पच्चीस दिसंबर को दुनिया याद करती है क्रिसमस के लिये। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन भी इसी दिन पड़ता है। वाजपेयी जी को भी याद किया जाता है लेकिन हम स्वतंत्रता के एक महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को भूल जाते हैं जिनका जन्म 25 दिसंबर 1891 को गढ़वाल जिले के ग्राम मासी में हुआ था। चंद्र सिंह गढ़वाली, जिनका मूल नाम चंद्र सिंह भंडारी था, का संक्षिप्त परिचय यही है कि वह बचपन से ही क्रांतिकारी विचारधारा के थे। कोई भी साहसिक कार्य करने से नहीं हिचकिचाते थे। उनका जन्म किसान परिवार में हुआ था। मां पिता की इच्छा के विपरीत वह प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लैंसडाउन में गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हुए। भारतीय सेना के साथ उन्होंने 1915 में मित्र देशों की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में भी हिस्सा लिया। उन्हें गढ़वाल राइफल्स के अन्य सैनिकों के साथ फ्रांस भेज दिया गया था। लेकिन चंद्र सिंह गढ़वाली से दुनिया का असली परिचय 23 अप्रैल 1930 को हुआ था जब उन्होंने पेशावर में देश की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था। यह एक ऐतिहासिक घटना थी और कहा जाता था कि सुभाषचंद्र बोस ने जब आजाद हिन्द फौज का गठन किया था तो वह चंद्र सिंह गढ़वाली से जुड़ी इस घटना से भी प्रेरित थे। यही वजह थी कि उन्होंने आजाद हिन्द फौज में गढ़वाल राइफल्स के सैकड़ों जवानों को शामिल किया था।
बहरहाल हम यहां पर बात करेंगे पेशावर कांड की। पहले इससे जुड़ी पृष्ठभूमि की संक्षिप्त जानकारी हासिल कर लेते हैं। यह वह दौर था जब पूर्ण स्वराज्य की घोषणा के बाद देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन चल रहा था। महात्मा गांधी ने 12 मार्च 1930 को डांडी मार्च शुरू कर दिया गया था। इस बीच यह चर्चा भी चल रही थी कि भगत सिंह और उनके साथियों राजगुरू और सुखदेव को फांसी दे दी जाएगी। इससे हर राष्ट्रप्रेमी उद्वेलित था। चंद्र सिंह गढ़वाली भी इनमें शामिल थे लेकिन पेशावर कांड भावनाओं के इस उबाल का परिणाम मात्र नहीं था बल्कि इसकी तैयारी योजनाबद्ध तरीके से की गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली ने 2/18 रायल गढ़वाल राइफल के अपने साथियों को पहले से ही तैयार कर दिया था कि उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिये आवाज उठा रहे पठानों पर गोली चलाने के अग्रेंजो के आदेश को नहीं मानना है।
बहरहाल हम यहां पर बात करेंगे पेशावर कांड की। पहले इससे जुड़ी पृष्ठभूमि की संक्षिप्त जानकारी हासिल कर लेते हैं। यह वह दौर था जब पूर्ण स्वराज्य की घोषणा के बाद देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन चल रहा था। महात्मा गांधी ने 12 मार्च 1930 को डांडी मार्च शुरू कर दिया गया था। इस बीच यह चर्चा भी चल रही थी कि भगत सिंह और उनके साथियों राजगुरू और सुखदेव को फांसी दे दी जाएगी। इससे हर राष्ट्रप्रेमी उद्वेलित था। चंद्र सिंह गढ़वाली भी इनमें शामिल थे लेकिन पेशावर कांड भावनाओं के इस उबाल का परिणाम मात्र नहीं था बल्कि इसकी तैयारी योजनाबद्ध तरीके से की गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली ने 2/18 रायल गढ़वाल राइफल के अपने साथियों को पहले से ही तैयार कर दिया था कि उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिये आवाज उठा रहे पठानों पर गोली चलाने के अग्रेंजो के आदेश को नहीं मानना है।
अंग्रेजों को कानों कान खबर न लगे इसके लिये पूरी तैयारी की गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली तथा पेशावर बैरक में हरिसिंह लाइन में रह रहे उनके साथी रात में देश की स्थिति और भावी रणनीति पर बंद कमरे में चर्चा करते थे। अंग्रेजों को कुछ भनक लग गयी थी और इसलिए उन्होंने फूट डालो राज करो की अपनी रणनीति के तहत गढ़वाली सैनिकों को उकसाने का काम भी किया। गढ़वाल राइफल्स के जवानों को बताया गया कि पेशावर में केवल दो प्रतिशत हिन्दू रहते हैं और मुसलमान उन्हें सताते हैं। उनके देवी देवताओं को अपमान करते हैं और इसलिए उन्हें इन मुसलमानों पर गोली चलाने से नहीं हिचकिचाना है। सचाई इससे परे थी और चंद्र सिंह गढ़वाली इससे अच्छी तरह से अवगत थे। उन्होंने अपने साथियों को समझा दिया था कि वे अंग्रेजों की चाल में नहीं फंसे। उनका अपने साथियों को स्पष्ट संदेश था, '' कुछ भी हो जाए हमें अपने भाईयों पर गोलियां नहीं चलानी हैं। ''
