शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

पेशावर कांड का महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली

    च्चीस दिसंबर को दुनिया याद करती है क्रिसमस के लिये। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन भी इसी दिन पड़ता है। वाजपेयी जी को भी याद किया जाता है लेकिन हम स्वतंत्रता के एक महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को भूल जाते हैं जिनका जन्म 25 दिसंबर 1891 को गढ़वाल जिले के ग्राम मासी में हुआ था। चंद्र सिंह गढ़वाली, जिनका मूल नाम चंद्र सिंह भंडारी था, का संक्षिप्त परिचय यही है कि वह बचपन से ही क्रांतिकारी विचारधारा के थे। कोई भी साहसिक कार्य करने से नहीं हिचकिचाते थे। उनका जन्म किसान परिवार में हुआ था। मां पिता की इच्छा के विपरीत वह प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लैंसडाउन में गढ़वाल राइफल्स में भ​र्ती हुए। भारतीय सेना के साथ उन्होंने 1915 में मित्र देशों की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में भी हिस्सा लिया। उन्हें गढ़वाल राइफल्स के अन्य सैनिकों के साथ फ्रांस भेज दिया गया था। लेकिन चंद्र सिंह गढ़वाली से दुनिया का असली परिचय 23 अप्रैल 1930 को हुआ था जब उन्होंने पेशावर में देश की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था। यह एक ऐतिहासिक घटना थी और कहा जाता था कि सुभाषचंद्र बोस ने जब आजाद हिन्द फौज का गठन किया था तो वह चंद्र सिंह गढ़वाली से जुड़ी इस घटना से भी प्रेरित थे। यही वजह थी कि उन्होंने आजाद हिन्द फौज में गढ़वाल राइफल्स के सैकड़ों जवानों को शामिल किया था।
     बहरहाल हम यहां पर बात करेंगे पेशावर कांड की। पहले इससे जुड़ी पृष्ठभूमि की संक्षिप्त जानकारी हासिल कर लेते हैं। यह वह दौर था जब पूर्ण स्वराज्य की घोषणा के बाद देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन चल रहा था। महात्मा गांधी ने 12 मार्च 1930 को डांडी मार्च शुरू कर दिया गया था। इस बीच यह चर्चा भी चल रही थी कि भगत सिंह और उनके साथियों राजगुरू और सुखदेव को फांसी दे दी जाएगी। इससे हर राष्ट्रप्रेमी उद्वेलित था। चंद्र सिंह गढ़वाली भी इनमें शामिल थे लेकिन पेशावर कांड भावनाओं के इस उबाल का परिणाम मात्र नहीं था बल्कि इसकी तैयारी योजनाबद्ध तरीके से की गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली ने 2/18 रायल गढ़वाल राइफल के अपने साथियों को पहले से ही तैयार कर दिया था कि उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिये आवाज उठा रहे पठानों पर गोली चलाने के अग्रेंजो के आदेश को नहीं मानना है। 
    अंग्रेजों को कानों कान खबर न लगे इसके लिये पूरी तैयारी की गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली तथा पेशावर बैरक में हरिसिंह लाइन में रह रहे उनके साथी रात में देश की स्थिति और भावी रणनीति पर बंद कमरे में चर्चा करते थे। अंग्रेजों को कुछ भनक लग गयी थी और इसलिए उन्होंने फूट डालो राज करो की अपनी रणनीति के तहत गढ़वाली सैनिकों को उकसाने का काम भी किया। गढ़वाल राइफल्स के जवानों को बताया गया कि पेशावर में केवल दो प्रतिशत हिन्दू रहते हैं और मुसलमान उन्हें सताते हैं। उनके देवी देवताओं को अपमान करते हैं और इसलिए उन्हें इन मुसलमानों पर गोली चलाने से नहीं हिचकिचाना है। सचाई इससे परे थी और चंद्र सिंह गढ़वाली इससे अच्छी तरह से अवगत थे। उन्होंने अपने साथियों को समझा दिया था कि वे अंग्रेजों की चाल में नहीं फंसे। उनका अपने साथियों को स्पष्ट संदेश था, '' कुछ भी हो जाए हमें अपने भाईयों पर गोलियां नहीं चलानी हैं। ''

''गढ़वालीज ओपन फायर'' का जवाब था ''गढ़वाली सीज फायर''

   पेशावर में 23 अप्रैल 1930 को विशाल जुलूस निकला था, जिसमें बच्चों से लेकर बूढ़ों और महिलाओं ने हिस्सा लिया। स्वाधीनता की मांग कर रहे हजारों लोगों के नारों से आसमान गूंज रहा था तो दूसरी तरफ अंग्रेजों का खून खौल रहा था। 2/18 रायल गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों को भी प्रदर्शनकारियों पर नियंत्रण पाने के लिये भेज दिया गया। इसकी एक टुकड़ी काबुली फाटक के पास निहत्थे सत्याग्रहियों के आगे खड़ी थी। अंग्रेज कंमाडर के आदेश पर इन सभी प्रदर्शनकारियों को घेर दिया गया था। गढ़वाली सैनिकों को जुलूस को बलपूर्वक ति​तर बितर करने के लिये कहा गया। सैनिकों ने प्रदर्शनकारियों से हटने को कहा। वे नहीं हटे। कंपनी कमांडर का धैर्य जवाब दे गया और उसने लगभग चिल्लाते हुए आदेश दिया ''गढ़वालीज ओपन फायर'' और फिर यहां पर चंद्र सिंह गढ़वाली का उदय हुआ। वह कमांडर के पास में ही खड़े थे। उन्होंने कड़कती आवाज में कहा, ''गढ़वाली सीज फायर''। देखते ही देखते सभी राइफलें नीचे हो गयी। अंग्रेज कमांडर बौखला गया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस सैन्य टुकड़ी का वह सर्वोसर्वा है वह उसके हुक्म की अवहेलना करेगी। गढ़वाली सैनिकों का साफ संदेश था कि वह निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां नहीं चलाएंगे। अंग्रेज सैनिकों ने हालांकि बाद में पठानी आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसायी। गढ़वाली सैनिकों से उनके हथियार ले लिये गये। अंग्रेज किसी भी तरह से आंदोलन को कुचलना चाहते थे और इसके लिये उन्हें गढ़वाल राइफल्स से मदद की दरकार थी। इसलिए गढ़वाली सैनिकों को समझाने के प्रयास भी किये गये कि वह निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाने से नहीं हिचकिचाएं लेकिन देश प्रेम से ओत प्रोत गढ़वाली सैनिक टस से मस नहीं हुए। यहां तक कि सभी सैनिकों ने इस्तीफा भी दे दिया था, लेकिन अब अंग्रेज गढ़वाल राइफल्स की इस टुकड़ी से ही बदला लेने के लिये तैयार हो गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली सहित इन सैनिकों को नौकरी से निकाल दिया गया और उन्हें कड़ी सजा दी गयी लेकिन उन्होंने खुशी . खुशी इसे स्वीकार किया। चंद्र सिंह गढ़वाली जेल से छूटने के बाद महात्मा गांधी से भी जुड़े। गांधी जी ने एक बार कहा था कि यदि उनके पास चंद्र सिंह गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश का कब का आजाद हो गया होता। चंद्र सिंह गढ़वाली बाद में कम्युनिस्ट हो गये और सिर्फ उनकी इस विचारधारा की वजह से देश ने इस अमर जवान को वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह असली हकदार थे। एक अक्तूबर 1979 को भारत के महान सपूत ने लंबी बीमारी के बाद दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में आखिरी सांस ली थी। 

भारत सरकार ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के निधन
के बाद उन पर डाक टिकट जारी किया था
    वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने बाद में अपने नाम से गढ़वाली जोड़ा था। उन्हें और उनके साथियों को जब सजा दी गयी तो उन्होंने कहा था कि 'हे गढ़माता हम तेरी इज्जत और शान के लिये अपने प्राण न्यौछावर करने जा रहे हैं।' चंद्र सिंह गढ़वाली अमर हो गये लेकिन हमें उनके उन साथियों को भी याद करने की जरूरत है जिन्होंने हर मोड़ पर पूरी वीरता के साथ अपनी अगुवाई कर रहे इस साथी और गढ़वाल का सिर ऊंचा रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यहां पर चंद्र सिंह गढ़वाली के कुछ साथियों की सूची भी दी जा रही है जिन्हें अंग्रेज सरकार ने सजा दी थी। बैरिस्टर मुकुंदी लाल के प्रयासों से इन सैनिकों को मृत्यु दंड की सजा नहीं मिली लेकिन उन्हें जेल जाना पड़ा था।  

पेशावर कांड में वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के अलावा जिन अन्य वीर सैनिकों को सजाएं हुई उनकी सूची इस प्रकार है ...
1. हवलदार नारायण सिंह गुंसाई, 2. नायक जीत सिंह रावत, 3. नायक भोला सिंह बुटोला, 4. नायक केशर सिंह रावत, 5. नायक हर​क सिंह धपोला, 6. लांस नायक महेंद्र सिंह नेगी, 7. लांस नायक भीम सिंह बिष्ट, 8. लांस नायक रतन सिंह नेगी, 9. लांस नायक आनंद सिंह रावत, 10. लांस नायक आलम सिंह फरस्वाण, 11. लांस नायक भवान सिंह रावत, 12. लांस नायक उमराव सिंह रावत, 13. लांस नायक हुकुम सिंह कठैत, 14. लांस नायक जीत सिंह बिष्ट, 15. लांस नायक सुंदर सिंह बुटोला, 16. लांस नायक खुशहाल सिंह गुंसाई, 17. लांस नायक ज्ञान सिंह भंडारी, 18. लांस नायक रूपचंद्र सिंह रावत, 19. लांस नायक श्रीचंद सिंह सुनार, 20. लांस नायक गुमान सिंह नेगी, 21. लांस नायक माधोसिंह नेगी, 22. लांस नायक शेर सिंह असवाल, 23. लांस नायक बुद्धि सिंह असवाल, 24. लांस नायक जूरासंघ सिंह असवाल, 25. लांस नायक राय सिंह नेगी, 26. लांस नायक दौलत सिंह रावत, 27. लांस नायक डब्बल सिंह रावत, 28. लांस नायक रतन सिंह नेगी, 29. लांस नायक श्याम सिंह सुनार, 30. लांस नायक मदन सिंह नेगी, 31. लांस नायक खेम सिंह गुंसाई।
गढ़वाल के जिन वीर सैनिकों को अंग्रेजों ने कोर्ट मार्शल करके नौकरी से बाहर कर दिया था, उनके नाम इस प्रकार है ...
1. लांस नायक पातीराम भंडारी, 2. लांस नायक पान सिंह दानू, 3. लांस नायक राम सिंह दानू, 4. लांस नायक हरक सिंह रावत, 5. लांस नायक लक्ष्मण सिंह रावत, 6. लांस नायक माधो सिंह गुंसाई, 7. चंद्र सिंह रावत, 8. जगत सिंह नेगी, 9. शेर सिंह भंडारी, 10. मान सिंह कुंवर, 11. बचन सिंह नेगी।
कुछ जवानों की सेवाएं समाप्त कर दी गयी थी। इनकी सूची इस प्रकार है ...
1. सूबेदार त्रिलोक सिंह रावत, 2. जयसिंह बिष्ट, 3. हवलदार गोरिया सिंह रावत, 4. हवलदार गोविंद सिंह बिष्ट, 5. हवलदार प्र​ताप सिंह नेगी, 6. नायक रामशरण बडोला। 

पुनश्च:... मेरे पिताजी श्री राजाराम पंत गढ़वाल राइफल्स में थे और वे बड़े गर्व से वीर चंद्रसिंह गढ़वाली का यह किस्सा सुनाया करते थे। जब 1994.95 में देहरादून में हिमालय दर्पण नामक समाचार पत्र में कार्यरत था तो उत्तराखंड आंदोलन पर एक विशेषांक निकाला गया था। मुझसे भी लिखने के लिये कहा गया और मैंने वीर चंद्रसिंह गढ़वाली पर लेख लिख दिया था। उस विशेषांक के संपादक श्री रमेश पहाड़ी थे। उन्होंने उस लेख को बहुत अच्छी तरह से संपादित किया और उत्तराखंड आंदोलन के उस विशेषांक में भी उसे जगह दी थी। आओ हम सब आज फिर से गढ़वाल के इस महान सपूत को याद करें। आपका धर्मेन्द्र पंत

