शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

पेशावर कांड का महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली

    च्चीस दिसंबर को दुनिया याद करती है क्रिसमस के लिये। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन भी इसी दिन पड़ता है। वाजपेयी जी को भी याद किया जाता है लेकिन हम स्वतंत्रता के एक महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को भूल जाते हैं जिनका जन्म 25 दिसंबर 1891 को गढ़वाल जिले के ग्राम मासी में हुआ था। चंद्र सिंह गढ़वाली, जिनका मूल नाम चंद्र सिंह भंडारी था, का संक्षिप्त परिचय यही है कि वह बचपन से ही क्रांतिकारी विचारधारा के थे। कोई भी साहसिक कार्य करने से नहीं हिचकिचाते थे। उनका जन्म किसान परिवार में हुआ था। मां पिता की इच्छा के विपरीत वह प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लैंसडाउन में गढ़वाल राइफल्स में भ​र्ती हुए। भारतीय सेना के साथ उन्होंने 1915 में मित्र देशों की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में भी हिस्सा लिया। उन्हें गढ़वाल राइफल्स के अन्य सैनिकों के साथ फ्रांस भेज दिया गया था। लेकिन चंद्र सिंह गढ़वाली से दुनिया का असली परिचय 23 अप्रैल 1930 को हुआ था जब उन्होंने पेशावर में देश की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था। यह एक ऐतिहासिक घटना थी और कहा जाता था कि सुभाषचंद्र बोस ने जब आजाद हिन्द फौज का गठन किया था तो वह चंद्र सिंह गढ़वाली से जुड़ी इस घटना से भी प्रेरित थे। यही वजह थी कि उन्होंने आजाद हिन्द फौज में गढ़वाल राइफल्स के सैकड़ों जवानों को शामिल किया था।
     बहरहाल हम यहां पर बात करेंगे पेशावर कांड की। पहले इससे जुड़ी पृष्ठभूमि की संक्षिप्त जानकारी हासिल कर लेते हैं। यह वह दौर था जब पूर्ण स्वराज्य की घोषणा के बाद देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन चल रहा था। महात्मा गांधी ने 12 मार्च 1930 को डांडी मार्च शुरू कर दिया गया था। इस बीच यह चर्चा भी चल रही थी कि भगत सिंह और उनके साथियों राजगुरू और सुखदेव को फांसी दे दी जाएगी। इससे हर राष्ट्रप्रेमी उद्वेलित था। चंद्र सिंह गढ़वाली भी इनमें शामिल थे लेकिन पेशावर कांड भावनाओं के इस उबाल का परिणाम मात्र नहीं था बल्कि इसकी तैयारी योजनाबद्ध तरीके से की गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली ने 2/18 रायल गढ़वाल राइफल के अपने साथियों को पहले से ही तैयार कर दिया था कि उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिये आवाज उठा रहे पठानों पर गोली चलाने के अग्रेंजो के आदेश को नहीं मानना है। 
    अंग्रेजों को कानों कान खबर न लगे इसके लिये पूरी तैयारी की गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली तथा पेशावर बैरक में हरिसिंह लाइन में रह रहे उनके साथी रात में देश की स्थिति और भावी रणनीति पर बंद कमरे में चर्चा करते थे। अंग्रेजों को कुछ भनक लग गयी थी और इसलिए उन्होंने फूट डालो राज करो की अपनी रणनीति के तहत गढ़वाली सैनिकों को उकसाने का काम भी किया। गढ़वाल राइफल्स के जवानों को बताया गया कि पेशावर में केवल दो प्रतिशत हिन्दू रहते हैं और मुसलमान उन्हें सताते हैं। उनके देवी देवताओं को अपमान करते हैं और इसलिए उन्हें इन मुसलमानों पर गोली चलाने से नहीं हिचकिचाना है। सचाई इससे परे थी और चंद्र सिंह गढ़वाली इससे अच्छी तरह से अवगत थे। उन्होंने अपने साथियों को समझा दिया था कि वे अंग्रेजों की चाल में नहीं फंसे। उनका अपने साथियों को स्पष्ट संदेश था, '' कुछ भी हो जाए हमें अपने भाईयों पर गोलियां नहीं चलानी हैं। ''

