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गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

गढ़वाली में 'ल' और 'ळ' का अंतर

  
        बाल और बाळ, ढोल और ढोळ, मोल और मोळ, घोल और घोळ, पितलु और पितळु। क्या आप एक जैसे दिखने वाले इन शब्दों का अंतर जानते हैं? अगर आप गढ़वाली या कुमाउंनी लोकभाषा की जानकारी रखते हैं तो आपको इनका अंतर स्पष्ट करने में दिक्कत नहीं होगी। 'ल' और 'ळ' के कारण पूरा अर्थ बदल जाता है। मसलन बाल अर्थात बाल जैसे सिर के बाल जबकि बाळ मतलब जलाओ। माना जाता है कि 'ळ' गढ़वाली में विशिष्ट ध्वनि है, लेकिन यह केवल उत्तराखंड की लोकभाषाओं तक ही सीमित नहीं है। असल में 'ळ' का साम्राज्य काफी विस्तृत है लेकिन हिन्दी में इस अक्षर को नकार देेने के कारण यह उपेक्षित हो गया। मराठी और दक्षिण भारतीय भाषाओं में 'ळ' का धड़ल्ले से उपयोग होता है। वहां हालांकि इसका उच्चारण गढ़वाली की तरह नहीं किया जाता है। अंग्रेजी में इसे 'L', 'LA' और 'ZH' के रूप में लिखा जाता है। इसलिए दक्षिण भारतीय भाषाओं में 'ळ' का उच्चारण हिन्दी के 'झ' जैसा तो मराठी में 'ड़' की तरह लगता है। इसलिए जब हम उनका हिन्दी में उच्चारण करते हैं तो 'ळ' खो जाता है। आईए आज गढ़वाली लोकभाषा को केंद्र में रखकर 'ळ' पर चर्चा करें।     
      'ळ' को हिन्दी में नहीं अपनाया और इसलिए हम मानने लगे कि यह गढ़वाली का ही कोई विशेष अक्षर है लेकिन असल में ऐसा नहीं है। देवनागरी लिपि के व्यंजनों में 'ळ' अक्षर है। आप मराठी वर्णमाला देखिये। उसमें आपको 'ह' के बाद 'ळ' दिखायी देगा। 'कीबोर्ड' में भी यह अक्षर है और इसका कारण यही है कि मराठी में इसका बहुत उपयोग होता है। रेमिंगटन कीबोर्ड में अंग्रेजी की 'G' वाली 'key' को 'Shift' के साथ दबाने से जबकि फोनेटिक में 'N' वाली 'key' को 'Shift' के साथ दबाने से आपका 'ळ' मिल जाएगा। 
        हरियाणवी, राजस्थानी जैसी लोकभाषाओं में 'ळ' अक्षर का उपयोग किया जाता है। संस्कृत की बात करें तो वैदिक संस्कृत में यह अक्षर मिलता है। यही वजह है कि वेदों, उपनिषदों और पुराणों में 'ळ' है लेकिन आम बोलचाल की संस्कृत में यह अक्षर नहीं है। 
       ब 'ळ' के उच्चारण की बात करते हैं। जीभ को ऊपर की तरफ मोड़कर जिह्वाग्र के निचले भाग को मुखगुहा की छत से लगाकर 'ल' बोलने पर उसका मूर्धन्य भेद अर्थात 'ळ' का उच्चारण होता है। अगर आप मराठी सुनेंगे तो यह 'ड़' के अधिक करीब लगेगा लेकिन गढ़वाली में ऐसा नहीं है जहां यह 'ल' का मूर्धन्य भेद ही है। असल में र, ल, ळ, ड, ड़ ये पांचों अक्षर वैकल्पिक वर्ण हैं तथा 'ळ' को 'ल' का पृथक वर्ण माना जाता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं जैसे तमिल, मलयालम आदि में इसका उच्चारण 'ल' और 'ड़' का मिश्रण लगता है। एक उदाहरण कनिमोझी करुणानिधि का है। उनका नाम असल में कनिमोझी नहीं है। हिन्दी समाचार पत्रों और चैनलों में उनका यही नाम लिखा और बोला जाता है। अंग्रेजी में उनका नाम 'Kanimozhi' लिखा जाता है और इसलिए हिन्दी में इसे कनिमोझी कर दिया गया जबकि इसका उच्चारण 'कनिमोळी' होना चाहिए था लेकिन क्या करें हिन्दी में 'ळ' नहीं है और अंग्रेजी चैनलों का इससे कोई लेना देना नहीं है।
