मंगलवार, 17 मार्च 2015

कभी पहाड़ी रसोईघरों की शान होता था 'भड्डू'

      पिछले साल वरिष्ठ पत्रकार भाई त्रिभुवन उनियाल ने गांव आने का न्यौता दिया। उन्होंने गांव में कुछ दिन बिताने के लिये संक्षिप्त रूपरेखा भी तैयारी कर ली थी। इसका सार यही था कि बचपन की यादों को ताजा करना है। ''भड्डू में दाल बनाएंगे ..... तुमने भड्डू की दाल खायी होगी लेकिन एक बार मेरे हाथ से भड्डू में बनी दाल खाओगे तो फिर उंगलियां चाटते रहोगे। '' उनकी बातें सुनकर ही लार टपकने लग गयी थी। त्रिभुवन भाई के न्यौते पर अब तक उनके गांव नहीं जा पाया हूं। 
      पिछले दिनों कवि और वरिष्ठ पत्रकार गणेश खुगशाल 'ग​णी' यानि गणी भैजी अपना कविता संग्रह ''वूं मा बोलि दे'' भेंट कर गये। गढ़वाली में उनके इस कविता संग्रह में एक कविता 'भड्डू' पर भी पढ़ने को मिली। '' भड्डू, न त लमडु, न टुटु, न फुटु, पर जख गै होलु, स्वादी स्वाद रयूं ....।'' 
      और अब एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार और समाचार एजेंसी 'भाषा' में मेरे वरिष्ठ साथी विवेक जोशी जी की फेसबुक वाल पर 'भड्डू' के बारे में पढ़ा,  ''एक ज़माने में हर घर में भड्डू हुआ करता था ....जिसमें पका खाना स्वाद की पराकाष्ठा होती थी ..गढ़वाल में श्रीनगर की बस से जब में अल्मोड़ा आता तो ग्वालदम में बड़े बड़े भड्डुओं में पकी दाल खाता .....। इससे पुरानी यादें फिर से ताजा हो गयीं।
चित्र में नीचे भड्डू है। इसके ऊपर लोटा रखा हुआ है। 
फोटो सौजन्य ​.. 
विवेक जोशी
           मां . पिताजी अब नहीं रहे। बड़ी चाचीजी और छोटे चाचाजी से 'भड्डू' को लेकर बात की। चाचीजी भावुक हो गयी, ''अब कहां वह स्वाद। भड्डू में बनी दाल बहुत स्वादिष्ट होती थी। अब तो बस कुकर में रखो, सीटी बजवाओ और खत्म। कुकर की दाल में भड्डू में बनी दाल का स्वाद थोड़े ही लाया जा सकता है। '' बड़ी भाभीजी ने भी भड्डू को लेकर अपनी यादें ताजा की, ''दादी कहती थी कि भड्डू में दाल रखी है, झैल (आंच) लगी रहनी चाहिए। ''
     भड्डू पीतल या कांसे का बर्तन होता है। कांसे की मोटी परत से बना बर्तन जिसका निचला हिस्सा चौड़ा और भारी जबकि ऊपरी हिस्सा संकरा होता है। पहाड़ों में कई सदियों से भड्डू का उपयोग दाल और मांस पकाने के लिये किया जाता रहा। इसमें दाल बनाने में समय लगता है। विवेक जोशी जी के शब्दों में, ''भड्डू हमें कई सन्देश देता है ...मसलन संयम क्योंकि ये आज का कुकर नहीं है ...साथ ही भड्डू आज की भागदौड की जिंदगी के विपरीत हमेशा फुर्सत के क्षणों का अहसास कराता था।''
     लेकिन तेजी से भागती जिंदगी ने भड्डू को पीछे छोड़ दिया। पहाड़ों के घरों में कुकर चमकने लगे और भड्डू किसी कोने में दम तोड़ने लगा। कथाकार और लेखक शिशिर कृष्ण शर्मा की कहानी, ''बंद दरवाजों का सूना महल'' में एक जगह लिखा है, ''सबसे ज्यादा ताज्जुब मुझे भड्डू को देखकर हुआ। भड्डू, याने कि काँसे का घड़ेनुमा बर्तन जिसका इस्तेमाल कभी पहाड़ों में दाल पकाने के लिए किया जाता था और जिसका तर्पण आम पहाड़ी रसोईघरों में प्रेशर कुकर की घुसपैठ के साथ दशकों पहले हो चुका था। वो ही भड्डू भुवन जी की रसोई में किसी प्रेत की भांति आज भी मौजूद था।'' 


