पिछले साल उत्तराखंड की लोक भाषाओं से संबंधित एक किताब पर काम करते हुए मेरी उत्तराखंड की भाषाविद और लेखिका श्रीमती कमला पंत से कुमांउनी भाषा को लेकर लंबी बातचीत हुई। उन्होंने तब जिक्र किया था कि किस तरह से कुछ कुमांउनी शब्द हिन्दी ने अपनाये। इस संबंध में उन्होंने श्री सुमित्रानंदन पंत से जुड़ा एक किस्सा भी सुनाया था। बकौल श्रीमती कमला पंत, ''मैं जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थी तो वहां पर तीन दिनों तक निराला जयंती होती थी। वहां पर बड़े बड़े विद्धान आते थे। एक बार सुमित्रनंदन पंत जी ने कविता पाठ करते हुए कहा, ‘फैली खेतों में दूर तलक मख़मल की कोमल हरियाली’। हिन्दी के बाकी कवियों ने विरोध किया कि ‘तलक’ तो कोई शब्द ही नहीं है। उन्होंने फिर बताया कि यह कुमांउनी का शब्द है। फिर धीरे - धीरे यह शब्द हिन्दी ने भी अपना लिया जबकि यह कुमांउनी (यह शब्द गढ़वाली में भी बोला जाता है) का है।''
वैसे सुमित्रानंदन पंत या उत्तराखंड से संबंध रखने वाले अन्य कवियों और लेखकों ने अपने लेखन में गढ़वाली, कुमांउनी या अपनी अन्य लोकभाषाओं के शब्दों का उपयोग बहुत कम किया है जबकि उत्तराखंड की लोकभाषाएं हिन्दी को समृद्ध करने की क्षमता रखते हैं। अगर पंत जी ने अपनी कविताओं में कुमांउनी के चुनिंदा शब्दों का ही उपयोग किया तो इसका कारण यह भी था कि तब उत्तराखंड की इन लोकभाषाओं पर आज की तरह खतरा नहीं मंडरा रहा था। आज स्थिति बदली हुई है और ये लोकभाषाएं खतरे में हैं ऐसे में इनके शब्दों को भी संरक्षण की जरूरत है और इसमें कोई भी लेखक, कवि, गीतकार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। गढ़वाली और कुमांउनी में गंध, ध्वनि आदि के लिये कई शब्द हैं जबकि हिन्दी में इनके लिये कोई विशेष शब्द नहीं है। ऐसा कोई संदर्भ आने पर इनका उपयोग किया जा सकता है। मुझे याद है कि वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रभाष जोशी ने मालवा क्षेत्र में उपयोग होने वाले शब्द 'अपुन' का खूब उपयोग किया और बाद में हिन्दी ने उसे अपना लिया। अब भी कई लेखक इस शब्द का उपयोग कर लेते हैं।
यह तो थी शब्दों के उपयोग की बात। आज श्री सुमित्रानंदन पंत का 117वां जन्मदिवस है। बीस मई 1900 को जन्में इस सुकुमार कवि ने अपनी किशारोवस्था कौशानी और अल्मोड़ा में बितायी थी और इसलिए उनकी कविताओं में इन दोनों स्थानों का सुंदर वर्णन मिलता है। उनके बचपन का नाम गुसांई दत्त था लेकिन वह रामायण के लक्ष्मण के चरित्र से प्रभावित थे और इसलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत कर दिया था। पंत जी 'प्रकृति के चितेरे' थे लेकिन उन्होंने कुमांउनी में बहुत कम या यूं कहें कि सिर्फ एक कविता लिखी थी। यह कविता भी बुरांश पर लिखी गयी थी। आप भी श्री सुमित्रानंदन पंत की कुमांउनी में लिखी गयी इस कविता का आनंद लीजिए।
सार जंगल में त्वि ज क्वे न्हां रे क्वे न्हां,
फुलन छै के बुरूंश! जंगल जस जलि जां।
सल्ल छ, दयार छ, पई अयांर छ,
सबनाक फाडन में पुडनक भार छ,
पै त्वि में दिलैकि आग, त्वि में छ ज्वानिक फाग,
रगन में नयी ल्वै छ प्यारक खुमार छ।
सारि दुनि में मेरी सू ज, लै क्वे न्हां,
मेरि सू कैं रे त्योर फूल जै अत्ती माँ।
काफल कुसुम्यारु छ, आरु छ, अखोड़ छ,
हिसालु, किलमोड़ त पिहल सुनुक तोड़ छ ,
पै त्वि में जीवन छ, मस्ती छ, पागलपन छ,
फूलि बुंरुश! त्योर जंगल में को जोड़ छ?
सार जंगल में त्वि ज क्वे न्हां रे क्वे न्हां,
मेरि सू कैं रे त्योर फुलनक म' सुंहा॥
श्री सुमित्रानंदन पंत को सादर नमन।
आपका धर्मेंद्र पंत
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सार जंगल में त्वि ज क्वे न्हां रे क्वे न्हां,
जवाब देंहटाएंफुलन छै के बुरूंश! जंगल जस जलि जां।
सल्ल छ, दयार छ, पई अयांर छ,
सबनाक फाडन में पुडनक भार छ,
पै त्वि में दिलैकि आग, त्वि में छ ज्वानिक फाग,
रगन में नयी ल्वै छ प्यारक खुमार छ।
अर्थातः अरे बुरांश सारे जंगल में तेरा जैसा कोई नहीं है तेरे खिलने पर सारा जंगल डाह से जल जाता है, चीड़,देवदार, पदम व अंयार की शाखाओं में कोपलें फूटीं हैं पर तुझमें जवानी के फाग फूट रहे हैं, रगों में तेरे खून दौड़ रहा है और प्यार की खुमारी छायी हुई है।
सुमित्रानंदन पंत को खूब पड़ा। स्कूल कॉलेज के लगभग हर हिंदी पाठ्क्रम में उनकी रचनाएं शामिल थी, लेकिन घसेरी की इस पोस्ट से पहली बार अवगत हुआ कि उन्होंने कुमाऊंनी में भी कोई कविता लिखी है। इस जानकारी जे लिए घसेरी का धन्यवाद। सुभाष रतूड़ी
जवाब देंहटाएंआभार सुभाष। पिछले साल ही पता चला कि श्री सुमित्रानंदन पंत ने कुमांउनी में भी एक कविता लिखी है। उनकी कुछ कविताएं हमारे पाठ्यक्रम में थी। जैसे, ''मैंन छुटपन में छिपकर के पैसे बोए थे '' या ''चींटी को देखा वह सरल विरल काली रेखा...''।
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