''गढ़वालीज ओपन फायर'' का जवाब था ''गढ़वाली सीज फायर''

   पेशावर में 23 अप्रैल 1930 को विशाल जुलूस निकला था, जिसमें बच्चों से लेकर बूढ़ों और महिलाओं ने हिस्सा लिया। स्वाधीनता की मांग कर रहे हजारों लोगों के नारों से आसमान गूंज रहा था तो दूसरी तरफ अंग्रेजों का खून खौल रहा था। 2/18 रायल गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों को भी प्रदर्शनकारियों पर नियंत्रण पाने के लिये भेज दिया गया। इसकी एक टुकड़ी काबुली फाटक के पास निहत्थे सत्याग्रहियों के आगे खड़ी थी। अंग्रेज कंमाडर के आदेश पर इन सभी प्रदर्शनकारियों को घेर दिया गया था। गढ़वाली सैनिकों को जुलूस को बलपूर्वक ति​तर बितर करने के लिये कहा गया। सैनिकों ने प्रदर्शनकारियों से हटने को कहा। वे नहीं हटे। कंपनी कमांडर का धैर्य जवाब दे गया और उसने लगभग चिल्लाते हुए आदेश दिया ''गढ़वालीज ओपन फायर'' और फिर यहां पर चंद्र सिंह गढ़वाली का उदय हुआ। वह कमांडर के पास में ही खड़े थे। उन्होंने कड़कती आवाज में कहा, ''गढ़वाली सीज फायर''। देखते ही देखते सभी राइफलें नीचे हो गयी। अंग्रेज कमांडर बौखला गया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस सैन्य टुकड़ी का वह सर्वोसर्वा है वह उसके हुक्म की अवहेलना करेगी। गढ़वाली सैनिकों का साफ संदेश था कि वह निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां नहीं चलाएंगे। अंग्रेज सैनिकों ने हालांकि बाद में पठानी आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसायी। गढ़वाली सैनिकों से उनके हथियार ले लिये गये। अंग्रेज किसी भी तरह से आंदोलन को कुचलना चाहते थे और इसके लिये उन्हें गढ़वाल राइफल्स से मदद की दरकार थी। इसलिए गढ़वाली सैनिकों को समझाने के प्रयास भी किये गये कि वह निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाने से नहीं हिचकिचाएं लेकिन देश प्रेम से ओत प्रोत गढ़वाली सैनिक टस से मस नहीं हुए। यहां तक कि सभी सैनिकों ने इस्तीफा भी दे दिया था, लेकिन अब अंग्रेज गढ़वाल राइफल्स की इस टुकड़ी से ही बदला लेने के लिये तैयार हो गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली सहित इन सैनिकों को नौकरी से निकाल दिया गया और उन्हें कड़ी सजा दी गयी लेकिन उन्होंने खुशी . खुशी इसे स्वीकार किया। चंद्र सिंह गढ़वाली जेल से छूटने के बाद महात्मा गांधी से भी जुड़े। गांधी जी ने एक बार कहा था कि यदि उनके पास चंद्र सिंह गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश का कब का आजाद हो गया होता। चंद्र सिंह गढ़वाली बाद में कम्युनिस्ट हो गये और सिर्फ उनकी इस विचारधारा की वजह से देश ने इस अमर जवान को वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह असली हकदार थे। एक अक्तूबर 1979 को भारत के महान सपूत ने लंबी बीमारी के बाद दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में आखिरी सांस ली थी। 

भारत सरकार ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के निधन
के बाद उन पर डाक टिकट जारी किया था
    वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने बाद में अपने नाम से गढ़वाली जोड़ा था। उन्हें और उनके साथियों को जब सजा दी गयी तो उन्होंने कहा था कि 'हे गढ़माता हम तेरी इज्जत और शान के लिये अपने प्राण न्यौछावर करने जा रहे हैं।' चंद्र सिंह गढ़वाली अमर हो गये लेकिन हमें उनके उन साथियों को भी याद करने की जरूरत है जिन्होंने हर मोड़ पर पूरी वीरता के साथ अपनी अगुवाई कर रहे इस साथी और गढ़वाल का सिर ऊंचा रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यहां पर चंद्र सिंह गढ़वाली के कुछ साथियों की सूची भी दी जा रही है जिन्हें अंग्रेज सरकार ने सजा दी थी। बैरिस्टर मुकुंदी लाल के प्रयासों से इन सैनिकों को मृत्यु दंड की सजा नहीं मिली लेकिन उन्हें जेल जाना पड़ा था।  

