गुरुवार, 7 मई 2015

कभी पहाड़ी शादियों की पहचान था सरौं या छोलिया नृत्य

                                      धर्मेन्द्र पंत
  रौं या छोलिया उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक नृत्य है जो वीर रस, शौर्य, श्रृंगार रस, खुशी, गौरव, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और चपलता का प्रतीक है। तलवार और ढाल के साथ किये जाने वाला यह नृत्य युद्ध में जीत के बाद किया जाता था। इस नृत्य में ढोल-दमाऊं की भूमिका अहम होती है। इसके अलावा मसकबीन, नगाड़े, झंकोरा, कैंसाल और रणसिंगा आदि वाद्य यंत्रों का भी उपयोग किया जाता है। एक समय सरौं नृत्य पहाड़ी शादियों का अहम अंग हुआ करता था। अस्सी के दशक तक भी इसका उत्तराखंड में प्रचलन था लेकिन अब यह कला धीरे धीरे खत्म होती जा रही है। पहाड़ों में इसके बहुत कम कलाकार रह गये हैं। किसी समय सरौं या छोलिया इनके कलाकारों का आजीविका का साधन हुआ करता था लेकिन पहाड़ों में आधुनिकता के वास का कुप्रभाव जिन कई लोक परंपराओं पर पड़ा है उनमें सरौं छोलिया नृत्य भी शामिल है।
सरौं नृत्य। चित्र... धर्मेंद्र पंत
   सरौं या छोलिया नृत्य उत्तराखंड के सबसे पुराने नृत्यों में शामिल है। इसे पांडव नृत्य का हिस्सा भी माना जाता है। सरौं या छोलिया के बारे में कहा जाता है कि कोई राजा जब किसी दूसरे राजा की बेटी से जबर्दस्ती विवाह करने की कोशिश करता था तो वह अपने सैनिकों के साथ वहां पहुंचता था जिनके हाथों में तलवार और ढाल होती थी ताकि युद्ध होने की स्थिति में इनका उपयोग किया जा सके। सैनिकों को युद्ध में प्रोत्साहित करने के लिये ढोल दमाऊं, नगाड़े, मसकबीन, तुरही, रणसिंघा आदि का प्रयोग किया जाता था। कुमांऊ में छोलिया के बारे में कहा जाता है कि सबसे पहले राजा सोमचंद के विवाह में यह नृत्य किया गया था। बद्रीदत्त पांडे की पुस्तक 'कुमाऊं का इतिहास' में कहा गया है कि राजा सोमचंद के 700वीं ईस्वी सन में गद्दी में बैठे थे। लगभग यही वह दौर था जबकि गढ़वाल में पंवार वंश का उदय हुआ था। इसलिए यह कह सकते हैं सरौं या छोलिया नृत्य का इतिहास 1000 साल से भी अधिक पुराना है और सैकड़ों वर्षों से यह पहाड़ी संस्कृति का अहम अंग रहा है। 
     तब किसी राजा की पुत्री का वरण करने के लिये जब कोई अन्य राजा अपने घर से निकलता था तो सफेद ध्वज आगे रखता था लेकिन दोनों ध्वजों के बीच तलवार और ढाल से लैस सैनिक हुआ करते थे। सारे वाद्य यंत्र होते थे। तब सैनिक आपस में ही युद्ध कला का अभ्यास करते हुए चलते होंगे जिसने बाद में नृत्य का रूप ले लिया। आज भी पहाड़ों की शादियों में ध्वज ले जाने की परंपरा है। जब दूल्हा अपने घर से निकलकर दुल्हन के घर जाता है तो आगे सफेद रंग का ध्वज (निशाण) होता और पीछे लाल रंग का। यह प्रथा भी सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। निशाण का मतलब है निशान या फिर संकेत। इसका संदेश यह होता है कि हम आपकी पुत्री का वरण करने आये हैं और शांति के साथ विवाह संपन्न करवाना चाहते हैं। इसलिए सफेद ध्वज आगे रहता है। लाल रंग का ध्वज इस संदेश के साथ जाता था कि ​शादी के लिये वे युद्ध करने के लिये भी तैयार हैं। जब विवाह संपन्न हो जाता है तो फिर घर वापसी के ​समय लाल रंग का निशाण आगे और सफेद रंग का पीछे होता है। लाल रंग का ध्वज तब इसलिए आगे रखा जाता है जिसका मतलब यह होता है कि वे विजेता बनकर लौटे हैं और दुल्हन को साथ लेकर आ रहे हैं। पुराने जमाने से यह प्रथा चल रही है।




