रविवार, 22 नवंबर 2015

गुणों की खान है कोदा यानि मंडुआ

 कोदा के खेत और कोदा से बनी रोटी। इसे सब्जी, घी, कई तरह के नमक या दूध किसी के साथ भी खा सकते हैं।

   मैंने बचपन से उसे क्वादू या कोदो कहा। कोदा उसके लिये सही शब्द हो सकता है। अगर आप हिन्दी भाषी हैं तो मैं आपको बता दूं कि मैं 'मंडुआ' की बात कर रहा हूं। बचपन में मेरी आदत थी सुबह नाश्ते में दूध और रात की बनी कोदा की रोटी खाने की। उसका स्वाद अद्भुत होता था। मां को रात को बोलता था, ''मां एक क्वादो कु टिकड़ सुबेर खुणी भि बणै दे''। पिताजी ने एक किस्सा सुनाया था जो आज याद आ रहा है। गढ़वाल राइफल्स में कोई अंग्रेज था। उसे गढ़वाली तो आ गयी थी लेकिन यहां के खानपान के अनभिज्ञ था। एक बार अकेला किसी गांव से गुजर रहा था। भूख लगी तो गांव की एक वृद्ध महिला ने उसे खाने के लिये कोदा की मोटी रोटी और उसके ऊपर ढेर सारा घी दे दिया। अंग्रेज घी खा गया और महिला को यह कहते हुए रोटी वापस कर दी 'लो माताजी आपकी प्लेट''। कहने का मतलब है कि कोदा की रोटी मोटी बनती है और अगर वह बासी है तो कड़क भी बन जाती है। इसी रोटी को दूध के साथ खाने का आनंद मैंने काफी उठाया है। अब भी कोदा की आटा कहीं से मंगाकर महीने में एक दो बार इसकी रोटी खाता हूं। बासी नहीं सादी रोटी। आज कोदा पर लिखने से पहले पत्नी से इसकी रोटी बनवायी। चार रोटी छकने के बाद लिख रहा हूं कोदा की कहानी। 
     कहा जाता है है कोदा यानि मंडुआ का मूल निवास अफ्रीका महाद्वीप है। मतलब सबसे पहले इसकी खेती अफ्रीका में की गयी और लगभग 3000 से 4000 वर्ष पहले यह भारत आया था। हड़प्पा की खुदाई में भी पता चला कि उस समय के निवासी भी कोदा की खेती करते थे। बाद में पहाड़ और पहाड़ी जीवन का अहम हिस्सा बन गया। इसे 2000 से 3000 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जा सकता है। पिछले दिनों एक भाई ने बताया कि पहाड़ी लोगों का कोदा से मोहभंग हो रहा है। इसकी खेती कम की जा रही है। मैं खुद पलायनवादी, जो पहाड़ छोड़कर दिल्ली भाग आया, किसी को भी उपदेश देने का हक नहीं रखता हूं लेकिन सच कहूं तो कोदा के बारे में सुनकर अच्छा नहीं लगा। यह कोदा हमारी संस्कृति, खानपान का अहम हिस्सा रहा है। यदि पहाड़ी हट्टे कट्ठे मजबूत होते हैं तो उसका काफी श्रेय कोदा को जाता है। गुणों की खान है कोदा। इसलिए इसे अनाजों का राजा भी कहते हैं। इसके दाने काले या राई के रंग के होते हैं और इसलिए इसकी रोटियां भी काली, भूरे रंग की होती हैं। यह ऐसा अनाज है जिस पर कीड़ा नहीं लगता और इसे लंबे समय तक रखा जा सकता है। 
     कोदा की बुवाई मई जून में की जाती है। इसकी खेती के लिये बहुत उपजाऊ जमीन और बहुत अधिक पानी की जरूरत नहीं होती है। जब सीढ़ीनुमा खेतों में कोदा की बुवाई होती है तो मस्त धूल उड़ती रहती है। गेंहूं की बुवाई के लिये जहां हल बहुत ध्यान रखकर चलाना पड़ता है वहीं कोदा की बुवाई में 'डामर' भी पड़ जाए तो चिंता नहीं। मैंने भी हल चलाया है और सच कहूं तो मुझे सबसे ज्यादा मजा कोदा की बुवाई करने में ही आया। 
    बरसात आने पर कोदा की निराई गुड़ाई का काम शुरू हो जाता है। कोदा को छांट . छांटकर खेत की मेढ़ पर लगाने में सुख की अनुभूति होती थी क्योंकि इसका पौधा कहीं पर कैसे भी रोप दिया जाए वह जिंदगी से हार नहीं मानता है। अक्तूबर . नवंबर में इसकी फसल तैयार हो जाती है। पौधे के ऊपर का अनाज निकालकर इकट्ठा करके घर के एक कोने पर रख देते हैं और निचला वाला हिस्सा पशुओं के ​खाने के लिये एकत्रित कर देते हैं। बाद में खलिहान में ले जाकर इसके छोटे . छोटे दाने अलग कर दिये जाते हैं। बस फिर आटा ​तैयार कीजिए और फिर रोटी बनाईये, बाड़ी या फिर पल्यो। आपका शरीर भी इसका सेवन करके आपको दुआ देगा। 

