कोदा के खेत और कोदा से बनी रोटी। इसे सब्जी, घी, कई तरह के नमक या दूध किसी के साथ भी खा सकते हैं। |
मैंने बचपन से उसे क्वादू या कोदो कहा। कोदा उसके लिये सही शब्द हो सकता है। अगर आप हिन्दी भाषी हैं तो मैं आपको बता दूं कि मैं 'मंडुआ' की बात कर रहा हूं। बचपन में मेरी आदत थी सुबह नाश्ते में दूध और रात की बनी कोदा की रोटी खाने की। उसका स्वाद अद्भुत होता था। मां को रात को बोलता था, ''मां एक क्वादो कु टिकड़ सुबेर खुणी भि बणै दे''। पिताजी ने एक किस्सा सुनाया था जो आज याद आ रहा है। गढ़वाल राइफल्स में कोई अंग्रेज था। उसे गढ़वाली तो आ गयी थी लेकिन यहां के खानपान के अनभिज्ञ था। एक बार अकेला किसी गांव से गुजर रहा था। भूख लगी तो गांव की एक वृद्ध महिला ने उसे खाने के लिये कोदा की मोटी रोटी और उसके ऊपर ढेर सारा घी दे दिया। अंग्रेज घी खा गया और महिला को यह कहते हुए रोटी वापस कर दी 'लो माताजी आपकी प्लेट''। कहने का मतलब है कि कोदा की रोटी मोटी बनती है और अगर वह बासी है तो कड़क भी बन जाती है। इसी रोटी को दूध के साथ खाने का आनंद मैंने काफी उठाया है। अब भी कोदा की आटा कहीं से मंगाकर महीने में एक दो बार इसकी रोटी खाता हूं। बासी नहीं सादी रोटी। आज कोदा पर लिखने से पहले पत्नी से इसकी रोटी बनवायी। चार रोटी छकने के बाद लिख रहा हूं कोदा की कहानी।
कहा जाता है है कोदा यानि मंडुआ का मूल निवास अफ्रीका महाद्वीप है। मतलब सबसे पहले इसकी खेती अफ्रीका में की गयी और लगभग 3000 से 4000 वर्ष पहले यह भारत आया था। हड़प्पा की खुदाई में भी पता चला कि उस समय के निवासी भी कोदा की खेती करते थे। बाद में पहाड़ और पहाड़ी जीवन का अहम हिस्सा बन गया। इसे 2000 से 3000 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जा सकता है। पिछले दिनों एक भाई ने बताया कि पहाड़ी लोगों का कोदा से मोहभंग हो रहा है। इसकी खेती कम की जा रही है। मैं खुद पलायनवादी, जो पहाड़ छोड़कर दिल्ली भाग आया, किसी को भी उपदेश देने का हक नहीं रखता हूं लेकिन सच कहूं तो कोदा के बारे में सुनकर अच्छा नहीं लगा। यह कोदा हमारी संस्कृति, खानपान का अहम हिस्सा रहा है। यदि पहाड़ी हट्टे कट्ठे मजबूत होते हैं तो उसका काफी श्रेय कोदा को जाता है। गुणों की खान है कोदा। इसलिए इसे अनाजों का राजा भी कहते हैं। इसके दाने काले या राई के रंग के होते हैं और इसलिए इसकी रोटियां भी काली, भूरे रंग की होती हैं। यह ऐसा अनाज है जिस पर कीड़ा नहीं लगता और इसे लंबे समय तक रखा जा सकता है।
कोदा की बुवाई मई जून में की जाती है। इसकी खेती के लिये बहुत उपजाऊ जमीन और बहुत अधिक पानी की जरूरत नहीं होती है। जब सीढ़ीनुमा खेतों में कोदा की बुवाई होती है तो मस्त धूल उड़ती रहती है। गेंहूं की बुवाई के लिये जहां हल बहुत ध्यान रखकर चलाना पड़ता है वहीं कोदा की बुवाई में 'डामर' भी पड़ जाए तो चिंता नहीं। मैंने भी हल चलाया है और सच कहूं तो मुझे सबसे ज्यादा मजा कोदा की बुवाई करने में ही आया।