    सकी पूरी संभावना है कि समय के साथ सरौं या छोलिया नृत्य में भी बदलाव आए होंगे लेकिन युद्ध से संबंध होने के कारण इसमें केवल पुरूष ही भाग लेते हैं। इसमें मुख्यत: दो नर्तक होते हैं लेकिन कई अवसरों पर एक से अधिक नर्तक भी बड़ी खूबसूरती से इसका प्रदर्शन करते हैं। इन नर्तकों ने रंग बिरंगी पोशाक पहनी होती है। चूड़ीदार सलवार, लंबा घेरेवाला चोला, सिर पर पगड़ी, कमर में बेल्ट, दोनों कंधों से बंधे हुए लंबे मफलर, पैंरों में घुंघरू, कानों में बालियां और चेहरे पर चंदन व सिंदूर से किया गया श्रृंगार। नर्तक एक दूसरे को छकाने, तलवारबाजी और उसे बड़ी कुशलता से ढाल से टकराने का शानदार प्रदर्शन करते हैं। इस दौरान उनके चेहर के हाव भाव भी देखने लायक होते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि मानो वे एक दूसरे को चिढ़ाकर उसे उकसा रहे हैं। पहले नर्तकों, जिन्हें छौल्यार कहा जाता है, के लिये पैसे फेंके जाते थे तो वे उसे नृत्य करते हुए बड़ी कुशलता से तलवार से उठा देते थे।
    सरौं या छोलिया नृत्य हमारी अपनी पंरपरा का हिस्सा रही हैं। इनका लुप्त होने की स्थिति में पहुंचना वास्तव में दुखद है। उत्तराखंड सरकार को भी इसके लिये भी प्रयास करने चाहिए। मुझे 2013 में दिल्ली के मावलंकर हाल में एक गढ़वाली कार्यक्रम के दौरान आखिरी बार सरौं देखने का मौका मिला था। यहां जिस वीडियो का लिंक (क्लिक करें) दिया गया है मैंने वह उसी दौरान तैयार किया था। यह मोबाइल से बनाया था इसलिए इसकी क्वालिटी अच्छी नहीं है। फिर भी यह हमें अपनी परंपराओं की याद दिलाता है और आनंद की अनुभूति कराता है। आपका धर्मेन्द्र पंत


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant

     
   © ghaseri.blogspot.in 

5 टिप्‍पणियां:

  1. mere yadast ke hisab se bilkul sahi jankari hai,ane wali pediyu ko is ki jankari pahuchne ke liye abhar.

    जवाब देंहटाएं
  2. सरों /छोलिया नृत्य पर , "घसेरी " में छपा लेख अत्यंत्य ज्ञान वर्धक है। आशा है कि नईं पीढ़ी पढ़ेगी और अपने पुरखों द्वारा सत्यापित संस्कृति की वाहक बनेगी।
    आपका शुभचिंतक ,
    ब सिंह रावत

    जवाब देंहटाएं
  3. A very nice & informative article. Sad to see this tradition of our hills is diminishing.

    जवाब देंहटाएं
  4. सही कहा आज कल हम सभी गावो से दूर होते जा रहे हैं और अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं... सायद आगे कि पीढ़ी को ये सब पता भी न हो कि क्या क्या होता था पहाड़ में... इसी लिए मैं भी बस इसे ही अपना ब्लॉग शुरू किया है... आप जैसा लेखक और जानकर तो नहीं पर अपने दिल में जो आता है वो लिख देता हूँ... थोडा हमे भी सिखाते रहे ताकि हम अपने पहाड़ कि संस्कृति को फिर से सब के सामने प्रस्तुत कर सके...

    http://bababerojgaar.blogspot.com/2015/08/blog-post_37.html

    जवाब देंहटाएं

badge