गुणों की खान है कोदा

     चपन में मां से सुना है कि अगर हम लोग पहाड़ी चढ़ लेते हैं तो इसका श्रेय कोदा को जाता है। कोदा खाने से हड्डी मजबूत बनती हैं और इसका सेवन करने वाला ताकतवर बनता है। ऐसा कहकर वह हमें कोदा खाने के लिये प्रेरित करती थी। कोदा बच्चों से लेकर वृद्धजनों तक सभी के लिये समान रूप से उपयोगी है। जापान में तो इससे शिशुओं के लिये खास तौर पर पौष्टिक आहार तैयार किया जाता है। उत्तराखंड सरकार ने भी सरकारी अस्पतालों में मरीजों को कोदा के बने व्यंजन देने की व्यवस्था की थी। कहने का मतलब यह है कि कोदा को छह माह के बच्चे से लेकर गर्भवती महिलाओं, बीमार व्यक्तियों और वृद्धजनों तक सभी को दिया जा सकता है। इससे उन्हें फायदा ही होगा।
    कोदा कैल्सियम, फासफोरस, आयोडीन, विटामिन बी, लौह तत्वों से भरपूर होता है। इसमें चावल की तुलना में 34 गुना और गेंहू की तुलना में नौ गुना अधिक कैल्सियम पाया जाता है। प्रति 100 ग्राम कोदा में प्रोटीन 7.6 ग्राम, वसा 1.6 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 76.3 ग्राम, कैल्सियम 370 मिग्रा, खनिज पदार्थ 2.2 ग्राम, लौह अयस्क 5.4 ग्राम पाया जाता है। इसके अलावा इसमें फास्फोरस, विटामिन ए, विटामिन बी.1 यानि थियामाइन, विटामिन बी.2 यानि रिबो​फ्लेविन, विटामिन बी.3 यानि नियासिन, फाइबर, गंधक और जिंक आदि भी पाया जाता है।  
     कैल्सियम और फास्फोरस हड्डियों और दांतों को मजबूत करते हैं। इसमें कैल्सियम और फास्फोरस उचित अनुपात में होने के कारण यह बढ़ते बच्चों के लिये बेहद लाभकारी होता है। मधुमेह के रोगियों के लिये तो कोदा वरदान साबित हो सकता है। इसमें पाये जाने वाले काबोहाइड्रेट जटिल किस्म के होते हैं जिनका पाचन धीरे धीरे होता है और ऐसे में ये रक्त में शर्करा की मात्रा को सं​तुलित बनाये रखते हैं। हृदय रोगियों के लिये भी यह बहुत अच्छा भोजन है। कोदा से ब्लड प्रेशर को संतुलित करने में भी मदद मिलती है। इसके सेवन से खून में हानिकारक चर्बी घट जाती है और लाभकारी चर्बी बढ़ जाती है। फाइबर अधिक होने के कारण भी इसका खाने से कोलस्ट्राल कम करने में मदद मिलती है। इससे बवासीर के रोगियों को भी फायदा होता है। क्षारीय अनाज होने के कारण कोदा का नियमित सेवन करने वाले व्यक्ति को अल्सर नहीं होता है। अल्सर के रोगियों को कोदा के बने भोजन का नियमित सेवन कराने से लाभ मिलता है। लौह अयस्क होने के कारण कोदा खून की कमी भी दूर करता है। आपने चिकित्सकों के मुंह से अक्सर सुना होगा कि पहाड़ी लोगों का हीमोग्लोबिन काफी अधिक होता है। उसका कारण कोदा ही है। इसके सेवन करने वाले को कभी एनीमिया नहीं हो सकता। यहां तक कि यह कैंसर जैसे रोग की रोकथाम में लाभकारी है। यहीं नहीं इससे जल्दी बुढ़ापा नहीं आता। चेहरे पर झुरियां देर से पड़ती हैं।
   इसलिए मेरा सभी पहाड़ियों से विनम्र निवेदन है कि गेंहूं उगाओ या नहीं लेकिन कोदा जरूर उगाओ और रोज उसका सेवन करो। हमारा सौभाग्य नहीं है कि हम रोज कोदे की रोटी या बाड़ी खा सकें लेकिन जिन्हें यह नसीब हो रहा है वे इससे मुंह न फेरें। कोदा हम पहाड़ियों के लिये अमृत है। कोदा पर आपकी जान​कारियों के इंतजार में आपका धर्मेन्द्र पंत।

