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गुरुवार, 28 सितंबर 2017

गढ़वाली शादियों में गीत—गाली

पहाड़ी शादियों में मुख्य तौर पर बारात पहुंचने, धूलि अर्घ, गोत्राचार और बेदि के समय मांगल गीत के साथ गाली गीत भी गाये जाते हैं।  
     पिछले दिनों  मैंने फेसबुक पर गाली को लेकर एक पोस्ट लिखी थी। गाली क्यों दी जाती है कई टिप्पणियां मिली थी। इनमें से एक टिप्पणी मेरे मित्र प्रकाश पांथरी की थी। उन्होंने लिखा था, ''यह निर्भर करता है कि गाली को किस तरह से लिया जाए .... शादियों में भी हमने वधु पक्ष की तरफ से वर पक्ष का गालियों से स्वागत करते हुए देखा है। यह परंपरा है हमारे यहां। धर्मी (धर्मेन्द्र) समझ गया न मैं क्या बात कर रहा हूं।'' 
     प्रकाश की इस टिप्पणी ने वास्तव में पुराने दिनों की यादें ताजा कर दी। यह सत्तर और अस्सी के दशक की बात है जब लड़की की शादी में गांव की उसकी सहेलियां वर पक्ष के लोगों को गाली (गढ़वाली में गाळि) देती थी। ऐसी गाली जिसको सुनकर वर पक्ष के लोगों के चेहरों पर गुस्सा नहीं बल्कि मुस्कान तैर जाती। प्यार और छेड़खानी से भरी चुटीली गालियां जो गीत के रूप में दी जाती हैं। स्वर एक लय में बहता है, जिसमें शरारत और हास्य छिपा होता है। गढ़वाली से लेकर हिन्दी में गालियां देने का प्रचलन रहा है, लेकिन अधिकतर गालियां स्थानीय भाषा में ही होती हैं। दूल्हे से लेकर, दूल्हे के पिता, वर पक्ष के पंडित, दूल्हे के साथियों हर किसी के लिये शादी की विभिन्न परंपराओं के अनुसार दी जानी वाली गालियां। क्रोध में दी गयी गालियों में प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाया जाता है लेकिन शादी में दी जाने वाली गालियां उमंग और अनुराग में दी जाती हैं तथा यह आपकी आपसी घनिष्ठता और प्रेम की प्रतीक होती हैं। दूल्हा और दुल्हन पक्ष एक दूसरे से अमूमन अजनबी होते थे और एक समय इस अजनबीपन को दूर करने में अहम भूमिका निभाती थी गालियां। उत्तराखंड ही नहीं पूरे भारतवर्ष में बैशाखी और विजयादशमी के दिन बहुत शादियां होती हैं। मतलब अब शादियों का मौसम आ गया है तो फिर देर किस बात की। आज 'घसेरी' में चर्चा करते हैं गढ़वाल की शादियों में जाने वाली प्यार से भरी गालियों की। 
       उत्तराखंड ही नहीं भारत वर्ष के कई प्रांतों में शादियों में मजाक में गालियां देने की परंपरा है। हर जगह महिलाएं ही गाली देती हैं। एक तरह से वह इन गालियों के जरिये अपने मन की भड़ास भी निकालती हैं। शादियों में मजाक में गालियां देने की परंपरा तो सदियों पुरानी है। यहां तक कि भगवान राम जब बारात लेकर मिथिला गये तो वहां सीता की सहेलियों और अन्य महिलाओं ने दूल्हे राम से भी चुहलबाजी की थी। कुछ इस तरह से 'दशरथ गोरा, कौशल्या गोरी, फिर आप काले क्यों हो गये .....।' मिथिलांचल में अब भी शादियों में गाली देने परंपरा है। वहां अक्सर निशाने पर समधी यानि दूल्हे का पिता होता है। मसलन 'चटनी चूरी, चटनी पूरी, चटनी है लंगूर की। खाने वाला समधी मेरा, सूरत है लंगूर की।'' 


