गांव की कुलदेवी नंदादेवी का मंदिर। फोटो : नीलांबर पंत |
गांव से नंदादेवी मंदिर की तरफ आती जात्रा और मंदिर के अंदर का दृश्य। फोटो : राकेश पंत |
बचपन में तो हम महीने भर पहले से कौथीग के बारे में सोचना और उसको लेकर योजनाएं बनानी शुरू कर देते थे। जो सबसे नयी पोशाक (भले ही वह साल भर पुरानी क्यों न हो) होती थी कौथीग के लिये उसे अच्छी तरह से तैयार करते थे। कभी कभी ऐसा भी होता था कि कौथीग के लिये नये कपड़े भी बन जाते थे। कौथीग हो और नये कपड़े हों तो उस खुशी को यहां शब्दों में बयां करना मुश्किल है। जब प्राइमरी में पढ़ते थे तो हमारे स्कूल से नंदादेवी का मंदिर दिख जाता था। दूर से ही सही लेकिन हम वहां की हलचल का आकलन लगा लेते थे। गुरूजी भी हमारी उत्सुकता समझते थे और इसलिए उस दिन जल्दी छुट्टी कर देते थे। जब राजकीय इंटर कालेज नौगांवखाल गये तो परिस्थिति बदल गयी। यहां समय पर ही छुट्टी होनी थी और तब ऐसे भी मौके आते थे जबकि हम स्कूल ड्रेस में ही कौथीग चले जाते थे। या तो फिर जल्दी घर पहुंचकर नये कपड़े पहने और फिर मिनटों में लगभग एक . डेढ़ किमी की खड़ी चढ़ाई चढ़कर कौथीग पहुंच जाते थे। हमें कौथीग के लिये एक रूपया मिलता था। अगर पिताजी के बजट में संभव हुआ तो कभी कभी दो रूपये भी हाथ में आ जाते। कभी कभार तो अठन्नी चवन्नी से भी काम चलाना पड़ता था। पैसा हालांकि उत्साह कम नहीं करता था। मुझे याद है कि बचपन में मैंने एक बार मां के सामने बांसुरी खरीदने की जिद कर ली थी। मां पहले मनाती रही लेकिन आखिर में उन्हें मेरी जिद के आगे झुकना पड़ा। उनके पास जो थोड़े बहुत पैसे रहे होंगे उनसे मेरी बांसुरी आ गयी। मैं तो खुश था कृष्ण कन्हैया बनकर लेकिन यह मुझे वर्षों बाद अहसास हुआ था कि मेरी बांसुरी के लिये शायद मां ने तब अपनी 'टिकुली बिंदुली' का त्याग किया होगा। मां ऐसी ही होती हैं।
इस चित्र से मेरे गांव, मेरे प्राइमरी स्कूल और नंदादेवी मंदिर की स्थिति का पता लगाया जा सकता है जिसका जिक्र यहां किया गया है। |
नंदादेवी कौथीग की तैयारी गांव में भी एक दिन पहले से शुरू हो जाती हैं। नंदादेवी का एक मंदिर गांव में चौंर (चौंरा, चौपाल) में भी है। वहां पर पूजन के बाद शाम को नंदादेवी की जात्रा (हम जात बोलते थे) निकलती है। ढोल, दमाउ, हुड़का, डौंर, रणसिंघा आदि वाद्ययंत्रों चारों तरफ गूंजती आवाज से पता चल जाता था कि जात्रा अभी कहां पर है। रात गहराने तक शिखर पर स्थित #नंदादेवी मंदिर में पूजन होता है और फिर वापस घर लौट आते हैं। गांव से लेकर इधर उधर के दुकानदार भी एक दिन पहले से तैयारी शुरू कर देते थे इसलिए मंदिर के पास रात भर रौनक रहती थी। अगले दिन भी दोपहर के बाद गांव से जात्रा निकलती है और उसके पहुंचने पर ही असली कौथीग शुरू माना जाता है। कौथीग जाने पर सबसे पहला काम होता है मंदिर में भेंट चढ़ाना। जब तक भेंट नहीं चढ़ाई तब तक मेले से कुछ नहीं खाना। एक रूपया जेब में हो तो पांच या दस पैसे भेंट में चढ़ा दिये और बाकी बचे पैसों से कुछ खा पी लिया। शाम को घर लौटते वक्त सभी की जुबान पर कौथीग के किस्से होते। इसके बाद इंतजार शुरू हो जाता अगले साल के तीन सितंबर का।