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सोमवार, 21 दिसंबर 2015

गाय, भैंस के व्याहने पर होती है बधाण देवता की पूजा

गाय या भैंस का बच्चा होने पर शुद्धीकरण के लिये होती है बधाण देवता की पूजा। फोटो... श्रीकांत घिल्डियाल 
     भुला बिपिन पंत का फोन आया ''भैजी हमारे यहां बालण या बधाण देवता की भी पूजा होती है। घसेरी में इस पर लिखना।'' बिपिन का फोन आने के बाद बचपन की कई यादें ताजा हो गयीं। घर में गाय या भैंस के व्याहने के बाद हम 11वें दिन का इंतजार करते थे जबकि बालण या बधाण देवता की पूजा होती थी। घर में कई तरह के पकवान बनते थे और हमारा मतलब सिर्फ इन पकवानों से होता था। बड़ी चाचीजी कपोत्री देवी ने गाय और भैंस के बालण या बधाण पूजन के बारे में कुछ जानकारी दी। गाय का बछड़ा होने पर 11वें दिन होने वाली पूजा को बालण देवता का पूजन कहते हैं। इस दिन घर में लगड़ी (आटे के साथ चीनी को घोल कर तवे पर बनाया जाने वाला पकवान) बनती है। बालण पूजन उस खूंटे (कीलू) पर ही की जाती है जिस पर गाय को बांधा जाता है। भैंस के व्याहने पर 11वें दिन होने वाली पूजा बधाण पूजन कहते हैं। इस दिन हलुवा और खीर बनती है। बधाण पूजन के लिये मेरे गांव में पंदेरा (जल स्रोत) के पास एक जगह नियत है। गांव में इस जगह को ही बधाण या बदवाण कहा जाता है। यहां पर एक मोटे खड़ीक के पेड़ की जड़ पर बधाण देवता स्थापित है और वहीं पर यह पूजा की जाती है। गांव के बच्चे भी यहां पर हलुवा और खीर का आनंद लेने के लिये पहुंच जाते हैं। 
       प्रत्येक गांव में बालण या बधाण पूजन की अपनी विधि है। कई गांवों में बालण पूजन के लिये भी जगह नियत होती है। कई लोग 11वें दिन अपने कुल देवता या कुल देवी को दूध चढ़ाकर यह पूजा करते हैं। कर्णप्रयाग के विषय में कहा जाता है कि वहां कभी प्राचीन चट्टी थी जहां पर गाय या भैंस के व्याहने के बाद बधाण देवता की पूजा की जाती है। दूर . दूर से गांवों के लोग इस स्थल पर बधाण देवता का पूजन करने के लिये आते थे। यह स्थान 1894 में आयी बाढ़ में बह गया था। यह जगह वर्तमान के राम मंदिर के पास में है। सवाल उठता है कि आखिर यह पूजा क्यों? पंडित सुरेंद्र प्रसाद डो​बरियाल ने इस बारे में बताया, '' जब इंसान का बच्चा होता है तो 11वें दिन नामकरण करके घर का शुद्धीकरण किया जाता है। इसी तरह से जब गाय या भैंस का बच्चा होता है तो उसके लिये भी शुद्धीकरण की जरूरत पड़ती है और इसलिए बधाण पूजन होता है। इससे पहले आप दूध का देव कार्यों के लिये उपयोग नहीं कर सकते लेकिन इसके बाद दूध को मंदिर आदि हर जगह पर चढ़ाया जा सकता है। ''
     धाण या बालण देवता की पूजा शुद्धीकरण के साथ ही धन और वैभव आदि की प्राप्ति के लिये भी जाती है। विशेषकर यह गौमाता की भी पूजा है। वेदों में कहा गया है की “गोमय वसते लक्ष्मी” अर्थात गोबर में लक्ष्मी का वास है और “गौमूत्र धन्वन्तरी” अर्थात गौमूत्र में भगवान धन्वन्तरी का निवास है। इसलिए बालण या बधाण पूजन के समय शुद्धीकरण की शुरुआत गौमूत्र से की जाती है और गाय के गोबर से गणेश जी भी बनाये जाते हैं। 
     गाय का बालण पूजन में लगड़ी, घी, दूध और दही रखी जाती है। कई जगह गाय के खूंटे पर ही सांकेतिक रूप से गणेश जी को स्थापित करके बालण पूजन किया जा सकता है। खूंटे में ही दूध, दही और घी का अर्पण करना पड़ता है। वहां पर धूप अगरबत्ती जलायी जाती है और लगड़ी का भोग चढ़ाया जाता है। भैंस के बधाण पूजन में हलुवा, खीर, दही, दूध, घी और उसी दिन तैयार की गयी छांछ से पूजा की जाती है। दोनों ही तरह के पूजन में कुत्ता और कौआ के लिये सबसे पहले भोजन निकाला जाता है। 
      बधाण या बालण पूजन में किस मंत्र का जाप​ किया जाए। किसी भी पूजा के लिये 'गायत्री मंत्र' सबसे उत्तम होता है। आप 11 बार ''ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् '' का जाप करके पूजा संपन्न कर सकते हैं। वैसे बेहतर है कि शुरुआत गणेश पूजन से की जाए। पंडित डोबरियाल जी ने भी एक मंत्र बताया, ''एक दंताये धि वि​धमाहि, वक्रतुंडाये धिमाही, तनोदंति प्रचोदयात।'' इस मंत्र का आप 11 या 21 बार जाप करके बधाण या बालण पूजन संपन्न कर सकते हैं। एक अन्य मंत्र है जिससे बधाण पूजन किया जा सकता है। यह मंत्र है... ''ॐ नमो ब्रत्पत्ये नमो गणपतये नम: प्रथम पतये नमस्तेस्तु, लम्बोदराय क दंताये विघ्नविनासिने शिव सुताये श्री वरद मूर्तये नमो नम। '' 
      हर गांव, हर क्षेत्र की संस्कृति में कुछ बदलाव पाया जाता है। आपके यहां भी बालण या बधाण पूजन की विधि अलग होगी। मैंने यहां पर जो तरीका बताया है वह पौड़ी गढ़वाल में बसे मेरे गांव स्योली में होने वाली बधाण पूजा पर केंद्रित है। आप अपने अनुभवों, रीतियों को यहां पर (नीचे टिप्पणी वाले कालम में) जरूर साझा करें। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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रविवार, 13 दिसंबर 2015

याद आता है वो बचपन

           ---- जितेंद्र मोहन पंत ----


      
        पाटी बस्ता उर्ध्व सिर पर लटकाना, 
        पहाड़ी लघु सरिता फांदकर स्कूल जाना,
         मध्यांतर में अल्पाहार मिल बांटकर खाना, 
         वृताकार में पहाड़ों की रट लगाना,
          फिर से तख्ती लिखने को करता है मन,
           याद आता है वो बचपन।। 


हिम वर्षा, स्वर्ग खेतों से कपास का झड़ता,
संगियों को लिये इससे कंदुक—क्रीड़ा खेलता,
नग्न पांवों चलके स्वर्गाभास होता, 
'हिम मिष्ठान' का स्वादानुभव करता, 
फिर से हिम में लिपटने को कहता है तन,
याद आता है वो बचपन।।







गाय बैलों को लिये जाना चारागाह,
       बारिश में एकजुट होना, रखकर पशुओं पर निगाह,
       कभी खेल में मस्त होना, त्याग सब परवाह,
       क्या मदमस्त जीवन, न थी कोई चाह,
       क्या लौटेगा कभी वह अल्हड़पन,
       याद आता है वो बचपन।। 

संग तात के कभी खेतों में जाता,
हल की मुट्ठी पकड़कर बड़ा कृषक समझता,
कभी जोते खेत को क्रीड़ांगन बनाता,
कभी मृदा का तन से आलेपन करता,
क्या पल थे वे मनभावन,
याद आता है वो बचपन।। 





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 लेखक / कवि का परिचय :    

जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक। 'याद आता है वो बचपन' नामक उपरोक्त कविता उन्होंने 19 फरवरी 1995 लिखी थी। सेना के शिक्षा विभाग कार्यरत रहे। 11 मई 1999 को 37 साल की उम्र में निधन।

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मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

पिठाई शिष्टाचार है, दक्षिणा नहीं

पिठाई का म हत्व है, दक्षिणा का नही। मुख्य फोटो सौजन्य : बिजेन्द्र पंत 
        पिछले साल (2014) दो अवसर ऐसे आये जबकि मुझे अपने करीबी रिश्तेदारों की शादी में जाने का मौका मिला। दोनों अवसरों पर मैं वर पक्ष से था। पहली शादी 'लव मैरिज' थी। लड़की सिख परिवार से थी लेकिन विवाह दोनों परिवारों की सहमति से हरिद्वार के शांतिकुंज में संपन्न हुआ। सारी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद हम जिस धर्मशाला में ठहरे हुए थे विदाई के समय उसके हाल में एकत्रित होने के लिये कहा गया। पता चला कि लड़की वाले 'पिठाई' लगाने के लिये वरपक्ष के सभी लोगों को वहां बुला रहे हैं। वही पुराना चलन। पंडित जी पिठाई यानि तिलक लगाते और ​वधु के पिताजी एक लिफाफा बाराती के हाथ में रख देते। जब मेरी बारी आयी तो मैंने तिलक लगाने के बाद लिफाफा लेने से इन्कार कर दिया। वह जिद करने लगे। मैंने कहा, ''ये मेरे उसूल हैं। मैं पिठाई लगाता हूं दक्षिणा नहीं पकड़ता।'' वे फिर भी अड़े रहे। उनका कहना था, ''यह आपके यहां की परंपरा है और हम भी उसी को निभा रहे हैं। आपको दक्षिणा लेनी पकड़नी पड़ेगी।'' मैंने उनको समझाया और उन्हें जल्द ही मेरी बात समझ भी आ गयी। इसके कुछ महीनों बाद मेरे भांजे की शादी थी। वहां भी इसकी पुनरावृत्ति हुई। दुल्हन की मां को पता चला तो उन्हें लगा कि शायद दूल्हे का मामा नाराज है और इसलिए वह दक्षिणा नहीं ले रहे हैं। वह मेरे पास आयी लेकिन उन्हें समझाने में मुझे समय लगा।
         यदि हमारे यहां पिठाई के महत्व को समझा जाता और उसकी पवित्रता के साथ दक्षिणा को नहीं जोड़ा जाता तो शायद मुझे इन दोनों व्यक्तियों को समझाने की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए पहले हम पिठाई के महत्व और फिर दक्षिणा के बारे में जानेंगे। बाकी यह फैसला करना आपका काम है कि आपने पिठाई लेनी या फिर पिठाई लगवानी है। (पहाड़ों में दक्षिणा लेने को पिठाई लेना भी कहा जाता है)। 
  

पिठाई या तिलक लगाने का महत्व  

              पिठाई का चलन पहाड़ों से दशकों से चला आ रहा है। भारतीय अपने आतिथ्य के लिये जाने जाते हैं। 'अतिथि देवो भव' हम सभी ने सुना होगा। 'पिठाई' शिष्टाचार का हिस्सा है। इससे हम मेहमान के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हैं।  मेहमान के घर में प्रवेश करते समय और फिर विदाई पर पिठाई या तिलक लगाया जाता था। समय के साथ पिठाई के मायने बदल गये और ये बदलाव इसमें 'दक्षिणा' जोड़ देने से हुए। आलम यह है कि अब पहाड़ों में पिठाई का मतलब केवल तिलक लगाने तक सीमित नहीं रह गया है। इसका मतलब यह भी लगाया जाता है कि आपकी जेब में कुछ पैसे आएंगे। 'पिठाई कितनी लगी?' यह सवाल अक्सर घर के लोग भी कर देते हैं। शायद इस सवाल ने बच्चों में पिठाई के प्रति दिलचस्पी जगायी। मुझे लगता है कि यह पिठाई की पवित्रता से खिलवाड़ है।
         पिठाई लगाने का महत्व अलग है। पिठाई को मस्तक पर दोनों भौहों के बीचों बीच लगाया जाता है। इस जगह पर आज्ञाचक्र होता है। यह चक्र हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है, जहां शरीर की प्रमुख तीन नाडि़यां इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना आकर मिलती हैं। इसलिए इस स्थान को त्रिवेणी या संगम के नाम से भी जाना जाता है। यह हमारे चिं​तन मनन का स्थान होता है जो चेतन या अवचेतन अवस्था में भी जागृत रहता है। यहां से पूरे शरीर का संचालन होता है। ज्योतिषविदों का कहना है कि पिठाई या तिलक लगाने से ग्रहों की शांति होती है। अगर विज्ञान की बात करें तो जिस स्थान पर तिलक लगाया जाता है वहां पर पीनियल ग्रंथि होती है। तिलक लगाने पर पहले पीनियल ग्रंथि और फिर आज्ञाचक्र जागृत होता है। पिठाई सात्विकता का प्रतीक मानी जाती है। अक्सर आपने देखा होगा कि तिलक लगाते समय सिर पर हाथ रखा जाता है। इसका भी महत्व है। इससे आज्ञाचक्र से निकलने वाली सकारात्मक ऊर्जा पूरे शरीर में प्रवाहित होती। व्यक्ति के मन में सकारात्मक विचार आते हैं। यही वजह थी कि अतिथि के घर पर आने और विदाई के समय पिठाई लगायी जाती है ताकि वह सकारात्मक ऊर्जा के साथ घर में प्रवेश करें और उसी ऊर्जा के साथ विदाई भी लें। शादी और विवाह आदि में बाराती पहले दो दिन तक रहते थे और उन पर हर दिन पिठाई इसलिए लगायी जाती थी कि ताकि उनके मस्तिष्क में शांति और शीतलता बनी रहे। ज्योतिषविदों के अनुसार हल्दी, चंदन, केशर, कुमकुम आदि का तिलक लगाने से व्यक्ति सात्विक, सकारात्मक, आत्मविश्वास से पूर्ण, शांत और संयमित बना रहता है। 

पिठाई नहीं दक्षिणा पर नजर  

        लेकिन समय के साथ पिठाई या तिलक के मायने मतलब बदल गये। माथे पर इसके महत्व को समझने के बजाय लिफाफे के अंदर की राशि को अधिक महत्व दिया जाने लगा। शुरूआत एक पैसा, दो पैसे या एक रूपये से हुई होगी जो आज 100, 200, 500 और 1000 रूपये तक पहुंच गयी है। आपका जितना सामर्थ्य है आप उतनी दक्षिणा पिठाई में दे सकते हैं। यह पिठाई नहीं दक्षिणा है। हिन्दी शब्दकोष में दक्षिणा के  जो अर्थ मुझे मिले। उनसे आप भी अवगत हो जाइये। इसके अर्थ हैं.... 1. उपहार; दान; बख़्शीश, 2. वह धन जो किसी व्यक्ति को कर्मकांड या पूजा-हवन आदि करने के बदले दिया जाता है, 3. चढ़ावा और 4. किसी को दिया जाने वाला अनुचित धन; घूस; रिश्वत। आप इनमें से किसी भी अर्थ को लेकर क्या दक्षिणा लेना चाहेंगे? शायद नहीं। अगर पिठाई लगाने की अच्छी परपंरा के साथ दक्षिणा जोड़कर उसका स्वरूप बिगाड़ दिया गया तो मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि हम फिर से पिठाई के महत्व को समझें और उसके मूलरूप को अपनाने के लिये अपने प्रयास तेज कर दें। फैसला आपका है लेकिन इसका सकारात्मक प्रभाव पूरे समाज पर पड़ेगा। दहेज को पहली सीढ़ी पर ही नकार देने से उसके लिये आगे का रास्ता भी बंद होगा। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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रविवार, 22 नवंबर 2015

