शनिवार, 23 जुलाई 2016

जब लगती थी 'गोठ' और होती थी 'गोठपुजाई'

गोठ। फोटो सौजन्य : नीलांबर नीलू पंत
     बात 1984 की है। दसवीं कक्षा में प्रवेश किया था मतलब अगले साल बोर्ड की परीक्षा देनी थी। इससे छह महीने पहले हालांकि मुझे एक और परीक्षा से गुजरना पड़ा था। उम्र 14 साल, छह महीने लेकिन मैंने गोठ या गोट  लगाने का फैसला किया था। वीरू (चचेरा भाई वीरेंद्र) का साथ था। गांव के दो लड़के शार्गिद बन गये। पिताजी मुझसे सहमत नहीं थे लेकिन सर्दियां शुरू होने पर गांव में अपने दूर के खेतों तक मोल़ (गोबर) मुझे पहुंचाना पड़ता। दीदी की उसी साल शादी हो गयी थी और उसके साथ रहते हुए मोल़ ढोलने (बोरी में भरकर गोबर खेतों तक पहुंचाना) या अन्य कामों में जितना ऐश करना था वह कर लिया था। भैजी के लिये लड़की की तलाश जारी थी और मां पर धीरे धीरे उम्र हावी हो रही थी। मतलब कम से कम इन सर्दियों में तो मुझे ही खेतों तक गोबर पहुंचाना होगा। दूर के खेतों तक गोबर पहुंचाने से बचने का एकमात्र रास्ता सितंबर . अक्तूबर में गोठ लगाना था और इसलिए मैं भावी मेहनत से बचने के लिये अपने फैसले पर अडिग था। 
      मैं अपनी इस कहानी को कुछ आगे बढ़ाने से पहले आपको गोठ के बारे में बता दूं। गोठ या गोट मतलब गोशाला। मैंने गोठ को लेकर फेसबुक के घसेरी ग्रुप में एक पोस्ट डाली थी। इस पर श्रीमती क्षिप्रा पांडेय शर्मा ने बताया कि कुमांऊ में मकान के नीचे के हिस्से को गोठ कहते हैं जबकि श्री विवेक ध्यानी ने कम शब्दों में गोठ को अच्छी तरह से परिभाषित कर दिया। उनके शब्दों में, ''गोट। जहां गावं के कुछ लोग अपने पशुओं को एक साथ अस्थायी तौर पर कुछ दिनों के लिए रखते हैं? '' नीलांबर नीलू पंत ने फोटो उपलब्ध करायी और बताया कि उन्होंने भी गोठ लगायी है और इसमें उन्हें बहुत आनंद आता था। हमारे लिये गोठ का मतलब था खेतों में टिन या कांस से बने पल्ला डालना जो आपके सिर के ऊपर छत का काम करे और फिर ​जहां तक आपका खेत हैं उसमें गाय, बैल, बछड़े, भेड़ बकरियां बांध कर रात भर उनकी रखवाली करना। ये पालतू पशु रात में जितना मूत्र या गोबर करते खेत को उतनी खाद मिलती और गुठेर (गोठ लगाने वाला) के दिल को सुकून। सीधा सा मतलब 'गोबर की पूर्ति के लिये खेतों में पशुओं को बांधना'। पहाड़ों में सितंबर . अक्तूबर में बहुत काम होता है। इस दौरान अमूमन अक्तूबर में गोठ लगायी जाती है। गढ़वाली के मशहूर कवि श्री दीनदयाल सुंद्रियाल 'शैलज' के शब्दों में  ''बांस व घास के पल्लों के नीचे, टांट (बांस से बनाया गया सुरक्षा चक्र) के पीछे भेड़ बकरियों की खुशबू वाली महकती रात और टप टप  बरसात की बूंदों की आवाज़ के आनंद के साथ साथ अचानक बाघ या किसी जंगली जानवर के आने के अंदेशे से उत्पन्न रोमांच वही महसूस कर सकता है जिसने गोठ मे रात बिताई हो।"