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      ब मैं फिर से गढ़वाल की शादियों में दी जाने वाली गालियों की बात आगे बढ़ाता हूं। दूल्हे के लिये सालियों की गालियां तो बारात के स्वागत से ही शुरू हो जाती हैं। कहा भी जाता है कि साली की गाली हमेशा मीठी होती है तो फिर बुरा किसे लगेगा। बारात आने पर विवाह की पहली परंपरा धूळि अर्घ यानि धूलि अर्ग्य होता है जिसमें वधू का पिता वर और वर पक्ष के ब्राह्मण का आदर सत्कार करता है। यहां पर दूल्हा, दूल्हे का पिता और उसके पक्ष का पंडित इन गाली गीतों में निशाने पर होते हैं। वैसे इस तरह की गालियां विवाह प्रक्रिया के किसी भी मौके पर जैसे कि धूलि अर्घ, गोत्राचार, बेदि (विवाह मंडप) के समय दी जाती हैं। हम यहां पर सबसे पहले दूल्हे के पिता और बामण को दी जाने वाली गालियों पर गौर करते हैं। 
     अगर दूल्हे के पिता नजर नहीं आ रहे हों या वर पक्ष का पंडित पहुंचने में देरी कर रहा हो तो फिर गालियों से उनका पूजन होने में देर नहीं लगती। 
      हमारा गांऊ कुकर भुक्युं च, ब्यौला कु बुबा कुणेठु लुक्यूंच
      हमारा गांऊ कुकर भुक्युं च, ब्यौला कु बामण उबुर लुक्यूंच
                     या
      हमारा गौं म माचिस कु डब्बा, ब्यौला कु बामण ब्यौला कु बबा। 
अगर दूल्हे के पिता ने अनसुनी कर दी तो फिर गाली गीत गाने वाली महिलाएं कहां चुप बैठने वाली होती हैं। 
      हमारा गौं मा डाळ बैठो गूणी, 
      ब्यौला क बुबा टक्क लगैकि सूणी। 
    और अगर दूल्हे के पिता ने मजाक में भी मुंह खोल दिया तो फिर तब भी बेचारे की खैर नहीं। कुछ इस तरह ....
        हमर गौ मा खिनो कु खांभ, ब्यौला का बुबा थ्वरड़ो सि रांभ। 
     मूंछ को मर्द की शान माना जाता है और अगर दूल्हे के पिता के मूंछ नहीं तो इसके लिये भी उन्हें चिढ़ाया जाता है। एक बानगी देखिये। 
     हमारा गौं मा आयु च घाम, ब्यौला का बुबा का जूंगा नी जाम। 
     जमणो को जामी छयो जाम, ब्यौला की फूफून मुछ्यालून डाम।। 
    वर पक्ष की तरफ से विवाह संपन्न कराने वाले पंडित जी ने थोड़ी चूक या ज्यादा होशियारी दिखायी कि उसे वहीं पर टोक दिया जाता है। कुछ इस तरह से .... 
      छि भै ब्यौला तु बामण नि ले जाणु रे.....। 
    इस बीच वधू पक्ष के गांव के लड़कों का काम होता है कि वे बारातियों का आदर सत्कार करें। दूल्हे के दोस्त भी इन गालियों का जवाब अपनी तरफ से देने की भी कोशिश करते हैं, लेकिन लड़कियों के सामने उनकी क्या बिसात। लड़कों का मुंह खुला कि लड़कियां इस तरह से तैयार कि लड़कों की चाय की चुस्की मुंह में अटक के रह जाए ..... 
       आलू काटे, बैंगन काटे, आलू की तरकारी जी
       हमर भयूं न चाय बणायी कुकुरू न सड़काई जी।
      इस बीच दुल्हन की सहेलियां दू्ल्हे की बहनों का नाम जानने की भी कोशिश करती थी ताकि वे दीदी भुलि कहने के बजाय नाम लेकर दूल्हे का गाली दे सकें। अब तो महिलाएं भी शादियों में जाती हैं लेकिन पहले ऐसा कम देखने को मिलता था। स्वाभाविक है समय के साथ गालियों का स्वरूप भी बदला है। अब इस गाली को ही देखिये.... 
         हमारा गौं म बसि जाली कुकड़ी, ब्यौला की भुलि लगणि छ मकड़ी। 
     ब तो गांवों में भी दिन दिन की शादियां होने लगी हैं। वरमाला का चलन चल पड़ा है इसलिये धूलि अर्घ को ज्यादा समय नहीं दिया जाता। बेदि भी आनन फानन में ही निबटा दी जाती है। पहले रात घिरने पर बारात दुल्हन के घर पहुंचती थी। बारातियों का आदर सत्कार होता था और फिर रात भर महफिल जमती थी। अधिकतर रात में ही या सुबह की बेला में गोत्राचार संपन्न होता था और फिर दिन में दस बजे के बाद किसी भी समय बेदि। यह इस पर निर्भर करता था कि बारात कितने दूर से आयी है। अनुराग और उमंग से भरी इन गालियों का असली समां तो बेदि में बंधता था। 
      बेदि में ही सात फेरे भी होते हैं। इस बीच सहेलियां दुल्हन का पूरा हौसला बनाये रखती हैं। 
         शाबाश दगड्या हार न जैई,
          तै ब्यौला का ल्याचा लगैई । 
       दूल्हे का यहां पर गालियों में काफी पूजन होता है। जब वह फेरे ले रहा होता है तो उसे इस तरह से चिढ़ाया जाता है। 
       फ्यारा ​फिरीलो भुलि का दगड़
        फ्यारा ​फिरीलो दीदी का दगड़ । 
                और 
        हमारि दगड्या त देखि कमाल,
         फुुंडु सरक ब्यौला, लाळु संभाल। 
      दूल्हे और दुल्हन को इस बीच कई तरह की रस्में निभायी जाती हैं। एक दूसरे को जूठन खिलाने, अंगूठा पकड़ने, कंगड़ तोड़ने से लेकर दुल्हन के भाई का सुफु में खील डालने तक। इन सभी अवसरों के लिये भी गालियां हैं। अब कंगड़ तोड़ने वाली रस्म को ही लीजिए। इस रस्म में दूल्हे और दुल्हन को एक दूसरे के कंगड़ तोड़ने पड़ते हैं। दुल्हन नहीं तोड़ पाये तो काेई बात नहीं। उसे कैंची सौंप दी जाती थी लेकिन दूल्हे के लिये तो यह नाक का सवाल बन जाता है। आखिर यह उसकी मर्दानगी का सवाल होता है। इसलिए वधु पक्ष वाले दुल्हन के कंगड़ को काफी मोटा और मजबूत बना देते हैं। पहले तो कुछ शादियों में यह भी देखने को मिला जबकि कंगड़ के बीच में लोहे का तार लगा दिया गया। इसके हालांकि दुष्परिणाम भी देखने को मिले। बहरहाल हम कंगड़ तोड़ने के समय दी जाने वाली गालियों की बात करते हैं। 
      दूल्हा जब कंगड़ तोड़ने की कोशिश करता है तो दुल्हन की सहेलियां उसे उकसाती भी हैं और चिढ़ाती भी हैं। 
         तोड़ ब्यौला कंगड़—मंगड़, तेरि भुलि त्वेकु मंगड़ 
         तोड़ ब्यौला कंगड़—मंगड़, तेरि दीदी त्वेकु मंगड़ ।
      बात यहीं पर नहीं रूकती। दूल्हे को वे चुनौती देती हैं और कहती हैं कि अगर कंगड़ नहीं तोड़ पाये तो फिर उसे खाली हाथ ही घर जाना पड़ेगा। 
        तोड़ ब्यौला ब्यौली कु कंगड़, तेरि दीदी त्वेकु मंगड़
        तोड़ि नि सकिलु तेरि हार, वापिस जैलु खालि घार। 
     और इन सबके बीच दुल्हन की मां की तरफ से दूल्हे और उसके पिता से एक आग्रह भी होता है। दुल्हन की मां के इन उदगार को भी गांव की लड़कियां ही बयां करती हैं। 
      छ्वटी बटै कि बड़ि बणाई सैंती पालि की, ईं नौनी थै रख्यां म्यरा समधि संभालि कि,
      छ्वटी बटै कि बड़ि काई सैंती पालि की, ये फूल थै रख्यां म्यरा जवैं संभालि कि ।। 
    उत्तराखंड में जगह चाहे गढ़वाल हो, कुमांऊ या जौनसार विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले गाली गीतों की परंपरा काफी पुरानी है। कभी कभी कुछ लोगों ने इसका विरोध किया लेकिन यह हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं और अगर यह हास्य, प्रेम, अनुराग से जुड़ी हैं तो इनमें मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती। अगर आपको भी इस तरह के कुछ गीत याद हैं तो जरूर साझा करें। 
आपका धर्मेन्द्र पंत
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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

पेशावर कांड का महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली

    च्चीस दिसंबर को दुनिया याद करती है क्रिसमस के लिये। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन भी इसी दिन पड़ता है। वाजपेयी जी को भी याद किया जाता है लेकिन हम स्वतंत्रता के एक महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को भूल जाते हैं जिनका जन्म 25 दिसंबर 1891 को गढ़वाल जिले के ग्राम मासी में हुआ था। चंद्र सिंह गढ़वाली, जिनका मूल नाम चंद्र सिंह भंडारी था, का संक्षिप्त परिचय यही है कि वह बचपन से ही क्रांतिकारी विचारधारा के थे। कोई भी साहसिक कार्य करने से नहीं हिचकिचाते थे। उनका जन्म किसान परिवार में हुआ था। मां पिता की इच्छा के विपरीत वह प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लैंसडाउन में गढ़वाल राइफल्स में भ​र्ती हुए। भारतीय सेना के साथ उन्होंने 1915 में मित्र देशों की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में भी हिस्सा लिया। उन्हें गढ़वाल राइफल्स के अन्य सैनिकों के साथ फ्रांस भेज दिया गया था। लेकिन चंद्र सिंह गढ़वाली से दुनिया का असली परिचय 23 अप्रैल 1930 को हुआ था जब उन्होंने पेशावर में देश की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था। यह एक ऐतिहासिक घटना थी और कहा जाता था कि सुभाषचंद्र बोस ने जब आजाद हिन्द फौज का गठन किया था तो वह चंद्र सिंह गढ़वाली से जुड़ी इस घटना से भी प्रेरित थे। यही वजह थी कि उन्होंने आजाद हिन्द फौज में गढ़वाल राइफल्स के सैकड़ों जवानों को शामिल किया था।
     बहरहाल हम यहां पर बात करेंगे पेशावर कांड की। पहले इससे जुड़ी पृष्ठभूमि की संक्षिप्त जानकारी हासिल कर लेते हैं। यह वह दौर था जब पूर्ण स्वराज्य की घोषणा के बाद देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन चल रहा था। महात्मा गांधी ने 12 मार्च 1930 को डांडी मार्च शुरू कर दिया गया था। इस बीच यह चर्चा भी चल रही थी कि भगत सिंह और उनके साथियों राजगुरू और सुखदेव को फांसी दे दी जाएगी। इससे हर राष्ट्रप्रेमी उद्वेलित था। चंद्र सिंह गढ़वाली भी इनमें शामिल थे लेकिन पेशावर कांड भावनाओं के इस उबाल का परिणाम मात्र नहीं था बल्कि इसकी तैयारी योजनाबद्ध तरीके से की गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली ने 2/18 रायल गढ़वाल राइफल के अपने साथियों को पहले से ही तैयार कर दिया था कि उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिये आवाज उठा रहे पठानों पर गोली चलाने के अग्रेंजो के आदेश को नहीं मानना है। 
    अंग्रेजों को कानों कान खबर न लगे इसके लिये पूरी तैयारी की गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली तथा पेशावर बैरक में हरिसिंह लाइन में रह रहे उनके साथी रात में देश की स्थिति और भावी रणनीति पर बंद कमरे में चर्चा करते थे। अंग्रेजों को कुछ भनक लग गयी थी और इसलिए उन्होंने फूट डालो राज करो की अपनी रणनीति के तहत गढ़वाली सैनिकों को उकसाने का काम भी किया। गढ़वाल राइफल्स के जवानों को बताया गया कि पेशावर में केवल दो प्रतिशत हिन्दू रहते हैं और मुसलमान उन्हें सताते हैं। उनके देवी देवताओं को अपमान करते हैं और इसलिए उन्हें इन मुसलमानों पर गोली चलाने से नहीं हिचकिचाना है। सचाई इससे परे थी और चंद्र सिंह गढ़वाली इससे अच्छी तरह से अवगत थे। उन्होंने अपने साथियों को समझा दिया था कि वे अंग्रेजों की चाल में नहीं फंसे। उनका अपने साथियों को स्पष्ट संदेश था, '' कुछ भी हो जाए हमें अपने भाईयों पर गोलियां नहीं चलानी हैं। ''