गुणों की खान है कोदा यानि मंडुआ

 कोदा के खेत और कोदा से बनी रोटी। इसे सब्जी, घी, कई तरह के नमक या दूध किसी के साथ भी खा सकते हैं।

   मैंने बचपन से उसे क्वादू या कोदो कहा। कोदा उसके लिये सही शब्द हो सकता है। अगर आप हिन्दी भाषी हैं तो मैं आपको बता दूं कि मैं 'मंडुआ' की बात कर रहा हूं। बचपन में मेरी आदत थी सुबह नाश्ते में दूध और रात की बनी कोदा की रोटी खाने की। उसका स्वाद अद्भुत होता था। मां को रात को बोलता था, ''मां एक क्वादो कु टिकड़ सुबेर खुणी भि बणै दे''। पिताजी ने एक किस्सा सुनाया था जो आज याद आ रहा है। गढ़वाल राइफल्स में कोई अंग्रेज था। उसे गढ़वाली तो आ गयी थी लेकिन यहां के खानपान के अनभिज्ञ था। एक बार अकेला किसी गांव से गुजर रहा था। भूख लगी तो गांव की एक वृद्ध महिला ने उसे खाने के लिये कोदा की मोटी रोटी और उसके ऊपर ढेर सारा घी दे दिया। अंग्रेज घी खा गया और महिला को यह कहते हुए रोटी वापस कर दी 'लो माताजी आपकी प्लेट''। कहने का मतलब है कि कोदा की रोटी मोटी बनती है और अगर वह बासी है तो कड़क भी बन जाती है। इसी रोटी को दूध के साथ खाने का आनंद मैंने काफी उठाया है। अब भी कोदा की आटा कहीं से मंगाकर महीने में एक दो बार इसकी रोटी खाता हूं। बासी नहीं सादी रोटी। आज कोदा पर लिखने से पहले पत्नी से इसकी रोटी बनवायी। चार रोटी छकने के बाद लिख रहा हूं कोदा की कहानी। 
     कहा जाता है है कोदा यानि मंडुआ का मूल निवास अफ्रीका महाद्वीप है। मतलब सबसे पहले इसकी खेती अफ्रीका में की गयी और लगभग 3000 से 4000 वर्ष पहले यह भारत आया था। हड़प्पा की खुदाई में भी पता चला कि उस समय के निवासी भी कोदा की खेती करते थे। बाद में पहाड़ और पहाड़ी जीवन का अहम हिस्सा बन गया। इसे 2000 से 3000 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जा सकता है। पिछले दिनों एक भाई ने बताया कि पहाड़ी लोगों का कोदा से मोहभंग हो रहा है। इसकी खेती कम की जा रही है। मैं खुद पलायनवादी, जो पहाड़ छोड़कर दिल्ली भाग आया, किसी को भी उपदेश देने का हक नहीं रखता हूं लेकिन सच कहूं तो कोदा के बारे में सुनकर अच्छा नहीं लगा। यह कोदा हमारी संस्कृति, खानपान का अहम हिस्सा रहा है। यदि पहाड़ी हट्टे कट्ठे मजबूत होते हैं तो उसका काफी श्रेय कोदा को जाता है। गुणों की खान है कोदा। इसलिए इसे अनाजों का राजा भी कहते हैं। इसके दाने काले या राई के रंग के होते हैं और इसलिए इसकी रोटियां भी काली, भूरे रंग की होती हैं। यह ऐसा अनाज है जिस पर कीड़ा नहीं लगता और इसे लंबे समय तक रखा जा सकता है। 
     कोदा की बुवाई मई जून में की जाती है। इसकी खेती के लिये बहुत उपजाऊ जमीन और बहुत अधिक पानी की जरूरत नहीं होती है। जब सीढ़ीनुमा खेतों में कोदा की बुवाई होती है तो मस्त धूल उड़ती रहती है। गेंहूं की बुवाई के लिये जहां हल बहुत ध्यान रखकर चलाना पड़ता है वहीं कोदा की बुवाई में 'डामर' भी पड़ जाए तो चिंता नहीं। मैंने भी हल चलाया है और सच कहूं तो मुझे सबसे ज्यादा मजा कोदा की बुवाई करने में ही आया। 
    बरसात आने पर कोदा की निराई गुड़ाई का काम शुरू हो जाता है। कोदा को छांट . छांटकर खेत की मेढ़ पर लगाने में सुख की अनुभूति होती थी क्योंकि इसका पौधा कहीं पर कैसे भी रोप दिया जाए वह जिंदगी से हार नहीं मानता है। अक्तूबर . नवंबर में इसकी फसल तैयार हो जाती है। पौधे के ऊपर का अनाज निकालकर इकट्ठा करके घर के एक कोने पर रख देते हैं और निचला वाला हिस्सा पशुओं के ​खाने के लिये एकत्रित कर देते हैं। बाद में खलिहान में ले जाकर इसके छोटे . छोटे दाने अलग कर दिये जाते हैं। बस फिर आटा ​तैयार कीजिए और फिर रोटी बनाईये, बाड़ी या फिर पल्यो। आपका शरीर भी इसका सेवन करके आपको दुआ देगा। 

गुणों की खान है कोदा

     चपन में मां से सुना है कि अगर हम लोग पहाड़ी चढ़ लेते हैं तो इसका श्रेय कोदा को जाता है। कोदा खाने से हड्डी मजबूत बनती हैं और इसका सेवन करने वाला ताकतवर बनता है। ऐसा कहकर वह हमें कोदा खाने के लिये प्रेरित करती थी। कोदा बच्चों से लेकर वृद्धजनों तक सभी के लिये समान रूप से उपयोगी है। जापान में तो इससे शिशुओं के लिये खास तौर पर पौष्टिक आहार तैयार किया जाता है। उत्तराखंड सरकार ने भी सरकारी अस्पतालों में मरीजों को कोदा के बने व्यंजन देने की व्यवस्था की थी। कहने का मतलब यह है कि कोदा को छह माह के बच्चे से लेकर गर्भवती महिलाओं, बीमार व्यक्तियों और वृद्धजनों तक सभी को दिया जा सकता है। इससे उन्हें फायदा ही होगा।
    कोदा कैल्सियम, फासफोरस, आयोडीन, विटामिन बी, लौह तत्वों से भरपूर होता है। इसमें चावल की तुलना में 34 गुना और गेंहू की तुलना में नौ गुना अधिक कैल्सियम पाया जाता है। प्रति 100 ग्राम कोदा में प्रोटीन 7.6 ग्राम, वसा 1.6 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 76.3 ग्राम, कैल्सियम 370 मिग्रा, खनिज पदार्थ 2.2 ग्राम, लौह अयस्क 5.4 ग्राम पाया जाता है। इसके अलावा इसमें फास्फोरस, विटामिन ए, विटामिन बी.1 यानि थियामाइन, विटामिन बी.2 यानि रिबो​फ्लेविन, विटामिन बी.3 यानि नियासिन, फाइबर, गंधक और जिंक आदि भी पाया जाता है।  
     कैल्सियम और फास्फोरस हड्डियों और दांतों को मजबूत करते हैं। इसमें कैल्सियम और फास्फोरस उचित अनुपात में होने के कारण यह बढ़ते बच्चों के लिये बेहद लाभकारी होता है। मधुमेह के रोगियों के लिये तो कोदा वरदान साबित हो सकता है। इसमें पाये जाने वाले काबोहाइड्रेट जटिल किस्म के होते हैं जिनका पाचन धीरे धीरे होता है और ऐसे में ये रक्त में शर्करा की मात्रा को सं​तुलित बनाये रखते हैं। हृदय रोगियों के लिये भी यह बहुत अच्छा भोजन है। कोदा से ब्लड प्रेशर को संतुलित करने में भी मदद मिलती है। इसके सेवन से खून में हानिकारक चर्बी घट जाती है और लाभकारी चर्बी बढ़ जाती है। फाइबर अधिक होने के कारण भी इसका खाने से कोलस्ट्राल कम करने में मदद मिलती है। इससे बवासीर के रोगियों को भी फायदा होता है। क्षारीय अनाज होने के कारण कोदा का नियमित सेवन करने वाले व्यक्ति को अल्सर नहीं होता है। अल्सर के रोगियों को कोदा के बने भोजन का नियमित सेवन कराने से लाभ मिलता है। लौह अयस्क होने के कारण कोदा खून की कमी भी दूर करता है। आपने चिकित्सकों के मुंह से अक्सर सुना होगा कि पहाड़ी लोगों का हीमोग्लोबिन काफी अधिक होता है। उसका कारण कोदा ही है। इसके सेवन करने वाले को कभी एनीमिया नहीं हो सकता। यहां तक कि यह कैंसर जैसे रोग की रोकथाम में लाभकारी है। यहीं नहीं इससे जल्दी बुढ़ापा नहीं आता। चेहरे पर झुरियां देर से पड़ती हैं।
   इसलिए मेरा सभी पहाड़ियों से विनम्र निवेदन है कि गेंहूं उगाओ या नहीं लेकिन कोदा जरूर उगाओ और रोज उसका सेवन करो। हमारा सौभाग्य नहीं है कि हम रोज कोदे की रोटी या बाड़ी खा सकें लेकिन जिन्हें यह नसीब हो रहा है वे इससे मुंह न फेरें। कोदा हम पहाड़ियों के लिये अमृत है। कोदा पर आपकी जान​कारियों के इंतजार में आपका धर्मेन्द्र पंत।

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शनिवार, 7 नवंबर 2015

आओ मनायें बग्वाल और खेलें भैला

      दीवाली तो हम हर साल मनाते हैं। दिये जलाना, कुछ पटाखे छोड़ना और उपहारों का आदान प्रदान। विशुद्ध औपचारिकताओं से भरी दीपावली। अगर मेरे साथ दीवाली खेलने के लिये चलना है तो फिलहाल आपको यह दीपावली भूलनी होगी। मेरे पहाड़ की दीवाली जिसे हम बग्वाल कहते हैं। इसके बाद हम भैला भी खेलेंगे और भ्वींत भी। 

दीवाली नहीं इगास.बग्वाल

     पहाड़ों विशेषकर गढ़वाल में दीवाली को बग्वाल कहा जाता था। अब भी पुराने लोगों के मुंह से आपको बग्वाल सुनने को मिल जाएगा। इसके 11 दिन बाद इगास आती है। पंडित भास्करानंद पंत के अनुसार, ''गढ़वाल में दीपावली को ही बग्वाल बोलते हैं। इसके 11वें दिन बाद हरिबोधिनी एकादशी आती है जिसको हम इगास कहते हैं। अमावस्या के दिन लक्ष्मी जागृत होती है और इसलिए बग्वाल को लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है। हरिबोधनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु शयनावस्था से जागृत होते हैं और उस दिन विष्णु पूजा करने का प्रावधान है। '' 
     उत्तराखंड में असल में कार्तिक त्रयोेदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है और यह कार्तिक एकादशी यानि हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। इसे ही इगास . बग्वाल कहा जाता है। जिस दिन बग्वाल या इगास होती थी उस दिन सुबह से ही रौनक बन जाती थी। इन दोनों दिन सुबह लेकर दोपहर तक पालतू पशुओं की पूजा की जाती है। पशुओं के लिये भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडुए यानि कोदा के आटे से बना हुआ) और जौ का पींडू (अन्न से तैयार किया गया पशुओं के लिये आहार) तैयार किया जाता है। भात, झंगोरा, बाड़ी और जौ के बड़े लड्डू तैयार करके उन्हें परात में रखकर कई तरह के फूलों से सजाया जाता है। पशुओं की पूजा के लिये सबसे पहले उनके पांव धोए जाते हैं और फिर धूप और दिया जलाकर उनकी पूजा की जाती है। उन पर हल्दी का टीका लगाने के साथ ही सींगो को तेल से चमकदार बनाया जाता है। इसके बाद पशुओं को परात में सजाया गया अन्न खिलाया जाता है। सिर्फ अपने ही पशुओं को नहीं बल्कि आस पड़ोस के पशुओं को भी यह अन्न, जिसे गौ ग्रास कहते हैं, दिया जाता है। बग्वाल तक खरीफ की फसल तैयार होकर घरों तक भी पहुंच जाती है। फसल को तैयार करने में पशुओं की भूमिका भी अहम होती है और इसलिए अन्न का पहला निवाला उन्हें देने का प्रचलन शुरू हुआ। 
      बग्वाल और इगास दोनों दिन घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी, भूड़ा आदि पकवान बनाये जाते हैं। शाम को इस तरह के पकवान अधिक मात्रा में बनाये जाते हैं। फिर उन सभी परिवारों में ये पकवान पहुंचाये जाते हैं जिनकी बग्वाल नहीं होती है। (जिनके घर में किसी की मृत्यु हो जाती है तो वह साल भर तक कोई त्यौहार नहीं मनाता है)। इसके बाद रात को खा पीकर मनाया जाता था ​बग्वाल का असली जश्न जिसे भैलो कहा जाता है। 

