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बुधवार, 5 अक्टूबर 2016

विनती

                       ... जितेंद्र मोहन पंत ...

     
          नंदा देवी त्वसे विनती च मेरी
          आज शरणम अयूं छौं मी तेरी 
          मेरी मनोकामना पूरी कैरी
          नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी। 

                  भारत का लोग मां जागरूक ह्वेन
                  मिलिकै देश थै एैथर बढ़ैन
                  इनु मंत्र मां आज यूं फर फेरी
                  नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी। 

          जात पांत हमसे दूर मां रावू
          हिन्दू . मुस्लिम थै भाई बणावू
          सबु की जात मां भारतीय कैरी 
          नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी

                 भेदभाव थै मां जड़ से ​मिटै दे
                 विकास का बीज मां देश म ब्वे दे
                 तू इतनी कृपा मां हम पर कैरी 
                  नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी। 

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 कवि का परिचय
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जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक। इसी दौरान 1978 से 1982 तक पहाड़ और वहां के जीवन पर कई कविताएं लिखी। यह विनती भी सत्तर के दशक के आखिरी दौर में लिखी थी। बाद में सेना के शिक्षा विभाग कार्यरत रहे। 11 मई 1999 को 37 साल की उम्र में निधन। 

शनिवार, 3 सितंबर 2016

मेरे गांव का कौथीग : कभी होती थी उमंग और रौनक

गांव की कुलदेवी नंदादेवी का मंदिर। फोटो : नीलांबर पंत 
       त्तराखंड में कौथीग यानि मेलों का चलन वर्षों से चला आ रहा है। यहां एक नहीं बल्कि सैकड़ों कौथीग का आयोजन होता है। वर्ष में एक बार होने वाले इन कौथीग का दिन तय होता है। कौथीग विशेषरूप से किसी धार्मिक स्थल पर ही लगते हैं। गढ़वाल में बैशाख का महीना एक तरह से कौथीग के लिये समर्पित है। इस महीने सबसे अधिक कौथीग लगते हैं लेकिन कई जगहों पर इसके बाद भी कौथीग का आयोजन होता रहता है।  (पढ़ें चलो भैजी कौथिग जौंला)मैं आज यहां पर अपने गांव के कौथीग का जिक्र करूंगा। मेरा गांव स्योली है जो पौड़ी गढ़वाल के चौंदकोट इलाके में पट्टी गुराडस्यूं में आता है। नंदादेवी हमारी कुलदेवी है जिसका मंदिर गांव के ऊपर धार (पहाड़ी का सबसे ऊंचा हिस्सा, शिखर) में है। इसी स्थान पर हर साल तीन सितंबर को कौथीग लगता है। बचपन से हम लोगों के मुंह पर चढ़ा था 'नंदौं कौथीग' यानि नंदा देवी में लगने वाला मेला। मेरे गांव के आसपास ईगासर (एकेश्वर) और जणदादेवी के कौथीग भी लगते हैं लेकिन हमारे लिये नंदा के कौथीग का खास महत्व था। यदि आप गांव में हैं तो नंदा कौथीग में जाना अनिवार्य माना जाता है। जिनका 'अबाजु' (जिस घर में किसी की मृत्यु हुई हो वार्षिक श्राद्ध तक उनके यहां बाजा नहीं बजता और वे किसी तरह के थौळ कौथीग में भी नहीं आते) उनको छोड़कर सभी लोग नंदादेवी के कौथीग जाते हैं।

गांव से नंदादेवी मंदिर की तरफ आती जात्रा और मंदिर के अंदर का दृश्य। फोटो : राकेश पंत 