पेशावर कांड में वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के अलावा जिन अन्य वीर सैनिकों को सजाएं हुई उनकी सूची इस प्रकार है ...
1. हवलदार नारायण सिंह गुंसाई, 2. नायक जीत सिंह रावत, 3. नायक भोला सिंह बुटोला, 4. नायक केशर सिंह रावत, 5. नायक हर​क सिंह धपोला, 6. लांस नायक महेंद्र सिंह नेगी, 7. लांस नायक भीम सिंह बिष्ट, 8. लांस नायक रतन सिंह नेगी, 9. लांस नायक आनंद सिंह रावत, 10. लांस नायक आलम सिंह फरस्वाण, 11. लांस नायक भवान सिंह रावत, 12. लांस नायक उमराव सिंह रावत, 13. लांस नायक हुकुम सिंह कठैत, 14. लांस नायक जीत सिंह बिष्ट, 15. लांस नायक सुंदर सिंह बुटोला, 16. लांस नायक खुशहाल सिंह गुंसाई, 17. लांस नायक ज्ञान सिंह भंडारी, 18. लांस नायक रूपचंद्र सिंह रावत, 19. लांस नायक श्रीचंद सिंह सुनार, 20. लांस नायक गुमान सिंह नेगी, 21. लांस नायक माधोसिंह नेगी, 22. लांस नायक शेर सिंह असवाल, 23. लांस नायक बुद्धि सिंह असवाल, 24. लांस नायक जूरासंघ सिंह असवाल, 25. लांस नायक राय सिंह नेगी, 26. लांस नायक दौलत सिंह रावत, 27. लांस नायक डब्बल सिंह रावत, 28. लांस नायक रतन सिंह नेगी, 29. लांस नायक श्याम सिंह सुनार, 30. लांस नायक मदन सिंह नेगी, 31. लांस नायक खेम सिंह गुंसाई।
गढ़वाल के जिन वीर सैनिकों को अंग्रेजों ने कोर्ट मार्शल करके नौकरी से बाहर कर दिया था, उनके नाम इस प्रकार है ...
1. लांस नायक पातीराम भंडारी, 2. लांस नायक पान सिंह दानू, 3. लांस नायक राम सिंह दानू, 4. लांस नायक हरक सिंह रावत, 5. लांस नायक लक्ष्मण सिंह रावत, 6. लांस नायक माधो सिंह गुंसाई, 7. चंद्र सिंह रावत, 8. जगत सिंह नेगी, 9. शेर सिंह भंडारी, 10. मान सिंह कुंवर, 11. बचन सिंह नेगी।
कुछ जवानों की सेवाएं समाप्त कर दी गयी थी। इनकी सूची इस प्रकार है ...
1. सूबेदार त्रिलोक सिंह रावत, 2. जयसिंह बिष्ट, 3. हवलदार गोरिया सिंह रावत, 4. हवलदार गोविंद सिंह बिष्ट, 5. हवलदार प्र​ताप सिंह नेगी, 6. नायक रामशरण बडोला। 

पुनश्च:... मेरे पिताजी श्री राजाराम पंत गढ़वाल राइफल्स में थे और वे बड़े गर्व से वीर चंद्रसिंह गढ़वाली का यह किस्सा सुनाया करते थे। जब 1994.95 में देहरादून में हिमालय दर्पण नामक समाचार पत्र में कार्यरत था तो उत्तराखंड आंदोलन पर एक विशेषांक निकाला गया था। मुझसे भी लिखने के लिये कहा गया और मैंने वीर चंद्रसिंह गढ़वाली पर लेख लिख दिया था। उस विशेषांक के संपादक श्री रमेश पहाड़ी थे। उन्होंने उस लेख को बहुत अच्छी तरह से संपादित किया और उत्तराखंड आंदोलन के उस विशेषांक में भी उसे जगह दी थी। आओ हम सब आज फिर से गढ़वाल के इस महान सपूत को याद करें। आपका धर्मेन्द्र पंत

