प्रिय मित्र प्रकाश पांथरी का संदेश आया कि देहरादून में क्रिकेट की उत्तराखंड प्रीमियर लीग चल रही है। सुनकर अच्छा लगा। उत्तराखंड की क्रिकेट में काफी संभावनाएं हैं। वहां प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन दिक्कत यही है कि उत्तराखंड क्रिकेट संघ को अभी भारतीय क्रिकेट बोर्ड से मान्यता नहीं मिली है, इसलिए हमारी रणजी टीम नहीं है और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हमारे खिलाड़ियों को दिल्ली और दूसरे अन्य राज्यों की शरण में ही जाना पड़ेगा। बहरहाल प्रकाश के संदेश से मुझे उत्तराखंड की अपनी क्रिकेट की भी याद आ गयी। संभवत: मेरी पहली और उसके बाद की पीढ़ी या वर्तमान पीढ़ी की यादें भी कुछ इसी तरह से होंगी। आप चाहें तो अपनी इन यादों को नीचे टिप्पणी वाले बाक्स में साझा कर सकते हैं।
पहाड़ो की क्रिकेट बयां करता चित्र |
उत्तराखंड की क्रिकेट खेतों में खेली जाती है। सीढ़ीनुमा खेतोें में। शायद ही वहां कोई ऐसा खेत होगा जिसमें सभी बाउंड्री एक ही खेत के अंदर आ जाएं। यहां तो बस कोई थोड़ा चौड़ा सा खेत मिला और वही बन जाता है क्रिकेट का मैदान। अब भले ही साजो सामान होंगे लेकिन एक जमाना था जबकि बल्ला बांज, खड़ीक या किसी अन्य पेड़ की टहनी काटकर बना दिया जाता था। पहले उसे बल्ले का रूप दिया जाता और फिर उस पर कांच की बोतल तोड़कर इतना अधिक 'रंदा' लगाया जाता था कि वह खूब चमकने लग जाए। इस तरह से तैयार होता हमारा 'पहाड़ी विलो' (इंग्लिश विलो और कश्मीर विलो की तर्ज पर)। विकेटों की तो कमी ही नही होती थी। तीन . तीन डंडे तो किसी भी जगह पर उपलब्ध हो जाते थे। कुछ नहीं तो किसी की 'कठगल' (एक साथ रखी गयी ढेर सारी लकड़ियां) से चुपके से दो तीन लकड़ियां खींच ली। अब गेंद की बात कर लें। पहले हम प्लास्टिक गलाकर गेंद बनाते थे। मोम की काली गेंद। कई बार जब वह टन से बल्ले से लगती थी तो पूरा हाथ झनझना जाता था। न पैड, न ग्लब्स, न एल गार्ड न हेलमेट और फिर भी बड़ी बहादुरी से इस काली गेंद का सामना करते थे। बाद में आयी कार्क की बॉल। वह भी माशाअल्ला अगर शरीर पर कहीं लग जाए तो हिस्सा काला पड़ जाता था। फिर भी कार्क की बॉल से खूब क्रिकेट खेली। क्षेत्ररक्षण के लिये कोई नियत स्थान नहीं होते थे। असल में जो ऊपर वाले खेत में पीछे खड़ा है वह तो बल्लेबाज को देख ही नहीं पाता था। अगर आन साइड में पहाड़ी है तो फिर जो शाट किसी समतल मैदान पर मिडविकेट पर आसानी से कैच कर लिया जाता वह वहां छक्का हो जाता था। ऐसे कई छक्के जड़ने वाले वहां कि क्रिकेट की हीरो कहलाते थे।
इसी तरह से जो नीचे वाले खेतों में खड़े हैं उन क्षेत्ररक्षक महोदय को भी बल्लेबाज की शक्ल या बल्ला नहीं दिखता था। बस शाट पड़ने पर बाकी साथियों के चिल्लाने पर वह समझ जाता था कि गेंद उसकी तरफ आ रही है। थोड़ा हवा में खेले गये कई अच्छे ड्राइव ऐसे खेतों में कैच में तब्दील हो जाते हैं। यह अलग बात थी कि क्रिकेट के कुछ कायदे कानून हमें पता थे और इसलिए हमेशा उन नियमों का सहारा लेकर ही मैच खेलते थे। मैच किसी दूसरे गांव से होते थे। तब 10, 20, 50 या ज्यादा हुआ तो 100 रूपये के मैच खेल लेते थे। बाकायदा क्रिकेट टूर्नामेंट भी हुआ करते थे। उनकी फीस 11, 21, 31 रूपये हुआ करती थी। इनाम में मिलती थी शील्ड या कोई कप।
