पिछले साल वरिष्ठ पत्रकार भाई त्रिभुवन उनियाल ने गांव आने का न्यौता दिया। उन्होंने गांव में कुछ दिन बिताने के लिये संक्षिप्त रूपरेखा भी तैयारी कर ली थी। इसका सार यही था कि बचपन की यादों को ताजा करना है। ''भड्डू में दाल बनाएंगे ..... तुमने भड्डू की दाल खायी होगी लेकिन एक बार मेरे हाथ से भड्डू में बनी दाल खाओगे तो फिर उंगलियां चाटते रहोगे। '' उनकी बातें सुनकर ही लार टपकने लग गयी थी। त्रिभुवन भाई के न्यौते पर अब तक उनके गांव नहीं जा पाया हूं।
पिछले दिनों कवि और वरिष्ठ पत्रकार गणेश खुगशाल 'गणी' यानि गणी भैजी अपना कविता संग्रह ''वूं मा बोलि दे'' भेंट कर गये। गढ़वाली में उनके इस कविता संग्रह में एक कविता 'भड्डू' पर भी पढ़ने को मिली। '' भड्डू, न त लमडु, न टुटु, न फुटु, पर जख गै होलु, स्वादी स्वाद रयूं ....।''
और अब एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार और समाचार एजेंसी 'भाषा' में मेरे वरिष्ठ साथी विवेक जोशी जी की फेसबुक वाल पर 'भड्डू' के बारे में पढ़ा, ''एक ज़माने में हर घर में भड्डू हुआ करता था ....जिसमें पका खाना स्वाद की पराकाष्ठा होती थी ..गढ़वाल में श्रीनगर की बस से जब में अल्मोड़ा आता तो ग्वालदम में बड़े बड़े भड्डुओं में पकी दाल खाता .....। इससे पुरानी यादें फिर से ताजा हो गयीं।
चित्र में नीचे भड्डू है। इसके ऊपर लोटा रखा हुआ है। फोटो सौजन्य .. विवेक जोशी |
मां . पिताजी अब नहीं रहे। बड़ी चाचीजी और छोटे चाचाजी से 'भड्डू' को लेकर बात की। चाचीजी भावुक हो गयी, ''अब कहां वह स्वाद। भड्डू में बनी दाल बहुत स्वादिष्ट होती थी। अब तो बस कुकर में रखो, सीटी बजवाओ और खत्म। कुकर की दाल में भड्डू में बनी दाल का स्वाद थोड़े ही लाया जा सकता है। '' बड़ी भाभीजी ने भी भड्डू को लेकर अपनी यादें ताजा की, ''दादी कहती थी कि भड्डू में दाल रखी है, झैल (आंच) लगी रहनी चाहिए। ''
भड्डू पीतल या कांसे का बर्तन होता है। कांसे की मोटी परत से बना बर्तन जिसका निचला हिस्सा चौड़ा और भारी जबकि ऊपरी हिस्सा संकरा होता है। पहाड़ों में कई सदियों से भड्डू का उपयोग दाल और मांस पकाने के लिये किया जाता रहा। इसमें दाल बनाने में समय लगता है। विवेक जोशी जी के शब्दों में, ''भड्डू हमें कई सन्देश देता है ...मसलन संयम क्योंकि ये आज का कुकर नहीं है ...साथ ही भड्डू आज की भागदौड की जिंदगी के विपरीत हमेशा फुर्सत के क्षणों का अहसास कराता था।''
लेकिन तेजी से भागती जिंदगी ने भड्डू को पीछे छोड़ दिया। पहाड़ों के घरों में कुकर चमकने लगे और भड्डू किसी कोने में दम तोड़ने लगा। कथाकार और लेखक शिशिर कृष्ण शर्मा की कहानी, ''बंद दरवाजों का सूना महल'' में एक जगह लिखा है, ''सबसे ज्यादा ताज्जुब मुझे भड्डू को देखकर हुआ। भड्डू, याने कि काँसे का घड़ेनुमा बर्तन जिसका इस्तेमाल कभी पहाड़ों में दाल पकाने के लिए किया जाता था और जिसका तर्पण आम पहाड़ी रसोईघरों में प्रेशर कुकर की घुसपैठ के साथ दशकों पहले हो चुका था। वो ही भड्डू भुवन जी की रसोई में किसी प्रेत की भांति आज भी मौजूद था।''
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भड्डू छोटे . बड़े कई आकार का होता था। छोटा भड्डू परिवार के काम आता था तो बड़ा भड्डू गांव के। गांव में कोई शादी हो या अन्य कार्य बड़े भड्डू (गेडू या ग्याडा या टोखणी) में ही दाल बनती थी। बड़ा भड्डू या ग्याडा भी पंचायत के बर्तन होते थे। यदि किसी के पास ग्याडा होता था तो वह उसे पंचायत को दे देता था। पिछले दिनों चाचाजी ने बताया कि गांव के ग्याडा को उसके मूल मालिक के बेटे ने फिर से अपने पास रख दिया। सच कहूं तो अच्छा नहीं लगा क्योंकि उससे मेरी और मेरी पीढ़ी के कई मित्रों की ढेर सारी यादें जुड़ी हुई हैं। वह इतना भारी था कि खाली होने पर भी दो व्यक्ति मिलकर ही उसे चूल्हे में रख पाते थे। उसमें पानी भी भरकर रखा जाता था।
