इसमें पहली तस्वीर वरिष्ठ खेल पत्रकार श्री संजीव मिश्रा और दूसरी तस्वीर उत्तराखंड शिक्षा विभाग में कार्यरत श्री कैलाश थपलियाल के फेसबुक पेज से ली गयी है। इन पर गौर करिये, मनन करिये। |
दूसरी तस्वीर मित्र कैलाश थपलियाल ने पोस्ट की थी। पौड़ी गढ़वाल के जयहरीखाल में बस का इंतजार करते बच्चे लेकिन हाथों में किताब लिये कुछ याद करते हुए। कैलाश भाई ने बेहद सटीक शब्दों में पूरी व्यवस्था पर कटाक्ष भी किया था, ''आखिर किस दिशा में जा रही है हमारी आज की शिक्षा। कल जयहरीखाल में अपनी स्कूल की गाड़ी का इंतजार करते हुए परीक्षा रूपी भय से रट्टू तोता बन रहे इन बच्चों को देखकर यही लग रहा है कि आज के समाज में परीक्षा से इतना भय क्यों? जबाब भी आखिर अपुन के ही पास अंतर्मन में ही मौजूद था। कुकुरमुत्तों की तरह उग चुके प्राइवेट स्कूलों ने बच्चों की अच्छे नंबर लाने की प्रतिस्पर्धा को उनके माता-पिता और अभिभावकों के मान-सम्मान से जोड़ दिया है। माता-पिता की बच्चों से अधिक अपेक्षाओं के कारण बच्चों के कोमल दिमाग और शरीर एक असहनीय बोझ से दब कर बच्चों को मानसिक तनाव की ओर ले जा रहे हैं.......।''
अगर आपने इन तस्वीरों को गौर से देख लिया है तो इन पर विचार करिये। खुद को टटोलिये और खुद से पूछिये कि क्या आपके बच्चे भी इस पीड़ा से गुजर रहे हैं। क्योंकि अन्य देशों की तुलना में भारत में माता पिता बच्चों पर अच्छे अंक लाने का अधिक दबाव बनाते हैं। यहां हर कोई चाहता है कि उसका बच्चा आलराउंडर बने। ऐसे में सफलता हासिल करने के बजाय बच्चे के मनोमस्तिष्क पर पड़ने वाले दबाव से वह नाकामी की तरफ बढ़ने लगता है। बच्चे पर दबाव बनाने से वह कभी पढ़ाई के प्रति प्रेरित नहीं होगा बल्कि वह उससे जी चुराएगा। उनके अंदर असफलता का डर भर जाएगा और ऐसी स्थिति में उसके नाकाम होने की संभावना बढ़ जाएगी। यह मत भूलिये कि भारत में आत्महत्या के दस प्रमुख कारणों में परीक्षा में असफलता भी शामिल है। नाकामी का खौफ बच्चे को खतरनाक कदम उठाने के लिये प्रेरित कर सकता है।
बच्चे को नकारात्मक और बीमार बनाता है दबाव
अगर आप का बच्चा पढ़ाई से जी चुरा रहा है या खेलने और अन्य कार्यों में भी उसका मन नहीं लग रहा है तो आपको सतर्क होने की जरूरत है। ऐसे में बच्चे के दिमाग में नकारात्मक भाव उत्पन्न हो सकते हैं और उसका व्यवहार आक्रामक हो सकता है। इस स्थिति में बच्चे की भावनाओं, उसकी मनोदशा को समझना जरूरी होता है। अगर आप बच्चे पर चिल्लाने या दबाव बनाने से सकारात्मक परिणाम की उम्मीद कर रहे हैं तो फिर आप गलत हैं। बच्चों से अच्छा परिणाम हासिल करने का यही तरीका है कि उन पर दबाव बनाने के बजाय उन्हें प्रोत्साहित किया जाए। दुनिया भर में सैकड़ों शोध इस विषय पर किये गये और सबका एक ही परिणाम था कि बच्चों पर दबाव डालने से उन पर नकारात्मक असर पड़ता है जो उनके संपूर्ण विकास में सबसे बड़ा बाधक बनता है। कई बच्चे विलक्षण होते हैं लेकिन उम्र बढ़ने के साथ वे खुद को नहीं संभाल पाते और जैसी उम्मीद उनसे बचपन में की जाती है, वे उस पर खरा नहीं उतर पाते हैं।
इसका एक बड़ा कारण बच्चे का अपना बचपन नहीं जी पाना भी है। इसलिए आप खुद से एक सवाल करिये कि क्या आपका बच्चा बचपन का वैसा आनंद ले रहा है जैसा कभी आपने लिया था? इस सवाल पर मनन करिये। याद करिये अपने बचपन को। मेरी अपनी पत्नी से कई बार बहस हो जाती है क्योंकि मुझे लगता है कि वह बच्चों पर अनावश्यक दबाव बना रही है। इससे वह खुद भी तनाव में आ जाती है। मैं तब उन्हें अपना बचपन याद करने के लिये कहता हूं। इस पर भी उनके अपने तर्क होते हैं। समय जरूर बदल गया है, लेकिन बचपन जैसे पहले था वैसा आज भी है और हमें अपने बच्चों से उस बचपन को छीनने का कोई अधिकार नहीं है। .... लेकिन अफसोस कि आज बच्चों से बचपन छीना जा रहा है। किशोरावस्था का पहला चरण 13 साल की उम्र होती है लेकिन अगर आपका बच्चा 10 या 11 साल की उम्र में एक किशोर जैसा व्यवहार करता है तो इस पर इतराने की जरूरत नहीं है। यह चिंता का विषय है। तब आप यह क्यों भूल जाते हो कि वह जल्द ही वयस्क और प्रौढ़ भी होगा।