भैला भाईयो भैला

      गांवों में पहले भैला (एक तरह की मशाल) खेलने का चलन था। मेरा जन्म 1970 में हुआ लेकिन जब होश संभाला तो तब मैंने गांवों में यह प्रथा बहुत ज्यादा नहीं देखी। चाचाजी श्री हरिराम पंत ने हालांकि भैला बहुत खेला है। उनसे जब इस बारे में पूछा तो वह पुरानी यादों में खो गये। उन्होंने बताया, '' हम सभी चौंर (यानि सार्वजनिक स्थल) में इकट्ठा होते थे। भैला पहले से ही तैयार कर लेते थे। ढोल दमाऊ के साथ नाचते और भैला खेलते थे। भैला सूखे बांस पर क्याड़ा (भीमल के पेड़ की ट​हनियों को कुछ दिनों तक पानी में डालकर तैयार की गयी जलावन की लकड़ी) और छिल्ला (चीड़ की लकड़ी) से तैयार करते थे। बाद में उस पर आग लगाकर पूरे गांव का चक्कर लगाते हुए गांव के ऊपर पहाड़ी पर स्थित नंदादेवी मंदिर (गांव की कुलदेवी) तक जाते। ऐसा गांव की समृद्धि के लिये किया जाता था। इस बीच एक दूसरे के साथ खूब हंसी मजाक चलता रहता था।''
    भैला का यह उत्सव जैसा माहौल यहीं पर नहीं थमता है। असल में इसकी तैयारी तो कुछ दिन पहले से ही शुरू कर दी जाती थी। यह तैयारी होती थी मोटी रस्सियां बनाने की जो एक खास तरह की घास (बबलु) से तैयार की जाती थी। इसके बाद रस्साकसी होती थी। चाचाजी ने हंसते हुए यादें ताजा की, ''हम मैल्या ख्वाल और तैल्या ख्वाल (गांव के ऊपर वाला हिस्सा और नीचे वाला हिस्सा) के निवासी अलग अलग हो जाते और फिर रस्साकसी होती। ढोल दमाऊ बजता रहता है और सबके सब मस्ती करते हुए अपनी ताकत आजमाते। जो जीत गया रस्सी उसकी। इसके साथ नाच गाना भी चलता रहता। बाद में कुछ और रस्सियों के बीच में चीड़ के छिल्ले लगाकर आग लगा दी जाती और फिर उसके साथ तरह तरह के करतब दिखाते। विशेषकर उस आग को लांघने का करतब जिसे भ्वींत कहते थे। अब कौन खेलता है भैलो और भ्वींत। ''
    सच में अब तो पटाखों के शोर और चीन में बनी लड़ियों की रोशनी में खो जाती है दीवाली, लेकिन मुझे उम्मीद है कि आपको मेरे साथ बग्वाल में भैला खेलने में आनंद आया होगा। अपनी प्रतिक्रिया जरूर भेजें।  आपका अपना धर्मेन्द्र पंत

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शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

मनमोहक गुच्चुपानी यानि रोवर्स केव

                                         .... राजेश राय ....

देहरादून के सबसे रमणीक स्थलों में से एक है गुच्चुपानी यानि रोवर्स केव। सभी फोटो..राजेश राय।
      त्तराखंड की राजधानी देहरादून में यूं तो कई दर्शनीय और रमणीक स्थल हैं लेकिन पिछले दिनों जब मैं पहली बार इस शहर में गया तो मुझे सबसे दिलचस्प और रोमांचक 'रोवर्स केव' लगी जिसे यहां गुच्चुपानी के नाम से जाना जाता है। मैं देहरादून रेड बुल कैंपस क्रिकेट वर्ल्ड फाइनल्स को कवर करने गया था। सफर के दौरान अपने ड्राइवर विक्की से पूछा कि क्या यहां आसपास देखने के लिये कोई झरना है तो उसने बताया कि रोवर्स केव देख सकते हो। बस रोवर्स केव देखने चल दिया। वाकई मजा आया। 
     अपने मित्र धर्मेन्द्र और उनके ब्लॉग 'घसेरी' के जरिये उत्तराखंड के दर्शनीय स्थलों, वहां के इतिहास और संस्कृति के बारे में मुझे लगातार सुनने और पढ़ने को मिलता है। इसलिए जब रोवर्स केव पहुंचा तो तो जेहन में 'घसेरी' आ गयी। तब मुझे लगा कि इस थोड़ी सी 'डरावनी' लेकिन दिल में रोमांच पैदा करने वाली जगह से घसेरी के उन सभी पाठकों को अवगत कराना चाहिए जो अब तक रोवर्स केव नहीं जा पाये। तो फिर देर किस बात की है आइये मेरे साथ चलिए रोवर्स केव यानि गुच्चुपानी।
रोवर्स केव में लेखक राजेश राय
      यह लगभग 600 मीटर लंबी गुफा या यूं कहें कि प्रकृति प्रदत्त दरार है जिसमें अंदर जाया जा सकता है।  इसमें घुटनों के नीचे तक पानी रहता है। इसके दोनों तरफ चूना पत्थर की चट्टानें हैं जिनमें कई जगह सुराखों से पानी रिसता है। पानी इतना साफ है कि चमचमाता शीशा भी शरमा जाए। इसमें नीचे नीचे छोटे छोटे पत्थर भी साफ दिखायी देते हैं। चट्टानों के ऊपर जंगल है। बीच में किसी किले के दीवार की संरचना है जो अब टूट गया है। 
    पानी का बहाव तेज है। गुफा के कोने पर जाकर एक जगह पर ज्यादा तेजी से पानी गिरता दिखायी देता है लेकिन वहां तक जाने के लिये झुक कर जाना पड़ता है। मैंने कई उत्साही लड़कों उस झरने में नहाते देखा। उस झरने के ऊपर चढ़कर पीछे की तरफ जाने का रास्ता है। जहां लगभग दस मीटर की ऊंचाई से झरना गिरता है लेकिन मैं पीछे की तरफ नहीं जा पाया हालांकि कई लोग उस तरफ जा रहे थे।
    गुफा की शुरुआत में छोटी सी जगह पर खाने पीने की दुकानें हैं। उसके सामने पानी के बीच में टेबल कुर्सियां लगी हैं जहां लोग बैठकर खाते पीते हैं। देखने में दिलचस्प लगता है पानी में बैठकर खाना पीना। साथ में चप्पलों को किराये पर देने वाले लोगों का धंधा भी चलता रहता है। दस . दस रूपये में चप्पलें किराये पर दी जाती हैं। यानि चप्पलें किराये पर देकर भी कमाई की जा सकती है। इन सबके बीच सुरक्षा की कमी जरूर लगती है जबकि यह सुंदर पर्यटन स्थल है। पानी में चलना अद्भुत अहसास है लेकिन कुछ लोग साफ सुथरे पानी में भी गंदगी छोड़ देते हैं। पानी की बोतलें, चिप्स के पैकेट जो कतई गवारा नहीं है। विशेषकर युवाओं को इस पर खास ध्यान देना चाहिए। 

कैसे नाम पड़ा रोवर्स केव      

     रोवर्स केव नाम सुनने पर ही लगता है कि यहां कभी डकैत छिपकर रहते होंगे क्योंकि वहां पहुंचना किसी के लिये भी मुश्किल रहा होगा। बाद में एक मुझे एक जगह पढ़ने को मिला कि वास्तव में डकैती डालने के बाद डकैत यहां छिप जाते थे बौर अंग्रेजों ने इसलिए इसका नाम रोवर्स केव रख दिया। मैंने हालांकि इससे पहले अपने स्थानीय ड्राइवर विक्की से इस गुफा के इतिहास के बारे में पूछा था और उसने अलग कहानी बतायी थी। बकौल विक्की ''देवताओं ने एक राक्षस को इस गुफा में कैद करके उसके आगे पानी की धारा छोड़ी थी।''
गुफा के अंदर का दृश्य

कैसे जाएं रोवर्स केव

    गुच्चुपानी यानि रोवर्स केव देहरादून बस अड्डे से आठ किलोमीटर की दूरी पर है। आप कोई कैब लेकर सीधे वहां जा सकते हैं। छोटी गाड़ियां गुफा के पास तक चली जाती हैं। वहीं पर पार्किंग की व्यवस्था है। बस से भी गुच्चुपानी जाया जा सकता है। बसें अनारवाला गांव तक जाती हैं जिसके बाद लगभग एक किमी की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है जो बहुत आसान है।
    अगर आपको गुफाओं की नैसर्गिक सुंदरता, स्वच्छ पानी में चलने और पानी के बीच कुर्सियों में बैठकर भोजन का आनंद लेना है तो आपको मेरी सलाह तो यही रहेगी कि देहरादून जाएं तो रोवर्स केव जाना न भूलें। यहां काफी संख्या में पर्यटक आते हैं। पानी ठंडा रहता है और इसलिए यहां गर्मियों में अधिक पर्यटक जाते हैं। शहर की दौड़ती भागती जिंदगी से दूर सुकून के कुछ पल यहां बिताये जा सकते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि यहां का अनुभव आपको ताउम्र याद रहेगा। 

लेखक के बारे में ......................................

   वरिष्ठ पत्रकार राजेश राय पिछले लगभग 25 वर्षों से पत्रकारिता से जुड़े हैं और वर्तमान समय में समाचार एजेंसी यूनीवार्ता के खेल संपादक हैं। राजेश कलम के खिलाड़ी हैं। खेल पत्रकारिता में उनका कोई सानी नहीं। घुमक्कड़ी स्वभाव के भी हैं। घसेरी का उनके प्रति आभार कि उन्होंने इस ब्लॉग के पाठकों को देहरादून के एक रोमांचक स्थल से अवगत कराया।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

पहाड़ की रामलीला

      रामलीला। यह शब्द भले ही अब उतना आकर्षित नहीं करता है लेकिन कभी हमारे लिये इसके खास मायने होते थे। रामलीला माताओं, बहनों, बहू, बेटियों के लिये असूज यानि आश्विन महीने में खेतों में दिन भर की कमरतोड़ मेहनत के बाद रात में कुछ समय साथ में बिताने का मौका देती थी। रामलीला गांव के युवाओं को पर्दा उठने के बाद अपने अंदर छिपे कलाकार को सामने लाने का अवसर देती थी। रामलीला गांव के माहौल को राममय बनाने का काम करती थी। रामलीला एक समय में गांव में लोगों के मनोरंजन के लिये वही भूमिका निभाती थी जिसकी जगह आज एकता कपूर के धारावाहिकों और कपिल की कामेडी नाइट्स ने ली है। यह पहाड़ों की सत्तर और अस्सी या​ फिर नब्बे की दशक के शुरुआती वर्षों की रामलीला थी। यह वह दौर था तब घरों में बुद्ध बख्शा नहीं पहुंचा था या फिर कुछ घरों तक ही उसकी घुसपैठ थी और तिस पर भी ले देकर एक दूरदर्शन था जो रामायण और महाभारत केवल एक दिन रविवार को और वह भी सुबह दिखाता था।

पहाड़ों में होने वाली रामलीला का एक दृश्य।
           फोटो सौजन्य ... श्री दीनदयाल सुंद्रियाल।
     तो चलिये मेरे साथ पहाड़ों की आज से 20 . 30 साल पुरानी रामलीला का आनंद उठाने के लिये। पहाड़ों में असूज के महीने में बहुत काम होता है। इसलिए कोशिश की जाती थी कि रामलीला कुछ दिन बाद (दशहरे के बाद भी) शुरू की जाए ताकि लोगोें पर काम का अधिक भार नहीं रहे और वे मनोयोग से इसका आनंद ले सकें। यह वह समय होता है जब पहाड़ों में ठंड दस्तक देनी शुरू कर देती है। पहले बिजली नहीं होती थी तो पेट्रोमैक्स (गैस) की रोशनी में रामलीला खेली जाती थी। बिजली आने के बाद भी एक या दो गैस तैयार रखे जाते थे। आखिर बिजली का क्या भरोसा। जब तय हो जाता था कि रामलीला अमुक तारीख से होनी है तो फिर जिज्ञासा का विषय यह होता था कि राम कौन बना है और रावण कौन। इसी तरह से अन्य पात्र भी होते थे। राम, सीता और रावण ही नहीं बल्कि हनुमान, अंगद, छवि राजा, ताड़िका, कुंभकर्ण आदि कुछ ऐसे पात्र होते थे जिनका जिक्र होते ही बरबस किसी खास शख्स का नाम जुबान पर आ जाता था। अच्छी ढील ढौल वाला और खूब गर्जन तर्जन करने वाला व्यक्ति ही रावण बनता था। स्वर सुरीला है तो फिर उसे राम या सीता बना दिया जाता। हां पहाड़ों की रामलीला की खासियत यह थी कि इसमें महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष पात्र ही निभाते थे। महिलाओं की भूमिका रामलीला में यही होती थी कि वे महिला पात्रों की साड़ी अच्छी तरह से लगा देती थी। रामलीला से पहले रिहर्सल में सभी पात्रों को अच्छी तरह से जांचा परखा जाता था। इसी दौरान धनुष, बाण, गदा आदि अस्त्रों को भी तैयार किया जाता था।
    रामलीला अमूमन सात या आठ दिन की ही होती थी। सातवें दिन की रात को रावण बध और आठवें दिन सुबह से लेकर दोपहर तक राजतिलक। हर दिन रामलीला की शुरुआत आरती से होती थी। प्रत्येक दिन दिन नयी आरती। कभी मां दुर्गा तो कभी राम, कृष्ण या विष्णु की। इससे पहले फीता यानि रिबन काटने की रश्म निभायी जाती थी। आखिर मोटा पैसा तो इसी से आता था। फीता कौन काटेगा इसके लिये काफी माथापच्ची करनी पड़ती थी। अगर कोई नौकरी से छुट्टी पर आया है तो उसे फीता काटने के लिये तैयार कर दिया जाता था। किसी के घर में कुछ अच्छा काम हुआ हो तो वह खुद ही इसके लिये हामी भर देता था। रिबन काटने वाला भी अपने सामर्थ्य के हिसाब से पैसे दे देता था, 11 रूपये से लेकर 51 रूपये तक। 101 रूपये बहुत कम।
     पहाड़ों की रामलीला अमूमन रावण, कुंभकर्ण और विभीषण की तपस्या से शुरू होती थी। यदि ​श्रवण की कथा डालनी है तो फिर पहले यह नाटक खेला जाता था। ब्रह्मा अक्सर उसी व्यक्ति को बना दिया जाता था जिसे राम की भूमिका निभानी हो। ब्रह्मा प्रकट होते और रावण के पास आकर कहते ​''एवमस्तु ​तुम बड़ तप कीना ....।'' यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया कि रावण तब पूरे जोश में क्यों वरदान मांगता था। प्रोज मास्टर की भूमिका अहम होती थी। उसे आप निर्देशक कह सकते हो। पात्र को अपने कान खुले रखने पड़ते थे क्योंकि प्रोज मास्टर धीमे से संवाद बोलता था जो उसे जोर से दोहराने पड़ते। गलती की गुंजाइश न के बराबर होती थी। सीन समाप्त होने पर प्रोज मास्टर ही सीटी बजाकर पर्दे की डोरी खींच देता और फिर अगले सीन की तैयारी में जुट जाता। रामलीला का सबसे व्यस्त इंसान। इस बीच यदि सीन तैयार होने में देरी है तो कुछ कामिक टाइप के लोगों को पहले ही तैयार कर दिया जाता था। लोगों को हंसाने के लिये जोकर या मसखरे खास तौर पर रामलीलाओं में बुलाये जाते थे। बीच में दानदाताओं के नामों की घोषणा भी की जाती थी। 