गांव में गाय बैलों को बांधने के लिये स्थायी कीला और रस्सी होता है। । गोट के लिये कीले लकड़ियों के बनाये जाते हैं। इनका निचला वाला हिस्सा नुकीला होता है। भीमल की टहनियों को कुछ दिन पानी में भिगोने के बाद उससे मिलने वाले स्योलू से रस्सियां तैयार की जाती थी। 
       गोठ भी दो तरह की होती थी। एक छोटी गोठ यानि एक या दो पल्ले डालना ताकि उसके अंदर दो चारपाई समा जाएं। इस तरह की गोठ में पशुओं के रूप में केवल गाय बैलों को ही रखा जाता था। दूसरी चार से छह पल्लों की बड़ी गोठ। इसमें भेड़ और बकरियां गोठ में रहती थी। तीन पल्ले जमीन से सीधे खड़े करके तीन पल्लों को उसके ऊपर बड़ी कुशलता से रखकर डंडों के सहारे उसे कुछ हद तक झोपड़ी का रूप दे देना। इसमें आगे और दोनों किनारों का हिस्सा खुला रहता था। दोनों किनारों पर एक . एक चारपाई डाल दी जाती थी और बीच में भेड़ बकरियां बांध दी जाती थी। बाकी पशु बाहर खुले में बांधे जाते थे। डर बाघ या सियार से होता था जो भेड़ बकरियों पर ज्यादा घात लगाये रहते थे। भेड़ बकरियों का गोबर ज्यादा उपजाऊ माना जाता है।
     मैंने छोटी तरह की गोठ लगाने की तैयारी की थी। मतलब हमारे पास दो पल्ले थे और भेड़ बकरियां हमारे पास नहीं थी। चार परिवारों के चार लड़के थे। इसका मतलब था कि अगर 28 दिन गोठ लगानी है तो प्रत्येक के खेत में सात दिन गोठ लगेगी। अगर किसी के खेत कम हैं तो वह अपना हिस्सा दूसरे को दे सकता था। गांव बड़ा था और इसलिए गुठेर हम ही नहीं थे। गांव के दूसरे लड़कों और वयस्कों ने भी हमारी तरह समूह बनाकर गोठ लगाने का फैसला किया था। गोठ के लिये सबसे पहला और मुश्किल काम था पशु जुटाना। आप अपने घरों से दुधारू पशुओं या छोटे बछड़ों को नहीं ले जा सकते थे। वैसे गोठ लगाने से पहले एक अदद सांड की तलाश भी होती थी। इससे अपने गांव सहित इधर उधर के गांवों से उन गायों के मिलने की संभावना बढ़ जाती थी जो दुधारू नहीं हों। अधिक पशु होने पर खेत को अधिक खाद मिलती थी लेकिन मेहनत भी उतनी की बढ़ जाती थी।
       जिसके खेत में गोठ लगती थी उसके लिये वह सुबह से लेकर अगले दिन सुबह तक की मेहनत का काम था। पहले उसे सुबह दूसरे के खेत से सभी पशुओं को चराने के लिये ले जाना पड़ता था। पल्ला, चारपाई और बिस्तर उसके खेत तक पहुंचाने में तो सुबह बाकी साथी मदद कर देते थे लेकिन कीला (बड़ी और मोटी खूँटी) और ज्यूड़ा (पशुओं को बांधने की रस्सियां) अपने खेत तक खुद पहुंचानी पड़ती थी। दिन भर गाय बैल चराने के बाद शाम को गोठ के पास पहुंचकर कीला गाड़ने पड़ते थे। कीला गाड़ने के लिये मुंगरू (मोटी लकड़ी से बना, जिसके आगे का हिस्सा मोटा होता है) होता था जिसका खास महत्व होता था। इसे रात को गोठ के पास खड़ा करके रखा जाता था। कहा जाता था कि मुंगरू रखने से भूत पिशाच गोठ में हमला नहीं करते थे। कीला गाड़ने के बाद जो कमजोर या छोटा पशु यानि बछड़ा है तो उसे गोठ (जहां पर पल्ले लगे होते थे) के पास बांधा जाता था जबकि बड़े और ताकतवर पशुओं को थोड़ा दूर। इनमें सांड भी शामिल होता था। सांड की प्रकृति और प्रवृति को देखकर उसे खुला भी छोड़ दिया जाता था। अब इंतजार होता था उस घड़ी का जब गांव से बाकी साथी खाना लेकर आते थे। पेट में चूहे कूद रहे होते थे और जब खाना मिल जाता था तो वह किसी अमृत से कम नहीं लगता था। कई बार गोठ में ही खाना बनाया जाता था। खिचड़ी से लेकर खीर तक। रोटी और सब्जी भी। इसके बाद यदि आसपास में दूसरी गोठ भी होती तो फिर कछड़ी (छोटी बैठक) जम जाती। कई बार कक​ड़ियों की भी चोरी होती और फिर रात में पेट भरा होने के बावजूद भी चाव से ककड़ी खायी जाती। ककड़ी चोरी के भी किस्से हैं। 

