रविवार, 26 अप्रैल 2015

भारत में भूकंप के क्षेत्र: सावधान उत्तराखंड, सावधान नोएडा

                                                                       धर्मेन्द्र पंत 
    हिमालयी क्षेत्र भूकंप के लिहाज से भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे संवेदनशील है। हिमालय दुनिया की सबसे नयी पर्वत श्रृंखला है जिसका लगभग 70 लाख वर्ष पूर्व तक निर्माण होता रहा। हिमालय के निर्माण की शुरूआत लगभग साढ़े पांच करोड़ साल पहले यूरेशिया और गोंडवानालैंड की टक्कर के कारण टेथिस सागर से हुई थी। तब भारतीय प्रायद्वीप एशिया का हिस्सा नहीं था। इसके उत्तरी भाग में यूरेशिया था तथा उसके और गोंडवानालैंड के बीच में टेथिस सागर था। भारत का प्रायद्वीपीय हिस्सा यूरेशिया टेक्टोनिक प्लेट से टकराया था जिसके कारण हिमालय का ​निर्माण हुआ था। अब भी भारतीय हिस्सा लगभग 47 मिलीमीटर प्रतिवर्ष की गति से एशिया के उत्तरी भाग से टकरा रहा है। सरल शब्दों में कहें तो भारतीय प्लेट प्रति वर्ष एशिया के अंदर धंस रही है और यह सब हिमालयी क्षेत्र में हो रहा है। धरती के अंदर हो रहे इन बदलावों के कारण पूरे हिमालयी क्षेत्र में भूकंप का खतरा बना रहता है। इन क्षेत्रों में जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, नेपाल, भूटान, ​उत्तरी बिहार, सिक्किम, उत्तरी बंगाल और लगभग पूर्वोत्तर के सभी राज्य आते हैं। भारतीय प्लेट के एशियाई क्षेत्र में घुसने के कारण वहां बड़ी मात्रा में तनाव पैदा होता है और ऊर्जा का सृजन होता है। जब ऊर्जा की मात्रा बढ़ जाती है तो वह बाहर निकलने के लिये छटपटाने लग जाती है और कई बार हिमालयी क्षेत्र में इस वजह से भी भूकंप आ जाते हैं। 

भारत में भूकंप के जोन 


    जोन—5 यानि सबसे ज्यादा खतरा :  यदि पूरे भारत की बात करें तो उसे चार भूकंपीय क्षेत्रों में बांटा जा सकता है और इनमें हिमालयी क्षेत्र सबसे अधिक सक्रिय यानि अत्याधिक जोखिम वाले क्षेत्रों में आते हैं। इन क्षेत्रों यानि जोन में जोन—5 पांच में भूकंप का सबसे अधिक खतरा रहता है जिसमें रिक्टर स्केल पर नौ से भी अधिक तीव्रता के भूकंप आ जाते हैं। इस जोन में पूरा पूर्वोत्तर भारत, जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्से, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात में कच्छ का रन, उत्तर बिहार का कुछ हिस्सा और अंडमान निकोबार द्वीप समूह शामिल हैं।
भारत के भूकंपीय क्षेत्र का मानचित्र
   जोन—4 यानि अधिक जोखिम वाला क्षेत्र : इसमें जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के कुछ हिस्से, दिल्ली, सिक्किम, उत्तर प्रदेश के उत्तरी भाग, सिंधु-गंगा थाला, बिहार और पश्चिम बंगाल, गुजरात के कुछ हिस्से और पश्चिमी तट के समीप महाराष्ट्र का कुछ हिस्सा और राजस्थान आता है। दिल्ली में भूकंप की आशंका वाले इलाकों में यमुना तट के करीबी इलाके, पूर्वी दिल्ली, शाहदरा, मयूर विहार, लक्ष्मी नगर और गुड़गांव, रेवाड़ी तथा नोएडा के नजदीकी क्षेत्र शामिल हैं।
   जोन—3 कम खतरे की संभावना : तीसरा जोन जिनमें खतरे की संभावना कम बनी रहती है उसे जोन—3 श्रेणी में रखा गया है। जोन-3 में केरल, गोवा, लक्षद्वीप द्वीपसमूह, उत्तर प्रदेश के बाकी हिस्से, गुजरात और पश्चिम बंगाल, पंजाब के हिस्से, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक शामिल हैं।
    जोन—2 कम तीव्रता वाला क्षेत्र:  भारत के कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां भूकंप बहुत कम सक्रिय है। इनमें अधिकतर प्रायद्वीपीय भारत आता है जिसे सबसे पृथ्वी का सबसे पुराना भूभाग माना जाता है। इसे जोन—2 में रखा जाता है। दक्षिण भारत के अधिकतर हिस्से इस जोन में आते हैं। 

भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील है उत्तराखंड 


     त्तराखंड राज्य भूकंप की दृष्टि से बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में आता है। मतलब यहां बेहद ताकतवर भूकंप आते हैं। इसका गवाह इतिहास भी रहा है। उत्तराखंड, नेपाल, हिमाचल प्रदेश में जमीन के अंदर कई सक्रिय समानांतर थ्रस्ट फाल्ट है। इन फाल्ट्स के खिसकने से 7.5 से भी अधिक की तीव्रता के भूकंप आते हैं। उत्तराखंड में पिछले 200 वर्षों से 7.5 या इससे अधिक क्षमता का भूकंप नहीं आया है और इसलिए संभावना यह है कि इस क्षेत्र में किसी भी समय 7.5 या इससे अधिक क्षमता का ताकतवर भूकंप आ सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तरकाशी में 1991 में 6.8 और चमोली में 1999 में 6.4 की तीव्रता वाले भूकंप ने ही तबाही मचा दी थी। जब टिहरी बांध का निर्माण चल रहा था और मैं गढ़वाल विश्वविद्यालय में भूगोल का छात्र था। इन सब तथ्यों को ध्यान में रखकर ही मैं टिहरी बांध के विरोधियों में शामिल हो गया था। आज भी मुझे उसमें खतरा नजर आता है। आपको यह बता दूं कि उत्तराखंड में इससे पहले सबसे ताकतवर भूकंप सितंबर 1803 में आया था जिसकी रिक्टर स्केल पर तीव्रता 7 आंकी गयी थी। इस भूकंप में 200 से 300 लोगों की जानें गयीं थी। नेपाल में 7.9 की तीव्रता वाले भूकंप आने से साबित हो जाता है कि यह शक्तिशाली भूकंप वाले क्षेत्र में आता है।
   
जोन—5 और जोन—4 में आता है उत्तराखंड 
उत्तराखंड में उत्तरकाशी, चमोली, रूद्रप्रयाण, पिथौरागढ़, बागेश्वर तथा अल्मोड़ा, पौड़ी और टिहरी के कुछ हिस्से जोन—5 में आते हैं और यहां खतरनाक भूकंप आने की संभावना बनी रहती थी। इसके बाकी हिस्से भी जोन—4 में आते हैं और इसलिए वहां भी खतरा कम नहीं रहता है। उत्तराखंड में पिछले 25 वर्षों में दो बड़े भूकंप आये थे। 19 अक्तूबर 1991 को उत्तरकाशी में आये भूकंप से 768 लोगों की मौत हो गयी थी और 5000 से अधिक लोग घायल हो गये थे। इस कारण 18 हजार से अधिक इमारतें नष्ट हो गयी थी। इसके बाद 28 मार्च 1999 को चमोली के पिपलकोटी इलाके में भूकंप आया जिसकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर 6.4 आंकी गयी। इससे 115 लोगों की जानें गयी थी। इन दोनों भूकंप का प्रभाव समीपवर्ती राज्यों में भी देखने को मिला था। तब तीन यानि 31 मार्च तक भूकंप आते रहे थे जिन्हें 'आफ्टरशॉक' कहा जाता है। इनके अलावा पांच जनवरी 1997 को धारूचुला में 5.6 तीव्रता, 14 दिसंबर को गोपेश्वर में 5.0 तीव्रता का, पांच अगस्त 2006 को उत्तराखंड—नेपाल सीमा पर और 22 जुलाई 2007 को उत्तरकाशी में भूकंप आया था। इसके अलावा जब भी भूकंप का केंद्र कश्मीर, पाकिस्तान या नेपाल रहा तो उसका असर उत्तराखंड सहित पूरे उत्तर भारत में देखने को मिला था।
   अभी दिक्कत उत्तराखंड में भवन निर्माण से आ रही है। देहरादून जैसे शहरों में बड़ी इमारतें बन रही हैं जबकि यह भूकंप के जोन—4 में आता है। भूकंप आने पर ऊंची इमारतों को सबसे अधिक खतरा रहता है और इसलिए मुझे दिल्ली के सटे नोएडा में बनी गगनचुंबी इमारतों को देखकर वहां रह रहे लोगों की सुरक्षा को लेकर चिंता होने लगती है। 
   बहरहाल भूगोल का छात्र होने के कारण मुझे जितना पता था मैंने जानकारी यहां देने की कोशिश की है। यदि आपको इसमें कुछ जोड़ना है तो नीचे टिप्पणी वाले कालम में जरूर इसको साझा करें।

