शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

उत्तराखंड आंदोलन का जनगीत

नरेंद्र सिंह नेगी जी के गीत 'लड़ै लगी राली' की समीक्षा 

ब भी कोई बड़ा आंदोलन होता है तो कुछ गीत या नारे उसकी पहचान बन जाते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में जयशंकर प्रसाद के ​'हिमाद्री तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती ...की भूमिका से भला कौन परिचित नहीं होगा। उत्तराखंड आंदोलन में नरेंद्र सिंह नेगी के  'तेरा जुल्मुकु हिसाब चुकौला एक दिन ....गीत ने यही भूमिका निभायी थी। यह वह गीत था जिसने आम व्यक्ति को आंदोलन से जोड़ा। उनमें आक्रोश और उत्साह भरा और उन्हें अहसास कराया कि विकास का एकमात्र विकल्प है उत्तराखंड राज्य।
     उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की अलख 1930 में जगा दी गयी थी लेकिन 1994 में आंदोलन अपने चरम पर पहुंचा। पहाड़ का हर व्यक्ति आंदोलित और उद्वेलित था और ऐसे में मुलायम सिंह यादव की तत्कालीन सरकार की दमनकारी नीतियों के कारण गुस्सा फूट रहा था। दिल्ली में दो अक्तूबर 1994  को होने वाले विशाल प्रदर्शन के लिये कूच करने वाले आंदोलनकारियों पर मुलायम सरकार ने कहर ढा दिया। पुलिसकर्मियों ने रामपुर तिराहे पर निहत्थे लोगों पर गोलियां चलायी और महिलाओं के साथ दुराचार किया। यह जुल्म और बर्बरता की पराकाष्ठा थी। उत्तरप्रदेश सरकार की आंदोलन को कुचल देने वाली नीतियों के खिलाफ तथा उत्तराखंडियों को जागृतउद्वेलित और अपने मान सम्मान की खातिर आगे बढ़ने की प्रेरणा देने के लिये इस गीत का जन्म हुआ। जब कवि लिखता है कि तेरे जुल्मों का हिसाब एक दिन जरूर चुकाया जाएगा और लाठी गोली का जवाब दिया जाएगा तो कहीं न कहीं उनके दिमाग में मुज्जफरनगर की घटना तैर रही थी।

     यह एक तरह से सीधे सरकार को चुनौती देने जैसा था। उस सरकार को जिसके एक विभाग में स्वयं इस गीत के रचियता और गायक नरेंद्र सिंह नेगी कार्यरत थे। एक सच्चे राष्ट्रप्रेमी से ही ऐसी उम्मीद की जा सकती थी। यह वह दौर था जब पहाड़ उबल रहा था लेकिन सरकार की दमनकारी नीतियों के कारण भय भी व्याप्त था। ऐसे में इस गीत के उदीप्त शब्दों और जोशीली आवाज ने लोगों की उद्विग्नता समाप्त की थी। इस गीत ने उत्तराखंडियों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभायी। यह जनगीत बन गया। जगह जगह आंदोलन होने लगे और तब सभी को एक सूत्र में पिरोने का काम यह गीत कर रहा था।
    गीत का केंद्र बिंदु विकास है। '.... विकास का उजाला होने तक उत्तराखंड में अलख जगाये रखने और लड़ाई जारी रखने का आह्वान एक तरह से सरकार के साथ साथ लोगों के पास भी एक स्पष्ट संदेश भेज रहा था कि हम जो आंदोलन कर रहे हैं वह गलत नहीं है। लोकतंत्र में अपने अधिकारों के लिये लड़ना जरूरी होता है। हम पूरे स्वाभिमान के साथ अपने अधिकारों के लिये आवाज उठा रहे हैं और ऐसा करके हम सही रास्ता भी अपना रहे। हमारा मूल उद्देश्य पहाड़ों को विकास की राह पर अग्रसर करना है जो कि सुदूर लखनऊ में बैठी सरकार से संभव नहीं है। हिमाचल प्रदेश का उदाहरण सामने था जो 1971 में गठन के बाद विकास की सीढ़ियां तेजी से चढ़ रहा था। दूसरी तरफ उसका पड़ोसी और उसी तरह की भौगोलिक संरचना वाले गढ़वाल और कुमांऊ सरकारी बेरूखी के शिकार थे। उत्तर प्रदेश की अधिकतर सरकारें अपनी भ्रष्ट नीतियोंजातिवाद और क्षेत्रवाद के कारण पहाड़ से सौतेला व्यवहार करती रही थी। इसलिए कवि ने सरकार की कमियों को भी खुलकर उजागर किया। मसलन देख लिया तेरा राजलूट भ्रष्टाचार है/ उत्तराखंड राज्य अब विकास का आधार है/ भ्रष्ट सिर में ताज रहेगाजब तक गुंडाराज रहेगा/ अलख जगी रहेगी इस उत्तराखंड मेंलड़ाई जारी रहेगी इस उत्तराखंड में। यही वजह थी कि एक भ्रष्ट और लूट खसोट में लिप्त सरकार से लोहा लेने का आह्वान करने वाले इस गीत ने लोगों को परस्पर संबद्ध करने वाला नेतृत्व प्रदान किया था।
     पहाड़ी जनमानस को मुलायम सरकार में दैत्येंद्र नजर आता था। जिन भोले भाले लोगों का कभी धरनाप्रदर्शनहड़ताल जैसे शब्दों से पाला नहीं पड़ा था उस जनमानस को इस गीत से प्रेरणा मिली। यह गीत ऐसे समय (1994) में आया जबकि लोगों को लग रहा था कि अब बहुत हो चुका है और सहन करने का मतलब कायरता होगी। गांव के हर व्यक्ति के लिये आंदोलन में शामिल होना संभव नहीं था। ऐसे में खेत खलिहानों से आवाज उठाने वाला व्यक्ति इस गीत के सहारे आंदोलन का हिस्सा बनकर अपनी आत्मग्लानि दूर करता। उत्तराखंड का शायद ही कोई ऐसा गांव या घर रहा होगा जहां से यह आवाज नहीं उठी होगी कि 'अलख जगीं राली ये उत्तराखण्डमालड़ैं लगीं राली ये उत्तराखण्डमा। आंदोलन के दौरान शायद ही कोई ऐसा धरनाप्रदर्शन या जुलूस रहा होगा जिसमें यह आवाज नहीं उठी होगी 'तुमारि तीस ल्वेकि तीसहमारी तीस विकास की ....  (तुम्हारी प्यास लहू की प्यासहमारी प्यास विकास की/ तुम्हारी भूख जुल्महमारी उत्तराखंड राज्य की/ जब तक नहीं मिलता राज्यबंद रहेगा राजकाज...।)
     बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक हर कोई आंदोलन में कूद पड़ा था। महिलाओं ने तो बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। ज्वाला भड़क रही थी। ऐसे में गीत ने लोगों को उद्धेलित करने के साथ ही उन्हें संयमित बने रहने का संदेश भी दिया। गीत ने पहाड़वासियों को यह समझा दिया कि उनके मान सम्मान को ललकारने वाले को जवाब देना जरूरी है और वे किसी के आतंक को सहन नहीं सह सकते हैं। गीत हालांकि इसके लिये लोकतांत्रिक तरीके से ही आगे बढ़ने तथा  महात्मा गांधी के असहयोग और अहिंसात्मक आंदोलन को अपनाने की सलाह भी दे रहा था।  पहाड़ के युवा वर्ग को लग रहा था कि खून का बदला खून से ही चुकाया जा सकता है। इससे वास्तव में भटकाव की स्थिति पैदा हो जाती और उत्तराखंड आंदोलन में अपने उद्देश्य पर आगे नहीं बढ़ पाता। हर सरकार किसी आंदोलन को कुचलने के लिये इस तरह की रणनीति अपनाती रही है। आंदोलन को अपने उद्देश्य से भटकने से बचाने में भी इस गीत की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। उत्तराखंड आंदोलन से जुड़ा महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि आंदोलन अहिंसात्मक व लोकतंत्रात्मक ढंग से ही आगे बढ़ा। कवि ने कितने सरल शब्दों में समझा दिया कि यह कानून सम्मत लड़ाई और हम भीख नहीं अपने अधिकारों के लिये लड़ रहे हैं। साफ शब्दों में यह भी संदेश भी लोगों को पहुंचा दिया गया कि राज्य मिलने तक उन्हें भूखा प्यासा रहने के लिये तैयार रहना चाहिए।
    यह लोकगीत एक तरह से यथार्थ को बयां करने वाला था जिसमें स्वतंत्रताजन चेतना और निडरता का भाव होने के साथ ही जनमानस की चिंता भी दिखती है। उत्तराखंड राज्य बन गया लेकिन अफसोस है कि विकास मंदगति से ही होता रहा। पहाड़ का पानी और जवानी रोकने की बात की गयी थी लेकिन राज्य गठन के बाद पलायन अधिक बढ़ा। आज जुल्म नहीं हो रहे हैं लेकिन विकास मंदगति से हो रहा है और यह पलायन का एक बड़ा कारण है। इसलिए आज भी ''जुल्मुकू हिसाब चुकौला एक दिन.....'' गीत को फिर से सुननेउसे समझने और उस पर अमल करने का वक्त है। इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है और कल भी बनी रहेगी।

                                                                                        धर्मेन्द्र मोहन पंत


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