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सोमवार, 21 दिसंबर 2015

गाय, भैंस के व्याहने पर होती है बधाण देवता की पूजा

गाय या भैंस का बच्चा होने पर शुद्धीकरण के लिये होती है बधाण देवता की पूजा। फोटो... श्रीकांत घिल्डियाल 
     भुला बिपिन पंत का फोन आया ''भैजी हमारे यहां बालण या बधाण देवता की भी पूजा होती है। घसेरी में इस पर लिखना।'' बिपिन का फोन आने के बाद बचपन की कई यादें ताजा हो गयीं। घर में गाय या भैंस के व्याहने के बाद हम 11वें दिन का इंतजार करते थे जबकि बालण या बधाण देवता की पूजा होती थी। घर में कई तरह के पकवान बनते थे और हमारा मतलब सिर्फ इन पकवानों से होता था। बड़ी चाचीजी कपोत्री देवी ने गाय और भैंस के बालण या बधाण पूजन के बारे में कुछ जानकारी दी। गाय का बछड़ा होने पर 11वें दिन होने वाली पूजा को बालण देवता का पूजन कहते हैं। इस दिन घर में लगड़ी (आटे के साथ चीनी को घोल कर तवे पर बनाया जाने वाला पकवान) बनती है। बालण पूजन उस खूंटे (कीलू) पर ही की जाती है जिस पर गाय को बांधा जाता है। भैंस के व्याहने पर 11वें दिन होने वाली पूजा बधाण पूजन कहते हैं। इस दिन हलुवा और खीर बनती है। बधाण पूजन के लिये मेरे गांव में पंदेरा (जल स्रोत) के पास एक जगह नियत है। गांव में इस जगह को ही बधाण या बदवाण कहा जाता है। यहां पर एक मोटे खड़ीक के पेड़ की जड़ पर बधाण देवता स्थापित है और वहीं पर यह पूजा की जाती है। गांव के बच्चे भी यहां पर हलुवा और खीर का आनंद लेने के लिये पहुंच जाते हैं। 
       प्रत्येक गांव में बालण या बधाण पूजन की अपनी विधि है। कई गांवों में बालण पूजन के लिये भी जगह नियत होती है। कई लोग 11वें दिन अपने कुल देवता या कुल देवी को दूध चढ़ाकर यह पूजा करते हैं। कर्णप्रयाग के विषय में कहा जाता है कि वहां कभी प्राचीन चट्टी थी जहां पर गाय या भैंस के व्याहने के बाद बधाण देवता की पूजा की जाती है। दूर . दूर से गांवों के लोग इस स्थल पर बधाण देवता का पूजन करने के लिये आते थे। यह स्थान 1894 में आयी बाढ़ में बह गया था। यह जगह वर्तमान के राम मंदिर के पास में है। सवाल उठता है कि आखिर यह पूजा क्यों? पंडित सुरेंद्र प्रसाद डो​बरियाल ने इस बारे में बताया, '' जब इंसान का बच्चा होता है तो 11वें दिन नामकरण करके घर का शुद्धीकरण किया जाता है। इसी तरह से जब गाय या भैंस का बच्चा होता है तो उसके लिये भी शुद्धीकरण की जरूरत पड़ती है और इसलिए बधाण पूजन होता है। इससे पहले आप दूध का देव कार्यों के लिये उपयोग नहीं कर सकते लेकिन इसके बाद दूध को मंदिर आदि हर जगह पर चढ़ाया जा सकता है। ''
     धाण या बालण देवता की पूजा शुद्धीकरण के साथ ही धन और वैभव आदि की प्राप्ति के लिये भी जाती है। विशेषकर यह गौमाता की भी पूजा है। वेदों में कहा गया है की “गोमय वसते लक्ष्मी” अर्थात गोबर में लक्ष्मी का वास है और “गौमूत्र धन्वन्तरी” अर्थात गौमूत्र में भगवान धन्वन्तरी का निवास है। इसलिए बालण या बधाण पूजन के समय शुद्धीकरण की शुरुआत गौमूत्र से की जाती है और गाय के गोबर से गणेश जी भी बनाये जाते हैं। 
     गाय का बालण पूजन में लगड़ी, घी, दूध और दही रखी जाती है। कई जगह गाय के खूंटे पर ही सांकेतिक रूप से गणेश जी को स्थापित करके बालण पूजन किया जा सकता है। खूंटे में ही दूध, दही और घी का अर्पण करना पड़ता है। वहां पर धूप अगरबत्ती जलायी जाती है और लगड़ी का भोग चढ़ाया जाता है। भैंस के बधाण पूजन में हलुवा, खीर, दही, दूध, घी और उसी दिन तैयार की गयी छांछ से पूजा की जाती है। दोनों ही तरह के पूजन में कुत्ता और कौआ के लिये सबसे पहले भोजन निकाला जाता है। 
      बधाण या बालण पूजन में किस मंत्र का जाप​ किया जाए। किसी भी पूजा के लिये 'गायत्री मंत्र' सबसे उत्तम होता है। आप 11 बार ''ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् '' का जाप करके पूजा संपन्न कर सकते हैं। वैसे बेहतर है कि शुरुआत गणेश पूजन से की जाए। पंडित डोबरियाल जी ने भी एक मंत्र बताया, ''एक दंताये धि वि​धमाहि, वक्रतुंडाये धिमाही, तनोदंति प्रचोदयात।'' इस मंत्र का आप 11 या 21 बार जाप करके बधाण या बालण पूजन संपन्न कर सकते हैं। एक अन्य मंत्र है जिससे बधाण पूजन किया जा सकता है। यह मंत्र है... ''ॐ नमो ब्रत्पत्ये नमो गणपतये नम: प्रथम पतये नमस्तेस्तु, लम्बोदराय क दंताये विघ्नविनासिने शिव सुताये श्री वरद मूर्तये नमो नम। '' 
      हर गांव, हर क्षेत्र की संस्कृति में कुछ बदलाव पाया जाता है। आपके यहां भी बालण या बधाण पूजन की विधि अलग होगी। मैंने यहां पर जो तरीका बताया है वह पौड़ी गढ़वाल में बसे मेरे गांव स्योली में होने वाली बधाण पूजा पर केंद्रित है। आप अपने अनुभवों, रीतियों को यहां पर (नीचे टिप्पणी वाले कालम में) जरूर साझा करें। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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रविवार, 13 दिसंबर 2015

