शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' : प्रेमचंद भी थे जिनके प्रशंसक

'' आपकी 'अधूरा चित्र' कहानी अगस्त की 'माधुरी' में देखी और मुग्ध हो गया। सैकड़ों बधाईयां। विषय इतना मनोवैज्ञानिक और उसे ऊपर से इतनी खूबी से निभाया गया है कि पूरा चित्र करूण और व्यथित कल्पना के साथ आंखों के आगे खिंच जाता है। अब आप गल्प लेखकों की पहली सतर में आ गये हैं। ''

--------  महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद का श्री रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' को आठ सितंबर 1935 को लिखे गये पत्र के अंश।

     
    कहानीकार, उपन्यासकार, पत्रकार, प्रकाशक लेकिन दिल से पहाड़ी। उनकी कहानियों से कोई और नहीं बल्कि महान कथाकार प्रेमचंद भी प्रभावित थे। इसके बावजूद रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' को हिन्दी साहित्य में वह स्थान नहीं मिला जिसके वह असल में हकदार थे। आखिर क्यों? अगर इस सवाल का जवाब ढूंढकर गलती में सुधार करने की कोशिश की जाती तो फिर देश के लाखों हिन्दी प्रेमी उस शख्स से अनजान नहीं रहते जिसने 1927 से कथा लेखन की शुरूआत करके एक समय अपनी विशिष्ट पहचान बना ली थी। पिछले दिनों नेशनल बुक ट्रस्ट के कार्यालय जाना हुआ तो तब वहां हिन्दी विभाग के संपादक श्री पंकज चतुर्वेदी ने मेरा परिचय इस महान कथाकार से करवाया। उनकी कहानियों का संकलन हाथ में लेकर मैं उत्साहित था। मर्मस्पर्शी कहानियां जिनमें जीवन मूल्य, जीवन का कठोर यथार्थ समाहित है। जिनमें पहाड़ का संघर्ष भी दिखता है तो युद्ध के दु​ष्परिणामों की झलक भी मिलती है। कहानियों पर संक्षिप्त चर्चा बाद में करेंगे लेकिन पहले मैं आपका परिचय इस शख्सियत से करा देता हूं जिनका नाम है, रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी'।
     पौड़ी गढ़वाल के बड़ेथ गांव में एक अगस्त 1911 को जन्में रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' के पिताजी का नाम गोविन्द प्रसाद और माताजी का नाम सूरजी देवी था। राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल होने के लिये 1927 में इण्टर करने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी। उसी वर्ष यानि 1927 में उनकी पहली कहानी कलकत्ता (अब कोलकाता) से प्रकाशित पत्रिका 'सरोज' में छपी थी। इसके बाद अगले 50 वर्षों तक उनकी सृजन यात्रा चलती रही जिसमें उनके 19 कहानी संग्रह तथा तीन उपन्यास प्रकाशित हुए। पहाड़ी जी हिन्दी के अलावा गढ़वाली में भी समान रूप से लिखते थे। उत्तराखंड के ग्रामीण जीवन पर लिखने वाले वह पहले कथाकार थे। वह अंग्रेजी समाचार पत्रों 'स्टेट्समैन', 'टाइम्स आफ इंडिया', और 'अमृत बाजार पत्रिका' के संवाददाता भी रहे। वह 1940 में लखनऊ में आकाशवाणी से जुड़े। बाद में उन्होंने आजीविका के लिये प्रकाशन व्यवसाय भी अपनाया था। स्वतंत्रता आंदोलन में भी पहाड़ी जी ने सक्रिय भूमिका निभायी। वह 1926 से 1948 तक क्रांतिकारियों के संपर्क में रहे। इस दौरान भूमिगत रहकर ही उन्होंने क्रांतिकारियों की मदद की। बाद में वह वामपंथी आंदोलन में भी सक्रिय रहे। इलाहाबाद उनका कर्मक्षेत्र रहा, लेकिन पहाड़ की अस्मिता पर जोर देने के लिये ही उन्होंने ‘पहाड़ी’ उपनाम अपनाया। 30 अक्टूबर 1997 को उन्होंने अंतिम सांस ली थी।
     पहाड़ी जी के चर्चित कहानी संग्रहों में — अधूरा चित्र (1942), बया का घोंसला (1944), सफर (1945), बड़े भैजी (1945) नया रास्ता (1946), मौली (1946), छाया में (1947), शेषनाग की थाती (1947), कैदी और बुलबुल (1951), पहाड़ी की प्रेम कहानियां (1976) आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा उन्होंने तीन उपन्यास — निर्देशक (1944), सराय (1946) और चलचित्र (1948) भी लिखे। ये तीनों उपन्यास उन्होंने फिल्मों के लिये लिखे थे। इसके अलावा उन्होंने बच्चों के लिये भी कहानियां लिखी हैं।
