बुधवार, 23 सितंबर 2015

देवभूमि में बलि प्रथा : बोलो ना बाबा ना

      मेरे एक मित्र माधव चतुर्वेदी ने ईद पर दी जाने वाली बकरों की बलि के संदर्भ में बहुत जायज सवाल उठाया है जिसमें इन निरीह जानवरों को उन पर हो रहे अत्याचारों से मुक्ति दिलाने का हल भी छिपा हुआ है। उनका सवाल है ''कुर्बानी क्या प्रतीकात्मक नहीं हो सकती?'' यह बेहद गूढ़ सवाल है जिस पर मैं पहाड़ों में पशु बलि प्रथा के संदर्भ में चर्चा करना चाहूंगा। इस विषय पर पहले भी लंबी बहस होती रही है और इनके कुछ सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं। लेकिन अब भी बलि प्रथा पहाड़ों में चल रही है। जिस उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है, उसके लिये बलि प्रथा किसी कलंक से कम नहीं है। जब भी गांव में अठवाण या पूजा होती थी तो रह रहकर एक सवाल उठता था कि जो ईश्वर सृजन करता है वह उसे मिटाना चाहेगा और जवाब यही मिलता था नहीं। सृजक विनाशक कैसे हो सकता है? जब होश संभाला तो बलि प्रथा का विरोध करना शुरू कर दिया। दो साल पहले गांव पारिवारिक पूजा में भी इसी शर्त पर शामिल हुआ कि किसी पशु की बलि नहीं दी जाएगी और श्रीफल से काम संपन्न हुआ।

श्रीफल एक विकल्प हो सकता है।
      ऊपर जिस प्रतीकात्मक कुर्बानी की बात की गयी है वह यही श्रीफल है। मैंने पिछले साल ही देखा की पौड़ी गढ़वाल के प्रसिद्ध ज्वाल्पा देवी मंदिर में कुछ लोग विरोध के बावजूद बकरों की बलि देते हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि ऐसे 'नासमझ' लोगों की संख्या निरंतर घटती जा रही है और इसका उदाहरण है वहां हर दिन चढ़ाये जाने वाले सैकड़ों श्रीफल। दुख की बात यह है मंदिर प्रशासन अब भी पशु बलि को बढ़ावा दे रहा है। वह चाहे तो इस पर पूर्ण रोक लग सकती है। पौड़ी गढ़वाल के बूखांल मेला और कुमांऊ के कुछ मेलों में हर साल बकरों और भैसों की बलि चढ़ाई जाती थी लेकिन अब सामाजिक संगठनों के प्रयासों और सरकार के कड़े रवैये के कारण इन पर कुछ हद तक रोक लगी है।
     क्या हम हर तरह की पूजा, चाहे वह अठवाण हो, नृकांर की पूजा या फिर मेले, उन्हें श्रीफल से संपन्न नहीं कर सकते हैं? अगर आप वास्तव में अपनी कुल देवी या देवता के प्रति समर्पण भाव और श्रद्धा रखते हैं तो ऐसा संभव है। अगर आपको 'कचबोली' या मांस खाने का ही शौक है तो उसके लिये कम से कम देवी या देवता को बहाना बनाकर उन्हें अपवित्र नहीं करें। यह कहने में हिचक नहीं है कि पहले लोग अज्ञानी थे। शिक्षा का अभाव था और इसलिए यह परंपरा चल पड़ी लेकिन अब तो हर कोई शिक्षित है फिर क्यों अज्ञानी बनने की कोशिश की जा रही है। हमारा धर्म भी हमें जीव हत्या करने की अनुमति नहीं देता है। मैंने इस विषय पर जितना अध्ययन किया मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि हर धर्म बलि मांगता है लेकिन वह काम, क्रोध और अहंकार की बलि मांगता है किसी जीव की नहीं।
बुखांल देवी मंदिर में बलि प्रथा रोकने
के लिये श्री पीताम्बर सिंह रावत का
जिलाधिकारी को लिखा पत्र।
सराहनीय प्रयास।
    पहाड़ों में बलि प्रथा को जागरियों (तांत्रिकों) ने भी बढ़ावा दिया है। असल में दोष उनका भी नहीं हैं क्योंकि उन्होंने परपंरागत रूप से अपनी दादा परदादाओं से जागर और कर्मकांड सीखे। समय के साथ बदलना उन्हें खुद के पेशे के लिये घातक लगा और इसलिए आज भी वे बलि प्रथा की पुरजोर वकालत करने से पीछे नहीं हटते। अब इन जागरियों को यह बताने का समय आ गया है कि बलि देने का कोई धार्मिक आधार नहीं है। ऐसे लोग तर्क देते हैं कि वैदिक काल में भी यज्ञों में पशु बलि दी जाती थी लेकिन सचाई यह है कि ये लोग अपने हित के लिये वेदों में वर्णित शब्दों का गलत अर्थ लगा लेते हैं। वेदों में पांच प्रकार के यज्ञों का वर्णन है और इनमें किसी में भी पशु बलि देने की बात नहीं की गयी है।
      सामवेद में तो एक जगह लिखा गया है '' न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।'' अर्थात हे देवताओ हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं (जिसमें बलि देनी पड़े)। हम वेद मंत्रों के आदेशानुसार आचरण करते हैं।'' यजुर्वेद में भी मानव से यही आह्वान किया गया है कि वह पशु हो या पक्षी या फिर इंसान किसी की भी बलि नहीं दे। यजुर्वेद में एक जगह कहा गया है ....
         ''इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
          त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।''

