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सोमवार, 17 जुलाई 2017

सावधान! दबाव में बिखर न जाए कहीं बच्चा

इसमें पहली तस्वीर वरिष्ठ खेल पत्रकार श्री संजीव मिश्रा और दूसरी तस्वीर उत्तराखंड शिक्षा विभाग में कार्यरत श्री कैलाश थपलियाल के फेसबुक पेज से ली गयी है। इन पर गौर करिये, मनन करिये।  

      पिछले दिनों फेसबुक पर दो तस्वीरें देखी जिनसे मन विचलित हो गया। पहली तस्वीर वरिष्ठ खेल पत्रकार और ​मेरे मित्र संजीव मिश्रा ने पोस्ट की थी। यह उनके घर के शौचालय की तस्वीर थी जिस पर उनके बेटे ने त्रिकोणमिति के सूत्र चस्पा कर रखे थे। संजीव ने अपनी पोस्ट के साथ लिखा था, ''सुबह वाशरूम में ट्रिग्नोमैट्रिक टेबल व फाॅर्मूले चिपके देख चौंक गया। हमारे एजुकेशन सिस्टम ने बच्चों को यहां भी फ्री नहीं छोड़ा। पढ़ाई के इस बोझ को कितना जायज माना जाए?'' बेहद गंभीर सवाल जो हमारी शिक्षा व्यवस्था पर करारी चोट करता है। 
    दूसरी तस्वीर मित्र कैलाश थपलियाल ने पोस्ट की थी। पौड़ी गढ़वाल के जयहरीखाल में बस का इंतजार करते बच्चे लेकिन हाथों में किताब लिये कुछ याद करते हुए। कैलाश भाई ने बेहद सटीक शब्दों में पूरी व्यवस्था पर कटाक्ष भी किया था, ''आखिर किस दिशा में जा रही है हमारी आज की शिक्षा। कल जयहरीखाल में अपनी स्कूल की गाड़ी का इंतजार करते हुए परीक्षा रूपी भय से रट्टू तोता बन रहे इन बच्चों को देखकर यही लग रहा है कि आज के समाज में परीक्षा से इतना भय क्यों? जबाब भी आखिर अपुन के ही पास अंतर्मन में ही मौजूद था। कुकुरमुत्तों की तरह उग चुके प्राइवेट स्कूलों ने बच्चों की अच्छे नंबर लाने की प्रतिस्पर्धा को उनके माता-पिता और अभिभावकों के मान-सम्मान से जोड़ दिया है। माता-पिता की बच्चों से अधिक अपेक्षाओं के कारण बच्चों के कोमल दिमाग और शरीर एक असहनीय बोझ से दब कर बच्चों को मानसिक तनाव की ओर ले जा रहे हैं.......।''
   अगर आपने इन तस्वीरों को गौर से देख लिया है तो इन पर विचार करिये। खुद को टटोलिये और खुद से पूछिये कि क्या आपके बच्चे भी इस पीड़ा से गुजर रहे हैं। क्योंकि अन्य देशों की तुलना में भारत में माता पिता बच्चों पर अच्छे अंक लाने का अधिक दबाव बनाते हैं। यहां हर कोई चाहता है कि उसका बच्चा आलराउंडर बने। ऐसे में सफलता हासिल करने के बजाय बच्चे के मनोमस्तिष्क पर पड़ने वाले दबाव से वह नाकामी की तरफ बढ़ने लगता है। बच्चे पर दबाव बनाने से वह कभी पढ़ाई के प्रति प्रेरित नहीं होगा बल्कि वह उससे जी चुराएगा। उनके अंदर असफलता का डर भर जाएगा और ऐसी स्थिति में उसके नाकाम होने की संभावना बढ़ जाएगी। यह मत भूलिये कि भारत में आत्महत्या के दस प्रमुख कारणों में परीक्षा में असफलता भी शामिल है। नाकामी का खौफ बच्चे को खतरनाक कदम उठाने के लिये प्रेरित कर सकता है। 