मन मोह लेती था राम सीता का पहला मिलन

     रामलीला आगे बढ़ती थी। शिव का कैलाश एक कुर्सी बन जाती थी जिसके ऊपर चादर पड़ी रहती। शिव कुर्सी पर विराजमान हो जाते और पार्वती उसके हत्थे पर। रावण को वही कुर्सी हिलानी पड़ती थी। रामजन्म और फिर राम का मुनियों की रक्षा के लिये वन में जाना। राम की भूमिका निभाने वाले पात्र को चौपाई गाने में माहिर होना पड़ता था। आखिर ताड़िका बध के समय भी राम को ''अरी दुष्ट पापिनी तू जड़ नारी, नहीं जाने हम हैं धनुर्धारी ...'' जैसी चौपाई गानी पड़ती थी। सुबाहू और लक्ष्मण का युद्ध भी रोमांचक होता था।
    लेकिन वह राम और सीता का पहला मिलन होता जो मन मोह लेता। सीता अपनी सखियों के साथ गाती ''पूजन को अंबे गौरी चलियो स​खी सहेली ...। '' सीता के पात्र की पहली परीक्षा यहीं पर होती। लक्ष्मण भी बड़े भाई से कहता कि ''देखो जी देखो महाराज कि वह है लल​नी ..।'' और फिर राम अपनी चौपाई पर आ जाते '' तात जनक तनया यह सोई धनुष यज्ञ जेहि कारण होई ...। '' सीता स्वयंवर का तो सभी बेसब्री से इंतजार करते थे। रामलीला का सबसे लंबा और रोमांचक सीन जिसमें हास्य भी होता और रोमांच भी। राजा ऐसे पात्र होते थे जो राजा कम और मसखरे ज्यादा लगते थे। इनमें छवि राजा की भूमिका अहम होती थी। लोगों को हंसाने की जिम्मेदारी उसी पर रहती। जब वह बोलता ''....पांच बुलाये पंद्रह आये , पंद्रह चौके साठ ...'' यदि तब जनता हंसी नहीं तो मतलब वह अपनी भूमिका में खरा नहीं उतरा। धनुष टूटने के बाद इंतजार रहता था परशुराम . लक्ष्मण संवाद की। यहां पर परशुराम के साथ लक्ष्मण के पात्र की भी अग्निपरीक्षा होती थी। यदि दोनों मंझे होते थे और पूरी तैयारियों के साथ आते थे तो फिर समां बंध जाता था।  
   प्रत्येक दिन के लिये तय होता था कि किस दिन रामलीला कहां तक खेलनी है। राम को वनवास होने पर जब वह नदी पार करते तो एक साड़ी दोनों तरफ से आर पार पकड़ ली जाती थी। उसे हिलाते और केवट के साथ राम, लक्ष्मण और सीता उसे पार करते। सीता का गीत समाप्त होते ही साड़ी लांघकर नदी पार हो जाती थी। शूपर्णखा और मंथरा कौन बनेगा इसके लिये काफी माथापच्ची करनी पड़ती थी। शूपर्णखा ने 'हाय रे नाक कट गयी' कहकर यदि लोगों में हंसी और बच्चों में डर भर दिया तो समझो वह अपने काम में सफल हो गया। रावण केवल एक शॉल अपने मुकुट के ऊपर से ओढ़ लेता और सीता हरण के लिये उसका भेष बदल जाता। हनुमान, बाली और सुग्रीव के पात्रों पर पूरी लिपस्टिक लगा दी जाती। बेचारों को बाद में चेहरा साफ करने में काफी परेशानी होती थी। हनुमान के समुद्र पार करते समय भी नदी बनी साड़ी ही समुद्र बन जाती। अशोक वाटिका में हनुमान यह सुनिश्चित करता कि उसमें अधिक से अधिक फल लगे हों। किसी के बगीचे से मौसमी फल या फिर कुछ सेब, केले खरीदकर मंच पर लटका दिये जाते। हनुमान उसे आधा खाकर जनता की तरफ फेंक देता। लंका दहन के लिये हनुमान की पूंछ लंबी कर दी जाती। उसे मशाल लगायी जाती। हनुमान को हिदायत रहती कि वह आग लगने के तुरंत बाद जनता के बैठने के बीच में बने रास्ते पर एक दो चक्कर लगाये और फिर तुरंत पर्दे के पीछे चला जाए जहां आग बुझाने के लिये पानी की पूरी तैयारी रहती थी। जब युद्ध शुरू होता तो लक्ष्मण के मूर्छित होने पर वही थाली पर्वत बन जाती जिससे दिन के शुरू में आरती हुई थी। उसमें अधिक से अधिक दिये जला दिये जाते थे। युद्ध कई तरह से लड़ा जाता लेकिन रावण की सेना के जिस भी बड़े सेनानायक को मरना होता वह तभी जमीन पर गिरता जब पीछे से पटाखा फूट जाए। कई बार पटाखा फुस्स हो जाता तो संदेश पहुंचा दिया जाता। ''मार दे यार पटाखा फुस्स हो गया। '' सबसे बड़ा पटाखा रावण के लिये सुरक्षित होता था।
    राजतिलक के दिन सुबह से ही गांव में उत्सव सा माहौल रहता था। राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान वास्तव में वन में भेज दिये जाते। उनका मेकअप वहीं होता था। इधर तैयारियां चलने लगती। खूब ढोल नगाड़े बजते। भरत और शत्रुघ्न के साथ पूरे गांववासी राम को लेने आधे रास्ते तक जाते। इसके बाद सब मंच पर लौटते और राम राजा के कपड़े पहनकर सिंहासन पर विराजमान हो जाते। लोगों को पहली बार मंच पर आने का मौका इसी दिन मिलता था। वे राम, लक्ष्मण और सीता के पांव छूकर आशीर्वाद लेते और अपनी तरफ से कुछ भेंट भी रख जाते थे। मेरी खुद की रामलीला से कई यादें जुड़ी हैं। मैं रामलीला में राम भी बना तो उससे पहले महिला पात्र भी। हर पात्र का अलग आनंद होता था। कुछ इसी तरह से होती थी सत्तर और अस्सी के दशक की रामलीला।
आपका धर्मेन्द्र पंत 
    

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

भगवान शिव को रिझाने के लिये मां पार्वती ने किया था 'चौंफुला'

     चपन में बसंतकालीन और कभी कभार शरदकालीन रातों में गांव में होने वाले लोकगीतों और लोकनृत्यों का मैंने बराबर आनंद उठाया है। अमूमन गांव की महिलाएं बसंत ​ऋतु के समय रात ढलने पर गांवों में किसी के घर के चौक यानि आंगन में इकट्ठा होकर लोकगीत और लोकनृत्यों से समां बांध दिया करती थी। मेरे गांव स्योली में भी यह परंपरा वर्षों तक चली लेकिन अब घर . घर में टीवी की घुसपैठ और हर हाथ में मोबाइल की सेंध का इन लोकगीतों और लोकनृत्यों पर बुरा असर पड़ा है। शहरों की तरफ तेजी से बढ़ने वाले पलायन ने आग में घी डालने का काम किया। लोकगीत और लोकनृत्य पीछे छूटते गये। कुछ गांवों में अब भी बसंत ऋतु में इन लोकनृत्यों की परपंरा बरकरार है। इनमें कई तरह के लोकगीत थे जिनमें साथ में लोकनृत्य भी हुआ करता था। इन लोकनृत्यों और लोकगीतों में चौंफुला, ​थड़िया, झुमैलो, झुरा, लामड़, चौपत्ती, बाजूबंद, घसियारी, चांचरी, छपेली आदि प्रमुख हैं। छमिया का हास्य नाटक भी खेला जाता था।

मस्ती और प्रेम का नृत्य है चौंफुला 

      मैं आज यहां पर चौंफुला का जिक्र करूंगा जो मस्ती, प्रेम, अनुराग, हास्य, संदेह, प्रेरणा से भरा हुआ है। यह गढ़वाल का लोकनृत्य है। हाथों और पांवों के अद्भुत संगम से किये जाने वाले इस नृत्य के बारे में कहा जाता है कि सबसे पहले पार्वती ने शिव को रिझाने के लिये पहाड़ों पर यह नृत्य किया था। स्थानीय कथाओं के अनुसार पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती पिछले जन्म की सती का ही रूप थी। पार्वती ने पहले शिव को अपने सौंदर्य से रिझाने की कोशिश की थी लेकिन बाद में उन्होंने मिट्टी और पत्थरों से चौंरी बनायी। इसके चारों तरफ कई तरह के फूल खिले हुए थे। पार्वती ने अपनी सखियों के साथ अनुराग भरे गीत गाये। शिव ने इससे खुश होकर पार्वती से विवाह किया था। सभी दिशाओं में नृत्य करने और हर तरफ फूल खिले होने के कारण इस नृत्य का नाम चौंफुला पड़ा, जिसका अर्थ है फूलों की तरह खिलना। हिंदू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार शिव और पार्वती का विवाह ​गौरीकुंड के पास त्रियुगीनारायण गांव में हुआ था।
      चौंफुला के बारे में कहा जा सकता है कि गढ़वाल का हजारों वर्ष पुराना नृत्य है जो समय समय के साथ भारत के अन्य हिस्सों के नृत्यों के मेल से समृद्ध बनता गया या यूं कहें कि इसके स्वरूप में थोड़ा बहुत बदलाव होते रहे। डा. शिवानंद नौटियाल के अनुसार चौंफुला गुजरात के गरबा, असम के बिहू और मणिपुर के रास जैसा ही नृत्य है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आकर गढ़वाल में बसने वाले लोग इसमें नयापन जोड़ते रहे। 
      चौंफुला रात के समय में नृत्य के साथ गाये जाने वाला लोकगीत है जिसमें नर्तकों की कोई तय संख्या नहीं होती है।  इस तरह का लोकनृत्य के घर के आगे बने चौक यानि आंगन में किया जाता है और इसमें किसी वाद्ययंत्र का सहारा नहीं लिया जाता है। इसमें महिला और पुरूष नर्तक अलग अलग पंक्तियों में एक दूसरे के आमने सामने खड़े होते हैं लेकिन गोलाकार के कारण दोनों तरफ के आखिरी महिला और पुरूष नर्तक एक दूसरे के पास में होते हैं। नृत्य करते समय नर्तक एक कदम आगे आकर अपनी दायीं हथेली से अपने बायें तरफ खड़े नर्तक की दायीं हथेली को बजाता है और फिर बायीं हथेली से अपने दायें तरफ खड़े नर्तक की बायीं हथेली से बजाते हुए वापस पहले वाली पोजीशन पर आ जाता है। इसमें एक तरफ के नर्तक गीत गाते हैं और फिर दूसरी तरफ के नर्तक उसे दोहराते हैं। यह नृत्य धीरे धीरे गति पकड़ता है और फिर इसमें पांवों की थाप भी शामिल हो जाती है। आखिर क्षणों में गीत पर नृत्य पूरी तरह से हावी हो जाता है। गढ़वाल में कई चौंफुला गीतों का जिक्र किया जाता है। जैसे कि......
              नणद तेरो दादू क जायूं च, दादू सुनार की ओटी च।
                   ओटी बैठि की क्या कादू च, नथ बेसर गढांदू च।
                     बौकी जिकुणी झुरौंदो च, नणद तेरो दादू क जायूं च। .......
..
(यह ननद और भाभी के बीच संवाद का गीत है। भाई अपनी बहन के लिये नथ बनवाने गया होता है। तब भाभी पूछती है,  ''ननद तुम्हारा भाई कहां गया है। भाई सुनार के पास गया है। वहां क्या कर रहा है। नाक की नथ बनवा रहा है। भाभी के दिल को दर्द दे रहा है। '')
      बड़ी चाचीजी श्रीमती कपोत्री देवी से पूछा तो उन्होंने बताया कि ''धार मा उरखेली ब्वे चौ डांडा बथौंच ....'' भी चौंफुला ही है। उन्होंने कुछ और गीतों का जिक्र भी किया। उनके जमाने में मेरे गांव में लगभग हर साल इन गीतों का आयोजन होता है। लगभग दो महीने तक चलने वाले इन गीतों का समापन बैशाखी के दिन होता था।        
      इसी तरह का एक और लोकनृत्य होता है चौपात्ति या छौपाति यह मुख्य रूप से जौनसार क्षेत्र का गीत है। कुछ स्थानों पर इन गीतों के चुरा और लामणी भी कहा जाता है। यह भी चौंफुला की तरह का ही नृत्य है जिसे सामूहिक रूप से गाया जाता है। इस तरह का एक गीत है ....
              तिल जलोटा क्या धार बौ ये, मीम तू बतै दै बौ ये।
                 तेरा दादा ने गिंदोणी दे छै, मिन जलोटा वा धार दियूरै ।।
      घसेरी में आगे थड़िया, बाजूबंद, घसियारी, झुमेलो, छपेली आदि गीतों और लोकनृत्यों के बारे में विस्तार से चर्चा करने की कोशिश करूंगा। फिलहाल तब तक चौंफुला का आनंद लें। आपका अपना धर्मेन्द्र पंत
      नोट : मैं अपने भुला (छोटा भाई) बिजेंद्र पंत का हमेशा आभारी रहता हूं कि क्योंकि एक फोन पर वह सामग्री या फोटो जुटाने में जुट जाता है। अफसोस की काफी प्रयासों के बाद भी चौंफुला की फोटो नहीं मिली। किसी भाई या बहन के पास हो तो भेजने की कृपा करें। बिजेंद्र उन लोगों में शामिल है जो गढ़वाली लोकसंस्कृति को बचाने के लिये अपने स्तर पर प्रयासरत हैं।