अर्थात ''उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।।''
    इसी तरह से ऋग्वेद में कहा गया है कि ''मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।'' अर्थात हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।
     अगर आप इस विषय पर आगे शोध करेंगे तो पाएंगे हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रंथ में बलि देने के लिये नहीं कहा गया है। यदि आपको लगता है कि देवी या देवता बलि देकर खुश होंगे तो यह महज आपकी गलतफहमी है। इसका परिणाम उलटा हो सकता है।

धर्मेन्द्र पंत 

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शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

दोण और कंडी से होती है (थी) बेटी की विदाई

      भी कुछ साल पहले की एक फोटो देखी। किसी काम के सिलसिले में पूरा परिवार या कहें कुटुम्ब गांव गया हुआ था। बहनें भी पहुंची थी। जब गांव से विदाई का वक्त करीब आया तो बात आयी कि बहनों के लिये दूण (दोण) और कंडी की। आजकल गांवों में जैसा चलन है वैसा ही किया जाने लगा। दोण के लिये पैसे दे दो और कंडी के बजाय लड्डू या मिठाई खरीदकर सौंप दो। लगभग सभी बहनें दिल्ली में रहती हैं तो फिर दोण या कंडी के बारे में किसी ने ज्यादा सोचना भी उचित नहीं समझा। तभी चाचीजी ने कहा कि दोण तो ठीक है लेकिन अगर 'अरसों की कंडी' बन जाती तो बेहतर होता। उनकी बात में सबको दम लगा और फिर शुरू हो गयी अरसा बनाने की तैयारी। अरसा लाल या हल्के काले रंग का मिष्ठान जिसे चावल के आटे यानि पीठ (पीठू) से बनाया जाता है। इसके बारे में मैं आगे विस्तार से चर्चा करूंगा। 
    