बड़ा भड्डू यानि ग्याडा। पहाड़ में कहीं इसे टोखणी भी कहा जाता है। |
भड्डू में दाल बनाने का तरीका भी अलग होता है। दाल बनाने से पहले इसके चारों तरफ राख को गीली करके उसका लेप लगाया जाता था और फिर इसमें दाल या गोश्त बनता था। लंबे समय तक शिक्षा विभाग से जुड़े रहे और प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत होने वाले श्री जीवनचंद्र जोशी ने विवेक जी की पोस्ट पर अपनी टिप्पणी कुछ इस तरह से दी, ''इन बर्तनों का रात में ही चूल्हे की राख से श्रृंगार भी कर दिया जाता था क्योंकि दूसरी सुबह फिर परिवार के लिए इन्हें अपनी ड्यूटी करनी पड़ती थी..।''
भड्डू में अमूमन उड़द और राजमा की दाल ही बनायी जाती थी। इन दालों को रात में भिगोकर रख दो और सुबह इन्हें भड्डू में पकाओ। इसमें तेल, मसाले और नमक मिलाकर धीमी आंच पर भड्डू में अच्छी तरह से पकने दो और बाद में इसमें लाल मिर्च, जीरा, धनिया और यहां तक कि जख्या का तड़का लगा दो। भड्डू की बनी गरमागर्म दाल खाओगे तो फिर दुनिया के बड़े से बड़े 'सेफ' के हाथों की बनी दाल का स्वाद भी भूल जाओगे।
भड्डू पर मैं जितनी जानकारी जुटा सकता था। वह आपके सामने है। आप इसे अधिक समृद्ध कर सकते हैं। कृपया नीचे टिप्पणी वाले कालम में भड्डू पर अपनी जानकारी जरूर साझा करें। आपकी अमूल्य टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
© ghaseri.blogspot.in
भडू की ही दाल क्यों स्वादिष्ट होती है। अन्य बर्तन में पकाने से स्वादिष्ट क्यों नहीं होती। इस का राज क्या है।
जवाब देंहटाएंभडू की ही दाल क्यों स्वादिष्ट होती है। अन्य बर्तन में पकाने से स्वादिष्ट क्यों नहीं होती। इस का राज क्या है।
जवाब देंहटाएंकुशाल रावत जी। बहुत अच्छा सवाल है। मैंने भी इसका जवाब जानने के लिये विवेक जोशी जी का सहारा लिया। वह मेरे से अधिक अनुभवी हैं और उन्होंने भड्डू की दाल भी मुझसे ज्यादा खायी है। जोशी का जवाब इस तरह से था, '' इसका आकार और मोटाई तथा कांसे का प्रयोग..दूसरा बाहरी परत जब तक गरम होगी तब तक अंदर की सामग्री उससे इस तरह एडजैस्ट हो जायेगी कि वह अपने प्राकृतिक स्वाद को पकाये रूप में प्रस्तुत करेगी..अन्यथा वह आनंद केवल कच्चे पदार्थ में मिलता है ।''
हटाएंBhai ho sake to Ek bhadu mere liye Rakh lena. Aur thoda sa jakhya bhi
जवाब देंहटाएंभडडू मा बड़ी उड़दै दाल, सिल्वटा मा पीसी बडयूं मसपंणी, गैथा की भुंरी रवटी, जख्या मा छौंकी बड़यां मूला पत्ता अर लाल भुटी मर्च अगर खये जा त कंठ जरूर खुल जाला। पर सब कुछ गुजरे जमाने की बात हो गई। लगड़ा, पटड़ा तो हम भूल ही गये। अब परदेश में रहकर बस याद करते रहते हैं।
जवाब देंहटाएंपंत जी आपने काफी खूबसूरती से बयां किया है भडडू के बारे में..इसके बडे भाई को कसेरा कहा जा सकता है जिसमें उत्सव विवाह जनेउ या किसी बडे उत्सव में शब्जी बनाने के लिये इस्तेमाल किया जाता था..पूरा गांव खा लेता..मेरी मां के दहेज में कई बडे बर्तनों के साथ वह भी आया था..मकसद था बेटी जिस गांव जाये उस गांव के लोग उन बर्तनों में खाकर तृप्ति से उसे आर्शिवाद दें..
जवाब देंहटाएंDharmendra Pant ji kiya aap rangad ka bara mabata sakta aapki badi kirpa hogi
जवाब देंहटाएंअद्भुत !!!...40-45 बरस पहले का घर का चूल्हा याद दिला दिया आपने जब रसोईघरों में न तो स्टोव की घुसपैठ हुई थी और न ही प्रेशरकुकर की...चूल्हे में जलती लकड़ियां, दिसम्बर-जनवरी के महिनों में आग की वो दिव्य तपिश और भड्डू में तोर पकाती मेरी दादी...ज़हन में ये तस्वीर आज एकाएक ताज़ा हो गयी !!!
जवाब देंहटाएं.........................साधुवाद !!!
धन्यवाद भैजी। सर्दियों में खाजा का कितना अद्भुत स्वाद होता था। यह महज पुरानी यादों को सहेजने का प्रयास है जिसके जरिये हम नयी पीढ़ी को इनसे अवगत करा सकते हैं।
हटाएंअजी साब
जवाब देंहटाएंभडडू की बनी चणो की दाल अर
डोणा (बखरो) का
स्वाद की बात कुछ ओरी छेई।
भड्डू के दाल का स्वाद मुहं में आ गया ...
जवाब देंहटाएंलाजवाब प्रस्तुति
बहुत दिनों बाद सही लेकिन आपका आभार दीदी। काश की हर पहाड़ी घर चाहे वह दिल्ली में हों या देहरादून या कहीं और फिर से भड्डू की घुसपैठ हो जाए। स्वाद फिर से मिलने लग जाएगा लेकिन तेजी से दौड़ती जिंदगी में क्या इतना संयम होगा कि वह भड्डू में दाल पकने का इंतजार कर सके। यह देखना दिलचस्प होगा।
हटाएंapka dhanyavd . yeh sach hai ki bhaddu ki daal hamre swadist khane me ek hai. khaskar urad ki dal ka jabav nahin. bhaddu men pakai urad ki daal evam dhungle aaj ke garhwal men muskil se hi khane ke liye milte hain. bhaddu ki daal ki swadist hona, bhaddu ki banavt, gharwal ke avo hawa me paida hui daal, swasch paani aur mand mand aanch men pakne ke karan uska swadist hona mukhya karan hai. yahi dal yadi garhwal se bahar pakai jati hai to usmen vo swad nahin aata hai.
जवाब देंहटाएंहमारे घर में भी यह बर्तन होता था. क्या कहलाता था यह तो याद नहीं. सभी दालें उसी में पकती थीं. आंच चाहे चूल्हे की हो या अंगीठी की या स्टोव की.
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
यह भड्डू ही होगा क्योंकि गढ़वाली और कुमांऊनी जो कई शब्द समान हैं उनमें भड्डू भी है। दोनों जगहों पर इसे इसी नाम से जाना जाता है।
हटाएंGramiyo ke chuttiyo mai hum log har baar apne gaon jate the to aksar chachi ji bhaddu mai daal banaya karti thi. Samjhe nahi ata tha ki sirf namak mirch dalne se hi daal itni swadisht kaise ho jati thi? Ab pata chala ki wo to bhaddu ka kamal tha
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंपंत जी, सादर नमस्कार, पोस्ट पढ़ी, बहुत अच्छी लगी. आपका पेज भी सुंदर है. आपसे एक आग्रह कर रहा हूं. मेरा गांव मेरा पहाड़ नाम से मैंने एक ब्लॉग शुरू किया है. पेज में लोगों (पाठकों) को आमंत्रित करना चाहता हूं, पर इसकी क्या विधि है नहीं जानता. क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं. जब कभी फुर्सत में हों तो प्लीज मुझे संपर्क करें..
जवाब देंहटाएंइसी बहाने आपसे बातचीत का सिलसिला भी चल पड़ेगा..
सादर,
गणेश पांडे
मो.+ व्हाट्सएप- 9458302224
हिन्दुस्तान अखबार में रिपोर्टर
गांव- चौसाल, पो. धौलादेवी, जिला अल्मोड़ा
गणेश जी सच कहूं तो मैं अब भी ब्लागिंग के मामले में नौसिखिया ही हूं। ब्लागर में फालोअर्स के लिये Configure Followers List की व्यवस्था है। उससे ब्लॉग के कुछ सदस्य बन सकते हैं।
जवाब देंहटाएंMera name aman h or m tehri s belong krta hu. M websites developer hu apke post ache lge. Agr apko apni website bnwani ho to ap call kr skte ho. 7210170445
जवाब देंहटाएंउत्तराखंड में कही इसे भड्डू और कही तौली कस्यार भी कहा जाता है। ��
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