांस्कृतिक सीमा भी बनाता था। तराई के इस पर के पहाड़ों और उस पार के मैदानों की भाषा ,संस्कृति और खान पान में जमीन आसमान का अंतर है। देहरादून की तराई में रोहिल्ला राजा नजीब उद दौला(जिसने गढ़वाल नरेश से देहरादून जीता और कुछ साल राज किया) ने 1757 में अपना राज फैलाया और खेती हेतू नहरों के जाल बिछाए, इससे पहले सिंचाई व्यवस्था के अभाव में यह क्षेत्र खेती के लिये इतना उपयुक्त था नही और इसीलिए यहाँ कोई खास आबादी भी नही थी। अधिक लोगों का बसना तब शुरू हुआ जब देहरादून को 1801 में अंग्रेजों ने हथिया लिया और यहाँ रेलवे आने के साथ साथ रोज़गार के काफी मौके आये। ऐसे में हम देखते हैं कि 1757 से पहले यहाँ कोई खास आबादी थी ही नही क्यूंकि उनके बसने हेतू खास संसाधन ही नही थे और तो और यदि वे मुगलों से बचने हेतू भी आना चाह रहे हों तो वे सहारनपुर(जो कि 16 वी शती से ही मुगलों के अधीन था) के इतने नज़दीक, जहाँ सिंचाईं की कोई व्यवस्था नही थी, रोज़गार का कोई साधन नही था ,ऐसी जगह तो नही बसते। यही बात ऋषिकेश पर भी लागू होती है जो कि मात्र चार धाम का एक पड़ाव था और कुछ चंद साधुवों के आश्रम और मंदिरों के अतिरिक्त वहाँ 16वी सदी से पहले कोई मूल आबादी नही थी।
      अब आपको कुछ ऐसी बातें बताता हूँ जो कि मैने स्वयं पाई हैं। मेरी सास काण्डली गाँव की कुकरेती हैं(और आपके अनुसार तथाकथित हिंदी भाषी), पीढयों से मैदानों में रहने के कारण उन्हे गढ़वाली तो समझ आती नही,क्यूंकि इनके पूर्वजो ने हिंदी अपने पड़ोस में बसे गुर्जर,सैनी, जाट आदि जातियों से सीखी होगी तो इनका उच्चारण का लहेजा बिल्कुल पच्छिमी उत्तर प्रदेश मसलन सहारनपुर, मुज़्ज़फरनगर वालों के समान है परंतु एक बात जो इनके समुदाय को मैदानी लोगों से अलग करती है और पहाड़ी समुदाय से जोड़ती है(और मैं यहाँ पर गढ़वाली प्रभाव वाले मिश्रित रीति रिवाजों का तो उल्लेख ही नही कर रहा)वह है इनकी भाषा का शब्द भंडार।
      उनकी भाषा में प्रचुर मात्रा में गढ़वाली के शब्द सुनाई देते हैं जो कि आपके द्वारा घोषित किसी 'हिंदी भाषी' के मुँह से सुनना अटपटा ही लगेगा। जैसे कि सिलक्याण(सीलन की गंध) स्यूलण(प्रसव,प्रसव की गंध), मिर्चयांण(मिर्च की महक, मिर्च वाला स्वाद) , कुत्र्यांण(गढ़वली में कुकर्यांण, कुत्ते की महक), चर्यांण(मूत्र की महक), सुद्धि(झूठ,फालतू), द्यूराणी(देवरानी) । एक बात पर ध्यान दीजिए कि इनमें से अधिकतर शब्द वे हैं जो विशिष्ट रूप से गढ़वली/कुमाऊँनी के हैं(खासकर गंध और स्वाद वाले विशेषण) और हिंदी में नही पाए जाते, अतएव जब इनके पूर्वजों ने गढ़वली छोड़ हिंदी अपनाई होगी तो अपनी सुविधानुसार जो शब्द हिंदी में नही थे उन्हे गढ़वाली से ले लिया होगा।
      और भी काफी तथ्य हैं जो मैं प्रस्तुत कर सकता हूँ परंतु यह यथार्थ है कि इस राज्य में रहने वाले चाहे किसी भी स्थान से आये हों, उनकी अपनी एक विशेष भाषा और संस्कृति है। हिंदी कभी भी यहाँ की मूल भाषा नही थी और अभी भी मात्र एक संपर्क भाषा है( और इससे कहीं भी हिंदी का अपमान नही हो रहा) ।अपनी जड़ों को पहचानिए और अपनी संस्कृति और भाषा पर गर्व कीजिये।
      सस्नेह साधुवाद ☺️!

      -निखिल

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  3. एक महत्वपूर्ण बात, देहरादून-हरिद्वार-ऋषिकेश जैसे तराई के क्षेत्र की मूल भाषा हिन्दी है...अन्य भाषाएं/बोलियां सम्बंधित क्षेत्रों से यहां आकर बसे लोगों द्वारा बोली जाती हैं...

