शनिवार, 21 मई 2016

काफल खाओ, जवां बन जाओ

आयुर्वेद में कायफल और संस्कृत में कटफल कहा जाता है काफल को जो अच्छा एंटी-आक्सीडेंट भी है। 
       र पहाड़ी व्यक्ति ने काफल जरूर खाये होंगे और उनसे जुड़ी एक कहानी भी सुनी होगी। उत्तराखंड में हर जगह यह कहानी प्रचलित है। इसको प्रस्तुत करने का तरीका भले ही अलग हो लेकिन उसका सार एक है। वही 'काफल पाको, मिल नी चाखो' वाली कहानी। आपको याद तो आ गयी होगी। चलो एक बार मैं फिर से सुना देता हूं। 
     किसी गांव में एक गरीब विधवा महिला रहती थी जो खेती करके या खेतों में मेहनत मजदूरी करके अपना और अपनी छोटी बेटी का पेट पालती थी। एक बार वह जंगल गयी और वहां से टोकरी भर के काफल ले आयी। उसे खेतों में काम करने जाना था, इसलिए उसने अपनी बेटी से कहा कि वह काफल का ध्यान रखे लेकिन साथ ही सख्त हिदायत भी दे दी कि वह उन्हें खाये नहीं। जब वह खेतों से काम करके आ जाएगी तो दोनों मिलकर खाएंगे। लाल, काले रसीले काफल देखकर बेटी का मन बहुत ललचा रहा था लेकिन उसने खुद पर काबू रखा। मां थक हार कर आयी तो बेटी ने आते ही कहा मां भूख लगी क्या अब हम काफल खा लें। मां ने टोकरी की तरफ देखा तो पाया कि टोकरी पहले की तरह भरी हुई नहीं थी। वह थकी और भूखी थी और उसने तुरंत बेटी से कहा, ''तूने काफल खाये'। बेटी ने कहा, 'नहीं मां मैंने नहीं खाये। मैंने तो काफल चखे भी नहीं। ' मां को गुस्सा आ गया कि बेटी काफल भी खा गयी और झूठ भी बोल रही है। उसने आव देखा न ताव बेटी को जोर से थप्पड़ मारा। वह नीचे गिर गयी और उसका सिर पत्थर से लग गया। भूखी और प्यासी नन्हीं सी जान ने वहीं पर दम तोड़ दिया। महिला बदहवास हो गयी कि उसने सिर्फ काफल के लिये अपनी बेटी मार दी। उसने काफल बाहर रख दिये। रात को जब ओस पड़ी तो उसने देखा कि काफल की टोकरी तो भरी हुई है। तब उसे समझ में आया कि दिन में धूप से काफल भी सिकुड़ गये थे। बेटी ने सच में काफल नहीं खाये थे। बेटी के गम में उसने भी दम तोड़ दिया। कहते हैं कि ये दोनों मां बेटी पक्षी बन गये। आज भी चैत के महीने में पहाड़ों में एक चिड़िया कुछ इस तरह से बोलती है, 'काफल पाको, मिल नी चाखो' (काफल पके हैं, लेकिन मैंने नहीं चखे)। इसके जवाब में एक दूसरी चिड़ियां कुछ इस तरह से क्रंदन करती है, 'पुर पुतई पूर पूर' (पूरे हैं बेटी पूरे हैं)। 
   यह कहानी बेहद मार्मिक है जो हमें सीख देती है कि जल्दबाजी या ताव में कभी कोई काम नहीं करना चाहिए। यदि गुस्से को काबू कर लिया तो कई काम बिगड़ने से बच जाते हैं। आईए अब बात करते हैं कि इस कहानी केंद्र बिंदु काफल के बारे में ....

