आयुर्वेद में कायफल और संस्कृत में कटफल कहा जाता है काफल को जो अच्छा एंटी-आक्सीडेंट भी है। |
हर पहाड़ी व्यक्ति ने काफल जरूर खाये होंगे और उनसे जुड़ी एक कहानी भी सुनी होगी। उत्तराखंड में हर जगह यह कहानी प्रचलित है। इसको प्रस्तुत करने का तरीका भले ही अलग हो लेकिन उसका सार एक है। वही 'काफल पाको, मिल नी चाखो' वाली कहानी। आपको याद तो आ गयी होगी। चलो एक बार मैं फिर से सुना देता हूं।
किसी गांव में एक गरीब विधवा महिला रहती थी जो खेती करके या खेतों में मेहनत मजदूरी करके अपना और अपनी छोटी बेटी का पेट पालती थी। एक बार वह जंगल गयी और वहां से टोकरी भर के काफल ले आयी। उसे खेतों में काम करने जाना था, इसलिए उसने अपनी बेटी से कहा कि वह काफल का ध्यान रखे लेकिन साथ ही सख्त हिदायत भी दे दी कि वह उन्हें खाये नहीं। जब वह खेतों से काम करके आ जाएगी तो दोनों मिलकर खाएंगे। लाल, काले रसीले काफल देखकर बेटी का मन बहुत ललचा रहा था लेकिन उसने खुद पर काबू रखा। मां थक हार कर आयी तो बेटी ने आते ही कहा मां भूख लगी क्या अब हम काफल खा लें। मां ने टोकरी की तरफ देखा तो पाया कि टोकरी पहले की तरह भरी हुई नहीं थी। वह थकी और भूखी थी और उसने तुरंत बेटी से कहा, ''तूने काफल खाये'। बेटी ने कहा, 'नहीं मां मैंने नहीं खाये। मैंने तो काफल चखे भी नहीं। ' मां को गुस्सा आ गया कि बेटी काफल भी खा गयी और झूठ भी बोल रही है। उसने आव देखा न ताव बेटी को जोर से थप्पड़ मारा। वह नीचे गिर गयी और उसका सिर पत्थर से लग गया। भूखी और प्यासी नन्हीं सी जान ने वहीं पर दम तोड़ दिया। महिला बदहवास हो गयी कि उसने सिर्फ काफल के लिये अपनी बेटी मार दी। उसने काफल बाहर रख दिये। रात को जब ओस पड़ी तो उसने देखा कि काफल की टोकरी तो भरी हुई है। तब उसे समझ में आया कि दिन में धूप से काफल भी सिकुड़ गये थे। बेटी ने सच में काफल नहीं खाये थे। बेटी के गम में उसने भी दम तोड़ दिया। कहते हैं कि ये दोनों मां बेटी पक्षी बन गये। आज भी चैत के महीने में पहाड़ों में एक चिड़िया कुछ इस तरह से बोलती है, 'काफल पाको, मिल नी चाखो' (काफल पके हैं, लेकिन मैंने नहीं चखे)। इसके जवाब में एक दूसरी चिड़ियां कुछ इस तरह से क्रंदन करती है, 'पुर पुतई पूर पूर' (पूरे हैं बेटी पूरे हैं)।
यह कहानी बेहद मार्मिक है जो हमें सीख देती है कि जल्दबाजी या ताव में कभी कोई काम नहीं करना चाहिए। यदि गुस्से को काबू कर लिया तो कई काम बिगड़ने से बच जाते हैं। आईए अब बात करते हैं कि इस कहानी केंद्र बिंदु काफल के बारे में ....
