शनिवार, 3 जनवरी 2015

प्यारू प्यारू गांव म्यारू स्योली

                                धर्मेन्द्र मोहन पंत 

गांव स्योली। सावन में हरियाली का आवास। फोटो सौजन्य : बिजेंद्र मोहन पंत 

    यह मन बड़ा चंचल होता है। इसलिए तो कभी यह खाल्यूंधार, कभी बिरकंडी, कभी ढौंरी, कभी खांडा, कभी रौताबूण तो कभी बाण्यूंछाल घूमता रहता है। गढ़वाली में इसके लिए एक शब्द है बड़ा प्यारा सा। 'डबका' इसलिए आप कह सकते हैं कि यह मन जब तब मेरे गांव स्योली के उन तमाम जगहों पर डबका लगाता रहता है जहां मैंने अपना बचपन और किशोरावस्था बितायी। सच कहूं तो इस मन का ठौर नहीं है यह कभी जणदादेवी, कभी नौगांवखाल, कभी चौबट्टाखाल, कभी एकेश्वर की खाक भी छान मार आता है। इसका कोई कसूर नहीं है दोस्तो इस मन का असली ठिकाना वहीं है और इसलिए यह कभी दिल्ली, भोपाल, देहरादून, हैदराबाद किसी भी शहर से दिल नहीं लगा पाया। यह मन होता भी तो एक विशाल वाहन है। बिजली से भी तेज गति से दौड़ने वाला वाहन। फिलहाल यह मन एक जगह पर कें​द्रित है। उस स्थान का नाम है स्योली।
         
गांव में जाने का रास्ता
        उत्तराखंड के पौड़ी गढवाल जिले का एक गांव है स्योली। कोटद्वार से सतपुली होते हुए एकेश्वर या पाटीसैण किसी भी रास्ते जणदादेवी से होकर स्योली गांव पहुंचा जा सकता है। बहुत बड़ा क्षेत्रफल है स्योली गांव का। पणखेत ब्लाक से लेकर दूर बौंदर गांव के करीब तक दुगदन तक। दुगदन मतलब जहां पर दो गदेरे यानि छोटी नदियां मिलती हैं। इतनी बड़ा क्षेत्र की पहाड़ में कई जगह इतने क्षेत्रफल में पांच छह गांव बसे हैं। घाटी में बसा है यह गांव।
      पहाड़ में पानी की कमी रही लेकिन स्योली के लोग हमेशा इस मामले में भाग्यशाली रहे। इसलिए कभी कहा जाता था, ''बाईस कूल वीं स्योली रैगे'' यानि स्योली में 22 छोटी छोटी नहरें हैं। अब भी वहां पानी की कोई कमी नहीं है। गांव का अपना पंदेरा है। गांव के नीचे गदेरा है जिसमें पर्याप्त मात्रा में पानी रहता है। गांव के ऊपर दो टंकियां बनी हैं जहां गांव के अपने जंगल बूढ़ाख्यात के नीचे वाले गदेरे और खरका के रौल (रौल भी छोटी नदी के किसी स्थान के लिये ही उपयोग किया जाता है) से पानी आता है।
गांव का एक विहंगम दृश्य
     पहाड़ के अन्य गांवों की तरह पलायन की मार स्योली भी सह रहा। इसका असर सीधे सीधे खेती पर भी पड़ा था। कभी यहां ढौंरी से लेकर खरका और खाल्यूधार से लेकर थमतोली तक खूब खेती होती है। हर चीज की खेती। धान, गेंहू, कोदा (मंडुआ) विभिन्न तरह की दालें। अब अधिकतर जमीन बंजर पड़ती जा रही है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के नये युग में प्रवेश करने का असर है। गांव में कभी 100 से अधिक परिवार रहते थे लेकिन बढ़ने के बजाय इनकी संख्या घट रही। कोटद्वार, देहरादून, दिल्ली, मुंबई जाकर बस गये हैं स्योली वाले भी। अब उदाहरण के लिये मेरा ढिसख्वाल (ख्वाल यानि गांव का छोटा सा हिस्सा) लगभग जनशून्य हो चुका है। इसके लिये हम ही दोषी हैं।

नंदादेवी का मंदिर 
       


        स्योली गांव में सबसे अधिक पंत जाति के लोग रहते हैं। पहाड़ में पंत महाराष्ट्र से आये। वे कुमांऊ में बसे। वहीं अल्मोड़ा में एक गांव है फल्दकोट। वहां से वर्षों पहले कोई पंत आकर स्योली गांव में बस गया था। हम सब उन्हीं की संताने हैं। नंदादेवी हमारी कुलदेवी है जिसका मंदिर गांव के सबसे ऊपर शिख्रर पर है। नंदादेवी का छोटा मंदिर गांव के बीच चौंर में भी है। इसके अलावा महादेव का पुराना मंदिर भी गांव से थोड़ी दूरी पर स्थित है। कभी इस मंदिर में महात्मा रहा करते थे लेकिन अब उसकी देखभाल गांववाले ही करते हैं। पंत जाति के अलावा स्योली में जुयाल, डिमरी, पसबोला,
भगवान शिव (महादेव) का मंदिर माध्यो। 
बमोला, बिंजोला, चतुर्वेदी, खंतवाल, धसमाणा, जैरवाण आदि जातियों के लोग भी रहते हैं। गांव में कई ख्वाल हैं जैसे कि ढिसख्वाल, मैल्याख्वाल, धरगांव, पंदरैधार, चौंर आदि। मुख्य गांव से दूर भी कुछ परिवार बसे हुए हैं। गांव में ही उसे नाम दिया गया मैल्यागांव।
     मेरे बड़े भाई  जितेंद्र मोहन पंत  ने  सत्तर के दशक के आखिर में स्योली गांव पर एक गीत लिखा था। उसकी कुछ पंक्तियां यहां दे रहा हूं ...
    प्यारू प्यारू गांव म्यारू स्योली
       जन ब्या मा ब्योली। 

    नंदा कु मंदिर पावन,
       शिवमंदिर जख महान,
          देवतौं कु जख हूंद सम्मान,
             धार्मिक गांव म्यारू स्योली
                 जन ब्या मा ब्योली।

                            जात्यूं कु जख नीच अंत,
                               पर बंड्या कै रंदीन पंत,
                                  जौंकि महानता अनंत,
                                      कन भानि की जात या होली,
                                          जन ब्या मा ब्योली।
गांव का घर


 आपका धर्मेन्द्र पंत

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