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शनिवार, 7 नवंबर 2015

आओ मनायें बग्वाल और खेलें भैला

      दीवाली तो हम हर साल मनाते हैं। दिये जलाना, कुछ पटाखे छोड़ना और उपहारों का आदान प्रदान। विशुद्ध औपचारिकताओं से भरी दीपावली। अगर मेरे साथ दीवाली खेलने के लिये चलना है तो फिलहाल आपको यह दीपावली भूलनी होगी। मेरे पहाड़ की दीवाली जिसे हम बग्वाल कहते हैं। इसके बाद हम भैला भी खेलेंगे और भ्वींत भी। 

दीवाली नहीं इगास.बग्वाल

     पहाड़ों विशेषकर गढ़वाल में दीवाली को बग्वाल कहा जाता था। अब भी पुराने लोगों के मुंह से आपको बग्वाल सुनने को मिल जाएगा। इसके 11 दिन बाद इगास आती है। पंडित भास्करानंद पंत के अनुसार, ''गढ़वाल में दीपावली को ही बग्वाल बोलते हैं। इसके 11वें दिन बाद हरिबोधिनी एकादशी आती है जिसको हम इगास कहते हैं। अमावस्या के दिन लक्ष्मी जागृत होती है और इसलिए बग्वाल को लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है। हरिबोधनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु शयनावस्था से जागृत होते हैं और उस दिन विष्णु पूजा करने का प्रावधान है। '' 
     उत्तराखंड में असल में कार्तिक त्रयोेदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है और यह कार्तिक एकादशी यानि हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। इसे ही इगास . बग्वाल कहा जाता है। जिस दिन बग्वाल या इगास होती थी उस दिन सुबह से ही रौनक बन जाती थी। इन दोनों दिन सुबह लेकर दोपहर तक पालतू पशुओं की पूजा की जाती है। पशुओं के लिये भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडुए यानि कोदा के आटे से बना हुआ) और जौ का पींडू (अन्न से तैयार किया गया पशुओं के लिये आहार) तैयार किया जाता है। भात, झंगोरा, बाड़ी और जौ के बड़े लड्डू तैयार करके उन्हें परात में रखकर कई तरह के फूलों से सजाया जाता है। पशुओं की पूजा के लिये सबसे पहले उनके पांव धोए जाते हैं और फिर धूप और दिया जलाकर उनकी पूजा की जाती है। उन पर हल्दी का टीका लगाने के साथ ही सींगो को तेल से चमकदार बनाया जाता है। इसके बाद पशुओं को परात में सजाया गया अन्न खिलाया जाता है। सिर्फ अपने ही पशुओं को नहीं बल्कि आस पड़ोस के पशुओं को भी यह अन्न, जिसे गौ ग्रास कहते हैं, दिया जाता है। बग्वाल तक खरीफ की फसल तैयार होकर घरों तक भी पहुंच जाती है। फसल को तैयार करने में पशुओं की भूमिका भी अहम होती है और इसलिए अन्न का पहला निवाला उन्हें देने का प्रचलन शुरू हुआ। 
      बग्वाल और इगास दोनों दिन घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी, भूड़ा आदि पकवान बनाये जाते हैं। शाम को इस तरह के पकवान अधिक मात्रा में बनाये जाते हैं। फिर उन सभी परिवारों में ये पकवान पहुंचाये जाते हैं जिनकी बग्वाल नहीं होती है। (जिनके घर में किसी की मृत्यु हो जाती है तो वह साल भर तक कोई त्यौहार नहीं मनाता है)। इसके बाद रात को खा पीकर मनाया जाता था ​बग्वाल का असली जश्न जिसे भैलो कहा जाता है। 

