सोमवार, 29 मई 2017

अखबार में आया रोल नंबर और मैं पास हो गया

         मां . पिताजी दोनों ​के मन में थोड़ा डर, थोड़ी चिंता भर गयी थी। डर और चिंता में भगवान ज्यादा याद आते हैं और इसलिए उन्होंने भी 'सत्यनारायण व्रत कथा' करवाने की मन्नत कर ली। असल में परिस्थितियां कुछ ऐसी ही बन गयी थी। मैं तब 15 साल का था जब मैंने उत्तर प्रदेश बोर्ड के तहत हाईस्कूल की परीक्षा दी थी। वर्ष था 1985 और उस साल परीक्षा में नकल रोकने के लिये परीक्षा केंद्र बदल दिये गये थे। मैं राजकीय इंटर कालेज नौगांवखाल में पढ़ता था लेकिन मेरा परीक्षा केंद्र राजकीय इंटर कालेज एकेश्वर था। मेरे गांव स्योली से लगभग दस किमी दूर। गांव के सामने लगभग तीन . चार किमी की चढ़ाई और फिर जंगल के रास्ते से गुजरकर पहुंचना पड़ता था एकेश्वर। परीक्षा सुबह सात बजे शुरू होती थी लेकिन मुझे एकेश्वर पहुंचने के लिये चार बजे उठना पड़ता था। गांव के कुछ और बच्चे भी परीक्षा दे रहे थे और पिताजी हमें आधे रास्ते तक छोड़ने के लिये आते थे। वह तब मुझे हर दिन एक रूपया दिया करते थे, जिन्हें मैंने खर्च नहीं किया। कुल 13 पेपर दिये थे और इस तरह से मेरे पास 13 रुपये जमा हो गये थे। 
        एकेश्वर में पढ़ने वाले बच्चों का परीक्षा केंद्र नौगांवखाल था। पहले दिन के पेपर में किसी तरह की सख्ती नहीं थी, लेकिन शाम को जब 12वीं की परीक्षा के दौरान नौगांवखाल में एकेश्वर के दो लड़कों का Rustication (रस्टकेशन हिन्दी में कहें तो निष्कासन मतलब जिसका रस्टकेशन हो गया उसके लिये आगे की परीक्षा बेमतलब हो  जाती है) कर दिया गया। एकेश्वर में खबर पहुंची और फिर वहां बदले की आग झुलसने लगी। कुछ बच्चों को दो परीक्षा केंद्रों के बीच चली आपसी जंग का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। नकल करते हुए पकड़े जाने पर उनका रस्टकेशन कर दिया गया। जो नकल के भरोसे थे वे भी 'बेचारे' बन गये। हमारे साथ भी दूसरे पेपर से कड़ी सख्ती बरती गयी। मार्च के महीने में सुबह काफी ठंड पड़ती थी लेकिन परीक्षा केंद्र पर हमारे जूते, मोजे, दस्ताने तक निकलवा दिये जाते थे। मुझे याद है कि तब जिला शिक्षा अधिकारी एक बेहद सख्त मिजाज की महिला थी जो नकल करने पर तुरंत रस्टकेशन करती थी। उनके 'फ्लाइंग स्क्वाड' में भी आठ . दस कड़क और परीक्षार्थियों की नजर में 'निर्मम' व्यक्ति शामिल थे। नकल के खिलाफ बना यह माहौल दिल में खौफ भी पैदा कर रहा था। गणित के पेपर में मुझे भी आशंका थी। मां . पिताजी को भी अपनी इस आशंका से अवगत करा दिया था और यही उनके डर व चिंता की मुख्य वजह थी। 


     जिस दिन परीक्षा परिणाम आना था। सभी के चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती थी। ​तब परिणाम स्थानीय समाचार पत्र अमर उजाला में प्रकाशित होता था। उसमें रोल नंबर के आगे प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी और तृतीय श्रेणी यानि F, S और T लिखा रहता था।  जिसका नंबर आ गया वह उत्तीर्ण जिसका नहीं आया वह अनुत्तीर्ण। जिस समाचार पत्र में परीक्षा परिणाम छपा रहता था उसके लिये मारामारी रहती थी। मुझे याद है कि नौगांवखाल का एक व्यक्ति पहले दिन शाम को ही कोटद्वार में डेरा जमा लेता था। वहां अखबार हाथ में आते ही वह उसे लेकर जल्द से जल्द नौगांवखाल पहुंच जाता और फिर उसके पास परीक्षा परिणाम देखने वालों की लाइन लग जाती। जो विद्यार्थी उत्तीर्ण हो जाता उससे पांच से दस रूपये लेता और अनुत्तीर्ण होने वाले को टेढ़ी नजर से देखता। आखिर उसने अनुत्तीर्ण होकर उसके पांच रूपये का नुकसान करा दिया था। बाद के वर्षों में परीक्षा परिणाम देखने से पहले ही 10 से 20 रुपये लिये जाने लगे थे।  
      पिताजी मेरा परीक्षा परिणाम देखने गये थे और मैं जंगल में गोरू (गाय बछड़े यानि डंगर) चराने चला गया था। मन में धुकधुकी लगी हुई थी। गांव का एक चचेरा भाई, जो मुझसे उम्र में बड़ा था, अपने गोरू मेरे पास छोड़कर नौगांवखाल निकल गया। उन्होंने कहा था कि अगर मैं पास हो गया तो वह जल्द से जल्द यह खबर मुझे देगा। मुझे याद है कि वह मुझे देखकर चिल्लाया था, 'धर्मेंद्र तू पास हो गया, सेकेंड डिवीजन है तेरी।' सच या झूठ। कई विचार एक साथ मन में कौंधे और फिर लगा कि पांव अब जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। गांव से केवल मैं ही पास हुआ था, बाकी सारे फेल। हमारी स्कूल से दसवीं की परीक्षा में शामिल लगभग 120 विद्यार्थियों में से केवल 18 पास हुए थे और उनमें मैं भी शामिल था। फिर भी थोड़ी धुकधुकी बनी रही क्योंकि किसी ने बताया कि प्रूफ की गलती से भी नंबर में गड़बड़ी हो सकती थी। इसलिए अगला एक सप्ताह इसी दुआ में बीता कि हे भगवान अखबार में जो कुछ छपा है वह सच निकले और जब मार्कशीट यानि अंक प्रमाणपत्र आया तो सब कुछ सच निकला। गणित में दो नंबर के ग्रेस मार्क्स से मैं द्वितीय श्रेणी में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ​गया था। मां ​. पिताजी खुश थे और उन्होंने बाकायदा सत्यनारायण की कथा करवायी।