देवताओं का फल है काफल 


      काफल बेहद लोक​​प्रिय, औषधीय गुणों से भरपूर लेकिन बहुत जल्दी खराब होने वाला पहाड़ी फल है जो मुख्य रूप से उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और नेपाल में पाया जाता है। यह असल में एक जंगली फल है जिसकी खेती नहीं की जाती है। इसको आयुर्वेद में कायफल और संस्कृत में कटफल कहा जाता है। पहाड़ों में ऊंचाई वाले स्थानों पर पाये जाने वाले काफल का पेड़ का अमूमन 10-15 मीटर ऊंचा होता है। इसका फल छोटा बेर जैसा होता है जिसके अंदर गुठली भी होती है। काफल चैत्र और बैशाख के महीने में होता है। उत्तराखंड के एक मशहूर गीत के बोल भी हैं, ''बेडू पाको बारामासा, ओ नरैणी काफल पाको चैता, मेरी छैला।'' यानि बेडू हर महीने पकता है लेकिन काफल चैत के महीन में ही पकता है। अप्रैल से लेकर जून तक पहाड़ों में लोग जंगलों से काफल लेकर सड़कों के किनारे इसे बेचते हैं। पर्यटकों को खासा लुभाता है यह फल। हिमाचल प्रदेश में इसे काला भौरा और पूर्वोत्तर के राज्यों में सोहफी के नाम से भी जानाता जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम माइरिका इस्कुलाटा है। 
     काफल शुरू में हरा होता है जबकि बाद में लाल तो कुछ कुछ काल, मटमैले और बैंगनी से बन जाते हैं। जब यह हरा होता है तो इसका स्वाद खट्टा जबकि पकने पर मीठा होता है। कुमाऊँनी भाषा के पहले कवि गुमानी पंत ने इसे स्वर्ग से धरती पर आया फल बताया है। उन्होंने काफल की व्यथा का वर्णन इस तरह से किया है, ''खाणा लायक इंद्र का, हम छियां भूलोक आई पणां। पृथ्वी में लग यो पहाड़, हमारी थाती रची देव लै। एसो चित्त विचारी काफल सबै राता भया क्रोध लै। कोई बड़ा—खुड़ा शरम लै काला धुमैला भया। '' (हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे और अब धरती पर आ गए। पृथ्वी में ईश्वर ने पहाड़ों पर हमारा स्थान बनाया। इस पर विचार करते हुए काफल गुस्से से लाल तो कुछ बड़े बूढ़े शर्म से काले या मटमैले हो गये।) काफल गुच्छों में लगता है। कच्चे काफलों की चटनी बनायी जाती है जो बहुत स्वादिष्ट होती है। 
   काफल अभी उत्तराखंड में आय का अच्छा स्रोत बन गया है। गर्मियों में सड़कों के किनारे या बाजारों में ग्रामीण टोकरियों में लेकर यह फल बेचते हैं। कहते हैं कि मैदानों में रहने वाले पर्यटक ने एक बार किसी ग्रामीण से पूछा कि 'ये काफल है भइया?' तो उसे जवाब मिला, 'हां काफल है भैया'। पर्यटक गुस्से से तिलमिला गया। मेरा मजाक उड़ा रहा है। बाद में उसे समझाया गया कि असल में फल का नाम ही काफल है। पर्यटकों को यह वैसे काफी पसंद आता है। 

