शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

मनमोहक गुच्चुपानी यानि रोवर्स केव

                                         .... राजेश राय ....

देहरादून के सबसे रमणीक स्थलों में से एक है गुच्चुपानी यानि रोवर्स केव। सभी फोटो..राजेश राय।
      त्तराखंड की राजधानी देहरादून में यूं तो कई दर्शनीय और रमणीक स्थल हैं लेकिन पिछले दिनों जब मैं पहली बार इस शहर में गया तो मुझे सबसे दिलचस्प और रोमांचक 'रोवर्स केव' लगी जिसे यहां गुच्चुपानी के नाम से जाना जाता है। मैं देहरादून रेड बुल कैंपस क्रिकेट वर्ल्ड फाइनल्स को कवर करने गया था। सफर के दौरान अपने ड्राइवर विक्की से पूछा कि क्या यहां आसपास देखने के लिये कोई झरना है तो उसने बताया कि रोवर्स केव देख सकते हो। बस रोवर्स केव देखने चल दिया। वाकई मजा आया। 
     अपने मित्र धर्मेन्द्र और उनके ब्लॉग 'घसेरी' के जरिये उत्तराखंड के दर्शनीय स्थलों, वहां के इतिहास और संस्कृति के बारे में मुझे लगातार सुनने और पढ़ने को मिलता है। इसलिए जब रोवर्स केव पहुंचा तो तो जेहन में 'घसेरी' आ गयी। तब मुझे लगा कि इस थोड़ी सी 'डरावनी' लेकिन दिल में रोमांच पैदा करने वाली जगह से घसेरी के उन सभी पाठकों को अवगत कराना चाहिए जो अब तक रोवर्स केव नहीं जा पाये। तो फिर देर किस बात की है आइये मेरे साथ चलिए रोवर्स केव यानि गुच्चुपानी।
रोवर्स केव में लेखक राजेश राय
      यह लगभग 600 मीटर लंबी गुफा या यूं कहें कि प्रकृति प्रदत्त दरार है जिसमें अंदर जाया जा सकता है।  इसमें घुटनों के नीचे तक पानी रहता है। इसके दोनों तरफ चूना पत्थर की चट्टानें हैं जिनमें कई जगह सुराखों से पानी रिसता है। पानी इतना साफ है कि चमचमाता शीशा भी शरमा जाए। इसमें नीचे नीचे छोटे छोटे पत्थर भी साफ दिखायी देते हैं। चट्टानों के ऊपर जंगल है। बीच में किसी किले के दीवार की संरचना है जो अब टूट गया है। 
    पानी का बहाव तेज है। गुफा के कोने पर जाकर एक जगह पर ज्यादा तेजी से पानी गिरता दिखायी देता है लेकिन वहां तक जाने के लिये झुक कर जाना पड़ता है। मैंने कई उत्साही लड़कों उस झरने में नहाते देखा। उस झरने के ऊपर चढ़कर पीछे की तरफ जाने का रास्ता है। जहां लगभग दस मीटर की ऊंचाई से झरना गिरता है लेकिन मैं पीछे की तरफ नहीं जा पाया हालांकि कई लोग उस तरफ जा रहे थे।
    गुफा की शुरुआत में छोटी सी जगह पर खाने पीने की दुकानें हैं। उसके सामने पानी के बीच में टेबल कुर्सियां लगी हैं जहां लोग बैठकर खाते पीते हैं। देखने में दिलचस्प लगता है पानी में बैठकर खाना पीना। साथ में चप्पलों को किराये पर देने वाले लोगों का धंधा भी चलता रहता है। दस . दस रूपये में चप्पलें किराये पर दी जाती हैं। यानि चप्पलें किराये पर देकर भी कमाई की जा सकती है। इन सबके बीच सुरक्षा की कमी जरूर लगती है जबकि यह सुंदर पर्यटन स्थल है। पानी में चलना अद्भुत अहसास है लेकिन कुछ लोग साफ सुथरे पानी में भी गंदगी छोड़ देते हैं। पानी की बोतलें, चिप्स के पैकेट जो कतई गवारा नहीं है। विशेषकर युवाओं को इस पर खास ध्यान देना चाहिए। 

कैसे नाम पड़ा रोवर्स केव      

     रोवर्स केव नाम सुनने पर ही लगता है कि यहां कभी डकैत छिपकर रहते होंगे क्योंकि वहां पहुंचना किसी के लिये भी मुश्किल रहा होगा। बाद में एक मुझे एक जगह पढ़ने को मिला कि वास्तव में डकैती डालने के बाद डकैत यहां छिप जाते थे बौर अंग्रेजों ने इसलिए इसका नाम रोवर्स केव रख दिया। मैंने हालांकि इससे पहले अपने स्थानीय ड्राइवर विक्की से इस गुफा के इतिहास के बारे में पूछा था और उसने अलग कहानी बतायी थी। बकौल विक्की ''देवताओं ने एक राक्षस को इस गुफा में कैद करके उसके आगे पानी की धारा छोड़ी थी।''
गुफा के अंदर का दृश्य