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बुधवार, 22 अप्रैल 2015

तिमला : पत्तों से लेकर फल तक सब उपयोगी

 

     तिमला या तिमिल। क्या आपने कभी खाया है इसका कच्चा या पक्का हुआ फल। अगर आपने पहाड़ों में कुछ भी दिन गुजारे होंगे तो जरूर इसके स्वाद से वाकिफ होंगे। मेरे घर के पास में तिमला के दो पेड़ थे। एक था जिस पर जड़ से लेकर आगे टहनी तक खूब सारे तिमला लगते थे। कई हम कच्चे ही खा जाते थे। इनकी सब्जी भी बन जाती थी। जब यह पक जाता था तो इसका स्वाद लाजवाब होता था। दूसरे पेड़ के तिमला, उनमें तो अक्सर कीड़ा ही लगा रहता था। इसलिए मैं कहता हूं कि तिमला दो तरह के होते हैं। असल में कुछ स्थानों या कुछ पेड़ों के फल पकते नहीं हैं और यदि वे पकते हैं तो उनके अंदर स्वादिष्ट रसीला पदार्थ नहीं बल्कि सूखा हुआ पदार्थ होता है जिसमें कीड़े लगे होते हैं। मैंने जिस दूसरे तिमला का जिक्र किया है वह इसी श्रेणी में आता है वैसे वनस्पति विज्ञानियों ने अब तक इसकी कुल पांच प्रजातियों का पता किया है।
   चलो अब आपको तिमला से अवगत करा दूं। पहाड़ों में इसे तिमला, तिमिल, ति​मली, तिरमल आदि नामों से जाना जाता है। तिमला का वान​स्पतिक नाम फाइकस आरिकुलाटा है। यह मोरासी प्रजाति का फल है, जिसमें गूलर भी शामिल है। तिमला मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, नेपाल और भू​टान में होता है। तिमला का पेड़ मध्यम आकार का होता है जिसमें जड़ से कुछ दूरी के बाद ही टहनियां निकलनी शुरू हो जाती हैं। इसके पत्ते काफी बड़े होते हैं। इस वजह से तिमला को अंग्रेजी में 'एलीफेंट इयर फिग' कहा जाता है। इसके इन पत्तों को, विशेषकर सर्दियों के समय में जब वे कोमल होते हैं, तब चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसकी पत्तियां काफी पौष्टिक होती हैं और इसलिए इन्हें दूध देने वाले पशुओं को खिलाया जाता है। कीड़े भी इसके पत्तों को काफी पसंद करते हैं। पहाड़ों में लंबे समय तक तिमला के साफ पत्तों से पत्तल बनायी जाती थी। अब भले ही शादी या अन्य किसी कार्य में 'माल़ू' के पत्तों से बने पत्तलों या फिर से प्लास्टिक या अन्य सामग्री से बने पत्तलों का उपयोग किया जा रहा है, लेकिन एक समय था जबकि पत्तल सिर्फ तिमला के पत्तों के बनाये जाते थे। इसके पत्तों को शुद्ध माना जाता है और इसलिए किसी भी तरह के धार्मिक कार्य में इनका उपयोग किया जाता है। अब भी धार्मिक कार्यों से जुड़े कई ब्राह्मण कम से कम पूजा में तिमला के पत्तों और उनसे बनी 'पुड़की' (कटोरीनुमा आकार) का उपयोग करना पसंद करते हैं।
    अब बात करते हैं तिमला के फल की। कहा जाता है कि इसमें फल नहीं आता लेकिन कुछ वनस्पति विज्ञानियों का मानना है कि इसका जो फल होता है असल में वह इसका फूल है। यह ऐसा फूल है जो चारों तरफ से बंद रहता था लेकिन इसके अंदर बीज होते हैं तथा कुछ छोटे कीट इसके अंदर जाकर परागण संपन्न करवाने और बीजों को पकाने में मदद करते हैं। तिमला के फल इसकी जड़ से ही लगना शुरू हो जाते हैं और हर टहनी पर लगे रहते हैं। । कई बार तो पेड़ तिमला से इतना लकदक बन जाता है कि सिर्फ इसके पत्ते और फल ही दिखायी देते हैं। इसका फल पहले हरा होता है जबकि पकने के बाद यह लाल या भूरा हो जाता है। इसके कच्चे फल की सब्जी बनती है। सब्जी बनाने लिये छोटे छोटे तिमलों का उपयोग किया जाता है। इनको दो हिस्सों में काटकर छांछ में भिगाने के लिये रख दो जिससे इससे निकलने वाला सफेद रस (चोप) पूरी तरह से निकल जाता है। इसके बाद उन्हें अच्छी तरह से साफ करके सब्जी बनायी जा सकती है। आप इसकी सूखी सब्जी बना सकते हैं।
    तिमला जब पक जाता है तो इसके अंदर का गूदा बहुत स्वादिष्ट होता है। इसमें काफी मात्रा में कैल्सियम पाया जाता है। इसमें कार्बोहाइड्रेड, प्रोटीन, फाइबर तथा कैल्सियम, मैग्निसियम, पो​टेसियम और फास्फोरस जैसे खनिज विद्यमान होते हैं। पक्के हुए फल में ग्लूकोज, फू्क्टोज और सुक्रोज पाया जाता है। इसमें जितना अधिक फाइबर होता है उतना किसी अन्य फल में नहीं पाया जाता है। इसमें कई ऐसे पोषक तत्व होते हैं जिनकी एक इंसान को हर दिन जरूरत पड़ती है। इस फल के खाने से कई बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है। पेट और मूत्र संबंधी रोगों तथा गले की खराश और खांसी के लिये इसे उपयोगी माना जाता है। इसे शरीर से जहरीले पदार्थों को बाहर निकालने में भी मदद मिलती है। आपको यह लेख क्या उपयोगी लगा, नीचे टिप्पणी जरूर करें। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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सोमवार, 6 अप्रैल 2015

