शनिवार, 12 जनवरी 2019

कुमांऊ की सेठाणी जसुली शौक्याणी की कहानी

         ह कहानी है एक ऐसी महिला की जिसने कुमांऊ और गढ़वाल में कई धर्मशालाओं का निर्माण करवाया था। आज भले ही ये धर्मशालाएं जीर्ण शीर्ण हो गयी हैं लेकिन कभी ये यात्रियों के लिये आश्रय स्थल हुआ करतीथी। यह महि​ला थी जसुली शौक्याणी। 
          आज से लगभग पौने दो सौ साल पहले कुमाऊं की दारमा घाटी के दांतू गांव में रहती थी अथाह धन सम्पदा की इकलौती मालकिन जसुली दताल यानि जसुली शौक्याणी। जसुली शौका समुदाय से संबंध रखती थी। दारमा और निकटवर्ती व्यांस-चौदांस की घाटियों में रहने वाले रंग या शौका समुदाय के लोगों का सदियों से तिब्बत के साथ व्यापार चलता रहता था। यही वजह थी कि उनकी गिनती पूरे कुमाऊं-गढ़वाल इलाके के सबसे संपन्न लोगों में होती थी। लेकिन कहते हैं कि धन सब कुछ नहीं होता। अथाह धनसम्पदा की इकलौती मालकिन जसुली अल्पायु में विधवा हो गयी। कुदरत का कहर यहीं पर नहीं थमा। उनके इकलौते पुत्र की भी असमय मृत्यु हो गयी। जसुली विधवा होने के बाद निःसन्तान भी हो गयी।
          अब आंसू, अकेलापन और हताशा जसुली के संगी बन गए थे। इस तरह की हताशा में किसी के मन में भी यह बात आएगी कि यह अथाह धनसंपति किस काम की। जसुली ने भी वृद्धावस्था में ऐसे ही एक दिन घोर हताशा में फैसला किया कि वह अपना सारा धन धौलीगंगा नदी में बहा देगी। इसे संयोग ही कहेंगे कि उसी दौरान उस दुर्गम इलाके से कुमाऊँ के कमिश्नर रहे अँगरेज़ अफसर हैनरी रैमजे का काफिला गुजर रहा था। रैमजे लंबे समय तक गढ़वाल—कुमांऊ के कमिश्नर रहे थे। उन्हें 1840 में कुमांऊ का सहायक कमिश्नर बनाया गया था। इसके बार उन्हें 1856 में गढ़वाल और कुमांऊ कमिश्नर बनाया गया था। उन्होंने 28 साल तक इस क्षेत्र में काम किया। रैमजे अपनी नेकदिली के लिये मशहूर थे और स्थानीय लोग उन्हें रामजी कहा करते थे। रैमजे ने बिनसर में अपने लिये बड़ा बंगला बनवाया था जिसे 'खाली' कहा जाता था क्योंकि रैमजे बहुत कम समय तक वहां रहे थे। 

जसुली शौक्याणी पर छोटी सी​ फिल्म


           इन्हीं रैमजे को जब जसुली के मंसूबों के बारे में पता चला तो वह तुरंत ही उनके पास पहुंचे। उन्होंने जसुली को समझाया कि धन को नदी में बहा देने के बजाय किसी जनोपयोगी काम में लगाना बेहतर होगा। अंग्रेज अफसर का विचार जसुली को जंच गया। कहा जाता है कि दारमा घाटी से वापस लौट रहे अँगरेज़ अफसर के पीछे-पीछे जसुली की अकूत लेकर बकरियों और खच्चरों का एक लंबा काफिला चला। रैमजे ने इस धन से कुमाऊँ, गढ़वाल और नेपाल-तिब्बत तक में व्यापारियों और तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए कई धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। आज भी उत्तराखंड में जीर्ण शीर्ण अवस्था में जसुली और रैमजे जैसे नेकदिलों की निशानियां देखने को मिल जाती हैं। सरकार को इन धर्मशालाओं का संरक्षण करना चाहिए। ये पर्यटन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो सकती हैं। आपका धर्मेन्द्र पंत 
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