             बचपन में तो हम महीने भर पहले से कौथीग के बारे में सोचना और उसको लेकर योजनाएं बनानी शुरू कर देते थे। जो सबसे नयी पोशाक (भले ही वह साल भर पुरानी क्यों न हो) होती थी कौथीग के लिये उसे अच्छी तरह से तैयार करते थे। कभी कभी ऐसा भी होता था कि कौथीग के लिये नये कपड़े भी बन जाते थे। कौथीग हो और नये कपड़े हों तो उस खुशी को यहां शब्दों में बयां करना मुश्किल है। जब प्राइमरी में पढ़ते थे तो हमारे स्कूल से नंदादेवी का मंदिर दिख जाता था। दूर से ही सही लेकिन हम वहां की हलचल का आकलन लगा लेते थे। गुरूजी भी हमारी उत्सुकता समझते थे और इसलिए उस दिन जल्दी छुट्टी कर देते थे। जब राजकीय इंटर कालेज नौगांवखाल गये तो परिस्थिति बदल गयी। यहां समय पर ही छुट्टी होनी थी और तब ऐसे भी मौके आते थे जबकि हम स्कूल ड्रेस में ही कौथीग चले जाते थे। या तो फिर जल्दी घर पहुंचकर नये कपड़े पहने और फिर मिनटों में लगभग एक . डेढ़ किमी की खड़ी चढ़ाई चढ़कर कौथीग पहुंच जाते थे। हमें कौथीग के लिये एक रूपया मिलता था। अगर पिताजी के बजट में संभव हुआ तो कभी कभी दो रूपये भी हाथ में आ जाते। कभी कभार तो अठन्नी चवन्नी से भी काम चलाना पड़ता था। पैसा हालांकि उत्साह कम नहीं करता था। मुझे याद है कि बचपन में मैंने एक बार मां के सामने बांसुरी खरीदने की जिद कर ली थी। मां पहले मनाती रही लेकिन आखिर में उन्हें मेरी जिद के आगे झुकना पड़ा। उनके पास जो थोड़े बहुत पैसे रहे होंगे उनसे मेरी बांसुरी आ गयी। मैं तो खुश था कृष्ण कन्हैया बनकर लेकिन यह मुझे वर्षों बाद अहसास हुआ था कि मेरी बांसुरी के लिये शायद मां ने तब अपनी ​'टिकुली बिंदुली' का त्याग किया होगा। मां ऐसी ही होती हैं।

इस चित्र से मेरे गांव, मेरे प्राइमरी स्कूल और नंदादेवी मंदिर की स्थिति का पता लगाया जा सकता है जिसका जिक्र यहां किया गया है। 

        नंदादेवी कौथीग की तैयारी गांव में भी एक दिन पहले से शुरू हो जाती हैं। नंदादेवी का एक मंदिर गांव में चौंर (चौंरा, चौपाल) में भी है। वहां पर पूजन के बाद शाम को नंदादेवी की जात्रा (हम जात बोलते थे) निकलती है।  ढोल, दमाउ, हुड़का, डौंर, रणसिंघा आदि वाद्ययंत्रों चारों तरफ गूंजती आवाज से पता चल जाता था कि जात्रा अभी कहां पर है। रात गहराने तक शिखर पर स्थित #नंदादेवी मंदिर में पूजन होता है और फिर वापस घर लौट आते हैं। गांव से लेकर इधर उधर के दुकानदार भी एक दिन पहले से तैयारी शुरू कर देते थे इसलिए मंदिर के पास रात भर रौनक रहती थी। अगले दिन भी दोपहर के बाद गांव से जात्रा निकलती है और उसके पहुंचने पर ही असली कौथीग शुरू माना जाता है। कौथीग जाने पर सबसे पहला काम होता है मंदिर में भेंट चढ़ाना। जब तक भेंट नहीं चढ़ाई तब तक मेले से कुछ नहीं खाना। एक रूपया जेब में हो तो पांच या दस पैसे भेंट में चढ़ा दिये और बाकी बचे पैसों से कुछ खा पी लिया। शाम को घर लौटते वक्त सभी की जुबान पर कौथीग के किस्से होते। इसके बाद इंतजार शुरू हो जाता अगले साल के तीन सितंबर का।