यहां पर तैयार हो रहे हैं अरसा
दोण और कंडी की प्रथा उत्तराखंड में सदियों से चली आ रही है। एक समय था जबकि इनके बिना ​बेटी की विदाई की कल्पना नहीं की जा सकती थी। कमोबेश स्थिति अब भी बहुत ज्यादा नहीं बदली है। बेटी को अब भी विदाई पर दोण या कंडी देने की बात होती है लेकिन अब दोण ना तो दोण रहा और कंडी के नाम को भी बस घसीटा जा रहा है। किसी जमाने में एक पिता के पास बेटी को देने के लिये यदि कुछ होता था तो अनाज और घर में बनायी खाने की सामग्री। इन्हीं ने कालांतर में दोण और कंडी का रूप ले लिया। आप इसे दहेज का एक रूप कह सकते हो और इसलिए यदि 50 . 60 साल पहले की बात होती तो शायद मैं इसका विरोध करने वालों में शामिल होता लेकिन यह हमारी परंपरा है जिससे सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष दोनों जुड़े हुए हैं। बहू घर आएगी तो दोण यानि अनाज लाएगी। यह दोण चावल, गेहूं और यहां तक कि कोदा का भी हो सकता था। कंडी यानि टोकरी में होते थे अरसा, स्वाला (एक तरह की पूड़ी) और भूडा (दाल की पकोड़ी)। ससुराल पहुंचने पर सास के ताने या तारीफ दोण और कंडी के आकार और प्रकार पर निर्भर करते थे।

दोण यानि 32 किलो  

    हले बात करते हैं दोण की। घसेरी में कुछ दिन पहले गांवों में माप, तौल के पैमानों पर चर्चा की गयी थी। इसमें दोण का भी जिक्र हुआ था। एक दोण मतलब 16 पाथा या 32 सेर। (कृपया देखें गांवों में अब भी किलोवाट पर भारी पड़ते हैं सेर, पाथा)। सरल शब्दों में कहें तो एक दोण यानि 32 किलो। बेटी को विदाई के वक्त जब दोण दिया जाता था तो उसमें 16 पाथा या 32 सेर अनाज रखा जाता था। इससे वह दोण बन जाता था। आजकल गांवों में मैंने चलन देखा है कि बाजार से 25 किलो वाली चावल की बोरी खरीदी और उसी को दोण का नाम दे दिया। अगर आप वास्तव में बेटी या बहन का दोण देकर विदा कर रहे हैं तो उसका वजन कम से कम 32 किलो तो होना ही चाहिए। बहन या बेटी के घर किसी कार्य में शामिल होने पर भी दोण साथ में लेकर जाने की प्रथा है। मैं भी पिछले साल भानजे की शादी में गया तो अपने साथ दोण और कंडी ले गया था लेकिन माफ करना मैंने भी सतपुली से 25 किलो वाली चावल की बोरी उठायी थी और दिल्ली से जा रहा था इसलिए लड्डू ले जाना मेरी मजबूरी थी। भविष्य में आप अगर कोशिश करें तो धर्मेन्द्र को सबक सिखाकर 32 किलो का दोण ले जाएं। यदि बेटी के ससुराल वालों को अधिक खुश करना है तो उसका वजन एक मण यानि 40 किलो भी कर दिया जाता था लेकिन नाम इसका दोण ही रहता था। गांव में दोण और कंडी ढोने वाले भी होते थे जिन्हें उनका मेहनतनामा देने का काम ससुराल वालों का होता था। दोण कंडी ले जाने वाले की अच्छी खातिरदारी हुई तो ससुरालियों की बहू के मायके में तारीफ सुनिश्चित हो जाती थी।