''गढ़वालीज ओपन फायर'' का जवाब था ''गढ़वाली सीज फायर''
पेशावर में 23 अप्रैल 1930 को विशाल जुलूस निकला था, जिसमें बच्चों से लेकर बूढ़ों और महिलाओं ने हिस्सा लिया। स्वाधीनता की मांग कर रहे हजारों लोगों के नारों से आसमान गूंज रहा था तो दूसरी तरफ अंग्रेजों का खून खौल रहा था। 2/18 रायल गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों को भी प्रदर्शनकारियों पर नियंत्रण पाने के लिये भेज दिया गया। इसकी एक टुकड़ी काबुली फाटक के पास निहत्थे सत्याग्रहियों के आगे खड़ी थी। अंग्रेज कंमाडर के आदेश पर इन सभी प्रदर्शनकारियों को घेर दिया गया था। गढ़वाली सैनिकों को जुलूस को बलपूर्वक तितर बितर करने के लिये कहा गया। सैनिकों ने प्रदर्शनकारियों से हटने को कहा। वे नहीं हटे। कंपनी कमांडर का धैर्य जवाब दे गया और उसने लगभग चिल्लाते हुए आदेश दिया ''गढ़वालीज ओपन फायर'' और फिर यहां पर चंद्र सिंह गढ़वाली का उदय हुआ। वह कमांडर के पास में ही खड़े थे। उन्होंने कड़कती आवाज में कहा, ''गढ़वाली सीज फायर''। देखते ही देखते सभी राइफलें नीचे हो गयी। अंग्रेज कमांडर बौखला गया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस सैन्य टुकड़ी का वह सर्वोसर्वा है वह उसके हुक्म की अवहेलना करेगी। गढ़वाली सैनिकों का साफ संदेश था कि वह निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां नहीं चलाएंगे। अंग्रेज सैनिकों ने हालांकि बाद में पठानी आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसायी। गढ़वाली सैनिकों से उनके हथियार ले लिये गये। अंग्रेज किसी भी तरह से आंदोलन को कुचलना चाहते थे और इसके लिये उन्हें गढ़वाल राइफल्स से मदद की दरकार थी। इसलिए गढ़वाली सैनिकों को समझाने के प्रयास भी किये गये कि वह निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाने से नहीं हिचकिचाएं लेकिन देश प्रेम से ओत प्रोत गढ़वाली सैनिक टस से मस नहीं हुए। यहां तक कि सभी सैनिकों ने इस्तीफा भी दे दिया था, लेकिन अब अंग्रेज गढ़वाल राइफल्स की इस टुकड़ी से ही बदला लेने के लिये तैयार हो गयी थी। चंद्र सिंह गढ़वाली सहित इन सैनिकों को नौकरी से निकाल दिया गया और उन्हें कड़ी सजा दी गयी लेकिन उन्होंने खुशी . खुशी इसे स्वीकार किया। चंद्र सिंह गढ़वाली जेल से छूटने के बाद महात्मा गांधी से भी जुड़े। गांधी जी ने एक बार कहा था कि यदि उनके पास चंद्र सिंह गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश का कब का आजाद हो गया होता। चंद्र सिंह गढ़वाली बाद में कम्युनिस्ट हो गये और सिर्फ उनकी इस विचारधारा की वजह से देश ने इस अमर जवान को वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह असली हकदार थे। एक अक्तूबर 1979 को भारत के महान सपूत ने लंबी बीमारी के बाद दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में आखिरी सांस ली थी।
भारत सरकार ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के निधन के बाद उन पर डाक टिकट जारी किया था |
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने बाद में अपने नाम से गढ़वाली जोड़ा था। उन्हें और उनके साथियों को जब सजा दी गयी तो उन्होंने कहा था कि 'हे गढ़माता हम तेरी इज्जत और शान के लिये अपने प्राण न्यौछावर करने जा रहे हैं।' चंद्र सिंह गढ़वाली अमर हो गये लेकिन हमें उनके उन साथियों को भी याद करने की जरूरत है जिन्होंने हर मोड़ पर पूरी वीरता के साथ अपनी अगुवाई कर रहे इस साथी और गढ़वाल का सिर ऊंचा रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यहां पर चंद्र सिंह गढ़वाली के कुछ साथियों की सूची भी दी जा रही है जिन्हें अंग्रेज सरकार ने सजा दी थी। बैरिस्टर मुकुंदी लाल के प्रयासों से इन सैनिकों को मृत्यु दंड की सजा नहीं मिली लेकिन उन्हें जेल जाना पड़ा था।
पेशावर कांड में वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के अलावा जिन अन्य वीर सैनिकों को सजाएं हुई उनकी सूची इस प्रकार है ...