कौथीग की रंगत होते हैं ढोल दमौ और डौंर थाली। फोटो सौजन्य :  राकेश पंत, विपित पंत

       नंदादेवी कौथीग में मुझे बचपन से ही बकरों की बलि देना अखरता था। कोई परिवार मनौती रखता और फिर बकरे की बलि देता। बकरा कट जाता तो उसके खून की तिलक सब अपने माथे पर लगाते। बड़ा अजीब प्रचलन। मैं बचपन से इसका विरोध करता रहा। शायद यह विरोध स्वाभाविक था क्योंकि जब से मैंने इसका विरोध किया तब वास्तव में परिपक्व नहीं था। मेरे परिवार ने भी कम से कम मेरे जन्म के बाद कभी किसी बकरे की बलि नहीं दी। सुनने में आया है कि अब भी कुछ परिवार बकरे की बलि देते हैं। शिक्षित लोग ऐसा कर रहे हैं। अफसोस। शायद वे मां दुर्गा, जिसका एक रूप नंदा देवी है, को समझ ही नहीं पाये। (पढ़ें देवभूमि में बलि प्रथा : बोलो ना बाबा ना)


कौथीग की असली रंगत होती हैं जलेबी। फोटो सौजन्य : राकेश पंत, नीलांबर पंत। 

       ढ़वाल की अर्थव्यवस्था एक समय मनीआर्डर आधारित थी। पहले तो नौकरी के लिये दिल्ली, देहरादून, मुंबई की तरफ निकले भाई बंधु नंदादेवी के #कौथीग के लिये अपनी छुट्टियों को विशेष रूप से बचाकर रखते थे। अब कौथीग की रौनक पहले की तरह नहीं रही। अब न तो दुकानें सजती हैं और ना ही कोई छुट्टियां लेकर जाता है। मुझे खुद याद नहीं है कि मैं आखिरी बार कब नंदा देवी कौथीग गया था। असल में गढ़वाल से पलायन करने वाले हम जैसे 'भगोड़ों' के कारण ही कौथीगों की रौनक कम हुई है।
    बहरहाल आज मेरे गांव में नंदा देवी का कौथीग है। मैं दिल्ली में बैठकर ही इस कौथीग से बचपन से जुड़ी यादों को ताजा कर रहा हूं। आप भी जरूर बताईये अपने गांव या क्षेत्र के कौथीगों के बारे में। जय नंदादेवी। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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शनिवार, 4 जुलाई 2015