कैसे जाएं रोवर्स केव

    गुच्चुपानी यानि रोवर्स केव देहरादून बस अड्डे से आठ किलोमीटर की दूरी पर है। आप कोई कैब लेकर सीधे वहां जा सकते हैं। छोटी गाड़ियां गुफा के पास तक चली जाती हैं। वहीं पर पार्किंग की व्यवस्था है। बस से भी गुच्चुपानी जाया जा सकता है। बसें अनारवाला गांव तक जाती हैं जिसके बाद लगभग एक किमी की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है जो बहुत आसान है।
    अगर आपको गुफाओं की नैसर्गिक सुंदरता, स्वच्छ पानी में चलने और पानी के बीच कुर्सियों में बैठकर भोजन का आनंद लेना है तो आपको मेरी सलाह तो यही रहेगी कि देहरादून जाएं तो रोवर्स केव जाना न भूलें। यहां काफी संख्या में पर्यटक आते हैं। पानी ठंडा रहता है और इसलिए यहां गर्मियों में अधिक पर्यटक जाते हैं। शहर की दौड़ती भागती जिंदगी से दूर सुकून के कुछ पल यहां बिताये जा सकते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि यहां का अनुभव आपको ताउम्र याद रहेगा। 

लेखक के बारे में ......................................

   वरिष्ठ पत्रकार राजेश राय पिछले लगभग 25 वर्षों से पत्रकारिता से जुड़े हैं और वर्तमान समय में समाचार एजेंसी यूनीवार्ता के खेल संपादक हैं। राजेश कलम के खिलाड़ी हैं। खेल पत्रकारिता में उनका कोई सानी नहीं। घुमक्कड़ी स्वभाव के भी हैं। घसेरी का उनके प्रति आभार कि उन्होंने इस ब्लॉग के पाठकों को देहरादून के एक रोमांचक स्थल से अवगत कराया।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

पहाड़ की रामलीला

      रामलीला। यह शब्द भले ही अब उतना आकर्षित नहीं करता है लेकिन कभी हमारे लिये इसके खास मायने होते थे। रामलीला माताओं, बहनों, बहू, बेटियों के लिये असूज यानि आश्विन महीने में खेतों में दिन भर की कमरतोड़ मेहनत के बाद रात में कुछ समय साथ में बिताने का मौका देती थी। रामलीला गांव के युवाओं को पर्दा उठने के बाद अपने अंदर छिपे कलाकार को सामने लाने का अवसर देती थी। रामलीला गांव के माहौल को राममय बनाने का काम करती थी। रामलीला एक समय में गांव में लोगों के मनोरंजन के लिये वही भूमिका निभाती थी जिसकी जगह आज एकता कपूर के धारावाहिकों और कपिल की कामेडी नाइट्स ने ली है। यह पहाड़ों की सत्तर और अस्सी या​ फिर नब्बे की दशक के शुरुआती वर्षों की रामलीला थी। यह वह दौर था तब घरों में बुद्ध बख्शा नहीं पहुंचा था या फिर कुछ घरों तक ही उसकी घुसपैठ थी और तिस पर भी ले देकर एक दूरदर्शन था जो रामायण और महाभारत केवल एक दिन रविवार को और वह भी सुबह दिखाता था।