लड्डू नहीं अरसों की बनाओ कंडी

    रसा यानि उत्तराखंड का असली मिष्ठान। लड्डू की कंडी तो औपचारिकता है। लड्डू को कंडी में भी कौन ले जाता है। दो, चार, पांच किलो तुलवाये, डिब्बे में रखा और चल दिये। उत्तराखंड के लाला इसलिए आजकल पांच . पांच किलो के मिठाई के डिब्बे भी रखने लगे हैं। उनको पता है कि गांव वाले आलसी और परंपरा से दूर हो गये हैं और कंडी उन्हें तैयार करनी है। असली कंडी तो वही है जो अरसों से भरी हो। बेटी को विदा करना है तो उसमें स्वाला और भूड़ा भी रख दिये जाते थे। कंडी रिंगाल या बांस की बनी टोकरी होती है। यह छोटी, मध्यम और बड़ी आकार की होती है। हम यहां पर जिस कंडी की बात कर रहे हैं उसका आकार बड़ा होता है। यह दोण की सहभागिनी, सहधर्मिणी, सहचारिणी है। असल में कंडी के बिना दोण की कल्पना नहीं की जा सकती है। अब बात करते हैं कंडी के अहम अंग अरसा की। अरसा को उत्तराखंड का पकवान माना जाता है लेकिन दक्षिण भारतीय राज्यों आंध्र प्रदेश, ओड़िशा आदि में धार्मिक कार्यों के अवसर पर इसी तरह का पकवान बनाया जाता है। कहा जाता है कि उत्तराखंड में भी सदियों पहले इन्हीं राज्यों से अरसा का आगमन हुआ था। अरसा बनाना हर किसी के बस की बात नहीं। गांवों में इसको बनाने वाले विशेषज्ञ होते हैं और वही इनको बनाने का काम करते हैं। आज भी शादी से कुछ दिन पहले 'डाली' की प्रचलन है जिसमें अरसा बनते हैं। अब भले ही रंग बिरंगे निमंत्रण पत्र देने का चलन हो लेकिन कभी केवल अरसा भेजकर शादी में शामिल होने के लिये आमंत्रित किया जाता था। खुशी होती है कि अब भी कुछ जगह यह चलन बना हुआ है। अरसा मिलने का ही मतलब यह होता था कि आप शादी में आमंत्रित हैं। इस तरह से यह पकवान उत्तराखंड में काफी महत्व रखता है।

पहले पाग बनाओ फिर अरसा 

     ओ अब घसेरी के साथ अरसा बनाने की कोशिश करते हैं। पहले भी बता दिया गया है कि यह चावल से बनता है। रात को चावल भिगो कर रख देने हैं। सुबह उनसे सारा पानी निकालकर (गढ़वाली में पानी पसाना कहते) उसको ओखली में कूटना है और उसे आटे जैसा बनाना है। गेंहू के आटे की तरह इसको आटा नहीं कहा जाता बल्कि इसको नाम मिला है पीठू या पीठ। यह मोटा नहीं बल्कि बारीक होना चाहिए। यदि मोटा हुआ तो उसे फिर से कूटना पड़ता है। इसके बाद पीठू को आटे जैसे ही चलनी से चालना है। इस बीच दूसरी तैयारियां भी करनी पड़ती हैं। तांबे के बड़े बर्तन में पानी रखकर उसमें भेली यानि गुड़ डालकर उसे पकाना है। कितनी भेली डालनी है यह महत्वपूर्ण है। एक भेली दो किलो की होती है। इस तरह से यदि आपको दो पाथा यानि लगभग चार किलो चावल के अरसा बनाने हैं तो उसके लिये एक भेली पर्याप्त है। बस यही हिसाब है। दस पाथा चावल के लिये पांच भेली या यूं कहें कि दस किलो गुड़ को पकाना है। जब गुड़ पक जायेगा तो उसमें गर्म रहते ही पीठू मिलाना है और उसे हलवा जैसा बना देना है। यह ज्यादा गाढ़ा और ज्यादा पतला भी नहीं होना चाहिए। इसे पाग कहते हैं। ​एक और कढ़ाई में तेल गर्म किया जाता है। जब तेल गर्म हो जाता है तो पाग के पेड़े जैसे या थोड़ा गोलाकार और चपटा आकार (या जिस भी आकार के आपको बनाने हों) के कई हिस्से तैयार करके उन्हें पत्तों में रख देना है। ध्यान रखे कि पत्ते कंदार, तिमला या बट के ही होने चाहिए क्योंकि इसमें पाग चिपकता नहीं है। एक साथ 15 . 20 को तैयार करके फिर उन्हें तेल में पका देना है। हो गये अरसा तैयार। एक ऐसा पकवान जो कई दिनों तक खराब नहीं होता। इसको आप अपने दूरदराज के सगे संबंधियों के लिये भी भेज सकते हैं। (इनपुट श्री रामकृष्ण घिल्डियाल)
     हमने स्वालों की भी बात की थी तो उनको बनाना आसान है। स्वाला भी पूड़ी जैसे ही बनते हैं अंतर इतना है कि गेहूं के आटे को सामान्य पानी से नहीं बल्कि गुड़ के पानी से गूंथा जाता है। पूड़़ी के लिये आटा कसा हुआ रखा जाता है लेकिन स्वाला बनाने के लिये आटा थोड़ा गीला होना चाहिए। इन्हें पूड़ी की तरह बेलकर तेल में तल दिया जाता है। यह हालांकि पूड़ी की तुलना में थोड़ा मोटे होते हैं। स्वालों का भी अपना महत्व है। इन्हें प्रसूता की शुद्धता से जोड़ा जाता है। बच्चे के जन्म के 11वें दिन घर में पूजन होता है और स्वाले बनाये जाते हैं। इन्हें आस पड़ोस और गांव में बांटा जाता है। अगर भूड़ा बनाने हैं तो उसके लिये उड़द की दाल को रात को भिगोकर सुबह पीसना है और उसमें स्वादानुसार नमक मिर्च मिलाकर उन्हें पकोड़ियों की तरह तल देना है। आपका अपना  धर्मेन्द्र पंत...


