गुरुवार, 29 जनवरी 2015

यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल




                                                   यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल
  विस्तृत स्वर्णिम भारत का भाल 
    यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।
      गिरि शिखरों से घिरा हुआ है
        तृण कुसुमों से हरा हुआ है
          विविध वृक्षों से भरा हुआ है
            जैसे शीशम, सेब और साल
              यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।

गिरी गर्त से भानु चमकता
  मानो अग्निवृत दहकता
    बहुरंगी पुष्पाहार महकता
      ऐसा मनोहर प्रात:काल
        यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।
          शीतल हवा यहां है चलती
            निर्मल, निश्चल नदियां बहती
              सबको सहज बनने को कहती
                शीत विमल की ये हैं मिसाल
                  यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।




शुभ्र हिमालय झांक रहा है
  विश्व सत्य को आंक रहा है
    शांति प्रियता मांग रहा है
      जो भारत का ताज विशाल
        यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।
           बद्री केदार के मंदिर पावन
             उपवन यहां के हैं मनभावन
               मानो वर्ष पर्यंत हो सावन
                 यह प्रकृति की सुंदर चाल
                   यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।

नहीं कलह और शोर यहां है
  नहीं लुटेरे चोर यहां हैं
    लगता निशदिन भोर यहां है
      शांति एकता का यह हाल
        यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।
          जगह जगह खुलते औषधालय
            नवनिर्मित हो रहे विद्यालय
              जागरूक गढ़वाली की लय
                भौतिक विकास करता गढ़वाल
                  यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।

हो रहा अविद्या का जड़मर्दन
  फैले नव विहान का वर्जन
    नव शैलों का हो रहा सृजन
      गिरि चलें विकास की ले मशाल
        यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल
          विस्तृत स्वर्णिम भारत का भाल
             यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।

              लेखक / कवि का परिचय

जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक। इसी दौरान पहाड़ और वहां के जीवन पर कई कविताएं लिखी। 'यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल' नामक उपरोक्त कविता 1978 में लिखी गयी थी। बाद में सेना के शिक्षा विभाग कार्यरत रहे। 11 मई 1999 को 37 साल की उम्र में निधन। 


     
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शनिवार, 24 जनवरी 2015

गढ़वाल के राजा के लिये जब गंगा ने बदली धारा

                           
       पिछली पोस्ट में हमने रानी कर्णावती का जिक्र किया था। आज हम उनके पोते मेदिनीशाह के बारे में आपको एक रोचक जानकारी से अवगत कराएंगे। पृथ्वीपति शाह के पुत्र मेदिनीशाह 1667 के आसपास राजा बने थे। माना जाता है कि मेदिनीशाह की औरंगजेब से मित्रता हो गयी थी और इसलिए उन्हें अपनी दादी या पिता की तरह मुगलों से जंग नहीं लड़नी पड़ी थी।
       मेदिनीशाह को इसलिए अधिक याद किया जाता है क्योंकि कहा जाता है कि एक बार उनके लिये गंगा नदी ने भी अपनी धारा बदल दी थी। इसमें कितनी सच्चाई है कहा नहीं जा सकता। गढ़वाल के राजा को तब बदरीनाथ का अवतार भी माना जाता था और हो सकता हो कि राजा ने लोगों के सामने खुद को 'भगवान' साबित करने और अपने खिलाफ किसी भी तरह के विद्रोह को दबाने के लिये के लिये यह किस्सा गढ़कर फैला दिया हो, क्योंकि औरंगजेब से करीबी रिश्ते रखने और इस मुगल शासक के दरबार में जाकर कुछ समय उसकी राजधानी में बिताने के कारण तब हो सकता है कि मेदिनीशाह से जनता नाराज रही हो। यह भी हो सकता है कि राजा के पास तब ऐसे कुछ कुशल कारीगर रहे हों जिन्होंने रातों रात गंगा की धारा बदल दी हो। वास्तव में तब क्या हुआ था इसकी सही जानकारी किसी को नहीं है। यह महज एक किस्सा है जिसके बारे में कहा जाता है कि मेदिनीशाह के राज्यकाल के दौरान इस तरह की घटना घटी थी।
हरिद्वार में नील धारा
     किस्सा इस तरह से है कि हरिद्वार में जब कुंभ मेला लगता था तो गढ़वाल का राजा हरी जी के कुंड में सबसे पहले स्नान करता था। उसके बाद ही बाकी राजाओं का नंबर आता था। जिस साल की यह घटना है उस साल कहा जाता है कि कई राजा हरिद्वार पहुंचे थे। उन सभी ने सभा करके तय किया कि पर्व दिन पर सबसे पहले गढ़वाल का राजा स्नान नहीं करेगा। सभी राजा इस पर सहमत हो गये। यहां तक कि गढ़वाल के राजा को किसी तरह की जबर्दस्ती करने पर जंग के लिये तैयार रहने की चेतावनी भी दी गयी। बाकी सभी राजा एकजुट थे और गढ़वाल का राजा अलग थलग पड़ गया। मेदिनीशाह ने कहा कि यह पुण्य क्षेत्र है और यहां कुंभ मेला जैसा महापर्व का आयोजन हो रहा है इसलिए रक्तपात सही नहीं है। अन्य राजा ही पहले स्नान कर सकते हैं। उन्होंने अन्य राजाओं के पास जो संदेश भेजा था उसमें आखिरी पंक्ति यह भी जोड़ी थी कि, ''यदि वास्तव में गंगा मेरी है और उसे मेरा मान सम्मान रखना होगा तो वह स्वयं मेरे पास आएगी। '' बाकी राजा इस पंक्ति का अर्थ नहीं समझ पाये। वे अगले दिन गढ़वाल के राजा से पहले कुंड में स्नान करने की तैयारियों में जुट गये।
      कहा जाता है कि गढ़वाल के राजा ने चंडी देवी के नीचे स्थित मैदान पर अपना डेरा डाला और मां गंगा की पूजा में लीन हो गये। बाकी राजा सुबह हरि जी के कुंड यानि हरि की पैड़ी में स्नान के लिये पहुंचे लेकिन वहां जाकर देखते हैं कि पानी ही नहीं है। मछलियां तड़प रही थी। गंगा ने अपना मार्ग बदल दिया था। वह गढ़वाल के राजा के डेरे के पास से बह रही थी। राजा मेदिनीशाह ने गंगा पूजन करने के बाद स्नान किया। जब अन्य राजाओं को पता चला तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्हें भी लगा कि गढ़वाल का राजा वास्तव में भगवान बदरीनाथ का अवतार हैं और इसलिए किसी अनहोनी से बचने के लिये सभी राजा तुरंत मेदिनीशाह के पास पहुंचे। उनसे माफी मांगी और फिर स्नान किया। उस रात गंगा ने जब अपना मार्ग बदला तो जो नयी धारा बनी उसे नील धारा कहा जाता है। इसके बाद यह तय हो गया कि किसी पर्व के समय गढ़वाल की राजा की उपस्थिति में वही सबसे पहले स्नान करेंगे। आज यह नील धारा पक्षी विहार के कारण अधिक प्रसिद्ध है।