''गढ़वालीज ओपन फायर'' का जवाब था ''गढ़वाली सीज फायर''

   पेशावर में 23 अप्रैल 1930 को विशाल जुलूस निकला था, जिसमें बच्चों से लेकर बूढ़ों और महिलाओं ने हिस्सा लिया। स्वाधीनता की मांग कर रहे हजारों लोगों के नारों से आसमान गूंज रहा था तो दूसरी तरफ अंग्रेजों का खून खौल रहा था। 2/18 रायल गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों को भी प्रदर्शनकारियों पर नियंत्रण पाने के लिये भेज दिया गया। इसकी एक टुकड़ी काबुली फाटक के पास निहत्थे सत्याग्रहियों के आगे खड़ी थी। अंग्रेज कंमाडर के आदेश पर इन सभी प्रदर्शनकारियों को घेर दिया गया था। गढ़वाली सैनिकों को जुलूस को बलपूर्वक ति​तर बितर करने के लिये कहा गया। सैनिकों ने प्रदर्शनकारियों से हटने को कहा। वे नहीं हटे। कंपनी कमांडर का धैर्य जवाब दे गया और उसने लगभग चिल्लाते हुए आदेश दिया ''गढ़वालीज ओपन फायर'' और फिर यहां पर चंद्र सिंह गढ़वाली का उदय हुआ। वह कमांडर के पास में ही खड़े थे। उन्होंने कड़कती आवाज में कहा, ''गढ़वाली सीज फायर''। देखते ही देखते सभी राइफलें नीचे हो गयी। अंग्रेज कमांडर बौखला गया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस सैन्य टुकड़ी का वह सर्वोसर्वा है वह उसके हुक्म की अवहेलना करेगी। गढ़वाली सैनिकों का साफ संदेश था कि वह निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां नहीं चलाएंगे। अंग्रेज सैनिकों ने हालांकि बाद में पठानी आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसायी। गढ़वाली सैनिकों से उनके हथियार ले लिये गये। अंग्रेज किसी भी तरह से आंदोलन को कुचलना चाहते थे और इसके लिये उन्हें गढ़वाल राइफल्स से मदद की दरकार थी। इसलिए गढ़वाली सैनिकों को समझाने के प्रयास भी किये गये कि वह निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाने से नहीं हिचकिचाएं लेकिन देश प्रेम से ओत प्रोत गढ़वाली सैनिक टस से मस नहीं हुए। यहां तक कि सभी सैनिकों ने इस्तीफा भी दे दिया था, लेकिन अब अंग्रेज गढ़वाल राइफल्स की इस टुकड़ी से ही बदला लेने के लिये तैयार हो गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली सहित इन सैनिकों को नौकरी से निकाल दिया गया और उन्हें कड़ी सजा दी गयी लेकिन उन्होंने खुशी . खुशी इसे स्वीकार किया। चंद्र सिंह गढ़वाली जेल से छूटने के बाद महात्मा गांधी से भी जुड़े। गांधी जी ने एक बार कहा था कि यदि उनके पास चंद्र सिंह गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश का कब का आजाद हो गया होता। चंद्र सिंह गढ़वाली बाद में कम्युनिस्ट हो गये और सिर्फ उनकी इस विचारधारा की वजह से देश ने इस अमर जवान को वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह असली हकदार थे। एक अक्तूबर 1979 को भारत के महान सपूत ने लंबी बीमारी के बाद दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में आखिरी सांस ली थी। 

भारत सरकार ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के निधन
के बाद उन पर डाक टिकट जारी किया था
    वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने बाद में अपने नाम से गढ़वाली जोड़ा था। उन्हें और उनके साथियों को जब सजा दी गयी तो उन्होंने कहा था कि 'हे गढ़माता हम तेरी इज्जत और शान के लिये अपने प्राण न्यौछावर करने जा रहे हैं।' चंद्र सिंह गढ़वाली अमर हो गये लेकिन हमें उनके उन साथियों को भी याद करने की जरूरत है जिन्होंने हर मोड़ पर पूरी वीरता के साथ अपनी अगुवाई कर रहे इस साथी और गढ़वाल का सिर ऊंचा रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यहां पर चंद्र सिंह गढ़वाली के कुछ साथियों की सूची भी दी जा रही है जिन्हें अंग्रेज सरकार ने सजा दी थी। बैरिस्टर मुकुंदी लाल के प्रयासों से इन सैनिकों को मृत्यु दंड की सजा नहीं मिली लेकिन उन्हें जेल जाना पड़ा था।  

