पहाड़ और पहाड़ से जुड़ी कविताओं, लोकगीत और लोकनृत्य। उत्तराखंड की संस्कृति और लोकजीवन को उजागर करने वाली कविताओं या लोकगीत या लोकनृत्यों के बारे में जानकारी को यहां पूरा सम्मान दिया जाएगा। इन विषयों पर आपकी कविताएं भी सादर आमंत्रित हैं।
... यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल
.. पहाड़ी जीवन का सार है 'वूं मा बोलि दे'
.. उत्तराखंड आंदोलन का जनगीत
.. गढ़वाली कविता : निर्धन कु शोषण किलै कि च
... भगवान शिव को रिझाने के लिये मां पार्वती ने किया था 'चौंफुला'
... याद आता है वो बचपन
... गढ़वाल की सांस्कृतिक धरोहर 'रम्माण'
.... बसंत
.... सावन की याद, नेगी जी के गीतों के साथ
... विनती
.... रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' : प्रेमचंद भी थे जिनके प्रशंसक
.... सुमित्रानंदन पंत और उनकी कुमांउनी कविता
.... गढ़वाली शादियों में गीत—गाली
.... यह जन्मभूमि, यह मातृभूमि इसमें जल्दी आ
..... हाँ,हाँ वी खाडू छौं मी
.... नवयौवनाओं को समर्पित गीत है थड़िया
---- ढोल सागर का रहस्य (1)
... यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल
.. पहाड़ी जीवन का सार है 'वूं मा बोलि दे'
.. उत्तराखंड आंदोलन का जनगीत
.. गढ़वाली कविता : निर्धन कु शोषण किलै कि च
... भगवान शिव को रिझाने के लिये मां पार्वती ने किया था 'चौंफुला'
... याद आता है वो बचपन
... गढ़वाल की सांस्कृतिक धरोहर 'रम्माण'
.... बसंत
.... सावन की याद, नेगी जी के गीतों के साथ
... विनती
.... रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' : प्रेमचंद भी थे जिनके प्रशंसक
.... सुमित्रानंदन पंत और उनकी कुमांउनी कविता
.... गढ़वाली शादियों में गीत—गाली
.... यह जन्मभूमि, यह मातृभूमि इसमें जल्दी आ
..... हाँ,हाँ वी खाडू छौं मी
.... नवयौवनाओं को समर्पित गीत है थड़िया
---- ढोल सागर का रहस्य (1)
रचना -- स्वर्गीय डा गोविन्द चातक ( जन्म - 1933,- लोस्तु , बडियार गढ़ , टिहरी गढ़वाल )
जवाब देंहटाएंPoetry by - Dr Govind Chatak
( विभिन्न युग की गढ़वाली कविताएँ श्रृंखला )
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इंटरनेट प्रस्तुति और व्याख्या - भीष्म कुकरेती
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आज अंख्यों मा रूप कैको जोन्याळी सी छाये ,
फेर बाडळी बणीक कुई आज मैं मू -सी आये।
ऐंन आँसुन भीजीं कैकी द्वी आंखी वो गीली ,
फ्यूंळी की पाँखुड़ी सी , मुखड़ी स्या कैकी पीली।
फफरांदा होंठ ऐन वो लाज से जना झुक्यां ,
प्यार का वो बोल ऐन मुख मा ही रुक्यां।
सुखी गाड -सी मेरी जळी जिकुड़ी ऐंच ,
सौंण की रोंदेड़ कुयेड़ी या कैन बुलाये ?
डूबी गैन अँध्यारा मा डांडी-काँठी भरेण लैगे उदासी ,
मेरी ही तरौं लटकिगे पीठ फेरीक सूरज सो प्रवासी।
फूलूं की पंखुड्यों की सेज मा देख बथौं यो ओंगण लैगे ,
निराशेक कैकी जाग मा थकीक विचारी जोन स्यैगे।
सुपिनों मा खोयेगी जिकुड़ी स्यां स्यां कर्दी गाड की ,
अगास की अंग्वाळ मा सर्किगे धरती ब्यौली सी लाड की।
जिंदगी छळेन्दी औणी छ जनो ओडार को -सी घाम।,
मैं कू तेरी याद लीक कनी या अँध्यारी रात आये।
चातक जी का साहित्य के प्रति समर्पण का भाव मुझे भी देखने को मिला तब हम पंजाबी बाग मे रहते थे ताऊ जी ऱाजधानी कालेज जाते थे केवल कलम ओर किताब का रिश्ता
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