 आपका धर्मेन्द्र पंत

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शनिवार, 17 जनवरी 2015

मुगल सैनिकों की नाक काटने वाली गढ़वाल की रानी कर्णावती

        
         भारतीय इतिहास में जब रानी कर्णावती का जिक्र आता है तो फिर मेवाड़ की उस रानी की चर्चा होती है जिसने मुगल बादशाह हुमांयूं के ​लिये राखी भेजी थी। इसलिए रानी कर्णावती का नाम रक्षाबंधन से अक्सर जोड़ दिया जाता है। लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि इसके कई दशकों बाद भारत में एक और रानी कर्णावती हुई थी और यह गढ़वाल की रानी थी। इस रानी ने मुगलों की बाकायदा नाक कटवायी थी और इसलिए कुछ इतिहासकारों ने उनका जिक्र नाक क​टी रानी या नाक काटने वाली रानी के रूप में किया है। रानी कर्णावती ने गढ़वाल में अपने नाबालिग बेटे पृथ्वीपतिशाह के बदले तब शासन का कार्य संभाला था जबकि दिल्ली में मुगल सम्राट शाहजहां का राज था। शाहजहां के कार्यकाल पर बादशाहनामा या पादशाहनामा लिखने वाले अब्दुल हमीद लाहौरी ने भी गढ़वाल की इस रानी का जिक्र किया है। यहां तक कि नवाब शम्सुद्दौला खान ने 'मासिर अल उमरा' में उनका जिक्र किया है। इटली के लेखक निकोलाओ मानुची जब सत्रहवीं सदी में भारत आये थे तब उन्होंने शाहजहां के पुत्र औरंगजेब के समय मुगल दरबार में काम किया था। उन्होंने अपनी किताब 'स्टोरिया डो मोगोर' यानि 'मुगल इंडिया' में गढ़वाल की एक रानी के बारे में बताया है जिसने मुगल सैनिकों की नाट काटी थी। माना जाता है कि स्टोरिया डो मोगोर 1653 से 1708 के बीच लिखी गयी थी जबकि मुगलों ने 1640 के आसपास गढ़वाल पर हमला किया था। गढ़वाल के कुछ इतिहासकारों ने हालांकि पवांर वंश के राजाओं के कार्यों पर ही ज्यादा गौर किया और रानी कर्णावती के पराक्रम का जिक्र करना उचित नहीं समझा।
श्रीनगर गढ़वाल : यहीं से राजकाज चलाती थी रानी कर्णावती
       रानी कर्णावती के बारे में मैंने जितनी सामग्री जुटायी। उससे यह साफ हो जाता है कि वह पवांर वंश के राजा महिपतशाह की पत्नी थी। यह वही महिपतशाह थे जिनके शासन में रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे सेनापति हुए थे जिन्होंने तिब्बत के आक्रांताओं को छठी का दूध याद दिलाया था। माधोसिंह के बारे में गढ़वाल में काफी किस्से प्रचलित हैं। पहाड़ का सीना चीरकर अपने गांव मलेथा में पानी लाने की कहानी भला किस गढ़वाली को पता नहीं होगी। कहा जाता था कि माधोसिंह अपने बारे में कहा करते थे, ''एक सिंह वन ​का सिंह, एक सींग गाय का। तीसरा सिंह माधोसिंह, चौथा सिंह काहे का। '' इतिहास की किताबों से पता चलता है कि रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे सेनापतियों की मौत के बाद महिपतशाह भी जल्द स्वर्ग सिधार गये। कहा जाता है कि तब उनके पुत्र पृथ्वीपतिशाह केवल सात साल के थे। इसके 1635 के आसपास की घटना माना जाता है। राजगद्दी पर पृथ्वीपतिशाह ही बैठे लेकिन राजकाज उनकी मां रानी कर्णावती ने चलाया।
     इससे पहले जब महिपतशाह गढ़वाल के राजा थे तब 14 फरवरी 1628 को शाहजहां का राज्याभिषेक हुआ था। जब वह गद्दी पर बैठे तो देश के तमाम राजा आगरा पहुंचे थे। महिपतशाह नहीं गये। इसके दो कारण माने जाते हैं। पहला यह कि पहाड़ से आगरा तक जाना तब आसान नहीं था और दूसरा उन्हें मुगल शासन की अधीनता स्वीकार नहीं थी। कहा जाता है कि शाहजहां इससे चिढ़ गया था। इसके अलावा किसी ने मुगल शासकों को बताया कि गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में सोने की खदानें हैं। इस बीच महिपतशाह और