पेशावर कांड में वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के अलावा जिन अन्य वीर सैनिकों को सजाएं हुई उनकी सूची इस प्रकार है ...
1. हवलदार नारायण सिंह गुंसाई, 2. नायक जीत सिंह रावत, 3. नायक भोला सिंह बुटोला, 4. नायक केशर सिंह रावत, 5. नायक हर​क सिंह धपोला, 6. लांस नायक महेंद्र सिंह नेगी, 7. लांस नायक भीम सिंह बिष्ट, 8. लांस नायक रतन सिंह नेगी, 9. लांस नायक आनंद सिंह रावत, 10. लांस नायक आलम सिंह फरस्वाण, 11. लांस नायक भवान सिंह रावत, 12. लांस नायक उमराव सिंह रावत, 13. लांस नायक हुकुम सिंह कठैत, 14. लांस नायक जीत सिंह बिष्ट, 15. लांस नायक सुंदर सिंह बुटोला, 16. लांस नायक खुशहाल सिंह गुंसाई, 17. लांस नायक ज्ञान सिंह भंडारी, 18. लांस नायक रूपचंद्र सिंह रावत, 19. लांस नायक श्रीचंद सिंह सुनार, 20. लांस नायक गुमान सिंह नेगी, 21. लांस नायक माधोसिंह नेगी, 22. लांस नायक शेर सिंह असवाल, 23. लांस नायक बुद्धि सिंह असवाल, 24. लांस नायक जूरासंघ सिंह असवाल, 25. लांस नायक राय सिंह नेगी, 26. लांस नायक दौलत सिंह रावत, 27. लांस नायक डब्बल सिंह रावत, 28. लांस नायक रतन सिंह नेगी, 29. लांस नायक श्याम सिंह सुनार, 30. लांस नायक मदन सिंह नेगी, 31. लांस नायक खेम सिंह गुंसाई।
गढ़वाल के जिन वीर सैनिकों को अंग्रेजों ने कोर्ट मार्शल करके नौकरी से बाहर कर दिया था, उनके नाम इस प्रकार है ...
1. लांस नायक पातीराम भंडारी, 2. लांस नायक पान सिंह दानू, 3. लांस नायक राम सिंह दानू, 4. लांस नायक हरक सिंह रावत, 5. लांस नायक लक्ष्मण सिंह रावत, 6. लांस नायक माधो सिंह गुंसाई, 7. चंद्र सिंह रावत, 8. जगत सिंह नेगी, 9. शेर सिंह भंडारी, 10. मान सिंह कुंवर, 11. बचन सिंह नेगी।
कुछ जवानों की सेवाएं समाप्त कर दी गयी थी। इनकी सूची इस प्रकार है ...
1. सूबेदार त्रिलोक सिंह रावत, 2. जयसिंह बिष्ट, 3. हवलदार गोरिया सिंह रावत, 4. हवलदार गोविंद सिंह बिष्ट, 5. हवलदार प्र​ताप सिंह नेगी, 6. नायक रामशरण बडोला। 

पुनश्च:... मेरे पिताजी श्री राजाराम पंत गढ़वाल राइफल्स में थे और वे बड़े गर्व से वीर चंद्रसिंह गढ़वाली का यह किस्सा सुनाया करते थे। जब 1994.95 में देहरादून में हिमालय दर्पण नामक समाचार पत्र में कार्यरत था तो उत्तराखंड आंदोलन पर एक विशेषांक निकाला गया था। मुझसे भी लिखने के लिये कहा गया और मैंने वीर चंद्रसिंह गढ़वाली पर लेख लिख दिया था। उस विशेषांक के संपादक श्री रमेश पहाड़ी थे। उन्होंने उस लेख को बहुत अच्छी तरह से संपादित किया और उत्तराखंड आंदोलन के उस विशेषांक में भी उसे जगह दी थी। आओ हम सब आज फिर से गढ़वाल के इस महान सपूत को याद करें। आपका धर्मेन्द्र पंत

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गुरुवार, 3 सितंबर 2015

माधोसिंह भंडारी, जो 400 साल पहले बन गये थे दशरथ मांझी

माधोसिंह भंडारी की बनायी सुरंग और गांव में उनकी मूर्ति
   हाड़ को काटकर अपने गांव में सड़क लाने वाले दशरथ मांझी आजकल एक फिल्म के कारण चर्चा में हैं। दशरथ मांझी की जब बात चली तो मुझे अनायास ही माधोसिंह भंडारी याद आ गये जो आज से लगभग 400 साल पहले पहाड़ का सीना चीरकर नदी का पानी अपने गांव लेकर आये थे। गांव में नहर लाने के उनके प्रयास की यह कहानी भी काफी हद तक दशरथ मांझी से मिलती जुलती है। माधोसिंह भंडारी गढ़वाल की कथाओं का अहम अंग रहे हैं। इस महान योद्धा से लोगों का परिचय कराने का 'घसेरी' का यह छोटा सा प्रयास है। योद्धा इसलिए क्योंकि वह माधोसिंह थे कि जिन्होंने ति​ब्बतियों को उनके घर में जाकर छठी का दूध याद दिलाया था तथा भारत और तिब्बत (अब चीन) के बीच सीमा रेखा तय की थी। चलिये तो अब मिलते हैं गढ़वाल के महान सेनापति, योद्धा और कुशल इंजीनियर माधोसिंह भंडारी से, जिनके बारे में गढ़वाल में यह छंद काफी प्रसिद्ध है....
               एक सिंह रैंदो बण, एक सिंह गाय का।
                   एक सिंह माधोसिंह, और सिंह काहे का।।

(यानि एक सिंह वन में रहता है, एक सींग गाय का होता है। एक सिंह माधोसिंह है। इसके अलावा बाकी कोई सिंह नहीं है।)

सौण बाण कालो सिंह का बेटा माधोसिंह 

    माधोसिंह को लेकर कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। इन सबका अध्ययन करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उनका जन्म मलेथा गांव में हुआ था। (कुछ कहानियों में यह भी कहा गया है कि उनकी बहन का विवाह इस गांव में हुआ था जबकि एक किस्सा यह भी कहता है कि मलेथा उनकी ससुराल थी)। मलेथा गांव देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में बसा हुआ है। यह सत्रहवीं सदी के शुरूआती वर्षों यानि 1600 के बाद की बात है जब माधोसिंह का बचपन मलेथा गांव में बीता होगा। उनके पिता का नाम कालो भंडारी था जो स्वयं वीर पुरूष थे। यह कह सकते हैं कि माधोसिंह की रगों में एक योद्धा का खून ही दौड़ रहा था। शुरूआत करते हैं कालो भंडारी से। यह सम्राट अकबर के जमाने की बात है। कहा जाता है कि अकबर, कुमांऊ में चंपावत के राजा गरूड़ ज्ञानचंद और सिरमौर के राजा मौलीचंद की तपोवन के आसपास स्थित उपजाऊ भूमि को लेकर गढ़वाल के राजा मानशाह (1591 से 1610) से ठन गयी थी। ये तीनों इस भूमि में अपना हिस्सा चाहते थे। राजा मानशाह ने उनका आग्रह ठुकरा दिया। दिल्ली दरबार और चंपावत को उनका यह फैसला नागवार गुजरा। दोनों ने युद्धकला में निपुण अपने दो . दो सिपहसालारों को वहां भेज दिया। राजा मानशाह ने कालो भंडारी से मदद मांगी जिन्होंने अकेले ही इन चारों को परास्त किया था। तब राजा ने कालो भंडारी को सौण बाण (स्वर्णिम विजेता) उपाधि दी थी और तब से उनका नाम सौण बाण कालो भंडारी पड़ गया था।
    अब वापस लौटते हैं माधोसिंह भंडारी पर। वह गढ़वाल के राजा महीपत ​शाह के तीन बहादुर सेनापतियों में से एक थे लेकिन इन तीनों (माधोसिंह के अलावा रिखोला लोदी और बनवारी दास) में माधोसिंह ही ऐसे थे जिन्हें गढ़वाल और कुमांऊ के योद्धाओं में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार माधोसिंह ने कुछ समय रानी कर्णावती के साथ भी काम किया था।  कहा जाता है कि एक बार जब वह श्रीनगर दरबार से लगभग पांच मील की दूरी पर स्थित अपने गांव पहुंचे तो उन्हें काफी भूख लगी थी। उन्होंने अपनी पत्नी (एक किस्से के अनुसार भाभी) से खाने देने को कहा तो उन्हें केवल रूखा सूखा खाना दिया गया। जब माधोसिंह ने कारण पूछा तो पत्नी ने ताना दिया कि जब गांव में पानी ही नहीं है तो सब्जियां और अनाज कैसे पैदा होगा? माधोसिंह को यह बात चुभ गयी। रात भर उन्हें नींद नहीं आयी। मलेथा के काफी नीचे अलकनंदा नदी बहती थी जिसका पानी गांव में नहीं लाया जा सकता था। गांव के दाहिनी तरफ छोटी नदी या गदना बहता था जिसे चंद्रभागा नदी कहा जाता है। चंद्रभागा का पानी भी गांव में नहीं लाया जा सकता था क्योंकि बीच में पहाड़ था। माधोसिंह ने इसी पहाड़ के सीने में सुरंग बनाकर पानी गांव लाने की ठानी थी। कहा जाता है कि उन्होंने श्रीनगर दरबार और गांव वालों के सामने भी इसका प्रस्ताव रखा था लेकिन दोनों जगह उनकी खिल्ली उड़ायी गयी थी। आखिर में माधोसिंह अकेले ही सुरंग बनाने के लिये निकल पड़े थे।