बरसात आने पर कोदा की निराई गुड़ाई का काम शुरू हो जाता है। कोदा को छांट . छांटकर खेत की मेढ़ पर लगाने में सुख की अनुभूति होती थी क्योंकि इसका पौधा कहीं पर कैसे भी रोप दिया जाए वह जिंदगी से हार नहीं मानता है। अक्तूबर . नवंबर में इसकी फसल तैयार हो जाती है। पौधे के ऊपर का अनाज निकालकर इकट्ठा करके घर के एक कोने पर रख देते हैं और निचला वाला हिस्सा पशुओं के खाने के लिये एकत्रित कर देते हैं। बाद में खलिहान में ले जाकर इसके छोटे . छोटे दाने अलग कर दिये जाते हैं। बस फिर आटा तैयार कीजिए और फिर रोटी बनाईये, बाड़ी या फिर पल्यो। आपका शरीर भी इसका सेवन करके आपको दुआ देगा।
गुणों की खान है कोदा
बचपन में मां से सुना है कि अगर हम लोग पहाड़ी चढ़ लेते हैं तो इसका श्रेय कोदा को जाता है। कोदा खाने से हड्डी मजबूत बनती हैं और इसका सेवन करने वाला ताकतवर बनता है। ऐसा कहकर वह हमें कोदा खाने के लिये प्रेरित करती थी। कोदा बच्चों से लेकर वृद्धजनों तक सभी के लिये समान रूप से उपयोगी है। जापान में तो इससे शिशुओं के लिये खास तौर पर पौष्टिक आहार तैयार किया जाता है। उत्तराखंड सरकार ने भी सरकारी अस्पतालों में मरीजों को कोदा के बने व्यंजन देने की व्यवस्था की थी। कहने का मतलब यह है कि कोदा को छह माह के बच्चे से लेकर गर्भवती महिलाओं, बीमार व्यक्तियों और वृद्धजनों तक सभी को दिया जा सकता है। इससे उन्हें फायदा ही होगा।
कोदा कैल्सियम, फासफोरस, आयोडीन, विटामिन बी, लौह तत्वों से भरपूर होता है। इसमें चावल की तुलना में 34 गुना और गेंहू की तुलना में नौ गुना अधिक कैल्सियम पाया जाता है। प्रति 100 ग्राम कोदा में प्रोटीन 7.6 ग्राम, वसा 1.6 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 76.3 ग्राम, कैल्सियम 370 मिग्रा, खनिज पदार्थ 2.2 ग्राम, लौह अयस्क 5.4 ग्राम पाया जाता है। इसके अलावा इसमें फास्फोरस, विटामिन ए, विटामिन बी.1 यानि थियामाइन, विटामिन बी.2 यानि रिबोफ्लेविन, विटामिन बी.3 यानि नियासिन, फाइबर, गंधक और जिंक आदि भी पाया जाता है।
कोदा कैल्सियम, फासफोरस, आयोडीन, विटामिन बी, लौह तत्वों से भरपूर होता है। इसमें चावल की तुलना में 34 गुना और गेंहू की तुलना में नौ गुना अधिक कैल्सियम पाया जाता है। प्रति 100 ग्राम कोदा में प्रोटीन 7.6 ग्राम, वसा 1.6 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 76.3 ग्राम, कैल्सियम 370 मिग्रा, खनिज पदार्थ 2.2 ग्राम, लौह अयस्क 5.4 ग्राम पाया जाता है। इसके अलावा इसमें फास्फोरस, विटामिन ए, विटामिन बी.1 यानि थियामाइन, विटामिन बी.2 यानि रिबोफ्लेविन, विटामिन बी.3 यानि नियासिन, फाइबर, गंधक और जिंक आदि भी पाया जाता है।
कैल्सियम और फास्फोरस हड्डियों और दांतों को मजबूत करते हैं। इसमें कैल्सियम और फास्फोरस उचित अनुपात में होने के कारण यह बढ़ते बच्चों के लिये बेहद लाभकारी होता है। मधुमेह के रोगियों के लिये तो कोदा वरदान साबित हो सकता है। इसमें पाये जाने वाले काबोहाइड्रेट जटिल किस्म के होते हैं जिनका पाचन धीरे धीरे होता है और ऐसे में ये रक्त में शर्करा की मात्रा को संतुलित बनाये रखते हैं। हृदय रोगियों के लिये भी यह बहुत अच्छा भोजन है। कोदा से ब्लड प्रेशर को संतुलित करने में भी मदद मिलती है। इसके सेवन से खून में हानिकारक चर्बी घट जाती है और लाभकारी चर्बी बढ़ जाती है। फाइबर अधिक होने के कारण भी इसका खाने से कोलस्ट्राल कम करने में मदद मिलती है। इससे बवासीर के रोगियों को भी फायदा होता है। क्षारीय अनाज होने के कारण कोदा का नियमित सेवन करने वाले व्यक्ति को अल्सर नहीं होता है। अल्सर के रोगियों को कोदा के बने भोजन का नियमित सेवन कराने से लाभ मिलता है। लौह अयस्क होने के कारण कोदा खून की कमी भी दूर करता है। आपने चिकित्सकों के मुंह से अक्सर सुना होगा कि पहाड़ी लोगों का हीमोग्लोबिन काफी अधिक होता है। उसका कारण कोदा ही है। इसके सेवन करने वाले को कभी एनीमिया नहीं हो सकता। यहां तक कि यह कैंसर जैसे रोग की रोकथाम में लाभकारी है। यहीं नहीं इससे जल्दी बुढ़ापा नहीं आता। चेहरे पर झुरियां देर से पड़ती हैं।