भेड़ बकरियों को बांधने के लिये अलग से रस्सी बनायी जाती है। इसे स्थानीय भाषा में तांद कहते हैं। एक तांद में सात आठ बकरियों को बांधा जाता है। गोठ में दो चारपाईयों को कुछ दूरी पर लगाने के बाद उनके बीच में तांद लगायी जाती है। 
      मैंने जब भी इस तरह से इंतजार किया तो अक्सर गोठ के अंदर ही दुबके रहकर पशुओं पर नजर रखता था। भूतों पर विश्वास नहीं करता था इसलिए भूतों से अधिक डर बाघ का रहता था। अगर आ गया तो फिर मेरी पैंट का गीली होना तय था। मेरे साथ ऐसी कोई घटना नहीं घटी लेकिन छोटे भाई बिजू (बिजेंद्र पंत) एक रोमांचक किस्सा सुनाया।  बिजेंद्र के शब्दों में,  ''मैंने 1991 में गोठ लगायी थी जिसमें हम चार पार्टनर थे। बड़ा उत्साह था। रात ढलने को आयी तो चार में से दो जने घर रोटी लाने चले गये और दो गोठ में रहे। रात को खाना खाकर सो गये। सब गहरी नींद में थे तभी रात एक बजे के आसपास अचानक पशुओं की हड़बड़ाहट से नींद खुली। देखा तो सभी पशु सहमे हुए थे। पशुओं की गिनती की तो एक बछड़ा कम निकला। जब तक खेत से दूर उसे ढूंढते तब तक बाघ अपना काम कर चुका था। इसके बाद जैसे तैसे सो गये लेकिन रात के तीन बजे के आसपास हमारा पल्ला हिलने लग गया। कानों में किल​कारियां गूंज रही थी। काटो तो खून नहीं वाली स्थिति थी। जैसे तैसे रात काटी। सुबह हमें बताया गया कि हमने मुंगरू सही नहीं रखा था गोठ के अंदर और इसलिए भूत वहां प्रवेश कर गया था। कहते हैं कि मुंगरू जरूरी होता है गोठ में रक्षा के लिये। इसके बाद हमें कभी ऐसा अनुभव नहीं हुआ। ''
        आखिर में उस दिन का इंतजार रहता था जब 'गोठपुजाई' या 'ग्वठपुजै' होती थी। किसी विशेष दिन गोठ समाप्त होती थी और उस दिन बाकायदा पूजा की जाती थी। मुंगरू को हमेशा देवता की तरह सम्मान दिया जाता था। उस पर पांव नहीं लगाये जाते और आखिरी दिन उसकी पूजा होती। उसे घी दूध से नहलाया जाता था। कई तरह के व्यंजन बनते। श्री दीनदयाल सुंद्रियाल शैलज के अनुसार, ''जब हम बहुत छोटे छोटे थे तो हमारे घर के सयाने गोठ से सुबह घर आते तो हमे गोठ की रोटी का बड़ा इंतज़ार रहता था। बिना किसी शाक सब्जी के बासी रोटी की मिठास का शायद सुबह सुबह की भूख तृप्त होने से संबद्ध होगा पर हमारे लिए तो गोठ की रोटी भगवान के प्रसाद जैसी चीज थी और हम छोटे भाई बहिनो मे इसके लिए लड़ाई भी हो जाती थी लेकिन असली उत्साह और उमंग का अवसर तब आता था जब चौमास समाप्त होने पर गोठ को घर आना होता तो "गोठपुजाई" एक  उत्सव की रात होती थी। उस दिन गोठ की रसोई मे ही सभी संबंधित परिवारों के लिए विविध व्यंजन पकते थे जिसमे दाल के भूड़े व खीर तो अवश्य बनती थी। ये दोनों चीजें मुझे आज भी बहुत प्रिय है।''
       तो ये थी गोठ की कहानी। आपमें से कई भाईयों ने गोठ जरूर लगायी होगी और आपके साथ भी कुछ रोचक किस्से घटित हुए होंगे। यहां टिप्पणी वाले कालम में जरूर साझा करें। आपके किस्सों का इंतजार रहेगा। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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बुधवार, 6 जुलाई 2016