        गढ़वाली और कुमांउनी जैसी लोकभाषाओं में 'ळ' का विशेष महत्व है। हिन्दी की तरह गढ़वाली भी देवनागरी लिपि पर निर्भर है लेकिन गढ़वाली वर्णमाला में 'ळ' अतिरिक्त व्यंजन रखना ही होगा जैसा कि हिन्दी में नहीं है। गढ़वाली में कई ऐसे शब्द हैं जिनमें 'ल' और 'ळ' से उनका संपूर्ण अर्थ बदल जाता है। इन शब्दों को बोलने और समझने से आपको 'ल' और 'ळ' के बीच का अंतर भी पता चल जाएगा।
  •       आला — आएंगे                          आळा — मकान की दीवार पर सामना रखने की जगह 
  •       कल — बीता या आने वाला कल   कळ — उपाय, तरतीब  
  •       कालि — देवी मां                         काळि — काले रंग की 
  •       खाल — त्वचा, चमड़ा                  खाळ — पहाड़ों पर समतल स्थल 
  •       गाल — गाल, कपोल                    गाळ — गाली 
  •       घोल — घोंसला                            घोळ — घोलना, घोलो 
  •       चाल — आकाशीय बिजली            चाळ — छानना 
  •       छाल — पेड़ का छिलका                छाळ — धोना 
  •       जाला — जाएंगे                            जाळा — जैसे मकड़े का जाळा 
  •       डालि — टोकरी                             डाळि — छोटा पेड़  
  •       ढोल — एक वाद्ययंत्र                   ढोळ — फेंकना 
  •       तौली — छोटी पतीली                   तौळी — उतावली 
  •       दिवाल — दीवार                          दिवाळ — दीवाली 
  •       नाल — जैसे घोड़े, बंदूक की नाल  नाळ — गर्भ में बच्चे को आहार पहुंचाने वाली नलिका 
  •       पाल — फलों को पकाने की विधि  पाळ — दीवार  
  •       बेल — लता                                 बेळ — समय 
  •       भेल — छत्ता                               भेळ — खड़ी ढलान 
  •       मोल — मूल्य                               मोळ — गोबर 
  •       यकुला — अकेला                          यकुळा — एक बार  
  •       लाल — रंग                                   लाळ — लार 
  •       सिलौण — सिलवाना                     सिळौण  — विसर्जित करना 
  •       हाल — दशा, हालचाल                    हाळ — आंच
            ऐसे कई अन्य शब्द हैं जिनमें 'ल' और 'ळ' में अंतर आ जाता है। ब्लॉग में इस पोस्ट के नीचे टिप्पणी वाले कालम में जरूर ऐसे शब्दों का जिक्र करें। 'घसेरी' को इंतजार रहेगा। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