देवताओं का फल है काफल
काफल बेहद लोकप्रिय, औषधीय गुणों से भरपूर लेकिन बहुत जल्दी खराब होने वाला पहाड़ी फल है जो मुख्य रूप से उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और नेपाल में पाया जाता है। यह असल में एक जंगली फल है जिसकी खेती नहीं की जाती है। इसको आयुर्वेद में कायफल और संस्कृत में कटफल कहा जाता है। पहाड़ों में ऊंचाई वाले स्थानों पर पाये जाने वाले काफल का पेड़ का अमूमन 10-15 मीटर ऊंचा होता है। इसका फल छोटा बेर जैसा होता है जिसके अंदर गुठली भी होती है। काफल चैत्र और बैशाख के महीने में होता है। उत्तराखंड के एक मशहूर गीत के बोल भी हैं, ''बेडू पाको बारामासा, ओ नरैणी काफल पाको चैता, मेरी छैला।'' यानि बेडू हर महीने पकता है लेकिन काफल चैत के महीन में ही पकता है। अप्रैल से लेकर जून तक पहाड़ों में लोग जंगलों से काफल लेकर सड़कों के किनारे इसे बेचते हैं। पर्यटकों को खासा लुभाता है यह फल। हिमाचल प्रदेश में इसे काला भौरा और पूर्वोत्तर के राज्यों में सोहफी के नाम से भी जानाता जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम माइरिका इस्कुलाटा है।
काफल शुरू में हरा होता है जबकि बाद में लाल तो कुछ कुछ काल, मटमैले और बैंगनी से बन जाते हैं। जब यह हरा होता है तो इसका स्वाद खट्टा जबकि पकने पर मीठा होता है। कुमाऊँनी भाषा के पहले कवि गुमानी पंत ने इसे स्वर्ग से धरती पर आया फल बताया है। उन्होंने काफल की व्यथा का वर्णन इस तरह से किया है, ''खाणा लायक इंद्र का, हम छियां भूलोक आई पणां। पृथ्वी में लग यो पहाड़, हमारी थाती रची देव लै। एसो चित्त विचारी काफल सबै राता भया क्रोध लै। कोई बड़ा—खुड़ा शरम लै काला धुमैला भया। '' (हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे और अब धरती पर आ गए। पृथ्वी में ईश्वर ने पहाड़ों पर हमारा स्थान बनाया। इस पर विचार करते हुए काफल गुस्से से लाल तो कुछ बड़े बूढ़े शर्म से काले या मटमैले हो गये।) काफल गुच्छों में लगता है। कच्चे काफलों की चटनी बनायी जाती है जो बहुत स्वादिष्ट होती है।
काफल अभी उत्तराखंड में आय का अच्छा स्रोत बन गया है। गर्मियों में सड़कों के किनारे या बाजारों में ग्रामीण टोकरियों में लेकर यह फल बेचते हैं। कहते हैं कि मैदानों में रहने वाले पर्यटक ने एक बार किसी ग्रामीण से पूछा कि 'ये काफल है भइया?' तो उसे जवाब मिला, 'हां काफल है भैया'। पर्यटक गुस्से से तिलमिला गया। मेरा मजाक उड़ा रहा है। बाद में उसे समझाया गया कि असल में फल का नाम ही काफल है। पर्यटकों को यह वैसे काफी पसंद आता है।
काफल खाओगे तो रहोगे जवान
काफल औषधीय गुणों से भरपूर है। कहा जाता है कि काफल खाने वाला व्यक्ति हमेशा जवान रहता है। इसका कारण इसमें एंटी-आक्सीडेंट गुणों का पाया जाना है। इसके इन गुणों से यह तनाव कम करने, स्ट्रोक और कैंसर से बचाने में सहायक होता है। यह पेट की कई बीमारियों का निदान करता है और लू लगने से बचाता है। यदि आपको भूख नहीं लगती है तो काफल खाईये। आयुर्वेद के अनुसार यह भूख की अचूक दवा है। मधुमेह के रोगियों के लिये भी यह उपयोगी है। काफल में फायटोकेमिकल पोलीफेनोल पाया जाता है जो विषाणुरोधी होता है। यह सूजन कम करने में लाभकारी होता है। काफल रसीला फल है लेकिन इसमें रस की मात्रा 40 प्रतिशत ही होती है। इसमें विटामिन सी, खनिज लवण, प्रोटीन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, आयरन और मैग्निशीयम होता है।
आयुर्वेद के अनुसार काफल के फल ही नहीं बल्कि छाल भी बेहद उपयोगी होती है। इसकी छाल में मायरीसीटीन, मायीसीट्रिन और ग्लाइकोसाईड पाया जाता है। इसकी छाल चबाने से दांतों के दर्द में राहत मिलती है। यही नहीं काफल की छाल को उबालकर तैयार द्रव्य में अदरक और दालचीनी मिलाकर उससे अस्थमा, डायरिया, टाइफाइड जैसी बीमारियों का इलाज भी किया जाता है। पेट गैस की समस्या दूर करने के लिये भी इसकी छाल का उपयोग किया जाता है। इसकी छाल का पेस्ट बनाकर घाव पर लगाने से वह जल्दी ठीक होता है। जोड़ों के दर्द में भी इसे उपयोगी माना जाता है। काफल की छाल को पीसकर उसका पाउडर तैयार किया जाता है जो जुकाम, गले की बीमारी और खांसी में उपयोगी होता है। काफल का फूल से भी कान दर्द, लकवा और डायरिया के लिये औषधि तैयार की जाती थी।
काफल खाना है तो पहाड़ जाना ही पड़ेगा क्योंकि मैंने पहले भी लिखा था कि इसे लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। मेरे गांव के जंगल के शुरू में ही काफल का बड़ा सा पेड़ था। हमारे गांव स्योली का शायद ही कोई शख्स होगा जिसने उस पेड़ के काफल नहीं खाये होंगे। मैंने तो खूब खाये हैं। आपने भी पहाड़ में रहते हुए काफल खाये होंगे। तो बताईये काफल से जुड़ी अपनी कहानी। अभी मैं तो चला काफल खाने, बाद में किसी और विषय पर बात करते हैं। आपका पहाड़ी भाई धर्मेन्द्र पंत
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Jai uttarakhand bahut khub pant bhai
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