पहाड़ों में होने वाली रामलीला का एक दृश्य।
           फोटो सौजन्य ... श्री दीनदयाल सुंद्रियाल।
     तो चलिये मेरे साथ पहाड़ों की आज से 20 . 30 साल पुरानी रामलीला का आनंद उठाने के लिये। पहाड़ों में असूज के महीने में बहुत काम होता है। इसलिए कोशिश की जाती थी कि रामलीला कुछ दिन बाद (दशहरे के बाद भी) शुरू की जाए ताकि लोगोें पर काम का अधिक भार नहीं रहे और वे मनोयोग से इसका आनंद ले सकें। यह वह समय होता है जब पहाड़ों में ठंड दस्तक देनी शुरू कर देती है। पहले बिजली नहीं होती थी तो पेट्रोमैक्स (गैस) की रोशनी में रामलीला खेली जाती थी। बिजली आने के बाद भी एक या दो गैस तैयार रखे जाते थे। आखिर बिजली का क्या भरोसा। जब तय हो जाता था कि रामलीला अमुक तारीख से होनी है तो फिर जिज्ञासा का विषय यह होता था कि राम कौन बना है और रावण कौन। इसी तरह से अन्य पात्र भी होते थे। राम, सीता और रावण ही नहीं बल्कि हनुमान, अंगद, छवि राजा, ताड़िका, कुंभकर्ण आदि कुछ ऐसे पात्र होते थे जिनका जिक्र होते ही बरबस किसी खास शख्स का नाम जुबान पर आ जाता था। अच्छी ढील ढौल वाला और खूब गर्जन तर्जन करने वाला व्यक्ति ही रावण बनता था। स्वर सुरीला है तो फिर उसे राम या सीता बना दिया जाता। हां पहाड़ों की रामलीला की खासियत यह थी कि इसमें महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष पात्र ही निभाते थे। महिलाओं की भूमिका रामलीला में यही होती थी कि वे महिला पात्रों की साड़ी अच्छी तरह से लगा देती थी। रामलीला से पहले रिहर्सल में सभी पात्रों को अच्छी तरह से जांचा परखा जाता था। इसी दौरान धनुष, बाण, गदा आदि अस्त्रों को भी तैयार किया जाता था।
    रामलीला अमूमन सात या आठ दिन की ही होती थी। सातवें दिन की रात को रावण बध और आठवें दिन सुबह से लेकर दोपहर तक राजतिलक। हर दिन रामलीला की शुरुआत आरती से होती थी। प्रत्येक दिन दिन नयी आरती। कभी मां दुर्गा तो कभी राम, कृष्ण या विष्णु की। इससे पहले फीता यानि रिबन काटने की रश्म निभायी जाती थी। आखिर मोटा पैसा तो इसी से आता था। फीता कौन काटेगा इसके लिये काफी माथापच्ची करनी पड़ती थी। अगर कोई नौकरी से छुट्टी पर आया है तो उसे फीता काटने के लिये तैयार कर दिया जाता था। किसी के घर में कुछ अच्छा काम हुआ हो तो वह खुद ही इसके लिये हामी भर देता था। रिबन काटने वाला भी अपने सामर्थ्य के हिसाब से पैसे दे देता था, 11 रूपये से लेकर 51 रूपये तक। 101 रूपये बहुत कम।
     पहाड़ों की रामलीला अमूमन रावण, कुंभकर्ण और विभीषण की तपस्या से शुरू होती थी। यदि ​श्रवण की कथा डालनी है तो फिर पहले यह नाटक खेला जाता था। ब्रह्मा अक्सर उसी व्यक्ति को बना दिया जाता था जिसे राम की भूमिका निभानी हो। ब्रह्मा प्रकट होते और रावण के पास आकर कहते ​''एवमस्तु ​तुम बड़ तप कीना ....।'' यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया कि रावण तब पूरे जोश में क्यों वरदान मांगता था। प्रोज मास्टर की भूमिका अहम होती थी। उसे आप निर्देशक कह सकते हो। पात्र को अपने कान खुले रखने पड़ते थे क्योंकि प्रोज मास्टर धीमे से संवाद बोलता था जो उसे जोर से दोहराने पड़ते। गलती की गुंजाइश न के बराबर होती थी। सीन समाप्त होने पर प्रोज मास्टर ही सीटी बजाकर पर्दे की डोरी खींच देता और फिर अगले सीन की तैयारी में जुट जाता। रामलीला का सबसे व्यस्त इंसान। इस बीच यदि सीन तैयार होने में देरी है तो कुछ कामिक टाइप के लोगों को पहले ही तैयार कर दिया जाता था। लोगों को हंसाने के लिये जोकर या मसखरे खास तौर पर रामलीलाओं में बुलाये जाते थे। बीच में दानदाताओं के नामों की घोषणा भी की जाती थी। 