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     ड्डू   छोटे . बड़े कई आकार का होता था। छोटा भड्डू परिवार के काम आता था तो बड़ा भड्डू गांव के। गांव में कोई शादी हो या अन्य कार्य बड़े भड्डू (गेडू या ग्याडा या टोखणी) में ही दाल बनती थी। बड़ा भड्डू या ग्याडा भी पंचायत के बर्तन होते थे। यदि किसी के पास ग्याडा होता था तो वह उसे पंचायत को दे देता था। पिछले दिनों चाचाजी ने बताया कि गांव के ग्याडा को उसके मूल मालिक के बेटे ने फिर से अपने पास रख दिया। सच कहूं तो अच्छा नहीं लगा क्योंकि उससे मेरी और मेरी पीढ़ी के कई मित्रों की ढेर सारी यादें जुड़ी हुई हैं। वह इतना भारी था कि खाली होने पर भी दो व्यक्ति मिलकर ही उसे चूल्हे में रख पाते थे। उसमें पानी भी भरकर रखा जाता था। 

   
 बड़ा भड्डू यानि ग्याडा। पहाड़ में कहीं
इसे टोखणी भी कहा जाता है। 
 जिस परिवार में भड्डू होता था उसके पास इसे चूल्हे से उतारने के लिये संडासी भी होती थी। वैसे भड्डू को संडासी से निकालना हर किसी के वश की बात नहीं होती थी। आज भी पहाड़ के कई परिवारों के पास भड्डू होगा लेकिन इनका इस्तेमाल बहुत कम किया जाता है। मेरी तो यही गुजारिश है कि यदि आपके परिवार में भड्डू है तो उसे कोने से निकालिए और फिर उसमें दाल बनाकर खाईये। यह स्वादिष्ट ही नहीं स्वास्थ्यवर्धक भी होगी। 
       भड्डू में दाल बनाने का तरीका भी अलग होता है। दाल बनाने से पहले इसके चारों तरफ राख को गीली करके उसका लेप लगाया जाता था और फिर इसमें दाल या गोश्त बनता था। लंबे समय तक शिक्षा विभाग से जुड़े रहे और प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत होने वाले श्री जीवनचंद्र जोशी ने विवेक जी की पोस्ट पर अपनी टिप्पणी कुछ इस तरह से दी, ''इन बर्तनों का रात में ही चूल्हे की राख से श्रृंगार भी कर दिया जाता था क्योंकि दूसरी सुबह फिर परिवार के लिए इन्हें अपनी ड्यूटी करनी पड़ती थी..।''
        भड्डू में अमूमन उड़द और राजमा की दाल ही बनायी जाती थी। इन दालों को रात में भिगोकर रख दो और सुबह इन्हें भड्डू में पकाओ। इसमें तेल, मसाले और नमक मिलाकर धीमी आंच पर भड्डू में अच्छी तरह से पकने दो और बाद में इसमें लाल मिर्च, जीरा, धनिया और यहां तक कि जख्या का तड़का लगा दो। भड्डू की बनी गरमागर्म दाल खाओगे तो फिर दुनिया के बड़े से बड़े 'सेफ' के हाथों की बनी दाल का स्वाद भी भूल जाओगे। 
       भड्डू पर मैं जितनी जानकारी जुटा सकता था। वह आपके सामने है। आप इसे अधिक समृद्ध कर सकते हैं। कृपया नीचे टिप्पणी वाले कालम में भड्डू पर अपनी जानकारी जरूर साझा करें। आपकी अमूल्य टिप्पणियों का इंतजार रहेगा। 
                                   आपका धर्मेन्द्र पंत



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