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गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

पहाड़ में क्रिकेट और मेरी क्रिकेट टीम

    प्रिय मित्र प्रकाश पांथरी का संदेश आया कि देहरादून में क्रिकेट की उत्तराखंड प्रीमियर लीग चल रही है। सुनकर अच्छा लगा। उत्तराखंड की क्रिकेट में काफी संभावनाएं हैं। वहां प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन दिक्कत यही है कि उत्तराखंड क्रिकेट संघ को अभी भारतीय क्रिकेट बोर्ड से मान्यता नहीं मिली है, इसलिए हमारी रणजी टीम नहीं है और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हमारे खिलाड़ियों को दिल्ली और दूसरे अन्य राज्यों की शरण में ही जाना पड़ेगा। बहरहाल प्रकाश के संदेश से मुझे उत्तराखंड की अपनी क्रिकेट की भी याद आ गयी। संभवत: मेरी पहली और उसके बाद की पीढ़ी या वर्तमान पीढ़ी की यादें भी कुछ इसी तरह से होंगी। आप चाहें तो अपनी इन यादों को नीचे टिप्पणी वाले बाक्स में साझा कर सकते हैं। 
   
पहाड़ो की क्रिकेट बयां करता चित्र
उत्तराखंड की क्रिकेट खेतों में खेली जाती है। सीढ़ीनुमा खेतोें में। शायद ही वहां कोई ऐसा खेत होगा जिसमें सभी बाउंड्री एक ही खेत के अंदर आ जाएं। यहां तो बस कोई थोड़ा चौड़ा सा खेत मिला और वही बन जाता है क्रिकेट का मैदान। अब भले ही साजो सामान होंगे लेकिन एक जमाना था जबकि बल्ला बांज, खड़ीक या किसी अन्य पेड़ की टहनी काटकर बना दिया जाता था। पहले उसे बल्ले का रूप दिया जाता और फिर उस पर कांच की बोतल तोड़कर इतना अधिक 'रंदा' लगाया जाता था कि वह खूब चमकने लग जाए। इस तरह से तैयार होता हमारा 'पहाड़ी विलो' (इंग्लिश विलो और कश्मीर विलो की तर्ज पर)। विकेटों की तो कमी ही नही होती थी। तीन . तीन डंडे तो किसी भी जगह पर उपलब्ध हो जाते थे। कुछ नहीं तो किसी की 'कठगल' (एक साथ रखी गयी ढेर सारी लकड़ियां) से चुपके से दो तीन लकड़ियां खींच ली। अब गेंद की बात कर लें। पहले हम प्लास्टिक गलाकर गेंद बनाते थे। मोम की काली गेंद। कई बार जब वह टन से बल्ले से लगती थी तो पूरा हाथ झनझना जाता था। न पैड, न ग्लब्स, न एल गार्ड न हेलमेट और फिर भी बड़ी बहादुरी से इस काली गेंद का सामना करते थे। बाद में आयी कार्क की बॉल। वह भी माशाअल्ला अगर शरीर पर कहीं लग जाए तो हिस्सा काला पड़ जाता था। फिर भी कार्क की बॉल से खूब क्रिकेट खेली। क्षेत्ररक्षण के लिये कोई नियत स्थान नहीं होते थे। असल में जो ऊपर वाले खेत में पीछे खड़ा है वह तो बल्लेबाज को देख ही नहीं पाता था। अगर आन साइड में पहाड़ी है तो फिर जो शाट किसी समतल मैदान पर मिडविकेट पर आसानी से कैच कर लिया जाता वह वहां छक्का हो जाता था। ऐसे कई छक्के जड़ने वाले वहां कि क्रिकेट की हीरो कहलाते थे।
    इसी तरह से जो नीचे वाले खेतों में खड़े हैं उन क्षेत्ररक्षक महोदय को भी बल्लेबाज की शक्ल या बल्ला नहीं दिखता था। बस शाट पड़ने पर बाकी साथियों के चिल्लाने पर वह समझ जाता था कि गेंद उसकी तरफ आ रही है। थोड़ा हवा में खेले गये कई अच्छे ड्राइव ऐसे खेतों में कैच में तब्दील हो जाते हैं। यह अलग बात थी कि क्रिकेट के कुछ कायदे कानून हमें पता थे और इसलिए हमेशा उन नियमों का सहारा लेकर ही मैच खेलते थे। मैच किसी दूसरे गांव से होते थे। तब 10, 20, 50 या ज्यादा हुआ तो 100 रूपये के मैच खेल लेते थे। बाकायदा क्रिकेट टूर्नामेंट भी हुआ करते थे। उनकी फीस 11, 21, 31 रूपये हुआ करती थी। इनाम में मिलती थी शील्ड या कोई कप।

मेरी प्रिय, मेरी क्रिकेट टीम

    ब मैं बात करता हूं कि स्योली गांव की अपनी क्रिकेट टीम की। पिताजी ने बचपन में ही एक बल्ला ​बना दिया था। यानि पांच छह साल में ही अपुन क्रिकेटर बन गये थे। किशोरावस्था में कदम रखा और फिर बड़े लड़कों की टीम से खेलने लगे। मैं और मेरा चचेरा भाई वीरू (वीरेंद्र पंत) हम दोनों ने अपने से उम्र में 10 . 12 साल बड़े देवेंद्र भैजी, भरतराम भैजी, आनंद भैजी आदि के साथ भी क्रिकेट खेली है। इन लोगों के साथ हम दोनों ने कई बार पारी का आगाज किया। मैं नहीं बता सकता कि हमें पारी की शुरूआत के लिये क्यों भेजा जाता था, क्योंकि गेंद तो पुरानी ही होती थी। अगर गेंद नयी होती तो उसका सामना करने का सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं होता था। देवेंद्र भैजी और भरतराम भैजी दोनों बहुत अच्छी क्रिकेट खेलते थे। दोनों आलराउंडर थे, हां देवेंद्र भैजी की एक आदत मुझे याद है वह ओवर की आखिरी गेंद पर रन लेने के लिये जरूर दौड़ते थे ताकि बल्लेबाजी उनके पास ही रहे। इस चक्कर में कई बार हम जैसे नन्हें क्रिकेटर रन आउट हो जाते थे। इनके बाद महेंद्र ​भैजी, चंद्र प्रकाश भैजी, सतीश भैजी आदि के साथ भी क्रिकेट खेली। सच कहूं तो इनमें से हमारी कोई भी टीम मजबूत नहीं थी। हमारा वही हाल था जो भारतीय क्रिकेट टीम का शुरूआती दिनों में था। बहरहाल इस बीच पहली बार गांव में खरीदा हुआ बल्ला आ गया था। उसे शायद सहारनपुर से खरीदा गया था और तब कहते थे कि उसके ऊपर मछली की खाल चढ़ी हुई है। जो भी हो उसे थोड़ी देर हाथ में पकड़ने पर ही मैंने खुद को धन्य मान लिया था क्योंकि उस बल्ले से खेलने के लिये पांच रूपये अदा करने थे जो मेरी जेब में नहीं थे।
बाण्यूं के खेत। जब इनमें फसल नहीं होती थी
तो यह हमारे लिये लार्ड्स बन जाता था।

बहुत मजबूत थी हमारी टीम

    जब हमारी असल टीम बनी तो वह काफी मजबूत थी। समय बदला और हमारे पास दो तीन बल्ले, पैड, ग्लब्स आदि आ गये और हम लेदर की गेंद से खेलने लगे। एल गार्ड और हेलमेट तब भी हमारे पास नहीं थे। वीरू हमेशा हमारा कप्तान रहा। मैं उसके साथ उप कप्तानी करता था। स्वाभाविक है कि वीरू की गैरमौजूदगी में कप्तानी मुझे मिलती। वीरू बहुत तेज गेंदबाजी करता था डेल स्टेन की तरह। मेरा काम था ओपनर या वनडाउन आकर एक छोर पर विकेट संभाले रखना। कट और ड्राइव प्रिय शाट हुआ करते थे मेरे। गेंदबाजी भी कर लेता था। वीरू चाहता था कि जब वह गेंदबाजी करे तो मैं स्लिप में क्षेत्ररक्षण करूं। मुझे याद है कि एक बार उसने हैट्रिक बनायी और तीनों कैच स्लिप में मैंने लिये थे। असल में 12 . 15 फीट की दूरी पर नीचे वाला खेत लगता था तो बल्लेबाज वहां तक गेंद पहुंचाकर रन चुराने के लिये कट करने की कोशिश करता लेकिन मैं स्लिप में उसे कैच कर लेता। मनोज यानि अनुज पंत जैसा धुरंधर खिलाड़ी था हमारे पास। आज जो महेंद्र सिंह धोनी करता है मनोज अस्सी के दशक में वह सब किया करता था। विकेटकीपर के रूप में उसका कोई सानी नहीं था। पलक झपकते ही स्टंप आउट कर देता था। उसके लंबे और करारे शाट जानदार हुआ करते थे। छक्के जड़ने में वह भी माहिर था। परमानंद कुशल क्षेत्ररक्षक था। शायद ही कभी कोई कैच उससे छूटा होगा, जोंटी रोड्स था वह हमारा। रमेश जुयाल की गेंदों में अच्छी तेजी थी। अब सोचता हूं कि वह अनजाने में कभी कभी स्विंग भी करा लेता था शायद। दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज रमेश हमारे बीच नहीं है। विपिन अच्छा तेज गेंदबाज था। आज इशांत शर्मा को देखकर मुझे विपिन की गेंदबाजी की याद आ जाती है। गजेंद्र मोहन मध्यक्रम संभालता था और मनोज का भाई बिजू वो भी जरूरत पड़ने पर अच्छी लप्पेबाजी करता था। पदमेंद्र (पनैली) हमेशा रफ क्रिकेटर रहा लेकिन कभी उसका बल्ला भी चल जाता था। भक्ति स्पिन करा लेता था तो जयप्रकाश कितनी तेज गेंद हो या बाउंसर शरीर पर झेल लेता था। डाइव लगाते हुए मैंने सबसे पहले जयप्रकाश को ही देखा था। राजेंद्र जुयाल आन साइड पर लंबे शाट जमाने में माहिर था। प्रदीप को आप किसी भी क्रम में बल्लेबाजी के लिये भेज दो वह हमेशा तैयार रहता था। वह जुनूनी क्रिकेटर था। चंद्रमोहन ने जब क्रिकेट में रूचि दिखायी तो उसकी खातिर हम गांव से दूर चढ़ाई चढ़कर उसके पास के खेत (मलखेत) में भी क्रिकेट खेलने गये। इनके अलावा कुछ पुछल्ले बल्लेबाज भी थे। जो गेंदबाजी नहीं करते थे और जरूरत पड़ने पर ही उन्हें बल्लेबाजी का मौका मिलता था लेकिन जीत का जज्बा उनमें भी भरपूर था। इन सबके बीच सर्वज्ञानंद को नहीं भुलाया जा सकता। गजब का जज्बा और जुनून था उनमें। हम सभी से उम्र में काफी बड़े। जब फौज से आते थे तो फिर हमारी क्रिकेट चमक उठती थी। एक और फौजी अशोक पर भी हमें भरोसा रहता था, पर वह वालीबाल अच्छा खेलता था। गांव में जब हमारा करियर अवसान पर था तो बिजेंद्र पंत, योगेश आदि ने क्रिकेट की परपंरा बनाये रखी। मैं राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल की तरफ से भी क्रिकेट खेला। वहां मैं चंद्रप्रकाश पांथरी यानि प्रकाश पांथरी का कायल था। बहुत तेज गेंदबाजी करता था और जमकर रन भी बटोरता था। लटिबौ का ज्ञान सिंह कलात्मक बल्लेबाज था। कई और साथी थे जिनके साथ मैंने क्रिकेट का पूरा आनंद लिया।

हमारे लिये लार्ड्स था बाण्यूं का खेत 

    मैदान की बात करूं तो गांव में हमारे दो प्रिय मैदान हुआ करते थे। बा​ण्यूं (जिसका फोटो यहां दिया गया है) और पंदरैखोली। इसके अलावा जरूरत पड़ने पर कोई भी खेत हमारे लिये मैदान बन जाता था। रौताबूण भी स्कूल के नीचे हमने अपने प्रयासों से एक खेत को समतल करके उसे इस लायक बनाया था कि उसमें 22 गज की पिच और स्लिप और शार्ट कवर के क्षेत्ररक्षक समा सकें। स्कूल के समय में पांथर के ऊपर जंगल में समतल सी जगह थी वहां क्रिकेट खेलते थे। उसे सिपाहिखेत कहते हैं। भेटी गांव में भी चोटी पर कुछ समतल खेत थे लेकिन वहां लंबा शाट मारने पर गेंद खो जाने का डर रहता था। गांव से मीलों दूर सुरखेत में भी कई बार क्रिकेट खेली। तब बल्लेबाजी एक छोर से हुआ करती थी। इसलिए यह कह सकता हूं कि दायें हाथ के बल्लेबाज के लिये वहां आफ साइड में खुला मैदान था।
     आपने भी तो पहाड़ों में ऐसे ही मैदानों पर क्रिकेट खेली होगी। पहाड़ की क्रिकेट से जुड़े अपने कुछ किस्से यहां टिप्पणी वाले कालम में शेयर करना नहीं भूलें। आपका धर्मेन्द्र मोहन पंत .....