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सुरंग बनी पर बेटे की जान गयी 

     माधोसिंह शुरू में अकेले ही सुरंग खोदते रहे लेकिन बाद में गांव के लोग भी उनके साथ जुड़ गये। कहा जाता है कि सुरंग खोदने में लगे लोगों का जोश बनाये रखने के लिये तब गांव की महिलाएं शौर्य रस से भरे गीत गाया करती थी। माधोसिंह की मेहनत आखिर में रंग लायी और सुरंग बनकर तैयार हो गयी। यह सुरंग आज भी इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है और मलेथा गांव के लिये पानी का स्रोत है। इस सुरंग से माधोसिंह के बेटे गजेसिंह का नाम भी जोड़ा जाता है। इसको लेकर दो तरह की कहानियां हैं। पहली कहानी के अनुसार माधोसिंह ने अपनी पत्नी को सख्त हिदायत दे रखी थी कि वह गजेसिंह को उस स्थल पर नहीं आने दे जहां सुरंग खोदी जा रही थी। एक दिन जिद करके गजेसिंह वहां पहुंच गया और पहाड़ से बड़ा सा पत्थर लुढ़ककर उसके सिर पर लगा जिससे उसकी मौत हो गयी। बाद में जब सुरंग में पानी आया तो वह उस जगह तक पहुंचा था जहां पर गजेसिंह की मौत हुई थी। दूसरी कहानी इसके ठीक विपरीत हैं लेकिन इसका जिक्र बहुत कम किस्सों में किया जाता है। कहते हैं कि जब सुरंग बनकर तैयार हो गयी तो काफी प्रयासों के बावजूद भी चंद्रभागा नदी का पानी उसमें नहीं गया। सभी गांववासी परेशान थे। रात को माधोसिंह के सपने में उनकी कुलदेवी प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सुरंग में पानी तभी आएगा जब वह अपने इकलौते बेटे गजेसिंह की बलि देंगे। माधोसिंह हिचकिचा रहे थे लेकिन जब गजेसिंह को पता चला तो वह तैयार हो गया और उसने अपने माता पिता को भी मना लिया। गजेसिंह की बलि दी गयी और पानी सुरंग में बहने लगा।इस दूसरी कहानी के पक्ष में हालांकि कोई ठोस सबूत नहीं है और इसलिए पहला किस्सा ही अधिक मान्य है।
    कहते हैं कि इसके बाद माधोसिंह वापस श्रीनगर आ गये और फिर कभी अपने गांव नहीं लौटे लेकिन उन्होंने गांव को जो सौगात दी उसकी वजह से मलेथा आज भी हरियाली से भरा खुशहाल गांव बना हुआ है।

मौत से पहले तय की थी ​तिब्बत की सीमा

    माधोसिंह को इसके बाद तिब्बती सेना से लड़ने के लिये भेजा गया जो गढ़वाल की तरफ बढ़ रही थी। इसी समय छोटा चीनी युद्ध के दौरान माधोसिंह की मौत हुई थी। इससे पहले हालांकि वह गढ़वाल और तिब्बत (अब भारत और चीन) की सीमा तय कर चुके थे। उनकी मौत को लेकर भी एक किस्सा कहा जाता है जिसका जिक्र महान इतिहासकार पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी ने अपनी पुस्तक 'गढ़वाल का इतिहास' में किया है। कहा जाता था कि तिब्बती सैनिक माधोसिंह के नाम से ही घबराते थे। माधोसिंह ​विजय प्राप्त करते हुए आगे बढ़ रहे थे लेकिन इस बीच रोग लगने से उनका निधन हो गया। अपनी मौत से पहले माधोसिंह ने अपने सेना से कहा कि यदि तिब्बतियों को पता चला कि उनकी मौत हो गयी है तो वे फिर से आक्रमण कर देंगे, इसलिए यह खबर किसी को पता नहीं चलनी चाहिए। पंडित रतूड़ी के अनुसार माधोसिंह ने कहा था, ''लड़ते और पीछे हटते चले जाना और मेरे शव को तेल में भूनकर, कपड़े में लपेट बक्से में बंद करके हरिद्वार ले जाकर दाह करना। ''
    सैनिकों और सरदारों से ऐसा ही किया और हरिद्वार में माधोसिंह का दाह संस्कार करके उसकी सूचना श्रीनगर दरबार को दी। शिवप्रसाद डबराल (उत्तराखंड का इतिहास) और भक्तदर्शन (गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां) ने भी अपनी अपनी किताबों में यह माना है कि माधोसिंह की मौत छोटा चीनी में हुई थी। उनके अनुसार उनकी मौत 1635 में हुई, लेकिन कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध 1640 के बाद लड़ा गया था और माधोसिंह की मौत इसी के बाद हुई थी।
    यह थी गढ़वाल के वीर माधोसिंह की कहानी। आपको भी उनसे जुड़ा कोई किस्सा याद होगा तो जरूर शेयर करें। माधोसिंह से जुड़े कई गीत भी बने हुए हैं। उनको भी नीचे टिप्पणी में साझा करने का निवेदन है। (धर्मेन्द्र पंत)