मन मोह लेती था राम सीता का पहला मिलन

     रामलीला आगे बढ़ती थी। शिव का कैलाश एक कुर्सी बन जाती थी जिसके ऊपर चादर पड़ी रहती। शिव कुर्सी पर विराजमान हो जाते और पार्वती उसके हत्थे पर। रावण को वही कुर्सी हिलानी पड़ती थी। रामजन्म और फिर राम का मुनियों की रक्षा के लिये वन में जाना। राम की भूमिका निभाने वाले पात्र को चौपाई गाने में माहिर होना पड़ता था। आखिर ताड़िका बध के समय भी राम को ''अरी दुष्ट पापिनी तू जड़ नारी, नहीं जाने हम हैं धनुर्धारी ...'' जैसी चौपाई गानी पड़ती थी। सुबाहू और लक्ष्मण का युद्ध भी रोमांचक होता था।
    लेकिन वह राम और सीता का पहला मिलन होता जो मन मोह लेता। सीता अपनी सखियों के साथ गाती ''पूजन को अंबे गौरी चलियो स​खी सहेली ...। '' सीता के पात्र की पहली परीक्षा यहीं पर होती। लक्ष्मण भी बड़े भाई से कहता कि ''देखो जी देखो महाराज कि वह है लल​नी ..।'' और फिर राम अपनी चौपाई पर आ जाते '' तात जनक तनया यह सोई धनुष यज्ञ जेहि कारण होई ...। '' सीता स्वयंवर का तो सभी बेसब्री से इंतजार करते थे। रामलीला का सबसे लंबा और रोमांचक सीन जिसमें हास्य भी होता और रोमांच भी। राजा ऐसे पात्र होते थे जो राजा कम और मसखरे ज्यादा लगते थे। इनमें छवि राजा की भूमिका अहम होती थी। लोगों को हंसाने की जिम्मेदारी उसी पर रहती। जब वह बोलता ''....पांच बुलाये पंद्रह आये , पंद्रह चौके साठ ...'' यदि तब जनता हंसी नहीं तो मतलब वह अपनी भूमिका में खरा नहीं उतरा। धनुष टूटने के बाद इंतजार रहता था परशुराम . लक्ष्मण संवाद की। यहां पर परशुराम के साथ लक्ष्मण के पात्र की भी अग्निपरीक्षा होती थी। यदि दोनों मंझे होते थे और पूरी तैयारियों के साथ आते थे तो फिर समां बंध जाता था।  
   प्रत्येक दिन के लिये तय होता था कि किस दिन रामलीला कहां तक खेलनी है। राम को वनवास होने पर जब वह नदी पार करते तो एक साड़ी दोनों तरफ से आर पार पकड़ ली जाती थी। उसे हिलाते और केवट के साथ राम, लक्ष्मण और सीता उसे पार करते। सीता का गीत समाप्त होते ही साड़ी लांघकर नदी पार हो जाती थी। शूपर्णखा और मंथरा कौन बनेगा इसके लिये काफी माथापच्ची करनी पड़ती थी। शूपर्णखा ने 'हाय रे नाक कट गयी' कहकर यदि लोगों में हंसी और बच्चों में डर भर दिया तो समझो वह अपने काम में सफल हो गया। रावण केवल एक शॉल अपने मुकुट के ऊपर से ओढ़ लेता और सीता हरण के लिये उसका भेष बदल जाता। हनुमान, बाली और सुग्रीव के पात्रों पर पूरी लिपस्टिक लगा दी जाती। बेचारों को बाद में चेहरा साफ करने में काफी परेशानी होती थी। हनुमान के समुद्र पार करते समय भी नदी बनी साड़ी ही समुद्र बन जाती। अशोक वाटिका में हनुमान यह सुनिश्चित करता कि उसमें अधिक से अधिक फल लगे हों। किसी के बगीचे से मौसमी फल या फिर कुछ सेब, केले खरीदकर मंच पर लटका दिये जाते। हनुमान उसे आधा खाकर जनता की तरफ फेंक देता। लंका दहन के लिये हनुमान की पूंछ लंबी कर दी जाती। उसे मशाल लगायी जाती। हनुमान को हिदायत रहती कि वह आग लगने के तुरंत बाद जनता के बैठने के बीच में बने रास्ते पर एक दो चक्कर लगाये और फिर तुरंत पर्दे के पीछे चला जाए जहां आग बुझाने के लिये पानी की पूरी तैयारी रहती थी। जब युद्ध शुरू होता तो लक्ष्मण के मूर्छित होने पर वही थाली पर्वत बन जाती जिससे दिन के शुरू में आरती हुई थी। उसमें अधिक से अधिक दिये जला दिये जाते थे। युद्ध कई तरह से लड़ा जाता लेकिन रावण की सेना के जिस भी बड़े सेनानायक को मरना होता वह तभी जमीन पर गिरता जब पीछे से पटाखा फूट जाए। कई बार पटाखा फुस्स हो जाता तो संदेश पहुंचा दिया जाता। ''मार दे यार पटाखा फुस्स हो गया। '' सबसे बड़ा पटाखा रावण के लिये सुरक्षित होता था।
    राजतिलक के दिन सुबह से ही गांव में उत्सव सा माहौल रहता था। राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान वास्तव में वन में भेज दिये जाते। उनका मेकअप वहीं होता था। इधर तैयारियां चलने लगती। खूब ढोल नगाड़े बजते। भरत और शत्रुघ्न के साथ पूरे गांववासी राम को लेने आधे रास्ते तक जाते। इसके बाद सब मंच पर लौटते और राम राजा के कपड़े पहनकर सिंहासन पर विराजमान हो जाते। लोगों को पहली बार मंच पर आने का मौका इसी दिन मिलता था। वे राम, लक्ष्मण और सीता के पांव छूकर आशीर्वाद लेते और अपनी तरफ से कुछ भेंट भी रख जाते थे। मेरी खुद की रामलीला से कई यादें जुड़ी हैं। मैं रामलीला में राम भी बना तो उससे पहले महिला पात्र भी। हर पात्र का अलग आनंद होता था। कुछ इसी तरह से होती थी सत्तर और अस्सी के दशक की रामलीला।
आपका धर्मेन्द्र पंत 
    

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

भगवान शिव को रिझाने के लिये मां पार्वती ने किया था 'चौंफुला'

     चपन में बसंतकालीन और कभी कभार शरदकालीन रातों में गांव में होने वाले लोकगीतों और लोकनृत्यों का मैंने बराबर आनंद उठाया है। अमूमन गांव की महिलाएं बसंत ​ऋतु के समय रात ढलने पर गांवों में किसी के घर के चौक यानि आंगन में इकट्ठा होकर लोकगीत और लोकनृत्यों से समां बांध दिया करती थी। मेरे गांव स्योली में भी यह परंपरा वर्षों तक चली लेकिन अब घर . घर में टीवी की घुसपैठ और हर हाथ में मोबाइल की सेंध का इन लोकगीतों और लोकनृत्यों पर बुरा असर पड़ा है। शहरों की तरफ तेजी से बढ़ने वाले पलायन ने आग में घी डालने का काम किया। लोकगीत और लोकनृत्य पीछे छूटते गये। कुछ गांवों में अब भी बसंत ऋतु में इन लोकनृत्यों की परपंरा बरकरार है। इनमें कई तरह के लोकगीत थे जिनमें साथ में लोकनृत्य भी हुआ करता था। इन लोकनृत्यों और लोकगीतों में चौंफुला, ​थड़िया, झुमैलो, झुरा, लामड़, चौपत्ती, बाजूबंद, घसियारी, चांचरी, छपेली आदि प्रमुख हैं। छमिया का हास्य नाटक भी खेला जाता था।