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बुधवार, 23 सितंबर 2015

देवभूमि में बलि प्रथा : बोलो ना बाबा ना

      मेरे एक मित्र माधव चतुर्वेदी ने ईद पर दी जाने वाली बकरों की बलि के संदर्भ में बहुत जायज सवाल उठाया है जिसमें इन निरीह जानवरों को उन पर हो रहे अत्याचारों से मुक्ति दिलाने का हल भी छिपा हुआ है। उनका सवाल है ''कुर्बानी क्या प्रतीकात्मक नहीं हो सकती?'' यह बेहद गूढ़ सवाल है जिस पर मैं पहाड़ों में पशु बलि प्रथा के संदर्भ में चर्चा करना चाहूंगा। इस विषय पर पहले भी लंबी बहस होती रही है और इनके कुछ सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं। लेकिन अब भी बलि प्रथा पहाड़ों में चल रही है। जिस उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है, उसके लिये बलि प्रथा किसी कलंक से कम नहीं है। जब भी गांव में अठवाण या पूजा होती थी तो रह रहकर एक सवाल उठता था कि जो ईश्वर सृजन करता है वह उसे मिटाना चाहेगा और जवाब यही मिलता था नहीं। सृजक विनाशक कैसे हो सकता है? जब होश संभाला तो बलि प्रथा का विरोध करना शुरू कर दिया। दो साल पहले गांव पारिवारिक पूजा में भी इसी शर्त पर शामिल हुआ कि किसी पशु की बलि नहीं दी जाएगी और श्रीफल से काम संपन्न हुआ।

श्रीफल एक विकल्प हो सकता है।
      ऊपर जिस प्रतीकात्मक कुर्बानी की बात की गयी है वह यही श्रीफल है। मैंने पिछले साल ही देखा की पौड़ी गढ़वाल के प्रसिद्ध ज्वाल्पा देवी मंदिर में कुछ लोग विरोध के बावजूद बकरों की बलि देते हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि ऐसे 'नासमझ' लोगों की संख्या निरंतर घटती जा रही है और इसका उदाहरण है वहां हर दिन चढ़ाये जाने वाले सैकड़ों श्रीफल। दुख की बात यह है मंदिर प्रशासन अब भी पशु बलि को बढ़ावा दे रहा है। वह चाहे तो इस पर पूर्ण रोक लग सकती है। पौड़ी गढ़वाल के बूखांल मेला और कुमांऊ के कुछ मेलों में हर साल बकरों और भैसों की बलि चढ़ाई जाती थी लेकिन अब सामाजिक संगठनों के प्रयासों और सरकार के कड़े रवैये के कारण इन पर कुछ हद तक रोक लगी है।
     क्या हम हर तरह की पूजा, चाहे वह अठवाण हो, नृकांर की पूजा या फिर मेले, उन्हें श्रीफल से संपन्न नहीं कर सकते हैं? अगर आप वास्तव में अपनी कुल देवी या देवता के प्रति समर्पण भाव और श्रद्धा रखते हैं तो ऐसा संभव है। अगर आपको 'कचबोली' या मांस खाने का ही शौक है तो उसके लिये कम से कम देवी या देवता को बहाना बनाकर उन्हें अपवित्र नहीं करें। यह कहने में हिचक नहीं है कि पहले लोग अज्ञानी थे। शिक्षा का अभाव था और इसलिए यह परंपरा चल पड़ी लेकिन अब तो हर कोई शिक्षित है फिर क्यों अज्ञानी बनने की कोशिश की जा रही है। हमारा धर्म भी हमें जीव हत्या करने की अनुमति नहीं देता है। मैंने इस विषय पर जितना अध्ययन किया मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि हर धर्म बलि मांगता है लेकिन वह काम, क्रोध और अहंकार की बलि मांगता है किसी जीव की नहीं।
बुखांल देवी मंदिर में बलि प्रथा रोकने
के लिये श्री पीताम्बर सिंह रावत का
जिलाधिकारी को लिखा पत्र।
सराहनीय प्रयास।
    पहाड़ों में बलि प्रथा को जागरियों (तांत्रिकों) ने भी बढ़ावा दिया है। असल में दोष उनका भी नहीं हैं क्योंकि उन्होंने परपंरागत रूप से अपनी दादा परदादाओं से जागर और कर्मकांड सीखे। समय के साथ बदलना उन्हें खुद के पेशे के लिये घातक लगा और इसलिए आज भी वे बलि प्रथा की पुरजोर वकालत करने से पीछे नहीं हटते। अब इन जागरियों को यह बताने का समय आ गया है कि बलि देने का कोई धार्मिक आधार नहीं है। ऐसे लोग तर्क देते हैं कि वैदिक काल में भी यज्ञों में पशु बलि दी जाती थी लेकिन सचाई यह है कि ये लोग अपने हित के लिये वेदों में वर्णित शब्दों का गलत अर्थ लगा लेते हैं। वेदों में पांच प्रकार के यज्ञों का वर्णन है और इनमें किसी में भी पशु बलि देने की बात नहीं की गयी है।
      सामवेद में तो एक जगह लिखा गया है '' न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।'' अर्थात हे देवताओ हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं (जिसमें बलि देनी पड़े)। हम वेद मंत्रों के आदेशानुसार आचरण करते हैं।'' यजुर्वेद में भी मानव से यही आह्वान किया गया है कि वह पशु हो या पक्षी या फिर इंसान किसी की भी बलि नहीं दे। यजुर्वेद में एक जगह कहा गया है ....
         ''इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
          त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।''

अर्थात ''उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।।''
    इसी तरह से ऋग्वेद में कहा गया है कि ''मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।'' अर्थात हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।
     अगर आप इस विषय पर आगे शोध करेंगे तो पाएंगे हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रंथ में बलि देने के लिये नहीं कहा गया है। यदि आपको लगता है कि देवी या देवता बलि देकर खुश होंगे तो यह महज आपकी गलतफहमी है। इसका परिणाम उलटा हो सकता है।

धर्मेन्द्र पंत 

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शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

दोण और कंडी से होती है (थी) बेटी की विदाई

      भी कुछ साल पहले की एक फोटो देखी। किसी काम के सिलसिले में पूरा परिवार या कहें कुटुम्ब गांव गया हुआ था। बहनें भी पहुंची थी। जब गांव से विदाई का वक्त करीब आया तो बात आयी कि बहनों के लिये दूण (दोण) और कंडी की। आजकल गांवों में जैसा चलन है वैसा ही किया जाने लगा। दोण के लिये पैसे दे दो और कंडी के बजाय लड्डू या मिठाई खरीदकर सौंप दो। लगभग सभी बहनें दिल्ली में रहती हैं तो फिर दोण या कंडी के बारे में किसी ने ज्यादा सोचना भी उचित नहीं समझा। तभी चाचीजी ने कहा कि दोण तो ठीक है लेकिन अगर 'अरसों की कंडी' बन जाती तो बेहतर होता। उनकी बात में सबको दम लगा और फिर शुरू हो गयी अरसा बनाने की तैयारी। अरसा लाल या हल्के काले रंग का मिष्ठान जिसे चावल के आटे यानि पीठ (पीठू) से बनाया जाता है। इसके बारे में मैं आगे विस्तार से चर्चा करूंगा। 
    
यहां पर तैयार हो रहे हैं अरसा
दोण और कंडी की प्रथा उत्तराखंड में सदियों से चली आ रही है। एक समय था जबकि इनके बिना ​बेटी की विदाई की कल्पना नहीं की जा सकती थी। कमोबेश स्थिति अब भी बहुत ज्यादा नहीं बदली है। बेटी को अब भी विदाई पर दोण या कंडी देने की बात होती है लेकिन अब दोण ना तो दोण रहा और कंडी के नाम को भी बस घसीटा जा रहा है। किसी जमाने में एक पिता के पास बेटी को देने के लिये यदि कुछ होता था तो अनाज और घर में बनायी खाने की सामग्री। इन्हीं ने कालांतर में दोण और कंडी का रूप ले लिया। आप इसे दहेज का एक रूप कह सकते हो और इसलिए यदि 50 . 60 साल पहले की बात होती तो शायद मैं इसका विरोध करने वालों में शामिल होता लेकिन यह हमारी परंपरा है जिससे सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष दोनों जुड़े हुए हैं। बहू घर आएगी तो दोण यानि अनाज लाएगी। यह दोण चावल, गेहूं और यहां तक कि कोदा का भी हो सकता था। कंडी यानि टोकरी में होते थे अरसा, स्वाला (एक तरह की पूड़ी) और भूडा (दाल की पकोड़ी)। ससुराल पहुंचने पर सास के ताने या तारीफ दोण और कंडी के आकार और प्रकार पर निर्भर करते थे।

दोण यानि 32 किलो  

    हले बात करते हैं दोण की। घसेरी में कुछ दिन पहले गांवों में माप, तौल के पैमानों पर चर्चा की गयी थी। इसमें दोण का भी जिक्र हुआ था। एक दोण मतलब 16 पाथा या 32 सेर। (कृपया देखें गांवों में अब भी किलोवाट पर भारी पड़ते हैं सेर, पाथा)। सरल शब्दों में कहें तो एक दोण यानि 32 किलो। बेटी को विदाई के वक्त जब दोण दिया जाता था तो उसमें 16 पाथा या 32 सेर अनाज रखा जाता था। इससे वह दोण बन जाता था। आजकल गांवों में मैंने चलन देखा है कि बाजार से 25 किलो वाली चावल की बोरी खरीदी और उसी को दोण का नाम दे दिया। अगर आप वास्तव में बेटी या बहन का दोण देकर विदा कर रहे हैं तो उसका वजन कम से कम 32 किलो तो होना ही चाहिए। बहन या बेटी के घर किसी कार्य में शामिल होने पर भी दोण साथ में लेकर जाने की प्रथा है। मैं भी पिछले साल भानजे की शादी में गया तो अपने साथ दोण और कंडी ले गया था लेकिन माफ करना मैंने भी सतपुली से 25 किलो वाली चावल की बोरी उठायी थी और दिल्ली से जा रहा था इसलिए लड्डू ले जाना मेरी मजबूरी थी। भविष्य में आप अगर कोशिश करें तो धर्मेन्द्र को सबक सिखाकर 32 किलो का दोण ले जाएं। यदि बेटी के ससुराल वालों को अधिक खुश करना है तो उसका वजन एक मण यानि 40 किलो भी कर दिया जाता था लेकिन नाम इसका दोण ही रहता था। गांव में दोण और कंडी ढोने वाले भी होते थे जिन्हें उनका मेहनतनामा देने का काम ससुराल वालों का होता था। दोण कंडी ले जाने वाले की अच्छी खातिरदारी हुई तो ससुरालियों की बहू के मायके में तारीफ सुनिश्चित हो जाती थी।

लड्डू नहीं अरसों की बनाओ कंडी

    रसा यानि उत्तराखंड का असली मिष्ठान। लड्डू की कंडी तो औपचारिकता है। लड्डू को कंडी में भी कौन ले जाता है। दो, चार, पांच किलो तुलवाये, डिब्बे में रखा और चल दिये। उत्तराखंड के लाला इसलिए आजकल पांच . पांच किलो के मिठाई के डिब्बे भी रखने लगे हैं। उनको पता है कि गांव वाले आलसी और परंपरा से दूर हो गये हैं और कंडी उन्हें तैयार करनी है। असली कंडी तो वही है जो अरसों से भरी हो। बेटी को विदा करना है तो उसमें स्वाला और भूड़ा भी रख दिये जाते थे। कंडी रिंगाल या बांस की बनी टोकरी होती है। यह छोटी, मध्यम और बड़ी आकार की होती है। हम यहां पर जिस कंडी की बात कर रहे हैं उसका आकार बड़ा होता है। यह दोण की सहभागिनी, सहधर्मिणी, सहचारिणी है। असल में कंडी के बिना दोण की कल्पना नहीं की जा सकती है। अब बात करते हैं कंडी के अहम अंग अरसा की। अरसा को उत्तराखंड का पकवान माना जाता है लेकिन दक्षिण भारतीय राज्यों आंध्र प्रदेश, ओड़िशा आदि में धार्मिक कार्यों के अवसर पर इसी तरह का पकवान बनाया जाता है। कहा जाता है कि उत्तराखंड में भी सदियों पहले इन्हीं राज्यों से अरसा का आगमन हुआ था। अरसा बनाना हर किसी के बस की बात नहीं। गांवों में इसको बनाने वाले विशेषज्ञ होते हैं और वही इनको बनाने का काम करते हैं। आज भी शादी से कुछ दिन पहले 'डाली' की प्रचलन है जिसमें अरसा बनते हैं। अब भले ही रंग बिरंगे निमंत्रण पत्र देने का चलन हो लेकिन कभी केवल अरसा भेजकर शादी में शामिल होने के लिये आमंत्रित किया जाता था। खुशी होती है कि अब भी कुछ जगह यह चलन बना हुआ है। अरसा मिलने का ही मतलब यह होता था कि आप शादी में आमंत्रित हैं। इस तरह से यह पकवान उत्तराखंड में काफी महत्व रखता है।