याद आता है वो बचपन

           ---- जितेंद्र मोहन पंत ----


      
        पाटी बस्ता उर्ध्व सिर पर लटकाना, 
        पहाड़ी लघु सरिता फांदकर स्कूल जाना,
         मध्यांतर में अल्पाहार मिल बांटकर खाना, 
         वृताकार में पहाड़ों की रट लगाना,
          फिर से तख्ती लिखने को करता है मन,
           याद आता है वो बचपन।। 


हिम वर्षा, स्वर्ग खेतों से कपास का झड़ता,
संगियों को लिये इससे कंदुक—क्रीड़ा खेलता,
नग्न पांवों चलके स्वर्गाभास होता, 
'हिम मिष्ठान' का स्वादानुभव करता, 
फिर से हिम में लिपटने को कहता है तन,
याद आता है वो बचपन।।







गाय बैलों को लिये जाना चारागाह,
       बारिश में एकजुट होना, रखकर पशुओं पर निगाह,
       कभी खेल में मस्त होना, त्याग सब परवाह,
       क्या मदमस्त जीवन, न थी कोई चाह,
       क्या लौटेगा कभी वह अल्हड़पन,
       याद आता है वो बचपन।। 

संग तात के कभी खेतों में जाता,
हल की मुट्ठी पकड़कर बड़ा कृषक समझता,
कभी जोते खेत को क्रीड़ांगन बनाता,
कभी मृदा का तन से आलेपन करता,
क्या पल थे वे मनभावन,
याद आता है वो बचपन।। 