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         सवीं की परीक्षा में मेरे 47 प्रतिशत अंक आये थे। बारहवीं में 51 प्रतिशत और फिर बीए में 58.5 प्रतिशत अंक लाकर मैं कालेज में अव्वल आया था। मैंने 1995 में प्राइवेट छात्र के तौर पर राजनीति शास्त्र से एमए किया। कुल 63 प्रतिशत अंक थे लेकिन मैं विश्वविद्यालय में प्रथम आया था। तब की भाषा में कहूं तो गोल्ड मेडलिस्ट, जो मुझे कभी नहीं मिला। हां विश्वविद्यालय में प्रथम का एक प्रमाणपत्र हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय ने जरूर थमा दिया था। इस बीच पत्रकारिता की डिग्री भी प्रथम श्रेणी (65%) में ली थी। हमारे जमाने में अगर 10वीं या 12वीं की परीक्षा में किसी के 60 प्रतिशत अंक आते थे तो उसे जीनियस समझा जाता था। उसकी इज्जत बढ़ जाती थी लेकिन आज की स्थिति बदल गयी है। आलम यह है कि 95 प्रतिशत वाला भी पक्के तौर पर नहीं कह सकता है कि उसे दिल्ली विश्वविद्यालय में मनपसंद विषय में मनपसंद कालेज में एडमिशन मिल जाएगा। हमारे समय में निरीक्षक भी बड़े कंजूस हुआ करते थे, पता नहीं किन किन कारणों से अंक काट देते थे लेकिन अब राजनीति शास्त्र, हिन्दी या अंग्रेजी में भी 100 में से 100 नंबर आ रहे हैं। अपने जमाने में तो केवल गणित में यह संभव था। अंकों की इस होड़ में परीक्षार्थियों पर भी दबाव बढ़ रहा है। इससे रट्टामार पद्वति को भी प्रश्रय मिल रहा है। कुल मिलाकर हमारा जमाना ही सही था। दबाव हम पर भी रहता था तभी तो मैंने दसवीं की परीक्षा में बचाये गये 13 रूपयों को खाने पर खर्च नहीं किया था क्योंकि मैं भी उस दिन का इंतजार कर रहा था जब मेरी परीक्षाएं समाप्त हों और मैं बचाये गये पैसों से अपनी मनपसंद पत्रिका 'क्रिकेट सम्राट' खरीदकर रिलैक्स होकर उसे पढूं। क्रिकेट सम्राट के तीन अंकों के लिये मेरे पास पैसा था और अगले तीन महीने तक मैंने ऐसा किया भी। 
       और हां मेरा सभी माता पिताओं से आग्रह है कि वे अपने बच्चों पर अंकों के इस बोझ का दबाव नहीं बनायें। उन्हें अनुशासन में रखें लेकिन अपनी जिंदगी स्वतंत्र और सहज होकर जीने दें। मेरा बेटा जब परीक्षा के तनाव में था तो मैंने उसे समझाया कि ''हमारी जिंदगी में परीक्षा का उतना ही महत्व है जितना एक बड़े से कमरे रखे गये छोटे से फूलदान का। फूल खिल रहे हैं तो अच्छा लगेगा लेकिन अगर फूलदान टूट भी गया तो ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। बस बिखरे टुकड़ों को समेटकर उन्हें भूतकाल के हवाले करना है। जल्द ही नया फूलदान उसकी जगह ले लेगा। जिंदगी परीक्षा से कई ज्यादा महत्वपूर्ण है।'' इसलिए जिनके बच्चों के नंबर कम आये हैं उन्हें निराश होने की जरूरत नहीं है। स्वेट मार्टेन ने कहा था कि 'प्रत्येक व्यक्ति के अंदर विशिष्ट प्रतिभा छिपी होती है, बस जरूरत है उसे पहचानने की। जिसने उसे पहचान लिया उसने जग जीत लिया।'' आप भी अपने बच्चों के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचानने में उनकी मदद करिये। मैं भी प्रयास कर रहा हूं। 
आपका धर्मेंद्र पंत 



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2 टिप्‍पणियां:

  1. दरअसल वही पढ़ाई अछी थी जो घोट घोट कर पढ़ाई जाती थी , और तब एक निखार चमक कर आता था। सेकंड डिविजन में पास होना बहुत बड़ी बात होती थी , और फ़र्स्ट डिविजन वाला क्लास वन ऑफिसर बनता था।

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  2. जब १२ वीं कक्षा मे था तो परिणाम लेकर मेरा एक सहपाठी आया था, बोला पहले पार्टी दे। परिणाम देखा तो अनुक्रमांक के सामने F लिखा था। एक पल के लिए लगा कि F का मतलब फेल तो नहीं है, उसके बाद ऐसा लगा कि जिन्दगी की जंग जीत ली। मेरा सहपाठी जो परिणाम लेकर आया बेचारा फेल था।

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