बच्चे को नकारात्मक और बीमार बनाता है  दबाव 


    गर आप का बच्चा पढ़ाई से जी चुरा रहा है या खेलने और अन्य कार्यों में भी उसका मन नहीं लग रहा है तो आपको सतर्क होने की जरूरत है। ऐसे में बच्चे के दिमाग में नकारात्मक भाव उत्पन्न हो सकते हैं और उसका व्यवहार आक्रामक हो सकता है। इस स्थिति में बच्चे की भावनाओं, उसकी मनोदशा को समझना जरूरी होता है। अगर आप बच्चे पर चिल्लाने या दबाव बनाने से सकारात्मक परिणाम की उम्मीद कर रहे हैं तो फिर आप गलत हैं। बच्चों से अच्छा परिणाम हासिल करने का यही तरीका है कि उन पर दबाव बनाने के बजाय उन्हें प्रोत्साहित किया जाए। दुनिया भर में सैकड़ों शोध इस विषय पर किये गये और सबका एक ही परिणाम था कि बच्चों पर दबाव डालने से उन पर नकारात्मक असर पड़ता है जो उनके संपूर्ण विकास में सबसे बड़ा बाधक बनता है। कई बच्चे विलक्षण होते हैं लेकिन उम्र बढ़ने के साथ वे खुद को नहीं संभाल पाते और जैसी उम्मीद उनसे बचपन में की जाती है, वे उस पर खरा नहीं उतर पाते हैं। 
      इसका एक बड़ा कारण बच्चे का अपना बचपन नहीं जी पाना भी है। इसलिए आप खुद से एक सवाल करिये कि क्या आपका बच्चा बचपन का वैसा आनंद ले रहा है जैसा कभी आपने लिया था? इस सवाल पर मनन करिये। याद करिये अपने बचपन को। मेरी अपनी पत्नी से कई बार बहस हो जाती है क्योंकि मुझे लगता है कि वह बच्चों पर अनावश्यक दबाव बना रही है। इससे वह खुद भी तनाव में आ जाती है। मैं तब उन्हें अपना बचपन याद करने के लिये कहता हूं। इस पर भी उनके अपने तर्क होते हैं। समय जरूर बदल गया है, लेकिन बचपन जैसे पहले था वैसा आज भी है और हमें अपने बच्चों से उस बचपन को छीनने का कोई अधिकार नहीं है। .... लेकिन अफसोस कि आज बच्चों से बचपन छीना जा रहा है। किशोरावस्था का पहला चरण 13 साल की उम्र होती है लेकिन अगर आपका बच्चा 10 या 11 साल की उम्र में एक किशोर जैसा व्यवहार करता है तो इस पर ​इतराने की जरूरत नहीं है। यह चिंता का विषय है। तब आप यह क्यों भूल जाते हो कि वह जल्द ही वयस्क और प्रौढ़ भी होगा।  
     बच्चे उच्च रक्तचाप का शिकार भी हो रहे हैं। अभी कुछ अध्ययनों से पता चला है कि 11 से 12 साल के बच्चे भी उच्च रक्तचाप की समस्या से ग्रसित हो रहे हैं जो सोचनीय विषय है। विभिन्न तरह के गैजेट जैसे मोबाइल, कंप्यूटर और खान पान जैसे फास्ट फूड पहले ​ही बच्चे को बीमार बना रहे हैं। इस पर जब पढ़ाई के दबाव का तड़का लगता है तो फिर बच्चे का बीमार होना स्वाभाविक है। इसलिए खुद विचार करिये कि कहीं आप अपने बच्चे को बीमार तो नहीं बना रहे हो। 
     मैंने अपने बड़े बेटे प्रांजल को 12वीं परीक्षा के दौरान दबाव में देखा है। इसके बाद मैंने उसके दिमाग से अंकों का भूत निकाला। मैं अपने बेटे की सीमाएं जानता हूं लेकिन अंकों के दबाव में मैंने उसका आत्मविश्वास नहीं मरने दिया जिस पर वास्तव में मुझे भी नाज है। इसके बाद वह जहां भी इंटरव्यू के लिये गया तो साक्षात्कारकर्ता ने उसके आत्मविश्वास और सहज स्वीकार्यता की भावना की तारीफ की। अब वह एक अच्छे संस्थान में एडमिशन भी लेने जा रहा है। जब वह परीक्षा के तनाव में था तो मैंने उसे समझाया कि ''हमारी जिंदगी में परीक्षा का उतना ही महत्व है जितना एक बड़े से कमरे रखे गये छोटे से फूलदान का। फूल खिल रहे हैं तो अच्छा लगेगा लेकिन अगर फूलदान टूट भी गया तो ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। बस बिखरे टुकड़ों को समेटकर उन्हें भूतकाल के हवाले करना है। जल्द ही नया फूलदान उसकी जगह ले लेगा। जिंदगी परीक्षा से कई ज्यादा महत्वपूर्ण है।'' इसलिए बच्चों पर अंकों का दबाव न बनायें। मैं फिर से स्वेट मार्टेन के इस कथन को दोहरा रहा हूं कि 'प्रत्येक व्यक्ति के अंदर विशिष्ट प्रतिभा छिपी होती है, बस जरूरत है उसे पहचानने की। जिसने उसे पहचान लिया उसने जग जीत लिया।'' आपके बच्चे के अंदर भी ऐसी कोई प्रतिभा छिपी होगी। उसे पहचानने में उसकी मदद करिये। 