चलो भैजी कौथिग जौंला

     चपन में जब कौथिग की बात आती थी तो मेरे लिये इसका मतलब अपने गांव की कुलदेवी नंदादेवी, पास में स्थित जणदादेवी, माध्योसैण या फिर ईसागर यानि एकेश्वर के कौथिग तक सीमित था। असल में तब ये कौथिग हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा हुआ करते थे और हम इनका बेसब्री से इंतजार करते थे। पहनने को नये कपड़े मिलते थे और इन कौथिग यानि मेलों में सीटी, बांसुरी खरीदने से लेकर जलेबी खाने और बर्फ की आईसक्रीम चूसने का मौका मिल जाता था। कोई दूर का रिश्तेदार मिल जाता तो जेब में दस . बीस पैसे या ज्यादा हुआ तो चवन्नी, अठन्नी डालकर चला जाता तो उसके लिये मन में इज्जत बढ़ जाती थी। नंदादेवी और जणदादेवी कौथिग के लिये हम पांच . दस पैसे इकट्ठा करके रखते थे। जेब में यदि चार . पांच रूपये होते तो कौथिग का आनंद दुगुना हो जाता था। यह 70 और 80 के दशक का किस्सा है जब मैं गांव की संस्कृति और समाज में अपना बचपन बिता रहा था। कौथिग आज भी होते हैं लेकिन दुनिया का डिजिटलीकरण होने के बाद मुझे नहीं लगता कि पहाड़ का आज का बच्चा इन मेलों को लेकर उतना ही उत्साहित होगा जितना कभी मैं या मेरी पीढ़ी के लोग या मेरे से पहले के बच्चे हुआ करते थे। कभी इन कौथिगों में जनसैलाब उमड़ पड़ता था। मैंने देखा है जणदादेवी और एकेश्वर में तिल रखने की जगह तक नहीं बचती थी लेकिन अब ऐसा नहीं है। कौथिग के दिन एकेश्वर के डांडों में लोगों की भीड़ अब महज कल्पना है।
जणदादेवी कौथिग का विहंगम दृश्य। फोटो .. श्री दीनदयाल सुंद्रियाल
     चपन में एक गीत भी सुना था 'गौचरा को मेला लग्यूं च भारी, मेला म अयीं ह्वेली दीदी, भुली स्याली ....'।  गौचर का मेला एक व्यावसायिक मेला था जिसकी शुरूआत 1943 में हुई थी लेकिन देवभूमि उत्तराखंड में अधिकतर मेले किसी देवस्थल से संबंध रखते हैं। किसी भी देवी या देवता के मंदिर के पास किसी नियत तिथि को कौथिग लगता है। इस तरह से कौथिग में धार्मिक कार्यों के अलावा लोगों को अपने सगे संबंधियों से मिलने और वर्ष भर की अपनी खट्टी मीठी यादों को साझा करने का मौका मिलता था। कोई बेटी अपने मां पिताजी, भाई बहन और गांव वालों से मिलने के लिये इन कौथिगों का बेसब्री से इंतजार करती थी। इसलिए अक्सर कौथिगों में शा​म को विछोह का एक मार्मिक दृश्य भी पैदा हो जाता था। किसी भाग्यशाली बेटी को कौथिग के ​बहाने अपने मायके एक दो दिन बिताने के लिये मिल जाते थे। उसके चेहरे की खुशी यहां पर शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती है। इस तरह की खुशी और पीड़ा की कल्पना आज की 'मोबाइल पीढ़ी' नहीं कर सकती है।
    कौथिग किसी धार्मिक स्थल पर ही लगने का मतलब था कि जाते ही सबसे पहले देवी या देवता को भेंट चढ़ाना। एक पैसे से लेकर दस पैसे तक। कोई सवा रूपया भी रख लेता था। हमें यही कहा जाता था कि जब तक भेंट नहीं चढ़ायी तब तक कौथिग में कुछ खाना पीना नहीं। एक गलत परंपरा भी इन कौथिगों से जुड़ी थी और वह थी पशुबलि देने की। अमूमन बकरों की बलि दी जाती थी। यदि 'अठवाण' होती तो भैंसे की बलि भी दी जाती। मेरे लिये बचपन यह कौथिगों का नकारात्मक पहलू रहा। इधर बकरे का सिर धड़ से अलग होता और दूसरी तरफ लोगों में उसके रक्त का टीका लगाने की होड़ मच जाती। खुशी इस बात की है कि धीरे धीरे लोगों में जागरूकता आयी है और अब कई कौथिगों में बलि प्रथा लगभग समाप्त हो गयी है। कौथिगों में ढोल, दमाउ, हुड़का, डौंर, रणसिंघा आदि बजाये जाते हैं। ढोल की थाप पर यूं कहें कि कौथिगों में पांडव नृत्य या​नि पंडौं पर तो अच्छे खासों के पांव थिरकने लगते थे। कुछ लोगों के शरीर में देवी देवताओं का प्रवेश भी इन कौथिगों का एक हिस्सा रहा है।
   कभी उत्तराखंड के हर गांव में कौथिग होता था। अमूमन इनकी शुरूआत बैशाखी के दिन से होती थी और सितंबर अक्तूबर तक इन सीजन रहता था। अब इनकी संख्या घट गयी है। इसके बावजूद कई कौथिग आज भी उत्तराखंड की पहचान है। इनमें गौचर मेला, श्रीनगर का बैकुंठ चतुर्दशी मेला, उत्तरकाशी का माघ मेला, कोटद्वार के कण्वाश्रम में लगने वाला बसंत पंचमी मेला, अल्मोड़ा का नंदादेवी मेला, बागेश्वर का उत्तरायणी मेला, लोहाघाट का देवीधूरा मेला, टनकपुर का पूर्णागिरी या कालसन मेला, भीमताल में लगने वाला हरेला मेला, काठगोदाम के पास जियारानी का मेला, मुंडणेश्वर का मेला आदि प्रमुख हैं। अकेले पौड़ी गढ़वाल में ही 50 से अधिक बड़े कौथिग लगते हैं। इनमें मुंडणेश्वर, एकेश्वर, जणदादेवी, सल्ट महादेव, अदालीखाल, बिनसर, देवलगढ़, कौड़िया लैंसडाउन का ज्यूनि सेरा का मेला, ताड़केश्वर, संगलाकोटी, देवराजखाल, गिंदी कौथिग, बुंगी कौथिग, नैनीडांडा, रिखणीखाल, बेदीखाल, बीरौंखाल, घंडियाल, नयार घाटी का सत्यवान साबित्री मेला, दीवा मेला, कांडई कौथिग, दनगल (सतपुली), कांडा, थैलीसैण, बैंजरों, लंगूरगढ़ी, डांडा नागराज का कौथिग आदि प्रमुख हैं।