मस्ती और प्रेम का नृत्य है चौंफुला 

      मैं आज यहां पर चौंफुला का जिक्र करूंगा जो मस्ती, प्रेम, अनुराग, हास्य, संदेह, प्रेरणा से भरा हुआ है। यह गढ़वाल का लोकनृत्य है। हाथों और पांवों के अद्भुत संगम से किये जाने वाले इस नृत्य के बारे में कहा जाता है कि सबसे पहले पार्वती ने शिव को रिझाने के लिये पहाड़ों पर यह नृत्य किया था। स्थानीय कथाओं के अनुसार पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती पिछले जन्म की सती का ही रूप थी। पार्वती ने पहले शिव को अपने सौंदर्य से रिझाने की कोशिश की थी लेकिन बाद में उन्होंने मिट्टी और पत्थरों से चौंरी बनायी। इसके चारों तरफ कई तरह के फूल खिले हुए थे। पार्वती ने अपनी सखियों के साथ अनुराग भरे गीत गाये। शिव ने इससे खुश होकर पार्वती से विवाह किया था। सभी दिशाओं में नृत्य करने और हर तरफ फूल खिले होने के कारण इस नृत्य का नाम चौंफुला पड़ा, जिसका अर्थ है फूलों की तरह खिलना। हिंदू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार शिव और पार्वती का विवाह ​गौरीकुंड के पास त्रियुगीनारायण गांव में हुआ था।
      चौंफुला के बारे में कहा जा सकता है कि गढ़वाल का हजारों वर्ष पुराना नृत्य है जो समय समय के साथ भारत के अन्य हिस्सों के नृत्यों के मेल से समृद्ध बनता गया या यूं कहें कि इसके स्वरूप में थोड़ा बहुत बदलाव होते रहे। डा. शिवानंद नौटियाल के अनुसार चौंफुला गुजरात के गरबा, असम के बिहू और मणिपुर के रास जैसा ही नृत्य है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आकर गढ़वाल में बसने वाले लोग इसमें नयापन जोड़ते रहे। 
      चौंफुला रात के समय में नृत्य के साथ गाये जाने वाला लोकगीत है जिसमें नर्तकों की कोई तय संख्या नहीं होती है।  इस तरह का लोकनृत्य के घर के आगे बने चौक यानि आंगन में किया जाता है और इसमें किसी वाद्ययंत्र का सहारा नहीं लिया जाता है। इसमें महिला और पुरूष नर्तक अलग अलग पंक्तियों में एक दूसरे के आमने सामने खड़े होते हैं लेकिन गोलाकार के कारण दोनों तरफ के आखिरी महिला और पुरूष नर्तक एक दूसरे के पास में होते हैं। नृत्य करते समय नर्तक एक कदम आगे आकर अपनी दायीं हथेली से अपने बायें तरफ खड़े नर्तक की दायीं हथेली को बजाता है और फिर बायीं हथेली से अपने दायें तरफ खड़े नर्तक की बायीं हथेली से बजाते हुए वापस पहले वाली पोजीशन पर आ जाता है। इसमें एक तरफ के नर्तक गीत गाते हैं और फिर दूसरी तरफ के नर्तक उसे दोहराते हैं। यह नृत्य धीरे धीरे गति पकड़ता है और फिर इसमें पांवों की थाप भी शामिल हो जाती है। आखिर क्षणों में गीत पर नृत्य पूरी तरह से हावी हो जाता है। गढ़वाल में कई चौंफुला गीतों का जिक्र किया जाता है। जैसे कि......
              नणद तेरो दादू क जायूं च, दादू सुनार की ओटी च।
                   ओटी बैठि की क्या कादू च, नथ बेसर गढांदू च।
                     बौकी जिकुणी झुरौंदो च, नणद तेरो दादू क जायूं च। .......
..
(यह ननद और भाभी के बीच संवाद का गीत है। भाई अपनी बहन के लिये नथ बनवाने गया होता है। तब भाभी पूछती है,  ''ननद तुम्हारा भाई कहां गया है। भाई सुनार के पास गया है। वहां क्या कर रहा है। नाक की नथ बनवा रहा है। भाभी के दिल को दर्द दे रहा है। '')
      बड़ी चाचीजी श्रीमती कपोत्री देवी से पूछा तो उन्होंने बताया कि ''धार मा उरखेली ब्वे चौ डांडा बथौंच ....'' भी चौंफुला ही है। उन्होंने कुछ और गीतों का जिक्र भी किया। उनके जमाने में मेरे गांव में लगभग हर साल इन गीतों का आयोजन होता है। लगभग दो महीने तक चलने वाले इन गीतों का समापन बैशाखी के दिन होता था।        
      इसी तरह का एक और लोकनृत्य होता है चौपात्ति या छौपाति यह मुख्य रूप से जौनसार क्षेत्र का गीत है। कुछ स्थानों पर इन गीतों के चुरा और लामणी भी कहा जाता है। यह भी चौंफुला की तरह का ही नृत्य है जिसे सामूहिक रूप से गाया जाता है। इस तरह का एक गीत है ....
              तिल जलोटा क्या धार बौ ये, मीम तू बतै दै बौ ये।
                 तेरा दादा ने गिंदोणी दे छै, मिन जलोटा वा धार दियूरै ।।
      घसेरी में आगे थड़िया, बाजूबंद, घसियारी, झुमेलो, छपेली आदि गीतों और लोकनृत्यों के बारे में विस्तार से चर्चा करने की कोशिश करूंगा। फिलहाल तब तक चौंफुला का आनंद लें। आपका अपना धर्मेन्द्र पंत
      नोट : मैं अपने भुला (छोटा भाई) बिजेंद्र पंत का हमेशा आभारी रहता हूं कि क्योंकि एक फोन पर वह सामग्री या फोटो जुटाने में जुट जाता है। अफसोस की काफी प्रयासों के बाद भी चौंफुला की फोटो नहीं मिली। किसी भाई या बहन के पास हो तो भेजने की कृपा करें। बिजेंद्र उन लोगों में शामिल है जो गढ़वाली लोकसंस्कृति को बचाने के लिये अपने स्तर पर प्रयासरत हैं।


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant

© ghaseri.blogspot.in 

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

पहाड़ में क्रिकेट और मेरी क्रिकेट टीम

    प्रिय मित्र प्रकाश पांथरी का संदेश आया कि देहरादून में क्रिकेट की उत्तराखंड प्रीमियर लीग चल रही है। सुनकर अच्छा लगा। उत्तराखंड की क्रिकेट में काफी संभावनाएं हैं। वहां प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन दिक्कत यही है कि उत्तराखंड क्रिकेट संघ को अभी भारतीय क्रिकेट बोर्ड से मान्यता नहीं मिली है, इसलिए हमारी रणजी टीम नहीं है और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हमारे खिलाड़ियों को दिल्ली और दूसरे अन्य राज्यों की शरण में ही जाना पड़ेगा। बहरहाल प्रकाश के संदेश से मुझे उत्तराखंड की अपनी क्रिकेट की भी याद आ गयी। संभवत: मेरी पहली और उसके बाद की पीढ़ी या वर्तमान पीढ़ी की यादें भी कुछ इसी तरह से होंगी। आप चाहें तो अपनी इन यादों को नीचे टिप्पणी वाले बाक्स में साझा कर सकते हैं। 
   
पहाड़ो की क्रिकेट बयां करता चित्र
उत्तराखंड की क्रिकेट खेतों में खेली जाती है। सीढ़ीनुमा खेतोें में। शायद ही वहां कोई ऐसा खेत होगा जिसमें सभी बाउंड्री एक ही खेत के अंदर आ जाएं। यहां तो बस कोई थोड़ा चौड़ा सा खेत मिला और वही बन जाता है क्रिकेट का मैदान। अब भले ही साजो सामान होंगे लेकिन एक जमाना था जबकि बल्ला बांज, खड़ीक या किसी अन्य पेड़ की टहनी काटकर बना दिया जाता था। पहले उसे बल्ले का रूप दिया जाता और फिर उस पर कांच की बोतल तोड़कर इतना अधिक 'रंदा' लगाया जाता था कि वह खूब चमकने लग जाए। इस तरह से तैयार होता हमारा 'पहाड़ी विलो' (इंग्लिश विलो और कश्मीर विलो की तर्ज पर)। विकेटों की तो कमी ही नही होती थी। तीन . तीन डंडे तो किसी भी जगह पर उपलब्ध हो जाते थे। कुछ नहीं तो किसी की 'कठगल' (एक साथ रखी गयी ढेर सारी लकड़ियां) से चुपके से दो तीन लकड़ियां खींच ली। अब गेंद की बात कर लें। पहले हम प्लास्टिक गलाकर गेंद बनाते थे। मोम की काली गेंद। कई बार जब वह टन से बल्ले से लगती थी तो पूरा हाथ झनझना जाता था। न पैड, न ग्लब्स, न एल गार्ड न हेलमेट और फिर भी बड़ी बहादुरी से इस काली गेंद का सामना करते थे। बाद में आयी कार्क की बॉल। वह भी माशाअल्ला अगर शरीर पर कहीं लग जाए तो हिस्सा काला पड़ जाता था। फिर भी कार्क की बॉल से खूब क्रिकेट खेली। क्षेत्ररक्षण के लिये कोई नियत स्थान नहीं होते थे। असल में जो ऊपर वाले खेत में पीछे खड़ा है वह तो बल्लेबाज को देख ही नहीं पाता था। अगर आन साइड में पहाड़ी है तो फिर जो शाट किसी समतल मैदान पर मिडविकेट पर आसानी से कैच कर लिया जाता वह वहां छक्का हो जाता था। ऐसे कई छक्के जड़ने वाले वहां कि क्रिकेट की हीरो कहलाते थे।
    इसी तरह से जो नीचे वाले खेतों में खड़े हैं उन क्षेत्ररक्षक महोदय को भी बल्लेबाज की शक्ल या बल्ला नहीं दिखता था। बस शाट पड़ने पर बाकी साथियों के चिल्लाने पर वह समझ जाता था कि गेंद उसकी तरफ आ रही है। थोड़ा हवा में खेले गये कई अच्छे ड्राइव ऐसे खेतों में कैच में तब्दील हो जाते हैं। यह अलग बात थी कि क्रिकेट के कुछ कायदे कानून हमें पता थे और इसलिए हमेशा उन नियमों का सहारा लेकर ही मैच खेलते थे। मैच किसी दूसरे गांव से होते थे। तब 10, 20, 50 या ज्यादा हुआ तो 100 रूपये के मैच खेल लेते थे। बाकायदा क्रिकेट टूर्नामेंट भी हुआ करते थे। उनकी फीस 11, 21, 31 रूपये हुआ करती थी। इनाम में मिलती थी शील्ड या कोई कप।