मेरी प्रिय, मेरी क्रिकेट टीम
अब मैं बात करता हूं कि स्योली गांव की अपनी क्रिकेट टीम की। पिताजी ने बचपन में ही एक बल्ला बना दिया था। यानि पांच छह साल में ही अपुन क्रिकेटर बन गये थे। किशोरावस्था में कदम रखा और फिर बड़े लड़कों की टीम से खेलने लगे। मैं और मेरा चचेरा भाई वीरू (वीरेंद्र पंत) हम दोनों ने अपने से उम्र में 10 . 12 साल बड़े देवेंद्र भैजी, भरतराम भैजी, आनंद भैजी आदि के साथ भी क्रिकेट खेली है। इन लोगों के साथ हम दोनों ने कई बार पारी का आगाज किया। मैं नहीं बता सकता कि हमें पारी की शुरूआत के लिये क्यों भेजा जाता था, क्योंकि गेंद तो पुरानी ही होती थी। अगर गेंद नयी होती तो उसका सामना करने का सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं होता था। देवेंद्र भैजी और भरतराम भैजी दोनों बहुत अच्छी क्रिकेट खेलते थे। दोनों आलराउंडर थे, हां देवेंद्र भैजी की एक आदत मुझे याद है वह ओवर की आखिरी गेंद पर रन लेने के लिये जरूर दौड़ते थे ताकि बल्लेबाजी उनके पास ही रहे। इस चक्कर में कई बार हम जैसे नन्हें क्रिकेटर रन आउट हो जाते थे। इनके बाद महेंद्र भैजी, चंद्र प्रकाश भैजी, सतीश भैजी आदि के साथ भी क्रिकेट खेली। सच कहूं तो इनमें से हमारी कोई भी टीम मजबूत नहीं थी। हमारा वही हाल था जो भारतीय क्रिकेट टीम का शुरूआती दिनों में था। बहरहाल इस बीच पहली बार गांव में खरीदा हुआ बल्ला आ गया था। उसे शायद सहारनपुर से खरीदा गया था और तब कहते थे कि उसके ऊपर मछली की खाल चढ़ी हुई है। जो भी हो उसे थोड़ी देर हाथ में पकड़ने पर ही मैंने खुद को धन्य मान लिया था क्योंकि उस बल्ले से खेलने के लिये पांच रूपये अदा करने थे जो मेरी जेब में नहीं थे।
बाण्यूं के खेत। जब इनमें फसल नहीं होती थी तो यह हमारे लिये लार्ड्स बन जाता था। |
बहुत मजबूत थी हमारी टीम
जब हमारी असल टीम बनी तो वह काफी मजबूत थी। समय बदला और हमारे पास दो तीन बल्ले, पैड, ग्लब्स आदि आ गये और हम लेदर की गेंद से खेलने लगे। एल गार्ड और हेलमेट तब भी हमारे पास नहीं थे। वीरू हमेशा हमारा कप्तान रहा। मैं उसके साथ उप कप्तानी करता था। स्वाभाविक है कि वीरू की गैरमौजूदगी में कप्तानी मुझे मिलती। वीरू बहुत तेज गेंदबाजी करता था डेल स्टेन की तरह। मेरा काम था ओपनर या वनडाउन आकर एक छोर पर विकेट संभाले रखना। कट और ड्राइव प्रिय शाट हुआ करते थे मेरे। गेंदबाजी भी कर लेता था। वीरू चाहता था कि जब वह गेंदबाजी करे तो मैं स्लिप में क्षेत्ररक्षण करूं। मुझे याद है कि एक बार उसने हैट्रिक बनायी और तीनों कैच स्लिप में मैंने लिये थे। असल में 12 . 15 फीट की दूरी पर नीचे वाला खेत लगता था तो बल्लेबाज वहां तक गेंद पहुंचाकर रन चुराने के लिये कट करने की कोशिश करता लेकिन मैं स्लिप में उसे कैच कर लेता। मनोज यानि अनुज पंत जैसा धुरंधर खिलाड़ी था हमारे पास। आज जो महेंद्र सिंह धोनी करता है मनोज अस्सी के दशक में वह सब किया करता था। विकेटकीपर के रूप में उसका कोई सानी नहीं था। पलक झपकते ही स्टंप आउट कर देता था। उसके लंबे और करारे शाट जानदार हुआ करते थे। छक्के जड़ने में वह भी माहिर था। परमानंद कुशल क्षेत्ररक्षक था। शायद ही कभी कोई कैच उससे छूटा होगा, जोंटी रोड्स था वह हमारा। रमेश जुयाल की गेंदों में अच्छी तेजी थी। अब