गढ़वाल में धर्मशाला जैसा स्टेडियम बन सकता है रांसी

धर्मशाला के एचपीसीए स्टेडियम जैसा खूबसूरत बनने की सारी संभावनाएं मौजूद हैं पौड़ी के रांसी मैदान में। 
     
    र्मशाला के एचपीसीए क्रिकेट स्टेडियम में जब पहली बार गया तो उसकी खूबसूरती ने वास्तव में मन मोह लिया। सामने हिमाच्छादित हिमालय और उसी की एक पहाड़ी पर निर्मित किया गया स्टेडियम। आसपास की भौगोलिक स्थितियों के अलावा मैदान की हरी घास और बेहद व्यवस्थित पवेलियन और रेस्टोरेंट। हिमाचल प्रदेश क्रिकेट संघ के अध्यक्ष, पूर्व में बीसीसीआई सचिव और अब बोर्ड के प्रमुख अनुराग ठाकुर के अच्छे प्रयासों का एक खूबसूरत नमूना।
        इस साल गर्मियों में जब पौड़ी के रांसी मैदान पर गया तो धर्मशाला की यादें ताजा हो गयी। पहाड़ी की चोटी पर स्थित मैदान जिसे प्रकृति से भरपूर रंग मिले हैं। दूर पहाड़ियों में अठखेलियां करते बादल और पास में देवदार जैसे वृक्षों की कतार और उनसे वातावरण में फैली शीतलता। वास्तव में रांसी का यह मैदान किसी का भी मन मोह सकता है। अंतर इतना है कि इसे पिछले कई वर्षों से कछुआ चाल से तैयार किया जा रहा है और चार दशक पहले नींव रखे जाने के बावजूद सुविधाओं के नाम पर यहां कुछ नहीं है। भाई गणेश खुगसाल 'गणी' के साथ जब रांसी मैदान गया तो पहला शब्द मुंह से यही निकला कि 'यह तो गढ़वाल में धर्मशाला जैसा मैदान बन सकता है।' बस रांसी को एक अनुराग ठाकुर की जरूरत है।

रांसी मैदान पर जब मैंने बल्ला थामा तो छोटे बेटे प्रदुल ने एक अच्छी फोटो भी क्लिक कर दी। बाद में गणी भैजी ने भी अपने क्रिकेट कौशल का अच्छा नमूना पेश किया।  