शनिवार, 3 जनवरी 2015

प्यारू प्यारू गांव म्यारू स्योली

                                धर्मेन्द्र मोहन पंत 

गांव स्योली। सावन में हरियाली का आवास। फोटो सौजन्य : बिजेंद्र मोहन पंत 

    यह मन बड़ा चंचल होता है। इसलिए तो कभी यह खाल्यूंधार, कभी बिरकंडी, कभी ढौंरी, कभी खांडा, कभी रौताबूण तो कभी बाण्यूंछाल घूमता रहता है। गढ़वाली में इसके लिए एक शब्द है बड़ा प्यारा सा। 'डबका' इसलिए आप कह सकते हैं कि यह मन जब तब मेरे गांव स्योली के उन तमाम जगहों पर डबका लगाता रहता है जहां मैंने अपना बचपन और किशोरावस्था बितायी। सच कहूं तो इस मन का ठौर नहीं है यह कभी जणदादेवी, कभी नौगांवखाल, कभी चौबट्टाखाल, कभी एकेश्वर की खाक भी छान मार आता है। इसका कोई कसूर नहीं है दोस्तो इस मन का असली ठिकाना वहीं है और इसलिए यह कभी दिल्ली, भोपाल, देहरादून, हैदराबाद किसी भी शहर से दिल नहीं लगा पाया। यह मन होता भी तो एक विशाल वाहन है। बिजली से भी तेज गति से दौड़ने वाला वाहन। फिलहाल यह मन एक जगह पर कें​द्रित है। उस स्थान का नाम है स्योली।
         