मेरी प्रिय, मेरी क्रिकेट टीम

    ब मैं बात करता हूं कि स्योली गांव की अपनी क्रिकेट टीम की। पिताजी ने बचपन में ही एक बल्ला ​बना दिया था। यानि पांच छह साल में ही अपुन क्रिकेटर बन गये थे। किशोरावस्था में कदम रखा और फिर बड़े लड़कों की टीम से खेलने लगे। मैं और मेरा चचेरा भाई वीरू (वीरेंद्र पंत) हम दोनों ने अपने से उम्र में 10 . 12 साल बड़े देवेंद्र भैजी, भरतराम भैजी, आनंद भैजी आदि के साथ भी क्रिकेट खेली है। इन लोगों के साथ हम दोनों ने कई बार पारी का आगाज किया। मैं नहीं बता सकता कि हमें पारी की शुरूआत के लिये क्यों भेजा जाता था, क्योंकि गेंद तो पुरानी ही होती थी। अगर गेंद नयी होती तो उसका सामना करने का सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं होता था। देवेंद्र भैजी और भरतराम भैजी दोनों बहुत अच्छी क्रिकेट खेलते थे। दोनों आलराउंडर थे, हां देवेंद्र भैजी की एक आदत मुझे याद है वह ओवर की आखिरी गेंद पर रन लेने के लिये जरूर दौड़ते थे ताकि बल्लेबाजी उनके पास ही रहे। इस चक्कर में कई बार हम जैसे नन्हें क्रिकेटर रन आउट हो जाते थे। इनके बाद महेंद्र ​भैजी, चंद्र प्रकाश भैजी, सतीश भैजी आदि के साथ भी क्रिकेट खेली। सच कहूं तो इनमें से हमारी कोई भी टीम मजबूत नहीं थी। हमारा वही हाल था जो भारतीय क्रिकेट टीम का शुरूआती दिनों में था। बहरहाल इस बीच पहली बार गांव में खरीदा हुआ बल्ला आ गया था। उसे शायद सहारनपुर से खरीदा गया था और तब कहते थे कि उसके ऊपर मछली की खाल चढ़ी हुई है। जो भी हो उसे थोड़ी देर हाथ में पकड़ने पर ही मैंने खुद को धन्य मान लिया था क्योंकि उस बल्ले से खेलने के लिये पांच रूपये अदा करने थे जो मेरी जेब में नहीं थे।
बाण्यूं के खेत। जब इनमें फसल नहीं होती थी
तो यह हमारे लिये लार्ड्स बन जाता था।