पहले पाग बनाओ फिर अरसा 

     ओ अब घसेरी के साथ अरसा बनाने की कोशिश करते हैं। पहले भी बता दिया गया है कि यह चावल से बनता है। रात को चावल भिगो कर रख देने हैं। सुबह उनसे सारा पानी निकालकर (गढ़वाली में पानी पसाना कहते) उसको ओखली में कूटना है और उसे आटे जैसा बनाना है। गेंहू के आटे की तरह इसको आटा नहीं कहा जाता बल्कि इसको नाम मिला है पीठू या पीठ। यह मोटा नहीं बल्कि बारीक होना चाहिए। यदि मोटा हुआ तो उसे फिर से कूटना पड़ता है। इसके बाद पीठू को आटे जैसे ही चलनी से चालना है। इस बीच दूसरी तैयारियां भी करनी पड़ती हैं। तांबे के बड़े बर्तन में पानी रखकर उसमें भेली यानि गुड़ डालकर उसे पकाना है। कितनी भेली डालनी है यह महत्वपूर्ण है। एक भेली दो किलो की होती है। इस तरह से यदि आपको दो पाथा यानि लगभग चार किलो चावल के अरसा बनाने हैं तो उसके लिये एक भेली पर्याप्त है। बस यही हिसाब है। दस पाथा चावल के लिये पांच भेली या यूं कहें कि दस किलो गुड़ को पकाना है। जब गुड़ पक जायेगा तो उसमें गर्म रहते ही पीठू मिलाना है और उसे हलवा जैसा बना देना है। यह ज्यादा गाढ़ा और ज्यादा पतला भी नहीं होना चाहिए। इसे पाग कहते हैं। ​एक और कढ़ाई में तेल गर्म किया जाता है। जब तेल गर्म हो जाता है तो पाग के पेड़े जैसे या थोड़ा गोलाकार और चपटा आकार (या जिस भी आकार के आपको बनाने हों) के कई हिस्से तैयार करके उन्हें पत्तों में रख देना है। ध्यान रखे कि पत्ते कंदार, तिमला या बट के ही होने चाहिए क्योंकि इसमें पाग चिपकता नहीं है। एक साथ 15 . 20 को तैयार करके फिर उन्हें तेल में पका देना है। हो गये अरसा तैयार। एक ऐसा पकवान जो कई दिनों तक खराब नहीं होता। इसको आप अपने दूरदराज के सगे संबंधियों के लिये भी भेज सकते हैं। (इनपुट श्री रामकृष्ण घिल्डियाल)
     हमने स्वालों की भी बात की थी तो उनको बनाना आसान है। स्वाला भी पूड़ी जैसे ही बनते हैं अंतर इतना है कि गेहूं के आटे को सामान्य पानी से नहीं बल्कि गुड़ के पानी से गूंथा जाता है। पूड़़ी के लिये आटा कसा हुआ रखा जाता है लेकिन स्वाला बनाने के लिये आटा थोड़ा गीला होना चाहिए। इन्हें पूड़ी की तरह बेलकर तेल में तल दिया जाता है। यह हालांकि पूड़ी की तुलना में थोड़ा मोटे होते हैं। स्वालों का भी अपना महत्व है। इन्हें प्रसूता की शुद्धता से जोड़ा जाता है। बच्चे के जन्म के 11वें दिन घर में पूजन होता है और स्वाले बनाये जाते हैं। इन्हें आस पड़ोस और गांव में बांटा जाता है। अगर भूड़ा बनाने हैं तो उसके लिये उड़द की दाल को रात को भिगोकर सुबह पीसना है और उसमें स्वादानुसार नमक मिर्च मिलाकर उन्हें पकोड़ियों की तरह तल देना है। आपका अपना  धर्मेन्द्र पंत...


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गुरुवार, 3 सितंबर 2015

माधोसिंह भंडारी, जो 400 साल पहले बन गये थे दशरथ मांझी

माधोसिंह भंडारी की बनायी सुरंग और गांव में उनकी मूर्ति
   हाड़ को काटकर अपने गांव में सड़क लाने वाले दशरथ मांझी आजकल एक फिल्म के कारण चर्चा में हैं। दशरथ मांझी की जब बात चली तो मुझे अनायास ही माधोसिंह भंडारी याद आ गये जो आज से लगभग 400 साल पहले पहाड़ का सीना चीरकर नदी का पानी अपने गांव लेकर आये थे। गांव में नहर लाने के उनके प्रयास की यह कहानी भी काफी हद तक दशरथ मांझी से मिलती जुलती है। माधोसिंह भंडारी गढ़वाल की कथाओं का अहम अंग रहे हैं। इस महान योद्धा से लोगों का परिचय कराने का 'घसेरी' का यह छोटा सा प्रयास है। योद्धा इसलिए क्योंकि वह माधोसिंह थे कि जिन्होंने ति​ब्बतियों को उनके घर में जाकर छठी का दूध याद दिलाया था तथा भारत और तिब्बत (अब चीन) के बीच सीमा रेखा तय की थी। चलिये तो अब मिलते हैं गढ़वाल के महान सेनापति, योद्धा और कुशल इंजीनियर माधोसिंह भंडारी से, जिनके बारे में गढ़वाल में यह छंद काफी प्रसिद्ध है....
               एक सिंह रैंदो बण, एक सिंह गाय का।
                   एक सिंह माधोसिंह, और सिंह काहे का।।

(यानि एक सिंह वन में रहता है, एक सींग गाय का होता है। एक सिंह माधोसिंह है। इसके अलावा बाकी कोई सिंह नहीं है।)

सौण बाण कालो सिंह का बेटा माधोसिंह 

    माधोसिंह को लेकर कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। इन सबका अध्ययन करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उनका जन्म मलेथा गांव में हुआ था। (कुछ कहानियों में यह भी कहा गया है कि उनकी बहन का विवाह इस गांव में हुआ था जबकि एक किस्सा यह भी कहता है कि मलेथा उनकी ससुराल थी)। मलेथा गांव देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में बसा हुआ है। यह सत्रहवीं सदी के शुरूआती वर्षों यानि 1600 के बाद की बात है जब माधोसिंह का बचपन मलेथा गांव में बीता होगा। उनके पिता का नाम कालो भंडारी था जो स्वयं वीर पुरूष थे। यह कह सकते हैं कि माधोसिंह की रगों में एक योद्धा का खून ही दौड़ रहा था। शुरूआत करते हैं कालो भंडारी से। यह सम्राट अकबर के जमाने की बात है। कहा जाता है कि अकबर, कुमांऊ में चंपावत के राजा गरूड़ ज्ञानचंद और सिरमौर के राजा मौलीचंद की तपोवन के आसपास स्थित उपजाऊ भूमि को लेकर गढ़वाल के राजा मानशाह (1591 से 1610) से ठन गयी थी। ये तीनों इस भूमि में अपना हिस्सा चाहते थे। राजा मानशाह ने उनका आग्रह ठुकरा दिया। दिल्ली दरबार और चंपावत को उनका यह फैसला नागवार गुजरा। दोनों ने युद्धकला में निपुण अपने दो . दो सिपहसालारों को वहां भेज दिया। राजा मानशाह ने कालो भंडारी से मदद मांगी जिन्होंने अकेले ही इन चारों को परास्त किया था। तब राजा ने कालो भंडारी को सौण बाण (स्वर्णिम विजेता) उपाधि दी थी और तब से उनका नाम सौण बाण कालो भंडारी पड़ गया था।
    अब वापस लौटते हैं माधोसिंह भंडारी पर। वह गढ़वाल के राजा महीपत ​शाह के तीन बहादुर सेनापतियों में से एक थे लेकिन इन तीनों (माधोसिंह के अलावा रिखोला लोदी और बनवारी दास) में माधोसिंह ही ऐसे थे जिन्हें गढ़वाल और कुमांऊ के योद्धाओं में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार माधोसिंह ने कुछ समय रानी कर्णावती के साथ भी काम किया था।  कहा जाता है कि एक बार जब वह श्रीनगर दरबार से लगभग पांच मील की दूरी पर स्थित अपने गांव पहुंचे तो उन्हें काफी भूख लगी थी। उन्होंने अपनी पत्नी (एक किस्से के अनुसार भाभी) से खाने देने को कहा तो उन्हें केवल रूखा सूखा खाना दिया गया। जब माधोसिंह ने कारण पूछा तो पत्नी ने ताना दिया कि जब गांव में पानी ही नहीं है तो सब्जियां और अनाज कैसे पैदा होगा? माधोसिंह को यह बात चुभ गयी। रात भर उन्हें नींद नहीं आयी। मलेथा के काफी नीचे अलकनंदा नदी बहती थी जिसका पानी गांव में नहीं लाया जा सकता था। गांव के दाहिनी तरफ छोटी नदी या गदना बहता था जिसे चंद्रभागा नदी कहा जाता है। चंद्रभागा का पानी भी गांव में नहीं लाया जा सकता था क्योंकि बीच में पहाड़ था। माधोसिंह ने इसी पहाड़ के सीने में सुरंग बनाकर पानी गांव लाने की ठानी थी। कहा जाता है कि उन्होंने श्रीनगर दरबार और गांव वालों के सामने भी इसका प्रस्ताव रखा था लेकिन दोनों जगह उनकी खिल्ली उड़ायी गयी थी। आखिर में माधोसिंह अकेले ही सुरंग बनाने के लिये निकल पड़े थे।


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सुरंग बनी पर बेटे की जान गयी 

     माधोसिंह शुरू में अकेले ही सुरंग खोदते रहे लेकिन बाद में गांव के लोग भी उनके साथ जुड़ गये। कहा जाता है कि सुरंग खोदने में लगे लोगों का जोश बनाये रखने के लिये तब गांव की महिलाएं शौर्य रस से भरे गीत गाया करती थी। माधोसिंह की मेहनत आखिर में रंग लायी और सुरंग बनकर तैयार हो गयी। यह सुरंग आज भी इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है और मलेथा गांव के लिये पानी का स्रोत है। इस सुरंग से माधोसिंह के बेटे गजेसिंह का नाम भी जोड़ा जाता है। इसको लेकर दो तरह की कहानियां हैं। पहली कहानी के अनुसार माधोसिंह ने अपनी पत्नी को सख्त हिदायत दे रखी थी कि वह गजेसिंह को उस स्थल पर नहीं आने दे जहां सुरंग खोदी जा रही थी। एक दिन जिद करके गजेसिंह वहां पहुंच गया और पहाड़ से बड़ा सा पत्थर लुढ़ककर उसके सिर पर लगा जिससे उसकी मौत हो गयी। बाद में जब सुरंग में पानी आया तो वह उस जगह तक पहुंचा था जहां पर गजेसिंह की मौत हुई थी। दूसरी कहानी इसके ठीक विपरीत हैं लेकिन इसका जिक्र बहुत कम किस्सों में किया जाता है। कहते हैं कि जब सुरंग बनकर तैयार हो गयी तो काफी प्रयासों के बावजूद भी चंद्रभागा नदी का पानी उसमें नहीं गया। सभी गांववासी परेशान थे। रात को माधोसिंह के सपने में उनकी कुलदेवी प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सुरंग में पानी तभी आएगा जब वह अपने इकलौते बेटे गजेसिंह की बलि देंगे। माधोसिंह हिचकिचा रहे थे लेकिन जब गजेसिंह को पता चला तो वह तैयार हो गया और उसने अपने माता पिता को भी मना लिया। गजेसिंह की बलि दी गयी और पानी सुरंग में बहने लगा।इस दूसरी कहानी के पक्ष में हालांकि कोई ठोस सबूत नहीं है और इसलिए पहला किस्सा ही अधिक मान्य है।
    कहते हैं कि इसके बाद माधोसिंह वापस श्रीनगर आ गये और फिर कभी अपने गांव नहीं लौटे लेकिन उन्होंने गांव को जो सौगात दी उसकी वजह से मलेथा आज भी हरियाली से भरा खुशहाल गांव बना हुआ है।

मौत से पहले तय की थी ​तिब्बत की सीमा

    माधोसिंह को इसके बाद तिब्बती सेना से लड़ने के लिये भेजा गया जो गढ़वाल की तरफ बढ़ रही थी। इसी समय छोटा चीनी युद्ध के दौरान माधोसिंह की मौत हुई थी। इससे पहले हालांकि वह गढ़वाल और तिब्बत (अब भारत और चीन) की सीमा तय कर चुके थे। उनकी मौत को लेकर भी एक किस्सा कहा जाता है जिसका जिक्र महान इतिहासकार पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी ने अपनी पुस्तक 'गढ़वाल का इतिहास' में किया है। कहा जाता था कि तिब्बती सैनिक माधोसिंह के नाम से ही घबराते थे। माधोसिंह ​विजय प्राप्त करते हुए आगे बढ़ रहे थे लेकिन इस बीच रोग लगने से उनका निधन हो गया। अपनी मौत से पहले माधोसिंह ने अपने सेना से कहा कि यदि तिब्बतियों को पता चला कि उनकी मौत हो गयी है तो वे फिर से आक्रमण कर देंगे, इसलिए यह खबर किसी को पता नहीं चलनी चाहिए। पंडित रतूड़ी के अनुसार माधोसिंह ने कहा था, ''लड़ते और पीछे हटते चले जाना और मेरे शव को तेल में भूनकर, कपड़े में लपेट बक्से में बंद करके हरिद्वार ले जाकर दाह करना। ''
    सैनिकों और सरदारों से ऐसा ही किया और हरिद्वार में माधोसिंह का दाह संस्कार करके उसकी सूचना श्रीनगर दरबार को दी। शिवप्रसाद डबराल (उत्तराखंड का इतिहास) और भक्तदर्शन (गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां) ने भी अपनी अपनी किताबों में यह माना है कि माधोसिंह की मौत छोटा चीनी में हुई थी। उनके अनुसार उनकी मौत 1635 में हुई, लेकिन कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध 1640 के बाद लड़ा गया था और माधोसिंह की मौत इसी के बाद हुई थी।
    यह थी गढ़वाल के वीर माधोसिंह की कहानी। आपको भी उनसे जुड़ा कोई किस्सा याद होगा तो जरूर शेयर करें। माधोसिंह से जुड़े कई गीत भी बने हुए हैं। उनको भी नीचे टिप्पणी में साझा करने का निवेदन है। (धर्मेन्द्र पंत)

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