उनके वीर सेनापति भी नहीं रहे। शाहजहां ने इसका फायदा उठाकर गढ़वाल पर आक्रमण करने का फैसला किया। उन्होंने अपने एक सेनापति नजाबत खान को यह जिम्मेदारी सौंपी। निकोलो मानुची ने अपनी किताब में शाहजहां के सेनापति या रानी का जिक्र नहीं किया है लेकिन उन्होंने लिखा है कि मुगल जनरल 30 हजार घुड़सवारों और पैदल सेना के साथ गढ़वाल की तरफ कूच कर गया था। गढ़वाल के राजा (यानि रानी कर्णावती) ने उन्हें अपनी सीमा में घुसने दिया लेकिन जब वे वर्तमान समय के लक्ष्मणझूला से आगे बढ़े तो उनके आगे और पीछे जाने के रास्ते रोक दिये गये। गंगा के किनारे और पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ मुगल सैनिकों के पास खाने की सामग्री समाप्त होने लगी। उनके लिये रसद भेजने के सभी रास्ते भी बंद थे। 
          मुगल सेना कमजोर पड़ने लगी और ऐसे में सेनापति ने गढ़वाल के राजा के पास संधि का संदेश भेजा लेकिन उसे ठुकरा दिया गया। मुगल सेना की स्थिति बदतर हो गयी थी। रानी चाहती तो उसके सभी सैनिकों का खत्म कर देती लेकिन उन्होंने मुगलों को सजा देने का नायाब तरीका निकाला। रानी ने संदेश भिजवाया कि वह सैनिकों को जीवनदान देन सकती है लेकिन इसके लिये उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी। सैनिकों को भी लगा कि नाक कट भी गयी तो क्या जिंदगी तो रहेगी। मुगल सैनिकों के हथियार छीन दिये गये थे और आखिर में उनके एक एक करके नाक काट दिये गये थे। कहा जाता है कि जिन सैनिकों की नाक का​टी गयी उनमें सेनापति नजाबत खान भी शामिल था। वह ​इससे काफी शर्मसार था और उसने मैदानों की तरफ लौटते समय अपनी जान दे दी थी। उस समय रानी कर्णाव​ती की सेना में एक अधिकारी दोस्त बेग हुआ करता था जिसने मुगल सेना को परास्त करने और उसके सैनिकों को नाक कटवाने की कड़ी सजा दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी। यह 1640 के आसपास की घटना है।
           कुछ इतिहासकार रानी कर्णावती के बारे में इस तरह से बयां करते हैं कि वह अपने विरोधियों की नाक कटवाकर उन्हें कड़ा दंड देती थी। इनके अनुसार कांगड़ा आर्मी के कमांडर नजाबत खान की अगुवाई वाली मुगल सेना ने जब दून घाटी और चंडीघाटी (वर्तमान समय में लक्ष्मणझूला) को अपने कब्जे में कर दिया  तब रानी कर्णावती ने उसके पास संदेश भिजवाया कि वह मुगल शासक शाहजहां के लिये जल्द ही दस लाख रूपये उपहार के रूप में उसके पास भेज देगी। नजाबत खान लगभग एक महीने तक पैसे का इंतजार करता रहा। इस बीच गढ़वाल की सेना को उसके सभी रास्ते बंद करने का मौका मिल गया। मुगल सेना के पास खाद्य सामग्री की कमी पड़ गयी और इस बीच उसके सैनिक एक अज्ञात बुखार से पीड़ित होने लगे। गढ़वाली सेना ने पहले ही सभी रास्ते बंद कर दिये थे और उन्होंने मुगलों पर आक्रमण कर दिया। रानी के आदेश पर सैनिकों के नाक काट दिये गये। नजाबत खान जंगलों से होता हुआ मुरादाबाद तक पहुंचा था। कहा जाता है कि शाहजहां इस हार से काफी शर्मसार हुआ था। शाहजहां ने बाद में अरीज खान को गढ़वाल पर हमले के लिये भेजा था लेकिन वह भी दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया था। बाद में शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने भी गढ़वाल पर हमले की नाकाम कोशिश की थी।
    यह थी गढ़वाल की रानी कर्णावती की कहानी जो कुछ किस्सों और इतिहासकारों विशेषकर विदेश के इतिहासकारों की पुस्तकों से जुटायी गयी हो। इससे भी इतर कुछ किस्से हो सकते हैं। यदि आप जानकारी रखते हों तो कृपया जरूर शेयर करें। घसेरी को इंतजार रहेगा।
   