बहुत मजबूत थी हमारी टीम

    जब हमारी असल टीम बनी तो वह काफी मजबूत थी। समय बदला और हमारे पास दो तीन बल्ले, पैड, ग्लब्स आदि आ गये और हम लेदर की गेंद से खेलने लगे। एल गार्ड और हेलमेट तब भी हमारे पास नहीं थे। वीरू हमेशा हमारा कप्तान रहा। मैं उसके साथ उप कप्तानी करता था। स्वाभाविक है कि वीरू की गैरमौजूदगी में कप्तानी मुझे मिलती। वीरू बहुत तेज गेंदबाजी करता था डेल स्टेन की तरह। मेरा काम था ओपनर या वनडाउन आकर एक छोर पर विकेट संभाले रखना। कट और ड्राइव प्रिय शाट हुआ करते थे मेरे। गेंदबाजी भी कर लेता था। वीरू चाहता था कि जब वह गेंदबाजी करे तो मैं स्लिप में क्षेत्ररक्षण करूं। मुझे याद है कि एक बार उसने हैट्रिक बनायी और तीनों कैच स्लिप में मैंने लिये थे। असल में 12 . 15 फीट की दूरी पर नीचे वाला खेत लगता था तो बल्लेबाज वहां तक गेंद पहुंचाकर रन चुराने के लिये कट करने की कोशिश करता लेकिन मैं स्लिप में उसे कैच कर लेता। मनोज यानि अनुज पंत जैसा धुरंधर खिलाड़ी था हमारे पास। आज जो महेंद्र सिंह धोनी करता है मनोज अस्सी के दशक में वह सब किया करता था। विकेटकीपर के रूप में उसका कोई सानी नहीं था। पलक झपकते ही स्टंप आउट कर देता था। उसके लंबे और करारे शाट जानदार हुआ करते थे। छक्के जड़ने में वह भी माहिर था। परमानंद कुशल क्षेत्ररक्षक था। शायद ही कभी कोई कैच उससे छूटा होगा, जोंटी रोड्स था वह हमारा। रमेश जुयाल की गेंदों में अच्छी तेजी थी। अब सोचता हूं कि वह अनजाने में कभी कभी स्विंग भी करा लेता था शायद। दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज रमेश हमारे बीच नहीं है। विपिन अच्छा तेज गेंदबाज था। आज इशांत शर्मा को देखकर मुझे विपिन की गेंदबाजी की याद आ जाती है। गजेंद्र मोहन मध्यक्रम संभालता था और मनोज का भाई बिजू वो भी जरूरत पड़ने पर अच्छी लप्पेबाजी करता था। पदमेंद्र (पनैली) हमेशा रफ क्रिकेटर रहा लेकिन कभी उसका बल्ला भी चल जाता था। भक्ति स्पिन करा लेता था तो जयप्रकाश कितनी तेज गेंद हो या बाउंसर शरीर पर झेल लेता था। डाइव लगाते हुए मैंने सबसे पहले जयप्रकाश को ही देखा था। राजेंद्र जुयाल आन साइड पर लंबे शाट जमाने में माहिर था। प्रदीप को आप किसी भी क्रम में बल्लेबाजी के लिये भेज दो वह हमेशा तैयार रहता था। वह जुनूनी क्रिकेटर था। चंद्रमोहन ने जब क्रिकेट में रूचि दिखायी तो उसकी खातिर हम गांव से दूर चढ़ाई चढ़कर उसके पास के खेत (मलखेत) में भी क्रिकेट खेलने गये। इनके अलावा कुछ पुछल्ले बल्लेबाज भी थे। जो गेंदबाजी नहीं करते थे और जरूरत पड़ने पर ही उन्हें बल्लेबाजी का मौका मिलता था लेकिन जीत का जज्बा उनमें भी भरपूर था। इन सबके बीच सर्वज्ञानंद को नहीं भुलाया जा सकता। गजब का जज्बा और जुनून था उनमें। हम सभी से उम्र में काफी बड़े। जब फौज से आते थे तो फिर हमारी क्रिकेट चमक उठती थी। एक और फौजी अशोक पर भी हमें भरोसा रहता था, पर वह वालीबाल अच्छा खेलता था। गांव में जब हमारा करियर अवसान पर था तो बिजेंद्र पंत, योगेश आदि ने क्रिकेट की परपंरा बनाये रखी। मैं राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल की तरफ से भी क्रिकेट खेला। वहां मैं चंद्रप्रकाश पांथरी यानि प्रकाश पांथरी का कायल था। बहुत तेज गेंदबाजी करता था और जमकर रन भी बटोरता था। लटिबौ का ज्ञान सिंह कलात्मक बल्लेबाज था। कई और साथी थे जिनके साथ मैंने क्रिकेट का पूरा आनंद लिया।

हमारे लिये लार्ड्स था बाण्यूं का खेत 

    मैदान की बात करूं तो गांव में हमारे दो प्रिय मैदान हुआ करते थे। बा​ण्यूं (जिसका फोटो यहां दिया गया है) और पंदरैखोली। इसके अलावा जरूरत पड़ने पर कोई भी खेत हमारे लिये मैदान बन जाता था। रौताबूण भी स्कूल के नीचे हमने अपने प्रयासों से एक खेत को समतल करके उसे इस लायक बनाया था कि उसमें 22 गज की पिच और स्लिप और शार्ट कवर के क्षेत्ररक्षक समा सकें। स्कूल के समय में पांथर के ऊपर जंगल में समतल सी जगह थी वहां क्रिकेट खेलते थे। उसे सिपाहिखेत कहते हैं। भेटी गांव में भी चोटी पर कुछ समतल खेत थे लेकिन वहां लंबा शाट मारने पर गेंद खो जाने का डर रहता था। गांव से मीलों दूर सुरखेत में भी कई बार क्रिकेट खेली। तब बल्लेबाजी एक छोर से हुआ करती थी। इसलिए यह कह सकता हूं कि दायें हाथ के बल्लेबाज के लिये वहां आफ साइड में खुला मैदान था।
     आपने भी तो पहाड़ों में ऐसे ही मैदानों पर क्रिकेट खेली होगी। पहाड़ की क्रिकेट से जुड़े अपने कुछ किस्से यहां टिप्पणी वाले कालम में शेयर करना नहीं भूलें। आपका धर्मेन्द्र मोहन पंत .....

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant
badge