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गुरुवार, 7 मई 2015

कभी पहाड़ी शादियों की पहचान था सरौं या छोलिया नृत्य

                                      धर्मेन्द्र पंत
  रौं या छोलिया उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक नृत्य है जो वीर रस, शौर्य, श्रृंगार रस, खुशी, गौरव, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और चपलता का प्रतीक है। तलवार और ढाल के साथ किये जाने वाला यह नृत्य युद्ध में जीत के बाद किया जाता था। इस नृत्य में ढोल-दमाऊं की भूमिका अहम होती है। इसके अलावा मसकबीन, नगाड़े, झंकोरा, कैंसाल और रणसिंगा आदि वाद्य यंत्रों का भी उपयोग किया जाता है। एक समय सरौं नृत्य पहाड़ी शादियों का अहम अंग हुआ करता था। अस्सी के दशक तक भी इसका उत्तराखंड में प्रचलन था लेकिन अब यह कला धीरे धीरे खत्म होती जा रही है। पहाड़ों में इसके बहुत कम कलाकार रह गये हैं। किसी समय सरौं या छोलिया इनके कलाकारों का आजीविका का साधन हुआ करता था लेकिन पहाड़ों में आधुनिकता के वास का कुप्रभाव जिन कई लोक परंपराओं पर पड़ा है उनमें सरौं छोलिया नृत्य भी शामिल है।
सरौं नृत्य। चित्र... धर्मेंद्र पंत
   सरौं या छोलिया नृत्य उत्तराखंड के सबसे पुराने नृत्यों में शामिल है। इसे पांडव नृत्य का हिस्सा भी माना जाता है। सरौं या छोलिया के बारे में कहा जाता है कि कोई राजा जब किसी दूसरे राजा की बेटी से जबर्दस्ती विवाह करने की कोशिश करता था तो वह अपने सैनिकों के साथ वहां पहुंचता था जिनके हाथों में तलवार और ढाल होती थी ताकि युद्ध होने की स्थिति में इनका उपयोग किया जा सके। सैनिकों को युद्ध में प्रोत्साहित करने के लिये ढोल दमाऊं, नगाड़े, मसकबीन, तुरही, रणसिंघा आदि का प्रयोग किया जाता था। कुमांऊ में छोलिया के बारे में कहा जाता है कि सबसे पहले राजा सोमचंद के विवाह में यह नृत्य किया गया था। बद्रीदत्त पांडे की पुस्तक 'कुमाऊं का इतिहास' में कहा गया है कि राजा सोमचंद के 700वीं ईस्वी सन में गद्दी में बैठे थे। लगभग यही वह दौर था जबकि गढ़वाल में पंवार वंश का उदय हुआ था। इसलिए यह कह सकते हैं सरौं या छोलिया नृत्य का इतिहास 1000 साल से भी अधिक पुराना है और सैकड़ों वर्षों से यह पहाड़ी संस्कृति का अहम अंग रहा है। 
     तब किसी राजा की पुत्री का वरण करने के लिये जब कोई अन्य राजा अपने घर से निकलता था तो सफेद ध्वज आगे रखता था लेकिन दोनों ध्वजों के बीच तलवार और ढाल से लैस सैनिक हुआ करते थे। सारे वाद्य यंत्र होते थे। तब सैनिक आपस में ही युद्ध कला का अभ्यास करते हुए चलते होंगे जिसने बाद में नृत्य का रूप ले लिया। आज भी पहाड़ों की शादियों में ध्वज ले जाने की परंपरा है। जब दूल्हा अपने घर से निकलकर दुल्हन के घर जाता है तो आगे सफेद रंग का ध्वज (निशाण) होता और पीछे लाल रंग का। यह प्रथा भी सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। निशाण का मतलब है निशान या फिर संकेत। इसका संदेश यह होता है कि हम आपकी पुत्री का वरण करने आये हैं और शांति के साथ विवाह संपन्न करवाना चाहते हैं। इसलिए सफेद ध्वज आगे रहता है। लाल रंग का ध्वज इस संदेश के साथ जाता था कि ​शादी के लिये वे युद्ध करने के लिये भी तैयार हैं। जब विवाह संपन्न हो जाता है तो फिर घर वापसी के ​समय लाल रंग का निशाण आगे और सफेद रंग का पीछे होता है। लाल रंग का ध्वज तब इसलिए आगे रखा जाता है जिसका मतलब यह होता है कि वे विजेता बनकर लौटे हैं और दुल्हन को साथ लेकर आ रहे हैं। पुराने जमाने से यह प्रथा चल रही है।




    सकी पूरी संभावना है कि समय के साथ सरौं या छोलिया नृत्य में भी बदलाव आए होंगे लेकिन युद्ध से संबंध होने के कारण इसमें केवल पुरूष ही भाग लेते हैं। इसमें मुख्यत: दो नर्तक होते हैं लेकिन कई अवसरों पर एक से अधिक नर्तक भी बड़ी खूबसूरती से इसका प्रदर्शन करते हैं। इन नर्तकों ने रंग बिरंगी पोशाक पहनी होती है। चूड़ीदार सलवार, लंबा घेरेवाला चोला, सिर पर पगड़ी, कमर में बेल्ट, दोनों कंधों से बंधे हुए लंबे मफलर, पैंरों में घुंघरू, कानों में बालियां और चेहरे पर चंदन व सिंदूर से किया गया श्रृंगार। नर्तक एक दूसरे को छकाने, तलवारबाजी और उसे बड़ी कुशलता से ढाल से टकराने का शानदार प्रदर्शन करते हैं। इस दौरान उनके चेहर के हाव भाव भी देखने लायक होते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि मानो वे एक दूसरे को चिढ़ाकर उसे उकसा रहे हैं। पहले नर्तकों, जिन्हें छौल्यार कहा जाता है, के लिये पैसे फेंके जाते थे तो वे उसे नृत्य करते हुए बड़ी कुशलता से तलवार से उठा देते थे।
    सरौं या छोलिया नृत्य हमारी अपनी पंरपरा का हिस्सा रही हैं। इनका लुप्त होने की स्थिति में पहुंचना वास्तव में दुखद है। उत्तराखंड सरकार को भी इसके लिये भी प्रयास करने चाहिए। मुझे 2013 में दिल्ली के मावलंकर हाल में एक गढ़वाली कार्यक्रम के दौरान आखिरी बार सरौं देखने का मौका मिला था। यहां जिस वीडियो का लिंक (क्लिक करें) दिया गया है मैंने वह उसी दौरान तैयार किया था। यह मोबाइल से बनाया था इसलिए इसकी क्वालिटी अच्छी नहीं है। फिर भी यह हमें अपनी परंपराओं की याद दिलाता है और आनंद की अनुभूति कराता है। आपका धर्मेन्द्र पंत


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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

पहाड़ी जीवन का सार है 'वूं मा बोलि दे'