 आपका धर्मेन्द्र पंत

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शनिवार, 10 जनवरी 2015

मालवा का राजकुमार बना गढ़वाल का राजा कनकपाल

                                              धर्मेन्द्र मोहन पंत 
           ढ़वाल में सबसे लंबे समय तक पंवार वंश के राजाओं ने राज किया। इस राजघराने के पहले राजा कनकपाल थे लेकिन उन्होंने कब से कब तक राज किया। इसको लेकर इतिहास की तमाम किताबों में अलग अलग राय है। अंग्रेज इतिहासकार बैकेट ने गढ़वाल के राजाओं की जो सूची तैयार की उसके अनुसार कनकपाल सन 1159 में परगना चांदपुर आये थे। यह परगना उन्हें गढ़वाल के तत्कालीन राजा ने दहेज में दिया था। डा. पातिराम पंवार के अनुसार कनकपाल सन 688 यानि संवत 745 में मालवा से गढवाल आये थे। गढ़वाल के इतिहास पर गहन अध्ययन करने वाले भक्त दर्शन ने इसे ईस्वी सन 888 यानि संवत 945 माना है। पंडित हरिकृष्णा रतूड़ी ने अपनी दो किताबों में विरोधाभासी तिथियों का वर्णन किया है। अपनी किताब 'गढ़वाल दर्शन' में उन्होंने लिखा है कि कनकपाल 688 ईस्वी सन में गढ़वाल आये थे जबकि 'गढ़वाल का इ​तिहास में उन्होंने इसे 888 ईस्वी सन बताया है।  भक्त दर्शन का शोध अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है क्योंकि उन्होंने अपनी किताब में पंवार वंश के 37वें राजा से लेकर सभी राजाओं के बारे में ​अच्छी जानकारी जुटायी थी।

अधिकतर का मत यही है कि राजा कनकपाल ने ईस्वी सन 888 यानि
संवत 945 से गढ़वाल पर राज किया था। 

               कुछ इतिहासकार पंवार वंश का सीधा संबंध पांडवों से जोड़ते हैं। कहा जाता है कि परीक्षित की चौदहवीं पीढ़ी के क्षेमराज दिल्ली के राजा बने लेकिन उनके मंत्री विसर्प ने राजा को मरवाकर खुद सिंहासन हासिल कर लिया था। राजा क्षेमराज की पत्नी तब गर्भवती थी। वह अपनी विश्वासपात्र दासी के साथ रात को महल से भाग गयी थी और कई कष्ट सहते हुए बद्रीकाश्रम पहुंचकर ऋषियों के शरण में आ गयी। रानी ने वहां एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम राजपाल रखा गया गया। तब उस क्षेत्र में कोई राजा नहीं था और ऋषियों ने राजपाल को शस्त्र और शास्त्र विद्या में निपुण बनाकर उसे क्षेत्र का राजा बना दिया। कहा जाता है कि राजपाल ने तब बद्रीनाथ की यात्रा पर आये किसी विक्रमसिंह नाम के राजा की मदद से कुमांऊ के राजा सुखवंत को परास्त किया था। राजपाल का पुत्र अनंगपाल था जिसकी केवल एक पुत्री थी। अनंगपाल ने अपनी बेटी के पुत्र पृथ्वीराज को अपना उत्तराधिकारी बनाया। इन्हीं पृथ्वीराज की पीढ़ी में भानुप्रताप हुआ था जो 52 गढों के राजाओं में सबसे शक्तिशाली था। बद्रीनाथ का राजा होने के कारण सभी उन्हें धार्मिक दृष्टि से भी ऊंचा मानते थे। भानुप्रताप की भी दो पुत्रियां थी जिनमें से बड़ी बेटी का विवाह उन्होंने कुमाऊं के राजा से किया जबकि दूसरी पुत्री की शादी राजा कनकपाल से की थी।
       राजा कनकपाल के गढ़वाल आगमन की कहानी भी रोचक है। वह मालवा के राजकुमार थे। उस समय उज्जैन और धार क्षेत्र में पंवार वंश का राज्य था। ब्रिटिश इतिहासकार हार्डविक के अनुसार कनकपाल वर्तमान गुजरात क्षेत्र से गढ़वाल आया था। उसका नाम तब भोगदंत था और वह  चांदपुर के राजा सोन पाल की सेना में भर्ती हुआ और बाद में सेनापति बन गया। राजा ने अपनी कन्या का विवाह उससे किया। भोगदंत बेहद वीर और साहसी था। उसने बाद में राजा को गद्दी से उतारा और स्वयं कनकपाल नाम से राजा बन गया था। एक और अंग्रेज इतिहासकार जीआरसी विलियम के अनुसार कनकपाल गुजरात से नहीं बल्कि मालवा से आया था और वह गढ़वाल पहुंचने से पहले सहारनपुर में बसा था। एक और किस्से के अनुसार कनकपाल धार के राजा वाकपति का छोटा भाई था लेकिन एक ब्रहमचारी साधु से शिक्षा ग्रहण करने के बाद उसके मन में वैराग्य आ गया। जब उसके गुरू का निधन हो गया तो वह अपने कुछ मित्रों के साथ हरिद्वार पहुंचा। वह बद्रीनाथ धाम भी जाना चाहता था लेकिन पहाड़ों के कठिन रास्तों के कारण मित्रों ने उसे रोक दिया।
           एक पौराणिक ग्रंथ के अनुसार राजा भानुप्रताप को तब भगवान बद्रीनाथ ने सपने में कहा कि  वह धार नरेश को अपने यहां बुलायें और उनके साथ अपनी बेटी का विवाह कर दें। राजा भानुप्रताप ने ऐसा ही किया लेकिन कनकपाल तो वैरागी था। कहा जाता है कि जब कनकपाल ने राजकुमारी को देखा तो उन्हें देखते ही रह गया और उनके रूप लावण्य पर इतने मोहित हो गया कि उसने विवाह के लिये हां कर दी। भानुप्रताप जब वृ​द्ध हो गये तो वह अपने दामाद को राजपाट सौंपकर अपनी पत्नी सहित वानप्रस्थ पर चले गये थे। इस तरह से गढ़वाल में पंवार वंश की नींव पड़ी थी।
      किस्से और कहानियां भले ही अलग अलग हों लेकिन सभी एक बात से सहमत दिखते हैं और वह यह कि पंवार वंश का पहला राजा कनकपाल था। इसके अलावा इस पर भी सहमति दिखती है कि वह मालवा क्षेत्र से आया था जो कि वर्तमान समय के राज्यों मध्यप्रदेश के पश्चिम, गुजरात के पूर्व और राजस्थान के दक्षिण के हिस्से को मिलकर बनता है।
       गढ़वाल में पंवार वंश की शुरूआत का यह संक्षिप्त विवरण है। इससे इतर भी किस्से और कहानियां हो सकती है। यदि आपको इससे जुड़ा कोई भी पौराणिक तथ्य, किस्सा या कहानी पता हो तो कृपया जरूर शेयर करें।