भैला भाईयो भैला

      गांवों में पहले भैला (एक तरह की मशाल) खेलने का चलन था। मेरा जन्म 1970 में हुआ लेकिन जब होश संभाला तो तब मैंने गांवों में यह प्रथा बहुत ज्यादा नहीं देखी। चाचाजी श्री हरिराम पंत ने हालांकि भैला बहुत खेला है। उनसे जब इस बारे में पूछा तो वह पुरानी यादों में खो गये। उन्होंने बताया, '' हम सभी चौंर (यानि सार्वजनिक स्थल) में इकट्ठा होते थे। भैला पहले से ही तैयार कर लेते थे। ढोल दमाऊ के साथ नाचते और भैला खेलते थे। भैला सूखे बांस पर क्याड़ा (भीमल के पेड़ की ट​हनियों को कुछ दिनों तक पानी में डालकर तैयार की गयी जलावन की लकड़ी) और छिल्ला (चीड़ की लकड़ी) से तैयार करते थे। बाद में उस पर आग लगाकर पूरे गांव का चक्कर लगाते हुए गांव के ऊपर पहाड़ी पर स्थित नंदादेवी मंदिर (गांव की कुलदेवी) तक जाते। ऐसा गांव की समृद्धि के लिये किया जाता था। इस बीच एक दूसरे के साथ खूब हंसी मजाक चलता रहता था।''
    भैला का यह उत्सव जैसा माहौल यहीं पर नहीं थमता है। असल में इसकी तैयारी तो कुछ दिन पहले से ही शुरू कर दी जाती थी। यह तैयारी होती थी मोटी रस्सियां बनाने की जो एक खास तरह की घास (बबलु) से तैयार की जाती थी। इसके बाद रस्साकसी होती थी। चाचाजी ने हंसते हुए यादें ताजा की, ''हम मैल्या ख्वाल और तैल्या ख्वाल (गांव के ऊपर वाला हिस्सा और नीचे वाला हिस्सा) के निवासी अलग अलग हो जाते और फिर रस्साकसी होती। ढोल दमाऊ बजता रहता है और सबके सब मस्ती करते हुए अपनी ताकत आजमाते। जो जीत गया रस्सी उसकी। इसके साथ नाच गाना भी चलता रहता। बाद में कुछ और रस्सियों के बीच में चीड़ के छिल्ले लगाकर आग लगा दी जाती और फिर उसके साथ तरह तरह के करतब दिखाते। विशेषकर उस आग को लांघने का करतब जिसे भ्वींत कहते थे। अब कौन खेलता है भैलो और भ्वींत। ''
    सच में अब तो पटाखों के शोर और चीन में बनी लड़ियों की रोशनी में खो जाती है दीवाली, लेकिन मुझे उम्मीद है कि आपको मेरे साथ बग्वाल में भैला खेलने में आनंद आया होगा। अपनी प्रतिक्रिया जरूर भेजें।  आपका अपना धर्मेन्द्र पंत

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