त्यारा खुटौं कि 
बिवयूं बिटि छड़कंद ल्वे
पर तू नि छोड़दि 
ढुंगा माटा को काम 
आखिर 
कै माटै बणीं छै तु ब्वे?
        क कवि, पत्रकार, समाजसेवी, उच्चकोटि के वक्ता, मंच संचालक, सलाहकार और इन सबसे बढ़कर गढ़वाल और गढ़वाली से अथाह प्रेम करने वाले शख्स की कलम जब  चलती है तो इसी तरह की कई मर्मस्पर्शी कविताएं प्रस्फुटित होती हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी गणेश खुगशाल 'गणी' पिछले तीन दशकों से हिन्दी और गढ़वाली में निरंतर लिख रहे हैं लेकिन अब पहली बार गढ़वाली में उनकी कविताओं का संग्रह 'वूं मा बोलि दे' के रूप में सामने आया है। दिल को छूने वाली, गांव गुठ्यार की याद दिलाने वाली और कई सवाल खड़े कर देने वाली ये कविताएं पहाड़ी जीवन का सार हैं। 
         कविताओं में डूबने पर हर मोड़ पर आपको अपनी मां, अपना गांव, अपना बचपन, अपने खेत, अपना खलिहान, अपना घर सब याद आ जाएंगे। महान गायक नरेंद्र सिंह नेगी के शब्दों में, ''गणि का ये ​कविता संग्रै मा घर—बण, गौं गुठ्यार, गौं—पचैत, खेती बाड़ि, थौल—तमसा, अजक्यालै राजनीति, कुछ मिट्ठी और कुछ तीती कवितौं को चित्रण, व्यंग्य, गुस्सा, ताना, लाड़, प्यार, भौं—कुछ छ। '' 
     नेगी जी ने ये शब्द 'वूं मा बोलि दे' का सार हैं। आखिर गणेश खुगशाल 'गणी' को नेगी जी से बेहतर भला कौन जानता है। एक कवि सम्मेलन के दौरान जब गणी ने मां पर लिखी अपनी कविता पढ़ी तो नेगी जी खुद को नहीं रोक पाये और उन्हें गले लगा दिया। यह लगभग 22 साल पुरानी बात है और तब से नरेंद्र सिंह नेगी और गणेश खुगशाल 'गणी' का साथ बना हुआ है। नेगी जी के कार्यक्रमों में मंच संचालक गणी भाई की मीठी बोली का कायल भला कौन नहीं होगा।
पिछले दिनों मुझे भी गणी भाई (बायें) से
भेंट 
करने का सौभाग्य मिला। 
      पौड़ी गढ़वाल की असवालस्यूं पट्टी के किनगोड़ी गांव में 22 अप्रैल 1968 को जन्में गणेश खुगशाल 'गणी' ने अपनी बाल्यवस्था और किशोरावस्था गांव में बितायी। बाद में उनकी कर्मस्थली मुख्यरूप से पौड़ी बनी लेकिन वह अब भी गांवों से जुड़े हुए हैं और इसलिये उनकी कविताओं में हर तरफ गढ़वाल के गांव, वहां का समाज, संस्कृति और समस्याएं नजर आती हैं। ''हमारि ब्वे, दादी अर काकि बोड्यूं की, जिकुड़ि भोरीन भुक्यूंन ....'' जैसी कई कविताओं में मां पिताजी आदि का ढेर सारा प्यार भरा है। इन कविताओं में गांवों से पलायन का दर्द दिखता है। शीर्षक कविता 'वूं मा बोलि दे' भी इससे अलग नहीं है। 'कूड़ि' कविता में वह मकान से लेकर घर के हर कोने और उससे जुड़ी हर सामग्री में जीवन भरते हैं। 'पोस्टर' से लेकर 'सिलिंडर' तक और 'भड्डू' से लेकर 'जांदिरि' तक को यह कविता संग्रह जीवंत बना देता है। 
      उत्तराखंड जब भी विपदा में पड़ा तो कवि मन भी विचलित हो उठा और इसलिए केदारनाथ की आपदा पर वह भगवान से पूछ बैठा, ''हे भगवान! तू इथगा रवेलु  ह्वेलु, कैन नि जाणि, बरखा दीणैं मा बि, नि मीलु वख पाणि, तेरी जात्रा यनि ह्वेली, कैल नि जाण ..''। 
    बचपन में मां अक्सर 'कुण्या बूढ़' का डर दिखाकर हमें सुला देती थी। आखिर कौन थी वह 'कुण्या बूढ़, जो अब नहीं डराती? कवि ने '' न कैल देखी, न कैल सूणी, झणि कब अफ्वी—अफ्वी, कै खटला मूड़ मोरिगे कुण्या बूढ़'' में इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश की है। राजनीति पर किये गये कटाक्षों में गणेश खुगशाल 'गणी' के अंदर छिपा पत्रकार सामने आता है। लेकिन वह इसके साथ घंटाघर को बचाये रखने का आग्रह भी सरकार से करते हैं क्योंकि देहरादून में रहने और वहां जाने वाले हर शख्स की यादें इस जगह से जुड़ी हुई हैं। 
    सरकारा।
    तेरी त पता नी क्या गौं छ
    पर मेरी हाथ ज्वड़ै इथु कि 
    तै देरादूणौं तू जो कुछ कैर
    पर बचै राखि घंटाघर । ..
 इस कविता संग्रह का प्र​काशन विनसर पब्लिशिंग कंपनी देहरादून ने किया है और इसका मूल्य 195 रूपये है।

                                                                      धर्मेन्द्र

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल




                                                   यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल
  विस्तृत स्वर्णिम भारत का भाल 
    यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।
      गिरि शिखरों से घिरा हुआ है
        तृण कुसुमों से हरा हुआ है
          विविध वृक्षों से भरा हुआ है
            जैसे शीशम, सेब और साल
              यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।

गिरी गर्त से भानु चमकता
  मानो अग्निवृत दहकता
    बहुरंगी पुष्पाहार महकता
      ऐसा मनोहर प्रात:काल
        यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।
          शीतल हवा यहां है चलती
            निर्मल, निश्चल नदियां बहती
              सबको सहज बनने को कहती
                शीत विमल की ये हैं मिसाल
                  यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।




शुभ्र हिमालय झांक रहा है
  विश्व सत्य को आंक रहा है
    शांति प्रियता मांग रहा है
      जो भारत का ताज विशाल
        यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।
           बद्री केदार के मंदिर पावन
             उपवन यहां के हैं मनभावन
               मानो वर्ष पर्यंत हो सावन
                 यह प्रकृति की सुंदर चाल
                   यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।

नहीं कलह और शोर यहां है
  नहीं लुटेरे चोर यहां हैं
    लगता निशदिन भोर यहां है
      शांति एकता का यह हाल
        यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।
          जगह जगह खुलते औषधालय
            नवनिर्मित हो रहे विद्यालय
              जागरूक गढ़वाली की लय
                भौतिक विकास करता गढ़वाल
                  यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।

हो रहा अविद्या का जड़मर्दन
  फैले नव विहान का वर्जन
    नव शैलों का हो रहा सृजन
      गिरि चलें विकास की ले मशाल
        यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल
          विस्तृत स्वर्णिम भारत का भाल
             यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल ।।

              लेखक / कवि का परिचय

जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक। इसी दौरान पहाड़ और वहां के जीवन पर कई कविताएं लिखी। 'यह प्यारा ऊंचा गढ़वाल' नामक उपरोक्त कविता 1978 में लिखी गयी थी। बाद में सेना के शिक्षा विभाग कार्यरत रहे। 11 मई 1999 को 37 साल की उम्र में निधन। 