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सोमवार, 5 जनवरी 2015

उत्तराखंड के प्राचीन शासक और कृष्ण.बाणासुर युद्ध

                         धर्मेन्द्र मोहन पंत / बिजेंद्र मोहन पंत 
       हाड़ में अधिकतर जातियां दूसरी जगहों से आयी। कभी आर्यों ने आक्रमण किया तो कोई महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि क्षेत्रों से यहां पहुंची। आखिर कौन थे जो उत्तराखंड के शुरूआती बासिंदे थे। महाभारत के वन पर्व में लिखा गया है कि उत्तर हिमालय में आज से लगभग 3000 साल पहले किरात, पुलिंद और तंगण जाति के लोग रहते थे। इन तीनों जातियों के राजा सुबाहू थे जिसकी राजधानी श्रीपुर यानि आज का श्रीनगर (गढ़वाल) थी।
          राजा सुबाहू के अलावा उत्तराखंड में तब राजा विराट का राज्य भी हुआ करता था जिसकी राजधानी बैराटगढ़ थी जिसे गढ़ी के नाम से जाना जाता था। यह जौनसार क्षेत्र में पड़ता है। माना जाता है कि इसी विराट राजा के यहां पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान अपने दिन बिताये थे। इसी राजा की पुत्री उत्तरा से अभिमन्यु का विवाह हुआ था। इस राजा के पास हजारों गायें थी जिन्हें कौरवों ने चुरा लिया था और अर्जुन ने अपना असली रूप दिखाकर तब गायों को छुड़वाया था।
        एक और तीसरा शासक था बाणासुर। वह हिमालय के इस क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली शासक था और उसका राज्य तिब्बत तक फैला हुआ था। बाणासुर दैत्यराज बलि के सौ प्रतापी पुत्रों में सबसे बड़ा था और उसने भगवान शंकर की कठिन तपस्या की थी। उसकी राजधानी शोणितपुर थी। इस शोणितपुर कहां था इसको लेकर अलग अलग कहानियां कही जाती हैं। कोई इसे गुप्तकाशी के करीब, कोई सराण तो कोई तिब्बत की राजधानी ल्हासा के करीब मानता है। बाणासुर के निधन के बाद उसका मंत्री कुष्मांड शोणितपुर का राजा बना था।
       बाणासुर को लेकर एक कहानी बड़ी प्रचलित है। बाणासुर की बेटी ऊषा गुप्तकाशी में पढ़ती थी और उनकी शिक्षिका कोई और नहीं बल्कि माता पार्वती थी। इस जगह का नाम गुप्तकाशी भी इसलिए पड़ा क्योंकि शिव और पार्वती यहां गुप्त रूप से रहते थे। इसलिए शिव और पार्वती दोनों ही ऊषा को अपनी पुत्री जैसा मानते थे।
       
         हा जाता है कि एक बार ऊषा ने स्वप्न में श्री कृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को देखा और उसपर मोहित हो गई। उसने अपने स्वप्न की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताया। चित्रलेखा ने अपने योगबल से अनिरुद्ध का चित्र बनाया और उषा को दिखाया और पूछा, "क्या तुमने इसी को स्वप्न में देखा था?" इस पर उषा बोली, "हाँ, यही मेरा चितचोर है। अब मैं इनके बिना नहीं रह सकती।"
           चित्रलेखा ने द्वारिका जाकर सोते हुये अनिरुद्ध को पलंग सहित ऊषा के महल में पहुँचा दिया। नींद खुलने पर अनिरुद्ध ने स्वयं को एक नये स्थान पर पाया और देखा कि उसके पास एक सुन्दरी बैठी हुई है। अनिरुद्ध के पूछने पर ऊषा ने बताया कि वह वाणासुर की पुत्री है और अनिरुद्ध को पति रूप में पाने की कामना रखती है। अनिरुद्ध भी ऊषा पर मोहित हो गये और वहीं उसके साथ महल में ही रहने लगे। 
            पहरेदारों को सन्देह हो गया कि ऊषा के महल में अवश्य कोई बाहरी मनुष्य आ पहुँचा है। उन्होंने जाकर वाणासुर से अपने सन्देह के विषय में बताया। उसी समय वाणासुर ने अपने महल की ध्वजा को गिरी हुई देखा। उसे निश्चय हो गया कि कोई मेरा शत्रु ही ऊषा के महल में प्रवेश कर गया है। वह अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर ऊषा के महल में पहुँचा। उसने देखा कि उसकी पुत्री उषा के समीप पीताम्बर वस्त्र पहने बड़े बड़े नेत्रों वाला एक साँवला सलोना पुरुष बैठा हुआ है। वाणासुर ने क्रोधित हो कर अनिरुद्ध को युद्ध के लिये ललकारा। उसकी ललकार सुनकर अनिरुद्ध भी युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गये और उन्होंने लोहे के एक भयंकर मुद्गर को उठा कर उसी के द्वारा वाणासुर के समस्त अंगरक्षकों को मार डाला। वाणासुर और अनिरुद्ध में घोर युद्ध होने लगा। जब वाणासुर ने देखा कि अनिरुद्ध किसी भी प्रकार से उसके काबू में नहीं आ रहा है तो उसने नागपाश से उन्हें बाँधकर बन्दी बना लिया।
            इसको लेकर कृष्ण और ​बाणासुर में युद्ध हुआ था। तब बाणासुर की तरफ से शंकर भगवान भी युद्ध के मैदान पर कूद पड़े थे। आखिर में दोनों पक्षों में समझौता हुआ तथा अनिरूद्ध और ऊषा का विवाह कर दिया गया। 