'शिकारी' बोर ने बसाया था सोमेश्वर (बोरारौ घाटी)


बोरारौ घाटी का विहंगम दृश्य। फोटो : शंकर सिंह 
                                                        ———— शंकर सिंह ————
    सोमेश्वर आज एक तहसील है, जिसमें 150 गांव आते हैं। सांस्कृतिक नगरी जिला अल्मोड़ा से करीब 40 किलोमीटर दूर और सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत की जन्मस्थली कौसानी से करीब 12 किलोमीटर पहले स्थित इस घाटी का इतिहास कुछ यूँ रहा है -
     कहते हैं कि चंपावत के राजा गोरिया अर्थात पूरे कुमाऊं में न्यायप्रिय राजा के रूप में पूजे जाने वाले भगवान ग्वल ने धानिरौ में चार जातों को थात (जागीर) दे रखी थी, जिसमें बोर, बोरिला, चौधरी और कार्की थे। इनमें बोर काफी लड़ाकू था और उसने दूसरी तीनों जातों को काफी परेशान किया। आखिरकार तीनों ने मिलकर ग्वल के दरबार में गुहार लगाई। ग्वल ने बोर को बुलाकर काफी समझाया, लेकिन वो नहीं माना। इसलिए ग्वल ने बोर को अपने राज्य से निकाल दिया। बोर धानिरौ छोड़कर अल्मोड़ीहाट यानी तत्कालीन आलमशहर, अल्मोड़ा आ गया, जहां उस समय चंद वंशीय राजाओं का राज था।
    कहते हैं कत्यूरी राजवंश का पतन 700 ईस्वी के करीब हो गया था, जिसके बाद चंद वंशीय राजाओं का उदय हुआ। इसके प्रथम शासक सोमचंद बताए जाते हैं। हालांकि कुमाऊं में चंद और कत्यूरी राजवंश समकालीन माने जाते हैं। लेकिन सत्ता संघर्ष में चंद राजा विजयी रहे, जिन्होंने शुरुआत में अपनी राजधानी चंपावत बनाई। लेकिन 1563 ईस्वी में राजा बलदेव कल्याण चंद इसे अल्मोड़ा ले आए।
      शायद ये इसके बाद की ही घटना होगी, तब अल्मोड़ा में राजा उदय चंद, तिरमोली चंद, राजा वीर विक्रमी चंद का राज था। बोर ने धानिरौ से आने के बाद इनके दरबार में नौकरी मांगी, तो इन्होंने कैड़ के साथ बोर को भी अपना शिकारी बना लिया। एक दिन जब राजा शिकार करते हुए रिहेड़छिन यानी रनमन के करीब आए, तो दोनों शिकारियों ने राजा से जागीर की मांग की। ऐसे में राजा ने दोनों को अपनी मर्जी से जगह हथियाने के लिए कह दिया।
      कहते हैं कि बोर काफी चतुर था, जिसने एक किल यानी सीमा रेखा के लिए लकड़ी वही रिहेड़छिन में गाड़ दी। इसके बाद दूसरा हथछिन यानी कौसानी, तीसरा लोदछिन यानी मवे के पास लोद में और चौथा गिरेछिन यानी भूलगांव-आगर के करीब गाड़ दिया। इसके बाद चार छिन का मालिक बन गया बोर। इस चार किलों के एरिया को ही बोरारौ घाटी कहते हैं।
       बोर खुद छह राठ फल्या यानी चारों किलों के केंद्र सोमेश्वर में विराजमान हुए। कहते हैं कि बोर बाद में भाना राठ, अर्जुन राठ, हतु राठ और रितु राठ समेत छह भाई हुए, जिनके नाम पर आज भी फल्या में छह गांव बंटे हुए हैं। इस चारों छिन के एरिया में खाती, खर्कवाल, महरा, फर्त्याल राणा, भंडारी, नेगी और भैसौड़ा समेत कई जातियां रहती हैं। ब्राह्मणों में जोशी, कांडपाल, तिवारी, लोहनी लोगों के भी कुछ गांव हैं।
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    हिन्दी पत्रकारिता के युवा तुर्क शंकर सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया से शिक्षा प्राप्त करने के बाद मीडिया से जुड़े। पंजाब केसरी, दैनिक जागरण, अमर उजाला और जनसत्ता में विभिन्न पदों पर काम करने के बाद वर्तमान समय में नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता पद पर कार्यरत। 
       समय मिलने पर अक्सर पहाड़ों की सैर पर निकलने वाले शंकर कुमांऊ के इतिहास, सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति पर भी गहरी पैठ रखते हैं। 


शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

उत्तराखंड आंदोलन का जनगीत

नरेंद्र सिंह नेगी जी के गीत 'लड़ै लगी राली' की समीक्षा 

ब भी कोई बड़ा आंदोलन होता है तो कुछ गीत या नारे उसकी पहचान बन जाते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में जयशंकर प्रसाद के ​'हिमाद्री तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती ...की भूमिका से भला कौन परिचित नहीं होगा। उत्तराखंड आंदोलन में नरेंद्र सिंह नेगी के  'तेरा जुल्मुकु हिसाब चुकौला एक दिन ....गीत ने यही भूमिका निभायी थी। यह वह गीत था जिसने आम व्यक्ति को आंदोलन से जोड़ा। उनमें आक्रोश और उत्साह भरा और उन्हें अहसास कराया कि विकास का एकमात्र विकल्प है उत्तराखंड राज्य।
     उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की अलख 1930 में जगा दी गयी थी लेकिन 1994 में आंदोलन अपने चरम पर पहुंचा। पहाड़ का हर व्यक्ति आंदोलित और उद्वेलित था और ऐसे में मुलायम सिंह यादव की तत्कालीन सरकार की दमनकारी नीतियों के कारण गुस्सा फूट रहा था। दिल्ली में दो अक्तूबर 1994  को होने वाले विशाल प्रदर्शन के लिये कूच करने वाले आंदोलनकारियों पर मुलायम सरकार ने कहर ढा दिया। पुलिसकर्मियों ने रामपुर तिराहे पर निहत्थे लोगों पर गोलियां चलायी और महिलाओं के साथ दुराचार किया। यह जुल्म और बर्बरता की पराकाष्ठा थी। उत्तरप्रदेश सरकार की आंदोलन को कुचल देने वाली नीतियों के खिलाफ तथा उत्तराखंडियों को जागृतउद्वेलित और अपने मान सम्मान की खातिर आगे बढ़ने की प्रेरणा देने के लिये इस गीत का जन्म हुआ। जब कवि लिखता है कि तेरे जुल्मों का हिसाब एक दिन जरूर चुकाया जाएगा और लाठी गोली का जवाब दिया जाएगा तो कहीं न कहीं उनके दिमाग में मुज्जफरनगर की घटना तैर रही थी।