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 लेखक / कवि का परिचय :    

जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक। 'याद आता है वो बचपन' नामक उपरोक्त कविता उन्होंने 19 फरवरी 1995 लिखी थी। सेना के शिक्षा विभाग कार्यरत रहे। 11 मई 1999 को 37 साल की उम्र में निधन।

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मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

पिठाई शिष्टाचार है, दक्षिणा नहीं

पिठाई का म हत्व है, दक्षिणा का नही। मुख्य फोटो सौजन्य : बिजेन्द्र पंत 
        पिछले साल (2014) दो अवसर ऐसे आये जबकि मुझे अपने करीबी रिश्तेदारों की शादी में जाने का मौका मिला। दोनों अवसरों पर मैं वर पक्ष से था। पहली शादी 'लव मैरिज' थी। लड़की सिख परिवार से थी लेकिन विवाह दोनों परिवारों की सहमति से हरिद्वार के शांतिकुंज में संपन्न हुआ। सारी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद हम जिस धर्मशाला में ठहरे हुए थे विदाई के समय उसके हाल में एकत्रित होने के लिये कहा गया। पता चला कि लड़की वाले 'पिठाई' लगाने के लिये वरपक्ष के सभी लोगों को वहां बुला रहे हैं। वही पुराना चलन। पंडित जी पिठाई यानि तिलक लगाते और ​वधु के पिताजी एक लिफाफा बाराती के हाथ में रख देते। जब मेरी बारी आयी तो मैंने तिलक लगाने के बाद लिफाफा लेने से इन्कार कर दिया। वह जिद करने लगे। मैंने कहा, ''ये मेरे उसूल हैं। मैं पिठाई लगाता हूं दक्षिणा नहीं पकड़ता।'' वे फिर भी अड़े रहे। उनका कहना था, ''यह आपके यहां की परंपरा है और हम भी उसी को निभा रहे हैं। आपको दक्षिणा लेनी पकड़नी पड़ेगी।'' मैंने उनको समझाया और उन्हें जल्द ही मेरी बात समझ भी आ गयी। इसके कुछ महीनों बाद मेरे भांजे की शादी थी। वहां भी इसकी पुनरावृत्ति हुई। दुल्हन की मां को पता चला तो उन्हें लगा कि शायद दूल्हे का मामा नाराज है और इसलिए वह दक्षिणा नहीं ले रहे हैं। वह मेरे पास आयी लेकिन उन्हें समझाने में मुझे समय लगा।
         यदि हमारे यहां पिठाई के महत्व को समझा जाता और उसकी पवित्रता के साथ दक्षिणा को नहीं जोड़ा जाता तो शायद मुझे इन दोनों व्यक्तियों को समझाने की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए पहले हम पिठाई के महत्व और फिर दक्षिणा के बारे में जानेंगे। बाकी यह फैसला करना आपका काम है कि आपने पिठाई लेनी या फिर पिठाई लगवानी है। (पहाड़ों में दक्षिणा लेने को पिठाई लेना भी कहा जाता है)। 
  