रविवार, 4 जनवरी 2015

बावन गढ़ कु देश


                                                धर्मेन्द्र मोहन पंत 

         ढवाल को कभी 52 गढ़ों का देश कहा जाता था। असल में तब गढ़वाल में 52 राजाओं का आधिपत्य था। उनके अलग अलग राज्य थे और वे स्वतंत्र थे। इन 52 गढ़ों के अलावा भी कुछ छोटे छोटे गढ़ थे जो सरदार या थोकदारों (तत्कालीन पद​वी) के अधीन थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इनमें से कुछ का जिक्र किया था। ह्वेनसांग छठी शताब्दी में भारत में आया था। इन राजाओं के बीच आपस में लड़ाई में चलती रहती थी। माना जाता है कि नौवीं शताब्दी लगभग 250 वर्षों तक इन गढ़ों की स्थिति बनी रही लेकिन बाद में इनके बीच आपसी लड़ाई का पवांर वंश के राजाओं ने लाभ उठाया और 15वीं सदी तक इन गढ़ों के राजा परास्त होकर पवांर वंश के अधीन हो गये। इसके लिये पवांर वंश के राजा अजयपाल सिंह जिम्मेदार थे जिन्होंने तमाम राजाओं को परास्त करके गढ़वाल का नक्शा एक कर दिया था।
श्रीनगर गढ़वाल का महल (1882) सौजन्य : भारतीय भू वैज्ञानिक सर्वेक्षण 
        गढ़वाल में वैसे आज भी इन गढ़ों का शान से ​जिक्र होता और संबंधित क्षेत्र के लोगों को उस गढ़ से जोड़ा जाता है। मैं बचपन से इन गढ़ों के आधार पर लोगों की पहचान सुनता आ रहा हूं। गढ़वाल के 52 गढ़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है ...
पहला ... नागपुर गढ़ :  यह जौनपुर परगना में था।  यहां नागदेवता का मंदिर है। यहां का अंतिम राजा भजनसिंह हुआ था।
दूसरा ... कोल्ली गढ़ : यह बछवाण बिष्ट जाति के लोगों का गढ़ था।
तीसरा ... रवाणगढ़ : यह बद्रीनाथ के मार्ग में पड़ता है और रवाणी​जाति का होने के कारण इसका नाम रवाणगढ़ पड़ा।
चौथा ... फल्याण गढ़ : यह फल्दकोट में था और फल्याण जाति के ब्राहमणों का गढ़ था। कहा जाता है कि यह गढ़ पहले किसी राजपूत जाति का था। उस जाति के शमशेर सिंह नामक व्यक्ति ने इसे ब्राह्मणों का दान कर दिया था।
पांचवां ... वागर गढ़ : यह नागवंशी राणा जाति का गढ़ था। इतिहास के पन्नों पर झांकने पर पता चलता है कि एक बार घिरवाण खसिया जाति ने भी इस पर अधिकार जमाया था।
छठा ... कुईली गढ़ : यह सजवाण जाति का गढ़ था जिसे जौरासी गढ़ भी कहते हैं।
सातवां ... भरपूर गढ़ : यह भी सजवाण जाति का गढ़ था। यहां का अंतिम थोकदार यानि गढ़ का प्रमुख गोविंद सिंह सजवाण था।

 
 