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गुरुवार, 3 सितंबर 2015

माधोसिंह भंडारी, जो 400 साल पहले बन गये थे दशरथ मांझी

माधोसिंह भंडारी की बनायी सुरंग और गांव में उनकी मूर्ति
   हाड़ को काटकर अपने गांव में सड़क लाने वाले दशरथ मांझी आजकल एक फिल्म के कारण चर्चा में हैं। दशरथ मांझी की जब बात चली तो मुझे अनायास ही माधोसिंह भंडारी याद आ गये जो आज से लगभग 400 साल पहले पहाड़ का सीना चीरकर नदी का पानी अपने गांव लेकर आये थे। गांव में नहर लाने के उनके प्रयास की यह कहानी भी काफी हद तक दशरथ मांझी से मिलती जुलती है। माधोसिंह भंडारी गढ़वाल की कथाओं का अहम अंग रहे हैं। इस महान योद्धा से लोगों का परिचय कराने का 'घसेरी' का यह छोटा सा प्रयास है। योद्धा इसलिए क्योंकि वह माधोसिंह थे कि जिन्होंने ति​ब्बतियों को उनके घर में जाकर छठी का दूध याद दिलाया था तथा भारत और तिब्बत (अब चीन) के बीच सीमा रेखा तय की थी। चलिये तो अब मिलते हैं गढ़वाल के महान सेनापति, योद्धा और कुशल इंजीनियर माधोसिंह भंडारी से, जिनके बारे में गढ़वाल में यह छंद काफी प्रसिद्ध है....
               एक सिंह रैंदो बण, एक सिंह गाय का।
                   एक सिंह माधोसिंह, और सिंह काहे का।।

(यानि एक सिंह वन में रहता है, एक सींग गाय का होता है। एक सिंह माधोसिंह है। इसके अलावा बाकी कोई सिंह नहीं है।)