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  4. अँग्रेजी और हिन्दी की अपनी लिपि नहीं है। क्षेत्रीय भाषाओं को बोली कहना भाषा सामँतवाद और पक्षपात वाद ही है।

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  5. धर्मेन्द्र जी, क्या ये सत्य है कि हिन्दी की अपनी लिपि नहीं है? अगर ऐसा है तो फिर देवनागरी क्या है? और अगर क्षेत्रीय भाषाओं को बोली कहना सामंतवाद और पक्षपातवाद है तो उत्तराखंड की उपरोक्त १३ "भाषाओं" में हिन्दी को जगह न मिलना क्या कहलाएगा? उत्तराखंड क्या पहाड़ों तक ही सीमित है? देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश, रूड़की जैसे हिन्दीभाषी क्षेत्र क्या उत्तराखंड का हिस्सा नहीं हैं? स्वस्थ बहस प्रश्नोत्तर से बनती है, "दोटूक निर्णय" जैसी बातें केवल कुतर्क ही कहलाती हैं| मैंने प्रश्न किए, तथ्य रखे, निश्चित तौर पर मैं सटीक उत्तर के साथ साथ इस बात की भी अपेक्षा करूंगा कि अगर मैंने कहीं कोई गलत तथ्य रखा हो अथवा लिखने में कोई भूल की हो तो उस ओर मेरा ध्यान दिलाया जाए| भाषा को लेकर झगड़ा और अहंकारपूर्ण बातें मेरा उद्देश्य कतई नहीं हैं, आशा है हम बहस के स्तर को बनाए रखेंगे|
    ...मेरे प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर अपेक्षित हैं|

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    1. उत्तराखंड में जो सर्वे हुआ था मुझे उसके कुछ अंश पढ़ने का अवसर मिला। उसमें तराई क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं का कई बार जिक्र हुआ है। उसमें यह भी कहा गया ​कि पलायन के बाद लोग यहां बसे हैं और उन्होंने हिन्दी अपना ली है। आपने सार्थक सवाल उठाया था। मैं स्वीकार कर रहा हूं कि जब मैंने ब्लाग लिखा तो ध्यान में उन तमाम सर्वे को रखा जो उत्तराखंड की स्थानीय भाषाओं को लेकर किये गये थे। संभवत: यहां पर स्थानीय शब्द जोड़ने से स्थिति स्पष्ट हो जाती। इन भाषाओं को हम हिन्दी का अंग कह सकते हैं लेकिन ये काफी मायनों में बहुत भिन्न हैं। गढ़वाली का ही शब्द भंडार कई शब्दों के मामलों में हिन्दी से सक्षम है। मुझे नहीं लगता कि इन भाषाओं को बढ़ावा देने से हिन्दी को नुकसान होगा। इससे वह अधिक सक्षम बनेगी। अगर आपको किसी जवाब से ठेस पहुंची हो तो क्षमाप्रार्थी हूं।
      जहां तक देवनागरी लिपि की बात है तो उस पर हिन्दी का एकाधिकार नहीं है। यह ब्राह्मी लिपि से विकसित है जिसका उपयोग हिन्दी से पहले संस्कृत, पालि में किया जाता था। हिन्दी, संस्कृत, पालि के अलावा मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, डोगरी, नेपाली, भोजपुरी, मैथिली आदि देवनागरी का उपयोग करते हैं। इसी संदर्भ में हम गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी आदि भाषाओं को भी शामिल कर सकते हैं। देवनागरी के बारे में कहा जाता है कि वह एक ऐसी लिपि है जिसे आसानी से कोई भी भाषा अपना सकती है और इसलिए इस लिपि का उपयोग दुनिया की सबसे अधिक भाषाएं कर रही हैं।

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    2. हिंदी कई राज़्यों की राजभाषा है, वहीँ केंद्र सरकार की भी राजभाषा भी है। तकनीकी रूप से यह राष्ट्र भाषा नहीँ है। लेकिन हम हिंदी भाषी इसे राष्ट्र भाषा कहते हैं। भारत में मूलतः 1500 से अधिक भाषाएं हैं। ये भाषाएं मातृ भाषाएं हैं और इनका सम्मान किसी भी बेजोड़ तकनीकी सम्पन्न भाषा से कम नहीं हो सकती है। शिक्षा रोजगार, ज्ञान विज्ञान से जुडे नहीं होने के कारण इन भाषाओं का विकास आपेक्षित रूप में नहीं हो पाता है और इसका लिखित साहित्य भी कम होता है। किसी भाषा की लिखित साहित्य तुलनात्मक रूप से कम हो सकता है। लेकिन मौखिक साहित्य का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व लिखित साहित्य से अधिक हो सकता है। व्याकरण और लिपि के आधार पर या विहीनता पर उसे भाषा के ओहदे से उत्तर कर बोली कह देना उसके वजूद और सम्मान पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है। मातृ भाषा माँ होती है। माँ के नहीं होने पर भाषा के माध्यम से ही बच्चा दुनिया को पहचानता है। एक समृद्ध भाषा जब एक अन्य भाषा को बोली कहता है तो यह भाषा के गाल पर तमाचा होता है।

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    3. विश्व भर में हिन्दी के प्रचार और प्रसार में लगे तथा आस्ट्रेलिया के ला ट्रोब विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रवक्ता इयान वूलफोर्ड से मैंने अभी यह सवाल किया था कि 'इन्हें बोलियां कहें या भाषाएं?' इस पर उनका जवाब था, ''हाँ, आम सवाल हैं. अगर मुझ से पूछा जाए तो : भाषाएँ… वैसे, अगर स्पैनिश और फ़्रेंच दो अलग भाषाएं हैं, तो गढ़वाली और कुमाँऊनी भी अलग।''

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