आपका धर्मेन्द्र पंत 
© ghaseri.blogspot.in 


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सोमवार, 29 मई 2017

अखबार में आया रोल नंबर और मैं पास हो गया

         मां . पिताजी दोनों ​के मन में थोड़ा डर, थोड़ी चिंता भर गयी थी। डर और चिंता में भगवान ज्यादा याद आते हैं और इसलिए उन्होंने भी 'सत्यनारायण व्रत कथा' करवाने की मन्नत कर ली। असल में परिस्थितियां कुछ ऐसी ही बन गयी थी। मैं तब 15 साल का था जब मैंने उत्तर प्रदेश बोर्ड के तहत हाईस्कूल की परीक्षा दी थी। वर्ष था 1985 और उस साल परीक्षा में नकल रोकने के लिये परीक्षा केंद्र बदल दिये गये थे। मैं राजकीय इंटर कालेज नौगांवखाल में पढ़ता था लेकिन मेरा परीक्षा केंद्र राजकीय इंटर कालेज एकेश्वर था। मेरे गांव स्योली से लगभग दस किमी दूर। गांव के सामने लगभग तीन . चार किमी की चढ़ाई और फिर जंगल के रास्ते से गुजरकर पहुंचना पड़ता था एकेश्वर। परीक्षा सुबह सात बजे शुरू होती थी लेकिन मुझे एकेश्वर पहुंचने के लिये चार बजे उठना पड़ता था। गांव के कुछ और बच्चे भी परीक्षा दे रहे थे और पिताजी हमें आधे रास्ते तक छोड़ने के लिये आते थे। वह तब मुझे हर दिन एक रूपया दिया करते थे, जिन्हें मैंने खर्च नहीं किया। कुल 13 पेपर दिये थे और इस तरह से मेरे पास 13 रुपये जमा हो गये थे। 
        एकेश्वर में पढ़ने वाले बच्चों का परीक्षा केंद्र नौगांवखाल था। पहले दिन के पेपर में किसी तरह की सख्ती नहीं थी, लेकिन शाम को जब 12वीं की परीक्षा के दौरान नौगांवखाल में एकेश्वर के दो लड़कों का Rustication (रस्टकेशन हिन्दी में कहें तो निष्कासन मतलब जिसका रस्टकेशन हो गया उसके लिये आगे की परीक्षा बेमतलब हो  जाती है) कर दिया गया। एकेश्वर में खबर पहुंची और फिर वहां बदले की आग झुलसने लगी। कुछ बच्चों को दो परीक्षा केंद्रों के बीच चली आपसी जंग का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। नकल करते हुए पकड़े जाने पर उनका रस्टकेशन कर दिया गया। जो नकल के भरोसे थे वे भी 'बेचारे' बन गये। हमारे साथ भी दूसरे पेपर से कड़ी सख्ती बरती गयी। मार्च के महीने में सुबह काफी ठंड पड़ती थी लेकिन परीक्षा केंद्र पर हमारे जूते, मोजे, दस्ताने तक निकलवा दिये जाते थे। मुझे याद है कि तब जिला शिक्षा अधिकारी एक बेहद सख्त मिजाज की महिला थी जो नकल करने पर तुरंत रस्टकेशन करती थी। उनके 'फ्लाइंग स्क्वाड' में भी आठ . दस कड़क और परीक्षार्थियों की नजर में 'निर्मम' व्यक्ति शामिल थे। नकल के खिलाफ बना यह माहौल दिल में खौफ भी पैदा कर रहा था। गणित के पेपर में मुझे भी आशंका थी। मां . पिताजी को भी अपनी इस आशंका से अवगत करा दिया था और यही उनके डर व चिंता की मुख्य वजह थी। 