बच्चे उच्च रक्तचाप का शिकार भी हो रहे हैं। अभी कुछ अध्ययनों से पता चला है कि 11 से 12 साल के बच्चे भी उच्च रक्तचाप की समस्या से ग्रसित हो रहे हैं जो सोचनीय विषय है। विभिन्न तरह के गैजेट जैसे मोबाइल, कंप्यूटर और खान पान जैसे फास्ट फूड पहले ही बच्चे को बीमार बना रहे हैं। इस पर जब पढ़ाई के दबाव का तड़का लगता है तो फिर बच्चे का बीमार होना स्वाभाविक है। इसलिए खुद विचार करिये कि कहीं आप अपने बच्चे को बीमार तो नहीं बना रहे हो।
मैंने अपने बड़े बेटे प्रांजल को 12वीं परीक्षा के दौरान दबाव में देखा है। इसके बाद मैंने उसके दिमाग से अंकों का भूत निकाला। मैं अपने बेटे की सीमाएं जानता हूं लेकिन अंकों के दबाव में मैंने उसका आत्मविश्वास नहीं मरने दिया जिस पर वास्तव में मुझे भी नाज है। इसके बाद वह जहां भी इंटरव्यू के लिये गया तो साक्षात्कारकर्ता ने उसके आत्मविश्वास और सहज स्वीकार्यता की भावना की तारीफ की। अब वह एक अच्छे संस्थान में एडमिशन भी लेने जा रहा है। जब वह परीक्षा के तनाव में था तो मैंने उसे समझाया कि ''हमारी जिंदगी में परीक्षा का उतना ही महत्व है जितना एक बड़े से कमरे रखे गये छोटे से फूलदान का। फूल खिल रहे हैं तो अच्छा लगेगा लेकिन अगर फूलदान टूट भी गया तो ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। बस बिखरे टुकड़ों को समेटकर उन्हें भूतकाल के हवाले करना है। जल्द ही नया फूलदान उसकी जगह ले लेगा। जिंदगी परीक्षा से कई ज्यादा महत्वपूर्ण है।'' इसलिए बच्चों पर अंकों का दबाव न बनायें। मैं फिर से स्वेट मार्टेन के इस कथन को दोहरा रहा हूं कि 'प्रत्येक व्यक्ति के अंदर विशिष्ट प्रतिभा छिपी होती है, बस जरूरत है उसे पहचानने की। जिसने उसे पहचान लिया उसने जग जीत लिया।'' आपके बच्चे के अंदर भी ऐसी कोई प्रतिभा छिपी होगी। उसे पहचानने में उसकी मदद करिये।
आपका धर्मेन्द्र पंत
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दूसरी तरफ आप आज की उस खबर पर भी ध्यान दें, जिसमे केरल का एक लड़का 80% अंक लाने पर भी किसी कॉलेज में एडमिशन न पा सका और किसान बन गया। दिल्ली विश्वविद्यालय में एडमिशन के किस्से सबको मालूम ही है, यहां एडुकेशन सिस्टम ही रिजेक्ट कर देता है बच्चों को, जिसे शिक्षा की जिम्मेदारी दी गई है।
जवाब देंहटाएंबेहद अच्छी बात कही आपने भाईजी। मेरा बेटा भी दो साल बाद 10वीं की परीक्षा देगा, जिसका असर उस पर अभी से दिखने लगा है। बहुत intelligent नहीं है, इसलिए परिवार के सदस्यों के साथ वो भी कभी डरता है इसे लेकर। मैं स्वयं कभी बहुत tense हो जाती हूँ क्योंकि उसकी पढ़ाई की जिम्मदारी मेरे ऊपर है। लेकिन आपकी बात से फिर कुछ positive सोचा है। उसे भी ये बात समझाऊँगी कि अंको से महत्वपूर्ण भी कुछ है दुनिया में।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भाईजी इस सुन्दर पोस्ट के लिए।
भाई साहब प्रणाम्,मैने जापानी लेखिका तेत्सुको कुरोयानागी लिखित पुस्तक तोत्तो-चान पढी,इस पुस्तक में कोबायाशी की शिक्षण पद्धति किस तरह की हो के बारे में पढा,उनका मानना था कि शिक्षा का सबसे महत्तवपूर्ण चरण प्राथमिक शिक्षा है,सभी बच्चे स्वभावतया अच्छे होते हैं लेकिन इस प्राकृतिक स्वभाव को बाहरी वातावरण और दुष्प्रभाव बडी आसानी से नष्ट कर डालता है उनके लिए स्वाभाविकता मूल्यवान थी बच्चों का चरित्र यथासंभव स्वाभाविकता से निखरे.
जवाब देंहटाएंI have been gone through this kind of prashant expectations of others...
जवाब देंहटाएंपढाई का बोझ बड़ा खतरनाक है दिल्ली में ९० % वाले बच्चों को भी एड्मिसन नहीं मिल पा रहा है
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जवाब देंहटाएंभेजी आप क़े इस लेख ने आज मेरी भी आँखे खोल दी है, में भी अपने बेटे में कुछ चेंज देख रहा हूँ, क्यूंकि उस पर भी नम्बरो का दवाब आ गया है शायद वो मात्र 7 साल का है और उस पर अपनी लास्ट साल क़ी फर्स्ट पोजीसन बचने का दवाब शायद उसकी टीचर और मेरी पत्नी की और से हो सकता है जिस कारण वो बहुत चिढ़ चिड़ा हो गया है, आप का दिल से धन्यावाद जो आपने ये लेख शेयर किया हम लोग इस से परेंडा लेके अपने बच्चों को इस नंबर गेम से बचा पाएंगे।