सौण बाण कालो सिंह का बेटा माधोसिंह 

    माधोसिंह को लेकर कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। इन सबका अध्ययन करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उनका जन्म मलेथा गांव में हुआ था। (कुछ कहानियों में यह भी कहा गया है कि उनकी बहन का विवाह इस गांव में हुआ था जबकि एक किस्सा यह भी कहता है कि मलेथा उनकी ससुराल थी)। मलेथा गांव देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में बसा हुआ है। यह सत्रहवीं सदी के शुरूआती वर्षों यानि 1600 के बाद की बात है जब माधोसिंह का बचपन मलेथा गांव में बीता होगा। उनके पिता का नाम कालो भंडारी था जो स्वयं वीर पुरूष थे। यह कह सकते हैं कि माधोसिंह की रगों में एक योद्धा का खून ही दौड़ रहा था। शुरूआत करते हैं कालो भंडारी से। यह सम्राट अकबर के जमाने की बात है। कहा जाता है कि अकबर, कुमांऊ में चंपावत के राजा गरूड़ ज्ञानचंद और सिरमौर के राजा मौलीचंद की तपोवन के आसपास स्थित उपजाऊ भूमि को लेकर गढ़वाल के राजा मानशाह (1591 से 1610) से ठन गयी थी। ये तीनों इस भूमि में अपना हिस्सा चाहते थे। राजा मानशाह ने उनका आग्रह ठुकरा दिया। दिल्ली दरबार और चंपावत को उनका यह फैसला नागवार गुजरा। दोनों ने युद्धकला में निपुण अपने दो . दो सिपहसालारों को वहां भेज दिया। राजा मानशाह ने कालो भंडारी से मदद मांगी जिन्होंने अकेले ही इन चारों को परास्त किया था। तब राजा ने कालो भंडारी को सौण बाण (स्वर्णिम विजेता) उपाधि दी थी और तब से उनका नाम सौण बाण कालो भंडारी पड़ गया था।
    अब वापस लौटते हैं माधोसिंह भंडारी पर। वह गढ़वाल के राजा महीपत ​शाह के तीन बहादुर सेनापतियों में से एक थे लेकिन इन तीनों (माधोसिंह के अलावा रिखोला लोदी और बनवारी दास) में माधोसिंह ही ऐसे थे जिन्हें गढ़वाल और कुमांऊ के योद्धाओं में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार माधोसिंह ने कुछ समय रानी कर्णावती के साथ भी काम किया था।  कहा जाता है कि एक बार जब वह श्रीनगर दरबार से लगभग पांच मील की दूरी पर स्थित अपने गांव पहुंचे तो उन्हें काफी भूख लगी थी। उन्होंने अपनी पत्नी (एक किस्से के अनुसार भाभी) से खाने देने को कहा तो उन्हें केवल रूखा सूखा खाना दिया गया। जब माधोसिंह ने कारण पूछा तो पत्नी ने ताना दिया कि जब गांव में पानी ही नहीं है तो सब्जियां और अनाज कैसे पैदा होगा? माधोसिंह को यह बात चुभ गयी। रात भर उन्हें नींद नहीं आयी। मलेथा के काफी नीचे अलकनंदा नदी बहती थी जिसका पानी गांव में नहीं लाया जा सकता था। गांव के दाहिनी तरफ छोटी नदी या गदना बहता था जिसे चंद्रभागा नदी कहा जाता है। चंद्रभागा का पानी भी गांव में नहीं लाया जा सकता था क्योंकि बीच में पहाड़ था। माधोसिंह ने इसी पहाड़ के सीने में सुरंग बनाकर पानी गांव लाने की ठानी थी। कहा जाता है कि उन्होंने श्रीनगर दरबार और गांव वालों के सामने भी इसका प्रस्ताव रखा था लेकिन दोनों जगह उनकी खिल्ली उड़ायी गयी थी। आखिर में माधोसिंह अकेले ही सुरंग बनाने के लिये निकल पड़े थे।


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सुरंग बनी पर बेटे की जान गयी 