     जिस दिन परीक्षा परिणाम आना था। सभी के चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती थी। ​तब परिणाम स्थानीय समाचार पत्र अमर उजाला में प्रकाशित होता था। उसमें रोल नंबर के आगे प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी और तृतीय श्रेणी यानि F, S और T लिखा रहता था।  जिसका नंबर आ गया वह उत्तीर्ण जिसका नहीं आया वह अनुत्तीर्ण। जिस समाचार पत्र में परीक्षा परिणाम छपा रहता था उसके लिये मारामारी रहती थी। मुझे याद है कि नौगांवखाल का एक व्यक्ति पहले दिन शाम को ही कोटद्वार में डेरा जमा लेता था। वहां अखबार हाथ में आते ही वह उसे लेकर जल्द से जल्द नौगांवखाल पहुंच जाता और फिर उसके पास परीक्षा परिणाम देखने वालों की लाइन लग जाती। जो विद्यार्थी उत्तीर्ण हो जाता उससे पांच से दस रूपये लेता और अनुत्तीर्ण होने वाले को टेढ़ी नजर से देखता। आखिर उसने अनुत्तीर्ण होकर उसके पांच रूपये का नुकसान करा दिया था। बाद के वर्षों में परीक्षा परिणाम देखने से पहले ही 10 से 20 रुपये लिये जाने लगे थे।  
      पिताजी मेरा परीक्षा परिणाम देखने गये थे और मैं जंगल में गोरू (गाय बछड़े यानि डंगर) चराने चला गया था। मन में धुकधुकी लगी हुई थी। गांव का एक चचेरा भाई, जो मुझसे उम्र में बड़ा था, अपने गोरू मेरे पास छोड़कर नौगांवखाल निकल गया। उन्होंने कहा था कि अगर मैं पास हो गया तो वह जल्द से जल्द यह खबर मुझे देगा। मुझे याद है कि वह मुझे देखकर चिल्लाया था, 'धर्मेंद्र तू पास हो गया, सेकेंड डिवीजन है तेरी।' सच या झूठ। कई विचार एक साथ मन में कौंधे और फिर लगा कि पांव अब जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। गांव से केवल मैं ही पास हुआ था, बाकी सारे फेल। हमारी स्कूल से दसवीं की परीक्षा में शामिल लगभग 120 विद्यार्थियों में से केवल 18 पास हुए थे और उनमें मैं भी शामिल था। फिर भी थोड़ी धुकधुकी बनी रही क्योंकि किसी ने बताया कि प्रूफ की गलती से भी नंबर में गड़बड़ी हो सकती थी। इसलिए अगला एक सप्ताह इसी दुआ में बीता कि हे भगवान अखबार में जो कुछ छपा है वह सच निकले और जब मार्कशीट यानि अंक प्रमाणपत्र आया तो सब कुछ सच निकला। गणित में दो नंबर के ग्रेस मार्क्स से मैं द्वितीय श्रेणी में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ​गया था। मां ​. पिताजी खुश थे और उन्होंने बाकायदा सत्यनारायण की कथा करवायी।