काफल खाओगे तो रहोगे जवान 


    काफल औषधीय गुणों से भरपूर है। कहा जाता है कि काफल खाने वाला व्यक्ति हमेशा जवान रहता है। इसका कारण इसमें एंटी-आक्सीडेंट गुणों का पाया जाना है। इसके इन गुणों से यह तनाव कम करने, स्ट्रोक और कैंसर से बचाने में सहायक होता है। यह पेट की कई बीमारियों का निदान करता है और लू लगने से बचाता है। यदि आपको भूख नहीं लगती है तो काफल खाईये। आयुर्वेद के अनुसार यह भूख की अचूक दवा है। मधुमेह के रोगियों के लिये भी यह उपयोगी है।  काफल में फायटोकेमिकल पोलीफेनोल पाया जाता है जो विषाणुरोधी होता है। यह सूजन कम करने में लाभकारी होता है। काफल रसीला फल है लेकिन इसमें रस की मात्रा 40 प्रतिशत ही होती है। इसमें विटामिन सी, खनिज लवण, प्रोटीन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, आयरन और मैग्निशीयम होता है। 
    आयुर्वेद के अनुसार काफल के फल ही नहीं बल्कि छाल भी बेहद उपयोगी होती है। इसकी छाल में मायरीसीटीन, मायीसीट्रिन और ग्लाइकोसाईड पाया जाता है। इसकी छाल चबाने से दांतों के दर्द में राहत मिलती है। यही नहीं काफल की छाल को उबालकर तैयार द्रव्य में अदरक और दालचीनी मिलाकर उससे अस्थमा, डायरिया, टाइफाइड जैसी बीमारियों का इलाज भी किया जाता है। पेट गैस की समस्या दूर करने के लिये भी इसकी छाल का उपयोग किया जाता है। इसकी छाल का पेस्ट बनाकर घाव पर लगाने से वह जल्दी ठीक होता है। जोड़ों के दर्द में भी इसे उपयोगी माना जाता है। काफल की छाल को पीसकर उसका पाउडर तैयार किया जाता है जो जुकाम, गले की बीमारी और खांसी में उपयोगी होता है। काफल का फूल से भी कान दर्द, लकवा और डायरिया के लिये औ​षधि तैयार की जाती थी। 
   काफल खाना है तो पहाड़ जाना ही पड़ेगा क्योंकि मैंने पहले भी लिखा था कि इसे लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। मेरे गांव के जंगल के शुरू में ही काफल का बड़ा सा पेड़ था। हमारे गांव स्योली का शायद ही कोई शख्स होगा जिसने उस पेड़ के काफल नहीं खाये होंगे। मैंने तो खूब खाये हैं। आपने भी पहाड़ में रहते हुए काफल खाये होंगे। तो बताईये काफल से जुड़ी अपनी कहानी। अभी मैं तो चला काफल खाने, बाद में किसी और विषय पर बात करते हैं। आपका पहाड़ी भाई धर्मेन्द्र पंत 

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रविवार, 8 मई 2016

उत्तराखंड में बोली जाती हैं 13 भाषाएं

कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी। यह कहावत उत्तराखंड पर अक्षरश: लागू होती है। 

   दुनिया आज 'मदर्स डे' मना रही है। मां के लिये भी एक दिन तय कर दिया है, मुझे यह जंचता नहीं है। मां हर दिन याद आती है और हर दिन मां के लिये होता है। पहाड़ों में मां को मां के अलावा ब्वे, बोई, ईजा, आमा कई तरह से पुकारा जाता है। इस पर बाद में चर्चा करेंगे। अभी तो आपसे मैं एक सवाल करता हूं कि उत्तराखंड में कितनी भाषाएं बोली जाती हैं? मैंने यह सवाल कई पहाड़ियों से किया तो उनमें से अधिकतर का जवाब होता था तीन यानि गढ़वाली, कुमांउनी और जौनसारी। आज 'घसेरी' आपको उत्तराखंड की तमाम भाषाओं से अवगत कराने की कोशिश करेगी।
       उत्तराखंड में कुल 13 भाषाएं बोली जाती हैं। यह 'घसेरी' नहीं बल्कि भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण का निष्कर्ष है। उत्तराखंड की भाषाओं को लेकर सबसे पहले सर्वेक्षण करने वाले जार्ज ग्रियर्सन ने भी इनमें से अधिकतर भाषाओं की जानकारी दी थी। ग्रियर्सन ने 1908 से लेकर 1927 तक यह सर्वेक्षण करवाया था। इसके बाद उत्तराखंड की भाषाओं को लेकर कई अध्ययन किये गये। हाल में 'पंखुड़ी' नामक संस्था ने भी इन भाषाओं पर काम किया। यह सभी काम 13 भाषाओं पर ही केंद्रित रहा। इनमें गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, जौनपुरी, जोहारी, रवांल्टी, बंगाड़ी, मार्च्छा, राजी, जाड़, रंग ल्वू, बुक्साणी और थारू शामिल हैं। इस पर मतभेद हो सकते हैं कि ये भाषाएं हैं या बोलियां। मेरा मानना है कि अगर एक बोली का अपना शब्द भंडार है, वह खुद को अलग तरह से व्यक्त करती है तो उसे भाषा बोलने में गुरेज क्या। कई लोगों को मानना है कि उत्तराखंड की भाषाओं की अपनी लिपि नहीं है तो मेरा इस पर जवाब होता है कि अंग्रेजी की भी अपनी लिपि नहीं है। वह रोमन लिपि में लिखी जाती है तो क्या आप उसे भी भाषा नहीं मानोगे। मराठी की देवनागरी लिपि है और हमारे उत्तराखंड की भाषाओं जो साहित्य​ लिखा गया उसमें ​देवनागरी का ही उपयोग किया गया। इस विषय पर आगे कभी लंबी चर्चा हो सकती है। फिलहाल 'घसेरी' के साथ चलिए भाषाओं को लेकर उत्तराखंड की सैर करने।

कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी 


    हम सभी जानते हैं कि उत्तराखंड में दो मंडल हैं गढ़वाल और कुमांऊ। इन दोनों की अपनी अलग अलग भाषाएं हैं। इनसे जुड़े क्षेत्रों की अन्य भाषाएं इनसे प्रभावित हो सकती हैं लेकिन अध्ययन के दौरान 'घसेरी' ने पाया कि उनकी शब्दावली और वाक्य विन्यास में काफी अंतर पाया जाता है। वैसे साथ में चेतावनी भी ​है कि यूनेस्को ने उत्तराखंड की सभी भाषाओं को संकटग्रस्त भाषाओं की श्रेणी में शामिल किया है। इसको संकट में हम ही डाल रहे हैं इसलिए सावधान हो जाइये। गढ़वाली और कुमांउनी यहां की दो मुख्य भाषाएं हैं इसलिए पहले इन्हीं के बारे में जान लेते हैं।



गढ़वाली : गढ़वाल मंडल के सातों​ जिले पौड़ी, टिहरी, चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, देहरादून और हरिद्वार गढ़वाली भाषी लोगों के मुख्य क्षेत्र हैं। कुमांऊ के रामनगर क्षेत्र में गढ़वाली का असर देखा जाता है। माना जाता है कि गढ़वाली आर्य भाषाओं के साथ ही विकसित हुई लेकिन 11—12वीं सदी में इसने अपना अलग स्वरूप धारण कर लिया था। इस पर हिन्दी के अलावा मराठी, फारसी, गुजराती, बांग्ला, पंजाबी आदि का भी प्रभाव रहा है लेकिन गढ़वाली का अपना शब्द भंडार है जो काफी विकसित है और हिन्दी जैसी भाषा को भी अपने शब्द भंडार से समृद्ध करने की क्षमता रखती है। ग्रियर्सन ने गढ़वाली के कई रूप जैसे श्रीनगरी, नागपुरिया, बधाणी, सलाणी, टिहरियाली, राठी, दसौल्या, मांझ कुमैया आदि बताये थे। बाद में कुछ साहित्यकारों ने मार्च्छा, तोल्छा, जौनसारी का भी गढ़वाली का ही एक रूप माना। गढ़वाली भाषाविद डा. गोविंद चातक ने श्रीनगर और उसके आसपास बोली जाने वाली भाषा को आदर्श गढ़वाली कहा था। वैसे भी कहा गया है, ''कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी। ''
कुमांउनी : कुमांऊ मंडल के छह जिलों नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत और उधमसिंह नगर में कुमांउनी बोली जाती है। वैसे इनमें से लगभग हर जिले में कुमांउनी का स्वरूप थोड़ा बदल जाता है। गढ़वाल और कुमांऊ के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोग दोनों भाषाओं को बोल और समझ लेते हैं। कुमाउंनी की कुल दस उप बोलियां हैं जिन्हें पूर्वी और पश्चिमी दो वर्गों में बांटा गया है। पूर्वी कुमाउंनी मेंकुमैया, सोर्याली, अस्कोटी तथा सीराली जबकि पश्चिमी कुमाउंनी में खसपर्जिया, चौगर्खिया, गंगोली, दनपुरिया, पछाईं और रोचोभैंसी शामिल हैं। कुमांऊ क्षेत्र में ही भोटिया, राजी, थारू और बोक्सा जनजातियां भी रहती हैं जिनकी अपनी बोलियां हैं। पुराने साहित्यकारों ने इसे 'पर्वतीय' या 'कुर्माचली' भाषा कहा है।