सोचता हूं कि वह अनजाने में कभी कभी स्विंग भी करा लेता था शायद। दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज रमेश हमारे बीच नहीं है। विपिन अच्छा तेज गेंदबाज था। आज इशांत शर्मा को देखकर मुझे विपिन की गेंदबाजी की याद आ जाती है। गजेंद्र मोहन मध्यक्रम संभालता था और मनोज का भाई बिजू वो भी जरूरत पड़ने पर अच्छी लप्पेबाजी करता था। पदमेंद्र (पनैली) हमेशा रफ क्रिकेटर रहा लेकिन कभी उसका बल्ला भी चल जाता था। भक्ति स्पिन करा लेता था तो जयप्रकाश कितनी तेज गेंद हो या बाउंसर शरीर पर झेल लेता था। डाइव लगाते हुए मैंने सबसे पहले जयप्रकाश को ही देखा था। राजेंद्र जुयाल आन साइड पर लंबे शाट जमाने में माहिर था। प्रदीप को आप किसी भी क्रम में बल्लेबाजी के लिये भेज दो वह हमेशा तैयार रहता था। वह जुनूनी क्रिकेटर था। चंद्रमोहन ने जब क्रिकेट में रूचि दिखायी तो उसकी खातिर हम गांव से दूर चढ़ाई चढ़कर उसके पास के खेत (मलखेत) में भी क्रिकेट खेलने गये। इनके अलावा कुछ पुछल्ले बल्लेबाज भी थे। जो गेंदबाजी नहीं करते थे और जरूरत पड़ने पर ही उन्हें बल्लेबाजी का मौका मिलता था लेकिन जीत का जज्बा उनमें भी भरपूर था। इन सबके बीच सर्वज्ञानंद को नहीं भुलाया जा सकता। गजब का जज्बा और जुनून था उनमें। हम सभी से उम्र में काफी बड़े। जब फौज से आते थे तो फिर हमारी क्रिकेट चमक उठती थी। एक और फौजी अशोक पर भी हमें भरोसा रहता था, पर वह वालीबाल अच्छा खेलता था। गांव में जब हमारा करियर अवसान पर था तो बिजेंद्र पंत, योगेश आदि ने क्रिकेट की परपंरा बनाये रखी। मैं राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल की तरफ से भी क्रिकेट खेला। वहां मैं चंद्रप्रकाश पांथरी यानि प्रकाश पांथरी का कायल था। बहुत तेज गेंदबाजी करता था और जमकर रन भी बटोरता था। लटिबौ का ज्ञान सिंह कलात्मक बल्लेबाज था। कई और साथी थे जिनके साथ मैंने क्रिकेट का पूरा आनंद लिया।
हमारे लिये लार्ड्स था बाण्यूं का खेत
मैदान की बात करूं तो गांव में हमारे दो प्रिय मैदान हुआ करते थे। बाण्यूं (जिसका फोटो यहां दिया गया है) और पंदरैखोली। इसके अलावा जरूरत पड़ने पर कोई भी खेत हमारे लिये मैदान बन जाता था। रौताबूण भी स्कूल के नीचे हमने अपने प्रयासों से एक खेत को समतल करके उसे इस लायक बनाया था कि उसमें 22 गज की पिच और स्लिप और शार्ट कवर के क्षेत्ररक्षक समा सकें। स्कूल के समय में पांथर के ऊपर जंगल में समतल सी जगह थी वहां क्रिकेट खेलते थे। उसे सिपाहिखेत कहते हैं। भेटी गांव में भी चोटी पर कुछ समतल खेत थे लेकिन वहां लंबा शाट मारने पर गेंद खो जाने का डर रहता था। गांव से मीलों दूर सुरखेत में भी कई बार क्रिकेट खेली। तब बल्लेबाजी एक छोर से हुआ करती थी। इसलिए यह कह सकता हूं कि दायें हाथ के बल्लेबाज के लिये वहां आफ साइड में खुला मैदान था।
आपने भी तो पहाड़ों में ऐसे ही मैदानों पर क्रिकेट खेली होगी। पहाड़ की क्रिकेट से जुड़े अपने कुछ किस्से यहां टिप्पणी वाले कालम में शेयर करना नहीं भूलें। आपका धर्मेन्द्र मोहन पंत .....
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Purani yade taja ho gai. Chalo gaon me...
जवाब देंहटाएंHahahah .same history thi hamari bhi.
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