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         सवीं की परीक्षा में मेरे 47 प्रतिशत अंक आये थे। बारहवीं में 51 प्रतिशत और फिर बीए में 58.5 प्रतिशत अंक लाकर मैं कालेज में अव्वल आया था। मैंने 1995 में प्राइवेट छात्र के तौर पर राजनीति शास्त्र से एमए किया। कुल 63 प्रतिशत अंक थे लेकिन मैं विश्वविद्यालय में प्रथम आया था। तब की भाषा में कहूं तो गोल्ड मेडलिस्ट, जो मुझे कभी नहीं मिला। हां विश्वविद्यालय में प्रथम का एक प्रमाणपत्र हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय ने जरूर थमा दिया था। इस बीच पत्रकारिता की डिग्री भी प्रथम श्रेणी (65%) में ली थी। हमारे जमाने में अगर 10वीं या 12वीं की परीक्षा में किसी के 60 प्रतिशत अंक आते थे तो उसे जीनियस समझा जाता था। उसकी इज्जत बढ़ जाती थी लेकिन आज की स्थिति बदल गयी है। आलम यह है कि 95 प्रतिशत वाला भी पक्के तौर पर नहीं कह सकता है कि उसे दिल्ली विश्वविद्यालय में मनपसंद विषय में मनपसंद कालेज में एडमिशन मिल जाएगा। हमारे समय में निरीक्षक भी बड़े कंजूस हुआ करते थे, पता नहीं किन किन कारणों से अंक काट देते थे लेकिन अब राजनीति शास्त्र, हिन्दी या अंग्रेजी में भी 100 में से 100 नंबर आ रहे हैं। अपने जमाने में तो केवल गणित में यह संभव था। अंकों की इस होड़ में परीक्षार्थियों पर भी दबाव बढ़ रहा है। इससे रट्टामार पद्वति को भी प्रश्रय मिल रहा है। कुल मिलाकर हमारा जमाना ही सही था। दबाव हम पर भी रहता था तभी तो मैंने दसवीं की परीक्षा में बचाये गये 13 रूपयों को खाने पर खर्च नहीं किया था क्योंकि मैं भी उस दिन का इंतजार कर रहा था जब मेरी परीक्षाएं समाप्त हों और मैं बचाये गये पैसों से अपनी मनपसंद पत्रिका 'क्रिकेट सम्राट' खरीदकर रिलैक्स होकर उसे पढूं। क्रिकेट सम्राट के तीन अंकों के लिये मेरे पास पैसा था और अगले तीन महीने तक मैंने ऐसा किया भी। 
       और हां मेरा सभी माता पिताओं से आग्रह है कि वे अपने बच्चों पर अंकों के इस बोझ का दबाव नहीं बनायें। उन्हें अनुशासन में रखें लेकिन अपनी जिंदगी स्वतंत्र और सहज होकर जीने दें। मेरा बेटा जब परीक्षा के तनाव में था तो मैंने उसे समझाया कि ''हमारी जिंदगी में परीक्षा का उतना ही महत्व है जितना एक बड़े से कमरे रखे गये छोटे से फूलदान का। फूल खिल रहे हैं तो अच्छा लगेगा लेकिन अगर फूलदान टूट भी गया तो ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। बस बिखरे टुकड़ों को समेटकर उन्हें भूतकाल के हवाले करना है। जल्द ही नया फूलदान उसकी जगह ले लेगा। जिंदगी परीक्षा से कई ज्यादा महत्वपूर्ण है।'' इसलिए जिनके बच्चों के नंबर कम आये हैं उन्हें निराश होने की जरूरत नहीं है। स्वेट मार्टेन ने कहा था कि 'प्रत्येक व्यक्ति के अंदर विशिष्ट प्रतिभा छिपी होती है, बस जरूरत है उसे पहचानने की। जिसने उसे पहचान लिया उसने जग जीत लिया।'' आप भी अपने बच्चों के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचानने में उनकी मदद करिये। मैं भी प्रयास कर रहा हूं। 
आपका धर्मेंद्र पंत 



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