कौथीग की रंगत होते हैं ढोल दमौ और डौंर थाली। फोटो सौजन्य : राकेश पंत, विपित पंत |
नंदादेवी कौथीग में मुझे बचपन से ही बकरों की बलि देना अखरता था। कोई परिवार मनौती रखता और फिर बकरे की बलि देता। बकरा कट जाता तो उसके खून की तिलक सब अपने माथे पर लगाते। बड़ा अजीब प्रचलन। मैं बचपन से इसका विरोध करता रहा। शायद यह विरोध स्वाभाविक था क्योंकि जब से मैंने इसका विरोध किया तब वास्तव में परिपक्व नहीं था। मेरे परिवार ने भी कम से कम मेरे जन्म के बाद कभी किसी बकरे की बलि नहीं दी। सुनने में आया है कि अब भी कुछ परिवार बकरे की बलि देते हैं। शिक्षित लोग ऐसा कर रहे हैं। अफसोस। शायद वे मां दुर्गा, जिसका एक रूप नंदा देवी है, को समझ ही नहीं पाये। (पढ़ें देवभूमि में बलि प्रथा : बोलो ना बाबा ना)
कौथीग की असली रंगत होती हैं जलेबी। फोटो सौजन्य : राकेश पंत, नीलांबर पंत। |
गढ़वाल की अर्थव्यवस्था एक समय मनीआर्डर आधारित थी। पहले तो नौकरी के लिये दिल्ली, देहरादून, मुंबई की तरफ निकले भाई बंधु नंदादेवी के #कौथीग के लिये अपनी छुट्टियों को विशेष रूप से बचाकर रखते थे। अब कौथीग की रौनक पहले की तरह नहीं रही। अब न तो दुकानें सजती हैं और ना ही कोई छुट्टियां लेकर जाता है। मुझे खुद याद नहीं है कि मैं आखिरी बार कब नंदा देवी कौथीग गया था। असल में गढ़वाल से पलायन करने वाले हम जैसे 'भगोड़ों' के कारण ही कौथीगों की रौनक कम हुई है।
बहरहाल आज मेरे गांव में नंदा देवी का कौथीग है। मैं दिल्ली में बैठकर ही इस कौथीग से बचपन से जुड़ी यादों को ताजा कर रहा हूं। आप भी जरूर बताईये अपने गांव या क्षेत्र के कौथीगों के बारे में। जय नंदादेवी। आपका धर्मेन्द्र पंत
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गांव में बचपन में मेले जाने के लिये उत्सुकता या खुशी इतनी होती थी कि उससे ज्यादा की अनुभूति जीवन में किसी बात की नहीं हुई । दो चार दिन पहले ही मन में एक उमंग सी जाग जाती थी कि मेले जाना है । नये कपडे ; नये जूते ; बेल्ट ; चश्मे की तैयारी करते थे । और अगर किसी के पास हाथ घडी होती थी तो वह अपने पर चार चांद लगा महसूस करता था ।
जवाब देंहटाएंगांव वालों के साथ टोली बनाकर मेले पहुंचकर बांसुरी ; सीटी ; प्वींबाजा की आवाज से और आनंद आता था । फिर लट्ठमार : एक तरह का खेल : ; रिंग फेंकना ; आदि मनोरंजक खेल का आनंद । और गरम .गरम जलेबी तो मेले की शान होती थी खुद खाना और घरवालों के लिये ले जाना । इन्हीं यादों के साथ ....
गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा .