रविवार, 26 अप्रैल 2015

भारत में भूकंप के क्षेत्र: सावधान उत्तराखंड, सावधान नोएडा

                                                                       धर्मेन्द्र पंत 
    हिमालयी क्षेत्र भूकंप के लिहाज से भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे संवेदनशील है। हिमालय दुनिया की सबसे नयी पर्वत श्रृंखला है जिसका लगभग 70 लाख वर्ष पूर्व तक निर्माण होता रहा। हिमालय के निर्माण की शुरूआत लगभग साढ़े पांच करोड़ साल पहले यूरेशिया और गोंडवानालैंड की टक्कर के कारण टेथिस सागर से हुई थी। तब भारतीय प्रायद्वीप एशिया का हिस्सा नहीं था। इसके उत्तरी भाग में यूरेशिया था तथा उसके और गोंडवानालैंड के बीच में टेथिस सागर था। भारत का प्रायद्वीपीय हिस्सा यूरेशिया टेक्टोनिक प्लेट से टकराया था जिसके कारण हिमालय का ​निर्माण हुआ था। अब भी भारतीय हिस्सा लगभग 47 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की गति से एशिया के उत्तरी भाग से टकरा रहा है। सरल शब्दों में कहें तो भारतीय प्लेट प्रति वर्ष एशिया के अंदर धंस रही है और यह सब हिमालयी क्षेत्र में हो रहा है। धरती के अंदर हो रहे इन बदलावों के कारण पूरे हिमालयी क्षेत्र में भूकंप का खतरा बना रहता है। इन क्षेत्रों में जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, नेपाल, भूटान, ​उत्तरी बिहार, सिक्किम, उत्तरी बंगाल और लगभग पूर्वोत्तर के सभी राज्य आते हैं। भारतीय प्लेट के एशियाई क्षेत्र में घुसने के कारण वहां बड़ी मात्रा में तनाव पैदा होता है और ऊर्जा का सृजन होता है। जब ऊर्जा की मात्रा बढ़ जाती है तो वह बाहर निकलने के लिये छटपटाने लग जाती है और कई बार हिमालयी क्षेत्र में इस वजह से भी भूकंप आ जाते हैं। 

भारत में भूकंप के जोन 


    जोन—5 यानि सबसे ज्यादा खतरा :  यदि पूरे भारत की बात करें तो उसे चार भूकंपीय क्षेत्रों में बांटा जा सकता है और इनमें हिमालयी क्षेत्र सबसे अधिक सक्रिय यानि अत्याधिक जोखिम वाले क्षेत्रों में आते हैं। इन क्षेत्रों यानि जोन में जोन—5 पांच में भूकंप का सबसे अधिक खतरा रहता है जिसमें रिक्टर स्केल पर नौ से भी अधिक तीव्रता के भूकंप आ जाते हैं। इस जोन में पूरा पूर्वोत्तर भारत, जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्से, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात में कच्छ का रन, उत्तर बिहार का कुछ हिस्सा और अंडमान निकोबार द्वीप समूह शामिल हैं।
भारत के भूकंपीय क्षेत्र का मानचित्र
   जोन—4 यानि अधिक जोखिम वाला क्षेत्र : इसमें जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के कुछ हिस्से, दिल्ली, सिक्किम, उत्तर प्रदेश के उत्तरी भाग, सिंधु-गंगा थाला, बिहार और पश्चिम बंगाल, गुजरात के कुछ हिस्से और पश्चिमी तट के समीप महाराष्ट्र का कुछ हिस्सा और राजस्थान आता है। दिल्ली में भूकंप की आशंका वाले इलाकों में यमुना तट के करीबी इलाके, पूर्वी दिल्ली, शाहदरा, मयूर विहार, लक्ष्मी नगर और गुड़गांव, रेवाड़ी तथा नोएडा के नजदीकी क्षेत्र शामिल हैं।
   जोन—3 कम खतरे की संभावना : तीसरा जोन जिनमें खतरे की संभावना कम बनी रहती है उसे जोन—3 श्रेणी में रखा गया है। जोन-3 में केरल, गोवा, लक्षद्वीप द्वीपसमूह, उत्तर प्रदेश के बाकी हिस्से, गुजरात और पश्चिम बंगाल, पंजाब के हिस्से, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक शामिल हैं।
    जोन—2 कम तीव्रता वाला क्षेत्र:  भारत के कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां भूकंप बहुत कम सक्रिय है। इनमें अधिकतर प्रायद्वीपीय भारत आता है जिसे सबसे पृथ्वी का सबसे पुराना भूभाग माना जाता है। इसे जोन—2 में रखा जाता है। दक्षिण भारत के अधिकतर हिस्से इस जोन में आते हैं। 

भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील है उत्तराखंड 


     त्तराखंड राज्य भूकंप की दृष्टि से बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में आता है। मतलब यहां बेहद ताकतवर भूकंप आते हैं। इसका गवाह इतिहास भी रहा है। उत्तराखंड, नेपाल, हिमाचल प्रदेश में जमीन के अंदर कई सक्रिय समानांतर थ्रस्ट फाल्ट है। इन फाल्ट्स के खिसकने से 7.5 से भी अधिक की तीव्रता के भूकंप आते हैं। उत्तराखंड में पिछले 200 वर्षों से 7.5 या इससे अधिक क्षमता का भूकंप नहीं आया है और इसलिए संभावना यह है कि इस क्षेत्र में किसी भी समय 7.5 या इससे अधिक क्षमता का ताकतवर भूकंप आ सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तरकाशी में 1991 में 6.8 और चमोली में 1999 में 6.4 की तीव्रता वाले भूकंप ने ही तबाही मचा दी थी। जब टिहरी बांध का निर्माण चल रहा था और मैं गढ़वाल विश्वविद्यालय में भूगोल का छात्र था। इन सब तथ्यों को ध्यान में रखकर ही मैं टिहरी बांध के विरोधियों में शामिल हो गया था। आज भी मुझे उसमें खतरा नजर आता है। आपको यह बता दूं कि उत्तराखंड में इससे पहले सबसे ताकतवर भूकंप सितंबर 1803 में आया था जिसकी रिक्टर स्केल पर तीव्रता 7 आंकी गयी थी। इस भूकंप में 200 से 300 लोगों की जानें गयीं थी। नेपाल में 7.9 की तीव्रता वाले भूकंप आने से साबित हो जाता है कि यह शक्तिशाली भूकंप वाले क्षेत्र में आता है।
   
जोन—5 और जोन—4 में आता है उत्तराखंड 
उत्तराखंड में उत्तरकाशी, चमोली, रूद्रप्रयाण, पिथौरागढ़, बागेश्वर तथा अल्मोड़ा, पौड़ी और टिहरी के कुछ हिस्से जोन—5 में आते हैं और यहां खतरनाक भूकंप आने की संभावना बनी रहती थी। इसके बाकी हिस्से भी जोन—4 में आते हैं और इसलिए वहां भी खतरा कम नहीं रहता है। उत्तराखंड में पिछले 25 वर्षों में दो बड़े भूकंप आये थे। 19 अक्तूबर 1991 को उत्तरकाशी में आये भूकंप से 768 लोगों की मौत हो गयी थी और 5000 से अधिक लोग घायल हो गये थे। इस कारण 18 हजार से अधिक इमारतें नष्ट हो गयी थी। इसके बाद 28 मार्च 1999 को चमोली के पिपलकोटी इलाके में भूकंप आया जिसकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर 6.4 आंकी गयी। इससे 115 लोगों की जानें गयी थी। इन दोनों भूकंप का प्रभाव समीपवर्ती राज्यों में भी देखने को मिला था। तब तीन यानि 31 मार्च तक भूकंप आते रहे थे जिन्हें 'आफ्टरशॉक' कहा जाता है। इनके अलावा पांच जनवरी 1997 को धारूचुला में 5.6 तीव्रता, 14 दिसंबर को गोपेश्वर में 5.0 तीव्रता का, पांच अगस्त 2006 को उत्तराखंड—नेपाल सीमा पर और 22 जुलाई 2007 को उत्तरकाशी में भूकंप आया था। इसके अलावा जब भी भूकंप का केंद्र कश्मीर, पाकिस्तान या नेपाल रहा तो उसका असर उत्तराखंड सहित पूरे उत्तर भारत में देखने को मिला था।
   अभी दिक्कत उत्तराखंड में भवन निर्माण से आ रही है। देहरादून जैसे शहरों में बड़ी इमारतें बन रही हैं जबकि यह भूकंप के जोन—4 में आता है। भूकंप आने पर ऊंची इमारतों को सबसे अधिक खतरा रहता है और इसलिए मुझे दिल्ली के सटे नोएडा में बनी गगनचुंबी इमारतों को देखकर वहां रह रहे लोगों की सुरक्षा को लेकर चिंता होने लगती है। 
   बहरहाल भूगोल का छात्र होने के कारण मुझे जितना पता था मैंने जानकारी यहां देने की कोशिश की है। यदि आपको इसमें कुछ जोड़ना है तो नीचे टिप्पणी वाले कालम में जरूर इसको साझा करें।

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2 टिप्‍पणियां:

  1. -- डॉ. बलबीर सिंह रावत27 अप्रैल 2015 को 6:36 pm बजे

    इन खतरों से निपटने के क्या उपाय है ? आजकल हर नई ईमारत भूकम्प निरोधी बन तो रही है लेकिन क्या इसे बनाने वाले प्रशिक्षित मिस्त्री हैं ? क्या केवल ९" आरसीसी कॉलम और बीम डालने से ईमारत ७.९ या अधिक के झटंके सहने लायक होगी ? इसकी जानकारी उन भवन स्वामियों को भी देनी चाहिए जिनके घर उत्तरकाशी के १९९१ के भूकम्प से पहिले के बने हुए हैं और उनमे रहने वाले नयी इमारतों में रहने वालों से हजारों गुना अधिक हैं , उनकी सुरक्षा के लिये एक मार्गदर्शिका पुस्तिका, भवन निर्माण विशषज्ञो द्वारा तैया की गयी हो, का वितरण करना सरकार के आपदा प्रबंधन मंत्रालय का फर्ज नहीं होना चाहिए ? मैंने पिछले तीन सालों से कोशिश की, बड़े प्रयत्नों के बाद मुझे कुछ पुस्तिकाएँ प्राप्त हुईं जो नए निर्माण के लिए थीं मेरे फिर से मांगने का अभी तक एक साल से जबाब नहीं आया। ऐसा क्यों हुवा ? जब की "अपनी (?)" सरकार का फर्ज था की बजाए दुर्घटना के बाद कंपनसेशन देने के , पुराने भवन स्वामियों को सही तकनीक से भवनों को फिर से सुरक्षित बनाने के लिए समुचित तक्निकल ज्ञान और कुछ वित्तीय सहायत देती और इसे काम को अनिवार्य घोषित करती। अब भी देर नहीं हुयी है। --- डॉ. बलबीर सिंह रावत

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    1. बलबीर सिंह रावत जी, कोई भी बड़ी इमारत सरकार की संस्तुति के बिना नहीं बनती। भूविज्ञानी जब लगातार चेतावनी देते रहे हैं कि उत्तराखंड भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील है तो फिर सरकार सतर्क क्यों नहीं हो रही है यह वास्तव में चिंता का विषय है। यह स्थिति तब है जबकि इससे पहले कम तीव्रता वाले भूकंपों से नुकसान हो चुका है। भारत में अक्सर देखा जाता है कि सरकार की नींद तब टूटती है जबकि नुकसान हो जाता है। आपका प्रयास सराहनीय है। उम्मीद है कि उत्तराखंड सरकार नेपाल की विपदा को देखकर सबक लेगी। क्या आप इस बारे में मुझे विस्तृत जानकारी उपलब्ध करा सकते हैं?

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