आठवां ...  कुजणी गढ़ : सजवाण जाति से जुड़ा एक और गढ़ जहां का आखिरी ​थोकदार सुल्तान सिंह था।
नौवां ... सिलगढ़ : यह भी सजवाण जाति का गढ़ था जिसका अंतिम राजा सवलसिंह था।
दसवां ... मुंगरा गढ़ : रवाई स्थि​त यह गढ़ रावत जाति का था और यहां रौतेले रहते थे।
11वां ... रैका गढ़ : यह रमोला जाति का गढ़ था।
12वां ... मोल्या गढ़ : रमोली स्थित यह गढ़ भी रमोला जाति का था।
13वां ... उपुगढ़ : उद्येपुर स्थित यह गढ़ चौहान जाति का था।
14वां ... नालागढ़ : देहरादून जिले में था जिसे बाद में नालागढ़ी के नाम से जाना जाने लगा।
15वां ... सांकरीगढ़ : रवाईं स्थित यह गढ़ राणा जाति का था।
16वां ... रामी गढ़ : इसका संबंध शिमला से था और यह भी रावत जाति का गढ़ था।
17वां ... बिराल्टा गढ़ : रावत जाति के इस गढ़ का अंतिम थोकदार भूपसिंह था। यह जौनपुर में था।
18वां ... चांदपुर गढ़ : सूर्यवंशी राजा भानुप्रताप का यह गढ़ तैली चांदपुर में था। इस गढ़ को सबसे पहले पवांर वंश के राजा कनकपाल ने अपने अधिकार क्षेत्र में लिया था।
19वां ... चौंडा गढ़ : चौंडाल जाति का यह गढ़ शीली चांदपुर में था।
20वां ... तोप गढ़ : यह तोपाल जाति का था। इस वंश के तुलसिंह ने तोप बनायी थी और इसलिए इसे तोप गढ़ कहा जाने लगा था। तोपाल जाति का नाम भी इसी कारण पड़ा था।
21वां ... राणी गढ़ : खासी जाति का यह गढ़ राणीगढ़ पट्टी में पड़ता था। इसकी ​स्थापना एक रानी ने की थी और इसलिए इसे राणी गढ़ कहा जाने लगा था।
22वां ... श्रीगुरूगढ़ : सलाण स्थित यह गढ़ पडियार जाति का था। इन्हें अब परिहार कहा जाता है जो राजस्थान की प्रमुख जाति है। यहां का अंतिम राजा विनोद सिंह था।
23वां ... बधाणगढ़ : बधाणी जाति का यह गढ़ पिंडर नदी के ऊपर स्थित था।
24वां  ... लोहबागढ़ : पहाड़ में नेगी सुनने में एक जाति लगती है लेकिन इसके कई रूप हैं। ऐसे ही लोहबाल नेगी जाति का संबंध लोहबागढ़ से था। इस गढ़ के दिलेवर सिंह और प्रमोद सिंह के बारे में कहा जाता था कि वे वीर और साहसी थे।
25वां ... दशोलीगढ़ : दशोली स्थित इस गढ़ को मानवर नामक राजा ने प्रसिद्धि दिलायी थी।
26वां ... कंडारागढ़ : कंडारी जाति का यह गढ़ उस समय के नागपुर परगने में थे। इस गढ़ का अंतिम राजा नरवीर सिंह था। वह पंवार राजा से पराजित हो गया था और हार के गम में मंदाकिनी नदी में डूब गया था।
27वां ... धौनागढ़ : इडवालस्यू पट्टी में धौन्याल जाति का गढ़ था।
28वां ... रतनगढ़ : कुंजणी में धमादा जाति का था। कुंजणी ब्रहमपुरी के ऊपर है।
29वां ... एरासूगढ़ : यह गढ़ श्रीनगर के ऊपर था।
30वां ... इडिया गढ़ : इडिया जाति का यह गढ़ रवाई बड़कोट में था। रूपचंद नाम के एक सरदार ने इस गढ़ को तहस नहस कर दिया था।
31वां ... लंगूरगढ़ : लंगूरपट्टी स्थिति इस गढ़ में भैरों का प्रसिद्ध मंदिर है।
32वां ... बाग गढ़ : नेगी जाति के बारे में पहले लिखा था। यह बागूणी नेगी जाति का गढ़ था जो गंगा सलाण में स्थित था। इस नेगी जाति को बागणी भी कहा जाता था।
33वां ... गढ़कोट गढ़ : मल्ला ढांगू स्थित यह गढ़ बगड़वाल बिष्ट जाति का था। नेगी की तरह बिष्ट जाति के भी अलग अलग स्थानों के कारण भिन्न रूप हैं।
34वां ... गड़तांग गढ़ : भोटिया जाति का यह गढ़ टकनौर में था लेकिन यह किस वंश का था इसकी जानकारी नहीं मिल पायी थी।
35वां ... वनगढ़ गढ़ : अलकनंदा के दक्षिण में स्थित बनगढ़ में स्थित था यह गढ़।
36वां ... भरदार गढ़ : यह वनगढ़ के करीब स्थित था।
37वां ... चौंदकोट गढ़ : पौड़ी जिले के प्रसिद्ध गढ़ों में एक। यहां के लोगों को उनकी बुद्धिमत्ता और चतुराई के लिये जाना जाता था। चौंदकोट गढ़ के अवशेष चौबट्टाखाल के ऊपर पहाड़ी पर अब भी दिख जाएंगे।
38वां ... नयाल गढ़ : कटुलस्यूं स्थित यह गढ़ नयाल जाति था जिसका अंतिम सरदार का नाम भग्गु था।
39वां ... अजमीर गढ़ : यह पयाल जाति का था।
40वां ... कांडा गढ़ : रावतस्यूं में था। रावत जाति का था।
41वां ... सावलीगढ़ : यह सबली खाटली में था। 
42वां ... बदलपुर गढ़ : पौड़ी जिले के बदलपुर में था। 
43वां ... संगेलागढ़ : संगेला बिष्ट जाति का यह गढ़ यह नैल चामी में था।
44वां ... गुजड़ूगढ़ : यह गुजड़ू परगने में था। 
45वां ... जौंटगढ़ : यह जौनपुर परगना में था। 
46वां ... देवलगढ़ : यह देवलगढ़ परगने में था। इसे देवलराजा ने बनाया था। 
47वां ... लोदगढ़ : यह लोदीजाति का था। 
48वां ... जौंलपुर गढ़
49वां ... चम्पा गढ़ 
50वां ... डोडराकांरा गढ़ 
51वां ... भुवना गढ़
52वां ... लोदन गढ़

(स्रोत : गढ़वाल का इतिहास, पं. हरिकृष्ण रतूड़ी)


 आपका धर्मेन्द्र पंत

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शनिवार, 3 जनवरी 2015

प्यारू प्यारू गांव म्यारू स्योली

                                धर्मेन्द्र मोहन पंत 

गांव स्योली। सावन में हरियाली का आवास। फोटो सौजन्य : बिजेंद्र मोहन पंत 

    यह मन बड़ा चंचल होता है। इसलिए तो कभी यह खाल्यूंधार, कभी बिरकंडी, कभी ढौंरी, कभी खांडा, कभी रौताबूण तो कभी बाण्यूंछाल घूमता रहता है। गढ़वाली में इसके लिए एक शब्द है बड़ा प्यारा सा। 'डबका' इसलिए आप कह सकते हैं कि यह मन जब तब मेरे गांव स्योली के उन तमाम जगहों पर डबका लगाता रहता है जहां मैंने अपना बचपन और किशोरावस्था बितायी। सच कहूं तो इस मन का ठौर नहीं है यह कभी जणदादेवी, कभी नौगांवखाल, कभी चौबट्टाखाल, कभी एकेश्वर की खाक भी छान मार आता है। इसका कोई कसूर नहीं है दोस्तो इस मन का असली ठिकाना वहीं है और इसलिए यह कभी दिल्ली, भोपाल, देहरादून, हैदराबाद किसी भी शहर से दिल नहीं लगा पाया। यह मन होता भी तो एक विशाल वाहन है। बिजली से भी तेज गति से दौड़ने वाला वाहन। फिलहाल यह मन एक जगह पर कें​द्रित है। उस स्थान का नाम है स्योली।
         