जौनसारी : गढ़वाल मंडल के देहरादून जिले के पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र को जौनसार भाबर कहा जाता है। यहां की मुख्य भाषा है जौनसारी। यह भाषा मुख्य रूप से तीन तहसीलों चकराता, कालसी और त्यूनी में बोली जाती है। इस क्षेत्र की सीमाएं टिहरी ओर उत्तरकाशी से लगी हुई हैं और इसलिए इन जिलों के कुछ हिस्सों में भी जौनसारी बोली जाती है। जार्ज ग्रियर्सन ने इसे पश्चिमी पहाड़ी की बोली कहा था। कहने का मतलब है कि इसे उन्होंने हिमाचल प्रदेश की बोलियों के ज्यादा करीब बताया था। इसमें पंजाबी, संस्कृ​त, प्राकृत और पाली के कई शब्द मिलते हैं।
जौनपुरी: यह ​टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड में बोली जाती है। इसमें दसजुला, पालीगाड़, सिलवाड़, इडवालस्यूं, लालूर, छःजुला, सकलाना पट्टियां इस क्षेत्र में आती हैं। टिहरी रियासत के दौरान यह काफी पिछड़ा क्षेत्र रहा लेकिन इससे यहां की अलग संस्कृति और भाषा भी विकसित हो गयी। यह जनजातीय क्षेत्र है। डा. चातक के अनुसार यमुना के उदगम के पास रहने के कारण इन्हें यामुन जाति कहा जाता था। कभी इस क्षेत्र को यामुनपुरी भी कहा जाता था जो बाद में जौनपुरी बन गया।
रवांल्टी :  उत्तरकाशी जिले के पश्चिमी क्षेत्र को रवांई कहा जाता है। यमुना और टौंस नदियों की घाटियों तक फैला यह वह क्षेत्र है जहां गढ़वाल के 52 गढ़ों में से एक राईगढ़ स्थित था। इसी से इसका नाम भी रवांई पड़ा। इस क्षेत्र की भाषा गढ़वाली या आसपास के अन्य क्षेत्रों से भिन्न है। इस भाषा को रवांल्टी कहा जाता है। डा. चातक ने पचास के दशक में 'गढ़वाली की उप बोली रवांल्टी, उसके लोकगीत' विषय पर ही आगरा विश्वविद्यालय से पीएचडी की थी। वर्तमान समय में भाषा विद और कवि महावीर ​रवांल्टा इस भाषा के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
जाड़ : उत्तरकाशी जिले के जाड़ गंगा घाटी में निवास करने वाली जाड़ जनजाति की भाषा भी उनके नाम पर जाड़ भाषा कहलाती है। उत्तरकाशी के जादोंग, निलांग, हर्षिल, धराली, भटवाणी, डुंडा, बगोरी आदि में इस भाषा के लोग मिल जाएंगे। जाड़ भोटिया जनजाति का ही एक अंग है जिनका तिब्बत के साथ लंबे समय तक व्यापार रहा। इसलिए शुरू में इसे तिब्बत की 'यू मी' लिपि में भी लिखा जाता था। अभी इस बोली पर काफी खतरा मंडरा रहा है।
बंगाणी : उत्तरकाशी जिले के मोरी तहसील के अंतर्गत पड़ने वाले क्षेत्र को बंगाण कहा जाता है। इस क्षेत्र में तीन पट्टियां— मासमोर, पिंगल तथा कोठीगाड़ आती हैं जिनमें बंगाणी बोली जाती है। यूनेस्को ने इसे उन भाषाओं में शामिल किया है जिन पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है।