1. हवलदार नारायण सिंह गुंसाई, 2. नायक जीत सिंह रावत, 3. नायक भोला सिंह बुटोला, 4. नायक केशर सिंह रावत, 5. नायक हरक सिंह धपोला, 6. लांस नायक महेंद्र सिंह नेगी, 7. लांस नायक भीम सिंह बिष्ट, 8. लांस नायक रतन सिंह नेगी, 9. लांस नायक आनंद सिंह रावत, 10. लांस नायक आलम सिंह फरस्वाण, 11. लांस नायक भवान सिंह रावत, 12. लांस नायक उमराव सिंह रावत, 13. लांस नायक हुकुम सिंह कठैत, 14. लांस नायक जीत सिंह बिष्ट, 15. लांस नायक सुंदर सिंह बुटोला, 16. लांस नायक खुशहाल सिंह गुंसाई, 17. लांस नायक ज्ञान सिंह भंडारी, 18. लांस नायक रूपचंद्र सिंह रावत, 19. लांस नायक श्रीचंद सिंह सुनार, 20. लांस नायक गुमान सिंह नेगी, 21. लांस नायक माधोसिंह नेगी, 22. लांस नायक शेर सिंह असवाल, 23. लांस नायक बुद्धि सिंह असवाल, 24. लांस नायक जूरासंघ सिंह असवाल, 25. लांस नायक राय सिंह नेगी, 26. लांस नायक दौलत सिंह रावत, 27. लांस नायक डब्बल सिंह रावत, 28. लांस नायक रतन सिंह नेगी, 29. लांस नायक श्याम सिंह सुनार, 30. लांस नायक मदन सिंह नेगी, 31. लांस नायक खेम सिंह गुंसाई।
गढ़वाल के जिन वीर सैनिकों को अंग्रेजों ने कोर्ट मार्शल करके नौकरी से बाहर कर दिया था, उनके नाम इस प्रकार है ...
1. लांस नायक पातीराम भंडारी, 2. लांस नायक पान सिंह दानू, 3. लांस नायक राम सिंह दानू, 4. लांस नायक हरक सिंह रावत, 5. लांस नायक लक्ष्मण सिंह रावत, 6. लांस नायक माधो सिंह गुंसाई, 7. चंद्र सिंह रावत, 8. जगत सिंह नेगी, 9. शेर सिंह भंडारी, 10. मान सिंह कुंवर, 11. बचन सिंह नेगी।
कुछ जवानों की सेवाएं समाप्त कर दी गयी थी। इनकी सूची इस प्रकार है ...
1. सूबेदार त्रिलोक सिंह रावत, 2. जयसिंह बिष्ट, 3. हवलदार गोरिया सिंह रावत, 4. हवलदार गोविंद सिंह बिष्ट, 5. हवलदार प्रताप सिंह नेगी, 6. नायक रामशरण बडोला।
पुनश्च:... मेरे पिताजी श्री राजाराम पंत गढ़वाल राइफल्स में थे और वे बड़े गर्व से वीर चंद्रसिंह गढ़वाली का यह किस्सा सुनाया करते थे। जब 1994.95 में देहरादून में हिमालय दर्पण नामक समाचार पत्र में कार्यरत था तो उत्तराखंड आंदोलन पर एक विशेषांक निकाला गया था। मुझसे भी लिखने के लिये कहा गया और मैंने वीर चंद्रसिंह गढ़वाली पर लेख लिख दिया था। उस विशेषांक के संपादक श्री रमेश पहाड़ी थे। उन्होंने उस लेख को बहुत अच्छी तरह से संपादित किया और उत्तराखंड आंदोलन के उस विशेषांक में भी उसे जगह दी थी। आओ हम सब आज फिर से गढ़वाल के इस महान सपूत को याद करें। आपका धर्मेन्द्र पंत
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Hame apne gadwal rifel per naz/garv hai.jai hind
जवाब देंहटाएंstory of legends
जवाब देंहटाएंHonest pahari greate pahari....proud to be a Gadhwali and grand salute to all soldiers
जवाब देंहटाएंHonest pahari greate pahari....proud to be a Gadhwali and grand salute to all soldiers
जवाब देंहटाएंवीर चंद्रसिंह गढ़वाली के बचपन से जुड़ा एक रोचक किस्सा मैंने हाल में पढ़ा। एक बार अंग्रेज कलेक्टर की पत्नी उनके गांव के लोगों के पहनावे से नाराज हो गयी और सभी गांववासियों को कलेक्टर ने पौड़ी तलब कर दिया। गांव में हड़कंप मच गया। गांव के पुरोहित ने कहा कि वह भभूत मंत्र के दे देंगे लेकिन किसी को यह कलेक्टर के सिर पर डालनी होगी। ऐसा करने से गांव वासी कलेक्टर के कोप से बच जाएंगे। अब सवाल उठा कि 'बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे' यानि कलेक्टर के सिर पर भभूत कौन डाले। चंद्रसिंह की उम्र छोटी थी लेकिन वह इस काम के लिये आगे आये और आखिर अपने मिशन में सफल भी रहे। गांव वालों पर कोई जुर्माना नहीं लगा और सभी खुशी खुशी गांव लौट आये।
जवाब देंहटाएंगढ़वाली जी को सादर नमन। उनके अदम्य साहस से हर उत्तराखंडी को परिचित कराने के लिए आपको भी धन्यवाद।
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