     माधोसिंह शुरू में अकेले ही सुरंग खोदते रहे लेकिन बाद में गांव के लोग भी उनके साथ जुड़ गये। कहा जाता है कि सुरंग खोदने में लगे लोगों का जोश बनाये रखने के लिये तब गांव की महिलाएं शौर्य रस से भरे गीत गाया करती थी। माधोसिंह की मेहनत आखिर में रंग लायी और सुरंग बनकर तैयार हो गयी। यह सुरंग आज भी इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है और मलेथा गांव के लिये पानी का स्रोत है। इस सुरंग से माधोसिंह के बेटे गजेसिंह का नाम भी जोड़ा जाता है। इसको लेकर दो तरह की कहानियां हैं। पहली कहानी के अनुसार माधोसिंह ने अपनी पत्नी को सख्त हिदायत दे रखी थी कि वह गजेसिंह को उस स्थल पर नहीं आने दे जहां सुरंग खोदी जा रही थी। एक दिन जिद करके गजेसिंह वहां पहुंच गया और पहाड़ से बड़ा सा पत्थर लुढ़ककर उसके सिर पर लगा जिससे उसकी मौत हो गयी। बाद में जब सुरंग में पानी आया तो वह उस जगह तक पहुंचा था जहां पर गजेसिंह की मौत हुई थी। दूसरी कहानी इसके ठीक विपरीत हैं लेकिन इसका जिक्र बहुत कम किस्सों में किया जाता है। कहते हैं कि जब सुरंग बनकर तैयार हो गयी तो काफी प्रयासों के बावजूद भी चंद्रभागा नदी का पानी उसमें नहीं गया। सभी गांववासी परेशान थे। रात को माधोसिंह के सपने में उनकी कुलदेवी प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सुरंग में पानी तभी आएगा जब वह अपने इकलौते बेटे गजेसिंह की बलि देंगे। माधोसिंह हिचकिचा रहे थे लेकिन जब गजेसिंह को पता चला तो वह तैयार हो गया और उसने अपने माता पिता को भी मना लिया। गजेसिंह की बलि दी गयी और पानी सुरंग में बहने लगा।इस दूसरी कहानी के पक्ष में हालांकि कोई ठोस सबूत नहीं है और इसलिए पहला किस्सा ही अधिक मान्य है।
    कहते हैं कि इसके बाद माधोसिंह वापस श्रीनगर आ गये और फिर कभी अपने गांव नहीं लौटे लेकिन उन्होंने गांव को जो सौगात दी उसकी वजह से मलेथा आज भी हरियाली से भरा खुशहाल गांव बना हुआ है।

मौत से पहले तय की थी ​तिब्बत की सीमा

    माधोसिंह को इसके बाद तिब्बती सेना से लड़ने के लिये भेजा गया जो गढ़वाल की तरफ बढ़ रही थी। इसी समय छोटा चीनी युद्ध के दौरान माधोसिंह की मौत हुई थी। इससे पहले हालांकि वह गढ़वाल और तिब्बत (अब भारत और चीन) की सीमा तय कर चुके थे। उनकी मौत को लेकर भी एक किस्सा कहा जाता है जिसका जिक्र महान इतिहासकार पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी ने अपनी पुस्तक 'गढ़वाल का इतिहास' में किया है। कहा जाता था कि तिब्बती सैनिक माधोसिंह के नाम से ही घबराते थे। माधोसिंह ​विजय प्राप्त करते हुए आगे बढ़ रहे थे लेकिन इस बीच रोग लगने से उनका निधन हो गया। अपनी मौत से पहले माधोसिंह ने अपने सेना से कहा कि यदि तिब्बतियों को पता चला कि उनकी मौत हो गयी है तो वे फिर से आक्रमण कर देंगे, इसलिए यह खबर किसी को पता नहीं चलनी चाहिए। पंडित रतूड़ी के अनुसार माधोसिंह ने कहा था, ''लड़ते और पीछे हटते चले जाना और मेरे शव को तेल में भूनकर, कपड़े में लपेट बक्से में बंद करके हरिद्वार ले जाकर दाह करना। ''
    सैनिकों और सरदारों से ऐसा ही किया और हरिद्वार में माधोसिंह का दाह संस्कार करके उसकी सूचना श्रीनगर दरबार को दी। शिवप्रसाद डबराल (उत्तराखंड का इतिहास) और भक्तदर्शन (गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां) ने भी अपनी अपनी किताबों में यह माना है कि माधोसिंह की मौत छोटा चीनी में हुई थी। उनके अनुसार उनकी मौत 1635 में हुई, लेकिन कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध 1640 के बाद लड़ा गया था और माधोसिंह की मौत इसी के बाद हुई थी।
    यह थी गढ़वाल के वीर माधोसिंह की कहानी। आपको भी उनसे जुड़ा कोई किस्सा याद होगा तो जरूर शेयर करें। माधोसिंह से जुड़े कई गीत भी बने हुए हैं। उनको भी नीचे टिप्पणी में साझा करने का निवेदन है। (धर्मेन्द्र पंत)

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