रिपोर्ट : घसेरी बनी लखपति और जीता चांदी का मुकुट

घसेरी प्रतियोगिता की विजेता रैजा देवी। साथ में महान गायक नरेंद्र सिंह नेगी और प्रतियोगिता के आयोजक।
                                                                                                                                   सभी फोटो : अभिनव कलूड़ा
    राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की सौंदर्य प्रतियोगिताएं होती रहती हैं लेकिन घास काटने की अनोखी 'श्रम सौंदर्य' प्रतियोगिता सुनकर थोड़ा अजीब लगता है। उत्तराखंड में हालांकि पिछले दिनों इसी तरह की अनोखी ‘श्रम सौंदर्य’ प्रतियोगिता आयोजित की गयी जिसमें घास काटने के अपने कौशल का अद्भुत नमूना पेश करके पहले स्थान पर रहने वाली महिला को न सिर्फ एक लाख रूपये की नकद पुरस्कार राशि बल्कि चांदी का मुकट पहनाकर भी सम्मानित किया गया। 'घसेरी' के लिये इस अनोखी लेकिन सराहनीय घसेरी प्रतियोगिता की रिपोर्ट वरिष्ठ पत्रकार ---- अभिनव कलूड़ा ---- ने भेजी है। 
      उत्तराखंड के टिहरी जिले के दुर्गम भिलंगना ब्लॉक के कोठियाड़ा गांव में  पांच और छह जनवरी 2016 को किया गया। शुरू में घास काटने की इस प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जिसमें 112 गांवों की 637 महिलाओं ने हिस्सा लिया। इस ब्लॉक में कुल 185 गांव हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के उन्नयन के लिए काम कर रहे चेतना आंदोलन ने पर्यावरण और पशु स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए इस अनोखी प्रतियोगिता का आयोजन किया। 
      प्रतियोगिता के लिए कड़े नियम बनाए गए थे। इसका पहला चरण सभी प्रतिभागी गांवों में आयोजित किया गया और हर गांव से तीन सर्वश्रेष्ठ महिलाओं का चयन किया गया। उसके बाद क्षेत्र पंचायत स्तर पर प्रतियोगिता हुई और अंत में चुनकर आयी तीन महिलाओं के बीच अंतिम दौर की प्रतियोगिता आयोजित की गयी। अंतिम दौर में नियम कड़े किए गए थे। प्रतिभागी महिला को निर्धारित स्थान पर खुद घास काटने वाले क्षेत्र का चयन करना था। उसे दो मिनट में काटे गए घास को निर्णायक मंडल को सौंपना था। निर्णायक मंडल ने घास की गुणवत्ता तथा पारिस्थितिकी के अनुकूल उसकी विशेषता के आधार पर घास की पहचान की और फिर उसका तोल किया। अंत में घास की गुणवत्ता के बारे में तीनों महिलाओं की जानकारी की परीक्षा ली गयी। निर्णायक मंडल में उत्तराखंड के मशहूर लोकगायक नरेंद्रसिंह नेगी, राज्य सरकार में महिला सामाख्या निदेशक गीता गैरोला तथा सामाजिक कार्यकर्ता रमा मंमगाई शामिल थीं।

पहले तीन स्थानों पर रहने वाली रैजा देवी (बीच में), जसोदा देवी और अबली देवी। 
       घास काटने की इतनी कड़ी परीक्षा से गुजरने के बाद पहला स्थान 36 वर्षीय रैजा देवी ने हासिल किया। उन्होंने विभिन्न मानदंडों के आधार पर 100 अंकों में से 81.11 प्रतिशत अंक प्राप्त किए। इसके लिये उन्हें एक लाख रुपए नकद तथा 16 तोला चांदी का मुकुट पहनाकर सम्मानित किया गया। रैजा देवी अमरसर बासर की रहने वाली है। उनके दो बच्चे हैं और दोनों गांव की स्कूल में पढते हैं। मल्ड नैलचामी की 42 वर्षीय जसोदा देवी (79.50 प्रतिशत अंक) ने दूसरे स्थान पर रही। उन्हें 51 हजार रुपए और 13 तोला चांदी का मुकुट पहनाया गया। तीसरा स्थान हासिल करने वाली 32 वर्षीय अबली देवी (70.10 प्रतिशत अंक) को 21 हजार रुपए और 10 तोला चांदी का मुकुट पहनाया गया। 
       प्रतियोगिता के आयोजक त्रेपन सिंह चौहान ने बताया ''इस प्रतियोगिता में औषधीय गुण, पर्यावरण के अनुकूल तथा पौष्टिक घास की पहचान रखने और सबसे तेज गति से घास काटने वाली महिला को सम्मानित किया गया। ..... उत्तराखण्ड में तो घसियारी ही किसान भी है। एक किसान को पानी, पशु और मेहनत ही जिन्दा रख सकता है, तभी वह अपने खेतों को उपजाऊ बनाकर अच्छी पैदावार ले पाता है। घसियारियों की जिन्दगी सामूहिकता के बिना चलना संम्भव नहीं, क्योंकि खेती, जंगल से पंजार आदि जीवन को चलाने वाले तमाम काम समाज के सामूहिक सहयोग के बिना सम्पादित नहीं किये जा सकते। इस सामूहिकता के दम पर ही पहाड़ी समाज की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा जीवित है। यह पहाड़ घासियारियों के बूते ही साँस ले रहा है।'' 
      आयोजक चेतना आंदोलन के अनुसार इस प्रतियोगिता पर कुल दो लाख 30 हजार रुपए का खर्च आया है। संगठन की योजना अब हर साल घसेरी प्रतियोगिता का आयोजन करना है ताकि घास काटने वाली महिलाओं को सामाजिक स्तर पर सम्मान मिले और उनके श्रम को पहचान मिल सके।
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