जितेंद्र मोहन पंत
गरीब . अमीर कि भारत म या असमानता किलै की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।
कैकी बिरल़ी भी नौणी छ्वड़दी छी,
क्वी रुटि क गफा कु तरसदा छिन,
कैका कुकर हलवा खांदा छिन,
कैका बच्चा भूखा सींदा छिन।
देश का धन थै बंटणा म यो भेदभाव किलै की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
जैका भैंसा बंड्या कै छीन,
वो दूध की बूंद नि पे सकदू,
जो सर्या दुन्या कु पेट पल़द,
वो पुटगु भोरी नि खा सकदू।
काम कन वलौं खुणै, अपणी चीज कु अभाव किलैं की च?
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
क्वी बैठि . बैठि कै राज कैरी
शासन अपणु चलाणा छीं,
गरीब का खून थै चुसणा छीं,
वेका पसीना से नहाणा छीं।
अमीर गरीब का जीवन से ख्यल्णु रैंदु किलै की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।
कैकी बिरल़ी भी नौणी छ्वड़दी छी,
क्वी रुटि क गफा कु तरसदा छिन,
कैका कुकर हलवा खांदा छिन,
कैका बच्चा भूखा सींदा छिन।
देश का धन थै बंटणा म यो भेदभाव किलै की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
जैका भैंसा बंड्या कै छीन,
वो दूध की बूंद नि पे सकदू,
जो सर्या दुन्या कु पेट पल़द,
वो पुटगु भोरी नि खा सकदू।
काम कन वलौं खुणै, अपणी चीज कु अभाव किलैं की च?
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
क्वी बैठि . बैठि कै राज कैरी
शासन अपणु चलाणा छीं,
गरीब का खून थै चुसणा छीं,
वेका पसीना से नहाणा छीं।
अमीर गरीब का जीवन से ख्यल्णु रैंदु किलै की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
क्वी धन का ऊंचा डांडों म,
घुमदा ही रैंदा जाणू च,
क्वी कभि ऐथर नि बढ़ी पांदू,
सदनि ही लमडणु रैंदु च।
आवा, ये गरीब थै थामा, यो गिरणु किलै की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
आवा जवान भैं बंदो,
ईं खाई थै मिटा द्ययूंला,
गरीबै मदद कैरि की
वैथे ऐथर सरकाई द्ययूंला।
आज तक देखी कैकी भि, दुन्या सियीं राई किलैं की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
नोट : यह कविता 1979 में लिखी गयी थी।
घुमदा ही रैंदा जाणू च,
क्वी कभि ऐथर नि बढ़ी पांदू,
सदनि ही लमडणु रैंदु च।
आवा, ये गरीब थै थामा, यो गिरणु किलै की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
आवा जवान भैं बंदो,
ईं खाई थै मिटा द्ययूंला,
गरीबै मदद कैरि की
वैथे ऐथर सरकाई द्ययूंला।
आज तक देखी कैकी भि, दुन्या सियीं राई किलैं की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
नोट : यह कविता 1979 में लिखी गयी थी।
लेखक / कवि का परिचय
जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में।
राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक।
इसी दौरान समाज, पहाड़ और वहां के जीवन पर कई कविताएं लिखी।
बाद में सेना के शिक्षा विभाग कार्यरत रहे। 11 मई 1999 को 37 साल की उम्र में निधन।
आवा जवान भैं बंदो,
जवाब देंहटाएंईं खाई थै मिटा द्ययूंला,
गरीबै मदद कैरि की
वैथे ऐथर सरकाई द्ययूंला।
आज तक देखी कैकी भि, दुन्या सियीं राई किलैं की च,
निर्धन कु शोषण किलै कि च, यो अत्याचार किलै की च।।
..बहुत सुन्दर
धन्यवाद कविता जी। काश की ऐसा हो पाता।
हटाएं