      रांसी मैदान पौड़ी के ऊपर लगभग 7000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। कहा जाता है कि यह एशिया में इतनी अधिक ऊंचाई पर स्थित अकेला स्टेडियम है। हेमवती नंदन बहुगुणा जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब 1974 में उन्होंने इस स्टेडियम की नींव रखी और इसके निर्माण के लिये 12 लाख रूपये मंजूर किये थे। मैदान का निर्माण होने के बाद यहां जिला और राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं का भी आयोजन हुआ। उत्तर प्रदेश सरकार ने हालांकि बाद में मैदान पर ध्यान नहीं दिया जिससे इसकी स्थिति बिगड़ने लगी। मेजर जनरल (सेवानिवृत) भुवन चंद्र खंडूड़ी जब केंद्र में परिवहन मंत्री थे तब उन्होंने अपने सांसद कोष और केंद्र से रांसी मैदान के नवीनीकरण के लिये पैसे दिये थे। इसके बाद उन्होंने उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने पर भी स्टेडियम के विकास के लिये पांच करोड़ रूपये देने की घोषणा की थी। 

      रांसी मैदान पर अब भी निर्माण कार्य चल रहा है लेकिन उसकी गति बेहद धीमी है। देखकर लगता है कि जैसे किसी को भी इस मैदान की चिंता ही नहीं है। उत्तराखंड सरकार चाहे तो इसको एक बड़े मैदान और खूबसूरत स्टेडियम में बदल सकती है। इस तरह के स्टेडियम के निर्माण और उसमें सुविधाएं प्रदान करने से पर्यटकों को भी लुभाया जा सकता है। भारतीय क्रिकेट बोर्ड यानि बीसीसीआई इस खेल को गांवों में पहुंचाने की बात करता है ताकि अच्छी प्रतिभा उभरकर सामने आ सके। इसके लिये उसे रांसी जैसे मैदानों पर गौर करना होगा। रांसी को अभी एथलेटिक्स या फुटबाल स्टेडियम के तौर पर ​तैयार किया जा रहा है लेकिन इन खेलों के लिये पास में ही स्थित कंडोलिया का मैदान है जिसका नवीनीकरण किया जाना जरूरी है। 

रांसी स्टेडियम में दर्शकों के लिये अभी कुछ भी खास इंतजाम नहीं किये गये हैं। 
     ऐसा लगता है ​कि खूबसूरती तो रांसी के रग रग में भरी है लेकिन उसे सजाने संवारने की जरूरत है। उसे एचपीसीए स्टेडियम की तरह दुल्हन का रूप देने की जरूरत है। बीसीसीआई दस नखरे दिखा सकता है। वह पौड़ी में बड़ा होटल या हवाई पट्टी नहीं होने का बहाना बना सकता है लेकिन हमारी अपनी सरकार तो है। वह चाहे तो रांसी स्टेडियम के​ लिये आदर्श पिता साबित हो सकती है। उसकी खूबसूरती में चार चांद लगा सकती है। काश कि ऐसा हो पाता। अभी तो मैं गणी भाई का आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने मुझे रांसी स्टेडियम के दर्शन कराये। मैं इस मैदान पर क्रिकेट खेल रहे उन तीन . चार युवाओं का आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने मुझे अपने साथ एक खिलाड़ी बनने का मौका दिया। मैं अब कह सकता हूं कि रांसी मैदान पर बल्ला मैंने भी घुमाया और मैंने भी गेंदबाजी की है। उम्मीद यही है कि एक दिन रांसी भी एचपीसीए जैसा खूबसूरत स्टेडियम बनेगा और तब मैं अपने पोते . पोतियों को बड़े शान से बताऊंगा कि 'इस मैदान पर तो मैंने भी क्रिकेट खेली है।' आपका धर्मेन्द्र पंत

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