मार्च्छा : गढ़वाल मंडल के चमोली जिले की नीति और माणा घाटियों में रहने वाली भोटिया जनजाति मार्च्छा और तोल्छा भाषा बोलती है। इस भाषा में तिब्बती के कई शब्द मिलते हैं। नीति घाटी में नीति, गमसाली और बाम्पा शामिल हैं जबकि माणा घाटी में माणा, इन्द्रधारा, गजकोटी, ज्याबगड़, बेनाकुली और पिनोला आते हैं।
जोहारी : यह भी भोटिया जनजाति की एक भाषा है ​जो पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी क्षेत्र में बोली जाती है। इन लोगों का भी तिब्बत के साथ लंबे समय तक व्यापार रहा इसलिए जोहारी में भी तिब्बती शब्द पाये जाते हैं।
थारू : उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के तराई क्षेत्रों, नेपाल, उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्राों में ​थारू जनजाति के लोग रहते हैं। कुमांऊ मंडल में यह जनजाति मुख्य रूप से उधमसिंह नगर के खटीमा और सितारगंज विकास खंडो में रहती है। इस जनजाति के लोगों की अपनी अलग भाषा है जिसे उनके नाम पर ही थारू भाषा कहा जाता है। यह कन्नौजी, ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली का मिश्रित रूप है।
बुक्साणी : कुमाऊं से लेकर गढ़वाल तक तराई की पट्टी में निवास करने वाली जनजाति की भाषा है बुक्साणी। इन क्षेत्रों में मुख्य रूप से काशीपुर, बाजपुर, गदरपुर, रामनगर, डोईवाला, सहसपुर, बहादराबाद, दुगड्डा, कोटद्वार आदि शामिल हैं।
रंग ल्वू : कुमांऊ में मुख्य रूप से पिथौरागढ़ की धारचुला तहसील के दारमा, व्यास और चौंदास पट्टियों में रंग ल्वू भाषा बोली जाती है। इसे तिब्बती—बर्मी भाषा का अंग माना जाता है जिसे प्राचीन समय से किरात जाति के लोग बोला करते थे। दारमा घाटी में इसे रङ ल्वू, चौंदास में बुम्बा ल्वू और ब्यास घाटी में ब्यूंखू ल्वू के नाम से जाना जाता है।
राजी : राजी कुमांऊ के जंगलों में रहने वाली जनजाति थी। यह खानाबदोश जनजाति थी जिसने पिछले कुछ समय से स्थायी निवास बना लिये हैं। नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़, चंपावत और ऊधमसिंह नगर जिलों में इस जनजाति के लोग रहते हैं। यह भाषा तेजी से खत्म होती जा रही है।
         मने शुरुआत 'मां' से की थी तो अब जान लें कि उत्तराखंड की भाषाओं में मां के लिये क्या बोला जाता है। वैसे यहां की भाषाओं में अब मां आम प्रचलित है लेकिन पहले ब्वे, बोई या ईजा भी बोला जाता था। मां के लिये उत्तराखंड की भाषाओं के शब्द ....
गढ़वाली ... ब्वे, अम्मा, बोई। कुमांउनी, जोहारी, रंग ल्वू ... ईजा, अम्मा। जाड़ ... आं। बंगाणी ... इजै। रवांल्टी ... बुई, ईजा। जौनपुरी ... बोई। जौनसारी ... ईजी। थारू ... अय्या। राजी ... ईजलुअ, इहा। मार्च्छा ... आमा।
         उत्तराखंड की भाषाओं पर आगे भी आपको महत्वपूर्ण जानकारी देने की कोशिश करूंगा। फिलहाल इतना ही। कैसा लगा यह आलेख जरूर बताएं। आपका अपना धर्मेन्द्र पंत। 

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