गांव में जाने का रास्ता
        उत्तराखंड के पौड़ी गढवाल जिले का एक गांव है स्योली। कोटद्वार से सतपुली होते हुए एकेश्वर या पाटीसैण किसी भी रास्ते जणदादेवी से होकर स्योली गांव पहुंचा जा सकता है। बहुत बड़ा क्षेत्रफल है स्योली गांव का। पणखेत ब्लाक से लेकर दूर बौंदर गांव के करीब तक दुगदन तक। दुगदन मतलब जहां पर दो गदेरे यानि छोटी नदियां मिलती हैं। इतनी बड़ा क्षेत्र की पहाड़ में कई जगह इतने क्षेत्रफल में पांच छह गांव बसे हैं। घाटी में बसा है यह गांव।
      पहाड़ में पानी की कमी रही लेकिन स्योली के लोग हमेशा इस मामले में भाग्यशाली रहे। इसलिए कभी कहा जाता था, ''बाईस कूल वीं स्योली रैगे'' यानि स्योली में 22 छोटी छोटी नहरें हैं। अब भी वहां पानी की कोई कमी नहीं है। गांव का अपना पंदेरा है। गांव के नीचे गदेरा है जिसमें पर्याप्त मात्रा में पानी रहता है। गांव के ऊपर दो टंकियां बनी हैं जहां गांव के अपने जंगल बूढ़ाख्यात के नीचे वाले गदेरे और खरका के रौल (रौल भी छोटी नदी के किसी स्थान के लिये ही उपयोग किया जाता है) से पानी आता है।
गांव का एक विहंगम दृश्य
     पहाड़ के अन्य गांवों की तरह पलायन की मार स्योली भी सह रहा। इसका असर सीधे सीधे खेती पर भी पड़ा था। कभी यहां ढौंरी से लेकर खरका और खाल्यूधार से लेकर थमतोली तक खूब खेती होती है। हर चीज की खेती। धान, गेंहू, कोदा (मंडुआ) विभिन्न तरह की दालें। अब अधिकतर जमीन बंजर पड़ती जा रही है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के नये युग में प्रवेश करने का असर है। गांव में कभी 100 से अधिक परिवार रहते थे लेकिन बढ़ने के बजाय इनकी संख्या घट रही। कोटद्वार, देहरादून, दिल्ली, मुंबई जाकर बस गये हैं स्योली वाले भी। अब उदाहरण के लिये मेरा ढिसख्वाल (ख्वाल यानि गांव का छोटा सा हिस्सा) लगभग जनशून्य हो चुका है। इसके लिये हम ही दोषी हैं।

नंदादेवी का मंदिर 
       


        स्योली गांव में सबसे अधिक पंत जाति के लोग रहते हैं। पहाड़ में पंत महाराष्ट्र से आये। वे कुमांऊ में बसे। वहीं अल्मोड़ा में एक गांव है फल्दकोट। वहां से वर्षों पहले कोई पंत आकर स्योली गांव में बस गया था। हम सब उन्हीं की संताने हैं। नंदादेवी हमारी कुलदेवी है जिसका मंदिर गांव के सबसे ऊपर शिख्रर पर है। नंदादेवी का छोटा मंदिर गांव के बीच चौंर में भी है। इसके अलावा महादेव का पुराना मंदिर भी गांव से थोड़ी दूरी पर स्थित है। कभी इस मंदिर में महात्मा रहा करते थे लेकिन अब उसकी देखभाल गांववाले ही करते हैं। पंत जाति के अलावा स्योली में जुयाल, डिमरी, पसबोला,
भगवान शिव (महादेव) का मंदिर माध्यो। 
बमोला, बिंजोला, चतुर्वेदी, खंतवाल, धसमाणा, जैरवाण आदि जातियों के लोग भी रहते हैं। गांव में कई ख्वाल हैं जैसे कि ढिसख्वाल, मैल्याख्वाल, धरगांव, पंदरैधार, चौंर आदि। मुख्य गांव से दूर भी कुछ परिवार बसे हुए हैं। गांव में ही उसे नाम दिया गया मैल्यागांव।
     मेरे बड़े भाई  जितेंद्र मोहन पंत  ने  सत्तर के दशक के आखिर में स्योली गांव पर एक गीत लिखा था। उसकी कुछ पंक्तियां यहां दे रहा हूं ...
    प्यारू प्यारू गांव म्यारू स्योली
       जन ब्या मा ब्योली। 

    नंदा कु मंदिर पावन,
       शिवमंदिर जख महान,
          देवतौं कु जख हूंद सम्मान,
             धार्मिक गांव म्यारू स्योली
                 जन ब्या मा ब्योली।

                            जात्यूं कु जख नीच अंत,
                               पर बंड्या कै रंदीन पंत,
                                  जौंकि महानता अनंत,
                                      कन भानि की जात या होली,
                                          जन ब्या मा ब्योली।
गांव का घर


 आपका धर्मेन्द्र पंत

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