गांव में जाने का रास्ता
        उत्तराखंड के पौड़ी गढवाल जिले का एक गांव है स्योली। कोटद्वार से सतपुली होते हुए एकेश्वर या पाटीसैण किसी भी रास्ते जणदादेवी से होकर स्योली गांव पहुंचा जा सकता है। बहुत बड़ा क्षेत्रफल है स्योली गांव का। पणखेत ब्लाक से लेकर दूर बौंदर गांव के करीब तक दुगदन तक। दुगदन मतलब जहां पर दो गदेरे यानि छोटी नदियां मिलती हैं। इतनी बड़ा क्षेत्र की पहाड़ में कई जगह इतने क्षेत्रफल में पांच छह गांव बसे हैं। घाटी में बसा है यह गांव।
      पहाड़ में पानी की कमी रही लेकिन स्योली के लोग हमेशा इस मामले में भाग्यशाली रहे। इसलिए कभी कहा जाता था, ''बाईस कूल वीं स्योली रैगे'' यानि स्योली में 22 छोटी छोटी नहरें हैं। अब भी वहां पानी की कोई कमी नहीं है। गांव का अपना पंदेरा है। गांव के नीचे गदेरा है जिसमें पर्याप्त मात्रा में पानी रहता है। गांव के ऊपर दो टंकियां बनी हैं जहां गांव के अपने जंगल बूढ़ाख्यात के नीचे वाले गदेरे और खरका के रौल (रौल भी छोटी नदी के किसी स्थान के लिये ही उपयोग किया जाता है) से पानी आता है।
गांव का एक विहंगम दृश्य
     पहाड़ के अन्य गांवों की तरह पलायन की मार स्योली भी सह रहा। इसका असर सीधे सीधे खेती पर भी पड़ा था। कभी यहां ढौंरी से लेकर खरका और खाल्यूधार से लेकर थमतोली तक खूब खेती होती है। हर चीज की खेती। धान, गेंहू, कोदा (मंडुआ) विभिन्न तरह की दालें। अब अधिकतर जमीन बंजर पड़ती जा रही है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के नये युग में प्रवेश करने का असर है। गांव में कभी 100 से अधिक परिवार रहते थे लेकिन बढ़ने के बजाय इनकी संख्या घट रही। कोटद्वार, देहरादून, दिल्ली, मुंबई जाकर बस गये हैं स्योली वाले भी। अब उदाहरण के लिये मेरा ढिसख्वाल (ख्वाल यानि गांव का छोटा सा हिस्सा) लगभग जनशून्य हो चुका है। इसके लिये हम ही दोषी हैं।

नंदादेवी का मंदिर 
       


        स्योली गांव में सबसे अधिक पंत जाति के लोग रहते हैं। पहाड़ में पंत महाराष्ट्र से आये। वे कुमांऊ में बसे। वहीं अल्मोड़ा में एक गांव है फल्दकोट। वहां से वर्षों पहले कोई पंत आकर स्योली गांव में बस गया था। हम सब उन्हीं की संताने हैं। नंदादेवी हमारी कुलदेवी है जिसका मंदिर गांव के सबसे ऊपर शिख्रर पर है। नंदादेवी का छोटा मंदिर गांव के बीच चौंर में भी है। इसके अलावा महादेव का पुराना मंदिर भी गांव से थोड़ी दूरी पर स्थित है। कभी इस मंदिर में महात्मा रहा करते थे लेकिन अब उसकी देखभाल गांववाले ही करते हैं। पंत जाति के अलावा स्योली में जुयाल, डिमरी, पसबोला,
भगवान शिव (महादेव) का मंदिर माध्यो। 
बमोला, बिंजोला, चतुर्वेदी, खंतवाल, धसमाणा, जैरवाण आदि जातियों के लोग भी रहते हैं। गांव में कई ख्वाल हैं जैसे कि ढिसख्वाल, मैल्याख्वाल, धरगांव, पंदरैधार, चौंर आदि। मुख्य गांव से दूर भी कुछ परिवार बसे हुए हैं। गांव में ही उसे नाम दिया गया मैल्यागांव।
     मेरे बड़े भाई  जितेंद्र मोहन पंत  ने  सत्तर के दशक के आखिर में स्योली गांव पर एक गीत लिखा था। उसकी कुछ पंक्तियां यहां दे रहा हूं ...
    प्यारू प्यारू गांव म्यारू स्योली
       जन ब्या मा ब्योली। 

    नंदा कु मंदिर पावन,
       शिवमंदिर जख महान,
          देवतौं कु जख हूंद सम्मान,
             धार्मिक गांव म्यारू स्योली
                 जन ब्या मा ब्योली।

                            जात्यूं कु जख नीच अंत,
                               पर बंड्या कै रंदीन पंत,
                                  जौंकि महानता अनंत,
                                      कन भानि की जात या होली,
                                          जन ब्या मा ब्योली।
गांव का घर


 आपका धर्मेन्द्र पंत

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