     
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शनिवार, 17 जनवरी 2015

मुगल सैनिकों की नाक काटने वाली गढ़वाल की रानी कर्णावती

        
         भारतीय इतिहास में जब रानी कर्णावती का जिक्र आता है तो फिर मेवाड़ की उस रानी की चर्चा होती है जिसने मुगल बादशाह हुमांयूं के ​लिये राखी भेजी थी। इसलिए रानी कर्णावती का नाम रक्षाबंधन से अक्सर जोड़ दिया जाता है। लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि इसके कई दशकों बाद भारत में एक और रानी कर्णावती हुई थी और यह गढ़वाल की रानी थी। इस रानी ने मुगलों की बाकायदा नाक कटवायी थी और इसलिए कुछ इतिहासकारों ने उनका जिक्र नाक क​टी रानी या नाक काटने वाली रानी के रूप में किया है। रानी कर्णावती ने गढ़वाल में अपने नाबालिग बेटे पृथ्वीपतिशाह के बदले तब शासन का कार्य संभाला था जबकि दिल्ली में मुगल सम्राट शाहजहां का राज था। शाहजहां के कार्यकाल पर बादशाहनामा या पादशाहनामा लिखने वाले अब्दुल हमीद लाहौरी ने भी गढ़वाल की इस रानी का जिक्र किया है। यहां तक कि नवाब शम्सुद्दौला खान ने 'मासिर अल उमरा' में उनका जिक्र किया है। इटली के लेखक निकोलाओ मानुची जब सत्रहवीं सदी में भारत आये थे तब उन्होंने शाहजहां के पुत्र औरंगजेब के समय मुगल दरबार में काम किया था। उन्होंने अपनी किताब 'स्टोरिया डो मोगोर' यानि 'मुगल इंडिया' में गढ़वाल की एक रानी के बारे में बताया है जिसने मुगल सैनिकों की नाट काटी थी। माना जाता है कि स्टोरिया डो मोगोर 1653 से 1708 के बीच लिखी गयी थी जबकि मुगलों ने 1640 के आसपास गढ़वाल पर हमला किया था। गढ़वाल के कुछ इतिहासकारों ने हालांकि पवांर वंश के राजाओं के कार्यों पर ही ज्यादा गौर किया और रानी कर्णावती के पराक्रम का जिक्र करना उचित नहीं समझा।
श्रीनगर गढ़वाल : यहीं से राजकाज चलाती थी रानी कर्णावती
       रानी कर्णावती के बारे में मैंने जितनी सामग्री जुटायी। उससे यह साफ हो जाता है कि वह पवांर वंश के राजा महिपतशाह की पत्नी थी। यह वही महिपतशाह थे जिनके शासन में रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे सेनापति हुए थे जिन्होंने तिब्बत के आक्रांताओं को छठी का दूध याद दिलाया था। माधोसिंह के बारे में गढ़वाल में काफी किस्से प्रचलित हैं। पहाड़ का सीना चीरकर अपने गांव मलेथा में पानी लाने की कहानी भला किस गढ़वाली को पता नहीं होगी। कहा जाता था कि माधोसिंह अपने बारे में कहा करते थे, ''एक सिंह वन ​का सिंह, एक सींग गाय का। तीसरा सिंह माधोसिंह, चौथा सिंह काहे का। '' इतिहास की किताबों से पता चलता है कि रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे सेनापतियों की मौत के बाद महिपतशाह भी जल्द स्वर्ग सिधार गये। कहा जाता है कि तब उनके पुत्र पृथ्वीपतिशाह केवल सात साल के थे। इसके 1635 के आसपास की घटना माना जाता है। राजगद्दी पर पृथ्वीपतिशाह ही बैठे लेकिन राजकाज उनकी मां रानी कर्णावती ने चलाया।
     इससे पहले जब महिपतशाह गढ़वाल के राजा थे तब 14 फरवरी 1628 को शाहजहां का राज्याभिषेक हुआ था। जब वह गद्दी पर बैठे तो देश के तमाम राजा आगरा पहुंचे थे। महिपतशाह नहीं गये। इसके दो कारण माने जाते हैं। पहला यह कि पहाड़ से आगरा तक जाना तब आसान नहीं था और दूसरा उन्हें मुगल शासन की अधीनता स्वीकार नहीं थी। कहा जाता है कि शाहजहां इससे चिढ़ गया था। इसके अलावा किसी ने मुगल शासकों को बताया कि गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में सोने की खदानें हैं। इस बीच महिपतशाह और उनके वीर सेनापति भी नहीं रहे। शाहजहां ने इसका फायदा उठाकर गढ़वाल पर आक्रमण करने का फैसला किया। उन्होंने अपने एक सेनापति नजाबत खान को यह जिम्मेदारी सौंपी। निकोलो मानुची ने अपनी किताब में शाहजहां के सेनापति या रानी का जिक्र नहीं किया है लेकिन उन्होंने लिखा है कि मुगल जनरल 30 हजार घुड़सवारों और पैदल सेना के साथ गढ़वाल की तरफ कूच कर गया था। गढ़वाल के राजा (यानि रानी कर्णावती) ने उन्हें अपनी सीमा में घुसने दिया लेकिन जब वे वर्तमान समय के लक्ष्मणझूला से आगे बढ़े तो उनके आगे और पीछे जाने के रास्ते रोक दिये गये। गंगा के किनारे और पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ मुगल सैनिकों के पास खाने की सामग्री समाप्त होने लगी। उनके लिये रसद भेजने के सभी रास्ते भी बंद थे। 
          मुगल सेना कमजोर पड़ने लगी और ऐसे में सेनापति ने गढ़वाल के राजा के पास संधि का संदेश भेजा लेकिन उसे ठुकरा दिया गया। मुगल सेना की स्थिति बदतर हो गयी थी। रानी चाहती तो उसके सभी सैनिकों का खत्म कर देती लेकिन उन्होंने मुगलों को सजा देने का नायाब तरीका निकाला। रानी ने संदेश भिजवाया कि वह सैनिकों को जीवनदान देन सकती है लेकिन इसके लिये उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी। सैनिकों को भी लगा कि नाक कट भी गयी तो क्या जिंदगी तो रहेगी। मुगल सैनिकों के हथियार छीन दिये गये थे और आखिर में उनके एक एक करके नाक काट दिये गये थे। कहा जाता है कि जिन सैनिकों की नाक का​टी गयी उनमें सेनापति नजाबत खान भी शामिल था। वह ​इससे काफी शर्मसार था और उसने मैदानों की तरफ लौटते समय अपनी जान दे दी थी। उस समय रानी कर्णाव​ती की सेना में एक अधिकारी दोस्त बेग हुआ करता था जिसने मुगल सेना को परास्त करने और उसके सैनिकों को नाक कटवाने की कड़ी सजा दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी। यह 1640 के आसपास की घटना है।
           कुछ इतिहासकार रानी कर्णावती के बारे में इस तरह से बयां करते हैं कि वह अपने विरोधियों की नाक कटवाकर उन्हें कड़ा दंड देती थी। इनके अनुसार कांगड़ा आर्मी के कमांडर नजाबत खान की अगुवाई वाली मुगल सेना ने जब दून घाटी और चंडीघाटी (वर्तमान समय में लक्ष्मणझूला) को अपने कब्जे में कर दिया  तब रानी कर्णावती ने उसके पास संदेश भिजवाया कि वह मुगल शासक शाहजहां के लिये जल्द ही दस लाख रूपये उपहार के रूप में उसके पास भेज देगी। नजाबत खान लगभग एक महीने तक पैसे का इंतजार करता रहा। इस बीच गढ़वाल की सेना को उसके सभी रास्ते बंद करने का मौका मिल गया। मुगल सेना के पास खाद्य सामग्री की कमी पड़ गयी और इस बीच उसके सैनिक एक अज्ञात बुखार से पीड़ित होने लगे। गढ़वाली सेना ने पहले ही सभी रास्ते बंद कर दिये थे और उन्होंने मुगलों पर आक्रमण कर दिया। रानी के आदेश पर सैनिकों के नाक काट दिये गये। नजाबत खान जंगलों से होता हुआ मुरादाबाद तक पहुंचा था। कहा जाता है कि शाहजहां इस हार से काफी शर्मसार हुआ था। शाहजहां ने बाद में अरीज खान को गढ़वाल पर हमले के लिये भेजा था लेकिन वह भी दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया था। बाद में शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने भी गढ़वाल पर हमले की नाकाम कोशिश की थी।
    यह थी गढ़वाल की रानी कर्णावती की कहानी जो कुछ किस्सों और इतिहासकारों विशेषकर विदेश के इतिहासकारों की पुस्तकों से जुटायी गयी हो। इससे भी इतर कुछ किस्से हो सकते हैं। यदि आप जानकारी रखते हों तो कृपया जरूर शेयर करें। घसेरी को इंतजार रहेगा।
   
 आपका धर्मेन्द्र पंत

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