     ब पहाड़ी जी की कहानियों की बात करें। नेशनल बुक ट्रस्ट में उनकी 18 कहानियों का संकलन प्रकाशित किया है। वरिष्ठ लेखक, भाषाविद, अनुवादक और चिंतक डा. गंगा प्रसाद विमल ने इन कहानियों को संकलित किया है। उनके शब्दों में, '' रमा प्रसाद घिल्डियाल को पर्वतीय होने के कारण सहज ही सृजनात्मक पीठिका के रूप में उपलब्ध था और उन्होंने उसी सूत्र के सहारे दरिद्र, दलित ओर स्त्री या अबला जैसे पक्षों को अपने सृजनात्मक कर्म के प्रमुख विषय चुने जो इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ में साहित्यिक विमर्श के परिपक्व व केंद्रीय विषय बने और एक तरह से प्रवृति सूचक सूत्रों के रूप में याद किये जाते हैं। ''
    असल में पहाड़ी जी यथार्थवादी लेखक थे। जब उनका जन्म हुआ तो उसके तुरंत बाद ही प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया। इसके बाद जब उन्होंने सबसे अधिक साहित्य सृजन​ किया तब दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था। इसकी स्पष्ट छाप उनकी कहानियों में देखने को मिल जाती है। संक्रांति, नागफांस, अतिथि, पतझड़, ब्रैंडकोट, नाता रिश्ता, चीन के आंचल में कुछ ऐसी ही कहानियां हैं जिनमें पहाड़ी जी यही संदेश देना चाहते हैं कि युद्ध से किसी का भला नहीं हो सकता है। बंगाल के अकाल के जीवंत वर्णन के लिये समालोचक उन्हें आज भी याद करते हैं। प्रेमचंद के साहित्य पर काम करने वाले लेखक और प्राध्यापक श्री कमल किशोर गोयनका के शब्दों में, ''पहाड़ी और उनकी पीढ़ी के लेखकों के लिए साहित्य और जीवन एक था, यश और धन-पद के लिए आज जैसा पागलपन न था और न साहित्य दक्षिण-वाम में बंटा हुआ था। ऐसा नहीं था कि सब कुछ पवित्र और शुद्ध था, किंतु साहित्य कर्म में पूरी ईमानदारी, तटस्थता और समर्थता थी। मेरे लिए पहाड़ी ऐसे ही लेखक थे जिन्होंने अपने साथ से पर्वतीय जीवन के नए द्वार खोले और पाठकों को मौलिक साहित्य प्रदान किया।''
     पहाड़ी जी ने स्त्री पुरूष संबंधों को बहुत ही अच्छी तरह से उकेरा है। अधूरा चित्र, सफर, सपने की दुनिया, निरूपमा, वह किसकी तस्वीर थी, रामू और भाभी, बया का घोंसला आदि में वह स्त्री पुरूष संबंधों की नई तरह से व्याख्या पेश करते हैं। जिस 'अधूरा चित्र' कहानी की प्रेमचंद ने भी सराहना की वह एक मार्मिक कथा है जिसमें विजातीय विवाह और प्रेमिका की असाध्य बीमारी का बहुत मर्मस्पर्शी शब्दों में वर्णन किया गया है। छोटा देवर, ब्रैंडकोट में पहाड़ की स्पष्ट झलक दिखती है। छोटा देवर में एक संवाद है, ''तेरी ब्वारी तो राणी बौराणी लग रही थी। मैं गिताड़ होता तो तुम पर गीत लिखता....''।
     अगर भाषा की बात करें तो कवि शमशेर बहादुर सिंह ने उनकी भाषा को 'कविता की व्यंजना लिये हुए' बताया है। उनके अनुसार, '' पहाड़ी ने नई भाषा का सृजन किया है। उनका वाक्य विन्यास तथा शैली एकदम ऐसे है जो कविता की सी व्यंजना लिये हुए है। ''
     'रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' संकलित कहानियां' पुस्तक को राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट) ने प्रकाशित किया है। इसकी कीमत 275 रूपये है और यह आनलाइन (http://www.nbtindia.gov.in/books_detail__19__indian-literature__2618__rama-prasad-ghildiyal-pahare.nbt) भी उपल​ब्ध है।

आपका धर्मेन्द्र पंत


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1 टिप्पणी:

  1. गढ़वाल के गोर्की, रमा प्रसाद घिल्ड़ियाल ‘पहाडी़’ जी का संक्षिप्त परिचय हेतु धन्वाद आदरणीय। मेरे ब्लाॅग अडिग शब्दों के पहरा http://adigshabdonkapehara.blogspot.com/ पर आपका स्वागत है।

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