पिठाई या तिलक लगाने का महत्व  

              पिठाई का चलन पहाड़ों से दशकों से चला आ रहा है। भारतीय अपने आतिथ्य के लिये जाने जाते हैं। 'अतिथि देवो भव' हम सभी ने सुना होगा। 'पिठाई' शिष्टाचार का हिस्सा है। इससे हम मेहमान के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हैं।  मेहमान के घर में प्रवेश करते समय और फिर विदाई पर पिठाई या तिलक लगाया जाता था। समय के साथ पिठाई के मायने बदल गये और ये बदलाव इसमें 'दक्षिणा' जोड़ देने से हुए। आलम यह है कि अब पहाड़ों में पिठाई का मतलब केवल तिलक लगाने तक सीमित नहीं रह गया है। इसका मतलब यह भी लगाया जाता है कि आपकी जेब में कुछ पैसे आएंगे। 'पिठाई कितनी लगी?' यह सवाल अक्सर घर के लोग भी कर देते हैं। शायद इस सवाल ने बच्चों में पिठाई के प्रति दिलचस्पी जगायी। मुझे लगता है कि यह पिठाई की पवित्रता से खिलवाड़ है।
         पिठाई लगाने का महत्व अलग है। पिठाई को मस्तक पर दोनों भौहों के बीचों बीच लगाया जाता है। इस जगह पर आज्ञाचक्र होता है। यह चक्र हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है, जहां शरीर की प्रमुख तीन नाडि़यां इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना आकर मिलती हैं। इसलिए इस स्थान को त्रिवेणी या संगम के नाम से भी जाना जाता है। यह हमारे चिं​तन मनन का स्थान होता है जो चेतन या अवचेतन अवस्था में भी जागृत रहता है। यहां से पूरे शरीर का संचालन होता है। ज्योतिषविदों का कहना है कि पिठाई या तिलक लगाने से ग्रहों की शांति होती है। अगर विज्ञान की बात करें तो जिस स्थान पर तिलक लगाया जाता है वहां पर पीनियल ग्रंथि होती है। तिलक लगाने पर पहले पीनियल ग्रंथि और फिर आज्ञाचक्र जागृत होता है। पिठाई सात्विकता का प्रतीक मानी जाती है। अक्सर आपने देखा होगा कि तिलक लगाते समय सिर पर हाथ रखा जाता है। इसका भी महत्व है। इससे आज्ञाचक्र से निकलने वाली सकारात्मक ऊर्जा पूरे शरीर में प्रवाहित होती। व्यक्ति के मन में सकारात्मक विचार आते हैं। यही वजह थी कि अतिथि के घर पर आने और विदाई के समय पिठाई लगायी जाती है ताकि वह सकारात्मक ऊर्जा के साथ घर में प्रवेश करें और उसी ऊर्जा के साथ विदाई भी लें। शादी और विवाह आदि में बाराती पहले दो दिन तक रहते थे और उन पर हर दिन पिठाई इसलिए लगायी जाती थी कि ताकि उनके मस्तिष्क में शांति और शीतलता बनी रहे। ज्योतिषविदों के अनुसार हल्दी, चंदन, केशर, कुमकुम आदि का तिलक लगाने से व्यक्ति सात्विक, सकारात्मक, आत्मविश्वास से पूर्ण, शांत और संयमित बना रहता है। 

पिठाई नहीं दक्षिणा पर नजर  

        लेकिन समय के साथ पिठाई या तिलक के मायने मतलब बदल गये। माथे पर इसके महत्व को समझने के बजाय लिफाफे के अंदर की राशि को अधिक महत्व दिया जाने लगा। शुरूआत एक पैसा, दो पैसे या एक रूपये से हुई होगी जो आज 100, 200, 500 और 1000 रूपये तक पहुंच गयी है। आपका जितना सामर्थ्य है आप उतनी दक्षिणा पिठाई में दे सकते हैं। यह पिठाई नहीं दक्षिणा है। हिन्दी शब्दकोष में दक्षिणा के  जो अर्थ मुझे मिले। उनसे आप भी अवगत हो जाइये। इसके अर्थ हैं.... 1. उपहार; दान; बख़्शीश, 2. वह धन जो किसी व्यक्ति को कर्मकांड या पूजा-हवन आदि करने के बदले दिया जाता है, 3. चढ़ावा और 4. किसी को दिया जाने वाला अनुचित धन; घूस; रिश्वत। आप इनमें से किसी भी अर्थ को लेकर क्या दक्षिणा लेना चाहेंगे? शायद नहीं। अगर पिठाई लगाने की अच्छी परपंरा के साथ दक्षिणा जोड़कर उसका स्वरूप बिगाड़ दिया गया तो मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि हम फिर से पिठाई के महत्व को समझें और उसके मूलरूप को अपनाने के लिये अपने प्रयास तेज कर दें। फैसला आपका है लेकिन इसका सकारात्मक प्रभाव पूरे समाज पर पड़ेगा। दहेज को पहली सीढ़ी पर ही नकार देने से उसके लिये आगे का रास्ता भी बंद होगा। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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