     यह एक तरह से सीधे सरकार को चुनौती देने जैसा था। उस सरकार को जिसके एक विभाग में स्वयं इस गीत के रचियता और गायक नरेंद्र सिंह नेगी कार्यरत थे। एक सच्चे राष्ट्रप्रेमी से ही ऐसी उम्मीद की जा सकती थी। यह वह दौर था जब पहाड़ उबल रहा था लेकिन सरकार की दमनकारी नीतियों के कारण भय भी व्याप्त था। ऐसे में इस गीत के उदीप्त शब्दों और जोशीली आवाज ने लोगों की उद्विग्नता समाप्त की थी। इस गीत ने उत्तराखंडियों को लामबंद करने में अहम भूमिका निभायी। यह जनगीत बन गया। जगह जगह आंदोलन होने लगे और तब सभी को एक सूत्र में पिरोने का काम यह गीत कर रहा था।
    गीत का केंद्र बिंदु विकास है। '.... विकास का उजाला होने तक उत्तराखंड में अलख जगाये रखने और लड़ाई जारी रखने का आह्वान एक तरह से सरकार के साथ साथ लोगों के पास भी एक स्पष्ट संदेश भेज रहा था कि हम जो आंदोलन कर रहे हैं वह गलत नहीं है। लोकतंत्र में अपने अधिकारों के लिये लड़ना जरूरी होता है। हम पूरे स्वाभिमान के साथ अपने अधिकारों के लिये आवाज उठा रहे हैं और ऐसा करके हम सही रास्ता भी अपना रहे। हमारा मूल उद्देश्य पहाड़ों को विकास की राह पर अग्रसर करना है जो कि सुदूर लखनऊ में बैठी सरकार से संभव नहीं है। हिमाचल प्रदेश का उदाहरण सामने था जो 1971 में गठन के बाद विकास की सीढ़ियां तेजी से चढ़ रहा था। दूसरी तरफ उसका पड़ोसी और उसी तरह की भौगोलिक संरचना वाले गढ़वाल और कुमांऊ सरकारी बेरूखी के शिकार थे। उत्तर प्रदेश की अधिकतर सरकारें अपनी भ्रष्ट नीतियोंजातिवाद और क्षेत्रवाद के कारण पहाड़ से सौतेला व्यवहार करती रही थी। इसलिए कवि ने सरकार की कमियों को भी खुलकर उजागर किया। मसलन देख लिया तेरा राजलूट भ्रष्टाचार है/ उत्तराखंड राज्य अब विकास का आधार है/ भ्रष्ट सिर में ताज रहेगाजब तक गुंडाराज रहेगा/ अलख जगी रहेगी इस उत्तराखंड मेंलड़ाई जारी रहेगी इस उत्तराखंड में। यही वजह थी कि एक भ्रष्ट और लूट खसोट में लिप्त सरकार से लोहा लेने का आह्वान करने वाले इस गीत ने लोगों को परस्पर संबद्ध करने वाला नेतृत्व प्रदान किया था।
     पहाड़ी जनमानस को मुलायम सरकार में दैत्येंद्र नजर आता था। जिन भोले भाले लोगों का कभी धरनाप्रदर्शनहड़ताल जैसे शब्दों से पाला नहीं पड़ा था उस जनमानस को इस गीत से प्रेरणा मिली। यह गीत ऐसे समय (1994) में आया जबकि लोगों को लग रहा था कि अब बहुत हो चुका है और सहन करने का मतलब कायरता होगी। गांव के हर व्यक्ति के लिये आंदोलन में शामिल होना संभव नहीं था। ऐसे में खेत खलिहानों से आवाज उठाने वाला व्यक्ति इस गीत के सहारे आंदोलन का हिस्सा बनकर अपनी आत्मग्लानि दूर करता। उत्तराखंड का शायद ही कोई ऐसा गांव या घर रहा होगा जहां से यह आवाज नहीं उठी होगी कि 'अलख जगीं राली ये उत्तराखण्डमालड़ैं लगीं राली ये उत्तराखण्डमा। आंदोलन के दौरान शायद ही कोई ऐसा धरनाप्रदर्शन या जुलूस रहा होगा जिसमें यह आवाज नहीं उठी होगी 'तुमारि तीस ल्वेकि तीसहमारी तीस विकास की ....  (तुम्हारी प्यास लहू की प्यासहमारी प्यास विकास की/ तुम्हारी भूख जुल्महमारी उत्तराखंड राज्य की/ जब तक नहीं मिलता राज्यबंद रहेगा राजकाज...।)
     बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक हर कोई आंदोलन में कूद पड़ा था। महिलाओं ने तो बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। ज्वाला भड़क रही थी। ऐसे में गीत ने लोगों को उद्धेलित करने के साथ ही उन्हें संयमित बने रहने का संदेश भी दिया। गीत ने पहाड़वासियों को यह समझा दिया कि उनके मान सम्मान को ललकारने वाले को जवाब देना जरूरी है और वे किसी के आतंक को सहन नहीं सह सकते हैं। गीत हालांकि इसके लिये लोकतांत्रिक तरीके से ही आगे बढ़ने तथा  महात्मा गांधी के असहयोग और अहिंसात्मक आंदोलन को अपनाने की सलाह भी दे रहा था।  पहाड़ के युवा वर्ग को लग रहा था कि खून का बदला खून से ही चुकाया जा सकता है। इससे वास्तव में भटकाव की स्थिति पैदा हो जाती और उत्तराखंड आंदोलन में अपने उद्देश्य पर आगे नहीं बढ़ पाता। हर सरकार किसी आंदोलन को कुचलने के लिये इस तरह की रणनीति अपनाती रही है। आंदोलन को अपने उद्देश्य से भटकने से बचाने में भी इस गीत की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। उत्तराखंड आंदोलन से जुड़ा महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि आंदोलन अहिंसात्मक व लोकतंत्रात्मक ढंग से ही आगे बढ़ा। कवि ने कितने सरल शब्दों में समझा दिया कि यह कानून सम्मत लड़ाई और हम भीख नहीं अपने अधिकारों के लिये लड़ रहे हैं। साफ शब्दों में यह भी संदेश भी लोगों को पहुंचा दिया गया कि राज्य मिलने तक उन्हें भूखा प्यासा रहने के लिये तैयार रहना चाहिए।
    यह लोकगीत एक तरह से यथार्थ को बयां करने वाला था जिसमें स्वतंत्रताजन चेतना और निडरता का भाव होने के साथ ही जनमानस की चिंता भी दिखती है। उत्तराखंड राज्य बन गया लेकिन अफसोस है कि विकास मंदगति से ही होता रहा। पहाड़ का पानी और जवानी रोकने की बात की गयी थी लेकिन राज्य गठन के बाद पलायन अधिक बढ़ा। आज जुल्म नहीं हो रहे हैं लेकिन विकास मंदगति से हो रहा है और यह पलायन का एक बड़ा कारण है। इसलिए आज भी ''जुल्मुकू हिसाब चुकौला एक दिन.....'' गीत को फिर से सुननेउसे समझने और उस पर अमल करने का वक्त है। इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है और कल भी बनी रहेगी।

                                                                                        धर्मेन्द्र मोहन पंत


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