इसलिए मेरा सभी पहाड़ियों से विनम्र निवेदन है कि गेंहूं उगाओ या नहीं लेकिन कोदा जरूर उगाओ और रोज उसका सेवन करो। हमारा सौभाग्य नहीं है कि हम रोज कोदे की रोटी या बाड़ी खा सकें लेकिन जिन्हें यह नसीब हो रहा है वे इससे मुंह न फेरें। कोदा हम पहाड़ियों के लिये अमृत है। कोदा पर आपकी जानकारियों के इंतजार में आपका धर्मेन्द्र पंत।
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Bahut he labhkari laikh. Dil se dhanyawad. Kwade ka prachalan aj bhi hamare ghar per hai. Sardiyo mai khaskar. Maire 9 mahine ke betiya bhi pura din is roti ke tukde ko lekar pure ghar mai ghumti rehti hai.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भारती। बच्चों के लिये यह बेहद उपयोगी है। कोदो और गेंहूं को मिलाकर रोटी बनाना आसान होता है। यह भी उतनी ही पौष्टिक होती है। इसमें कोदा की मात्रा ज्यादा रखी जा सकती है। अगर संभव हो तो बच्चों को बिस्कुट और हार्लिक्स आदि के बजाय कोदा से बना भोजन देना चाहिए।
हटाएंBilkul thik bwal Pantji..
जवाब देंहटाएंYakh Dilli ma jab bhi mauka milad kakhi bate Koda ki roti khanu ku, maja hi ai jand.
Pramod Thapliyal
प्रमोद जी दिल्ली म कुछ स्टोर छिन जख रागी कु आटा का नाम से कोदो कु आटु मिल जांद। एक एक किलो क पैकेट म मिल्द। हर मैना मी भि कुछ पैकेट लेकी आ जांदू। आप थै लेख अच्छु लग धन्यवाद।
हटाएंGood one .
जवाब देंहटाएंmai v avi ghaur gye chou 15 kg koudu leki tye yakh chandigarh ma piswe . bchpan ma ni khanda cha hum pr ab trsana cha ...so useful for health
जवाब देंहटाएंबहुत खूब। कभी 15 किलो 15 दिन में समाप्त हो जाता है लेकिन अब यह अमूल्य है। गांवों में रहने वाले लोगों को सलाह दीजिए कि वे कोदा की खेती करते रहें। उसे छोड़ें नहीं।
हटाएंबहुत अच्छा लेख है धर्मेन्द्र जी। आप ही की तरह हम भी पलायनवादी होकर जयपुर में बैठे हैं। हमारे यहाँ इसे मडुआ ही बोलते हैं। आज हमें तथा हमारी सरकार को भी जरूरत है कि हम इन महत्वपूर्ण अनाजों का उत्पाद बढायें। इसे विलुप्त होने से बचाए। मडुआ जैसे गुणकारी अनाज को अगर आज हमने नहीं बचाया तो, यकीन मानिये कल को कोई और इसी चीज को हमें महंगे दामों में बेचेगा। शायद तब हमें इसका असली मूल्य चुकाना पड़ेगा, ऐसा ना हो इसलिए हमें अभी से इसका संरक्षण करके चलना होगा तथा इसकी खेती को बढ़ाना होगा।
जवाब देंहटाएंसही कहा प्रेम प्रकाश जी। दिक्कत यह है कि अब गांवों में लोगों ने कोदा की खेती करनी बंद कर दी है। अगर गांवों में भी लोग कोदा खरीद कर खा रहे हैं तो आप स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं। हम तो ठहरे पलायनवादी बस लिख सकते हैं। लोगों को उपदेश देने का अधिकार तो हम वर्षों पहले खो चुके थे।
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