शनिवार, 19 मार्च 2016

गांव की मेरी होली और होली गीत

 हम होली वाले देवें आशीष, गावें बजावें जी देवें आशीष..... घसेरी के पाठकों को होली की शुभकामनाएं। 


       मां ने हां कर दी थी लेकिन पिताजी को मनाना टेढी खीर था। उन्हें घर . घर जाकर होली खेलना और चंदा मांगना पसंद नहीं था। आखिर मां का सहारा लिया और पिताजी भी मान गये। उम्र यही नौ दस साल रही होगी। मेरे दोस्त भी मेरी तरह उत्साह और उमंग से भरे थे। सबसे पहले तैयार करनी थी ढोलकी। मैं खुद ही एक ढोलकी तैयार करने में जुट गया। उसमें भी मां की मदद ली। एक बेलनाकार बड़ा सा डब्बा (मां उसे एक किलो का डब्बा बोलती थी) मिल गया। उसका मुंह तो खुला ही था, दूसरी तरफ का हिस्सा काटकर पूरा खोखला बना दिया। इसके बाद व्यवस्था की गयी मजबूत से प्लास्टिक की। पहले बरसात में महिलाएं खेतों में काम करने के लिये सिर पर प्लास्टिक  डालकर ले जाती थी जो निराई . गुड़ाई करते समय उनकी पीठ को भी बचाता था। ऐसा ही एक पुराना प्लास्टिक मिल गया। लचीली लकड़ी ली और उसे डब्बे के गोलाकार आकार के बराबर काटकर उसके दोनों छोर बांध दिये। इससे वह गोल हो गया। अब उस पर ऊपर से प्लास्टिक को रखकर उसे लकड़ी के साथ अच्छी तरह से सील दिया। इसे पुड़की कहते हैं। अब दोनों पुड़ियों को कसकर रस्सी से जोड़ दिया। बीच में एक रस्सी गले में डालने के लिये भी लगा दी और बन गयी ढोलकी। मेरे कुछ दोस्तों ने भी अपनी ढोलकी बना दी थी। 
       होली खेलने के लिये तैयारियां शुरू हो गयी थी। मेरा गांव स्योली काफी बड़ा है और तब तो सभी गांववासी गांव में ही बसते थे। मतलब पलायन की हवा चंद लोगों पर ही लगी थी। भरा पूरा गांव था। स्वाभाविक था की होली की भी दो तीन टोलियां बन जाती थी और उस समय भी ऐसा हुआ। बड़े लड़के तो अलग खेल ही रहे थे छोटे बच्चों की भी तैल्या ख्वाल और मैल्या ख्वाल की दो टोलियां बन गयी थी। झगड़ा होने पर डर ढोलकी का ही रहता था क्योंकि ऐसी स्थिति में विरोधी दल सबसे पहले उसे फोड़ने की कोशिश करता। एक पुराने कपड़े से झंडा भी तैयार कर दिया था। झंडा पकड़ने वाला (उसे हम जोकर बोलते थे और इसके लिये आखिर में उसे कुछ अलग से पैसे मिल जाते थे) भी तैयार कर दिया था। 
      यह तो पहले ही पता था कि फलां दिन से होली खेलनी है। सात दिन होली खेलनी थी और इसलिए यह भी तय कर दिया कि किस दिन किन . किन घरों में जाना है। सातवीं रात होलिका दहन करना था। हमने भी बड़े लड़कों को देखकर पयां की टहनी पर (पहाड़ों में पयां का पेड़ हर जगह नहीं पाया जाता है इसलिए उसके बजाय मेलु या चीड़ के पेड़ का इस्तेमाल किया जाता है) एक चीर बांध दी। वहीं पर पेड़ की पूजा की और होली के गीत गाये। इस तरह से हम होल्यार (होली खेलने वाली बच्चों की टोली) बन गये थे। मां को कुछ होली गीत याद थे जो उन्होंने मुझे सिखा दिये थे। अगले दिन तो हमारे उत्साह का कोई ठिकाना ही नहीं था। हम फिर से पयां के पेड़ के पास इकट्ठा हुए, वहां पर पूजा की और फिर टहनी काटकर पहले से ही तय किये गये स्थान पर स्थापित कर दिया। यहां पर पत्थरों से छोटी कूड़ी बनायी जिसके अंदर एक दिया समा सके। यह भी पहले ही तय कर दिया था कि किस दिन किस के घर से तेल आएगा। 

गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी की संगीतमय होली। दोनों फोटो "सतपुली एकेश्वर फेसबुक पेज" से ली गयी हैं।

होली गीत खोलो किवाड़ से देवें आशीष तक 


    शाम को दिया जलाया और सबसे पहले 'कूड़ी' का पूजन करने के बाद हम निकल गये गांव में होली खेलने। एक ढोलकी बजाता तो बाकी ताली। प्रत्येक घर के चौक में घूम घूमकर होली खेलते और कुछ देर बाद एक लड़का घर वालों को तिलक लगाने के लिये जाता। उसके साथ दूसरा बंदा भी होता था जिसके पास थैला होता। पैसे मिले तो जेब में और चावल या गिंदणी (गुड़) मिला तो थैले में। हमें पता था कि प्रत्येक नये घर में पहुंचने पर शुरुआत किस होली गीत से करनी है। आपने भी गाया होगा ''खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर, दर्शन दीज्यो माई अंबे झुलसी रहो जी। जगमग जोत जले दिन राती, दर्शन दीज्यो माई अंबे झुलसी रहो जी। '' इसके बाद हर घर में कुछ नया होली गीत गाने की कोशिश की। कई गीत सही आते भी नहीं थे लेकिन बच्चे थे इसलिए टूटे फूटे गीत भी चलते थे। जब बड़े हो गये तब जरूर लय में और सही होली गायी।  कोई एक बंदिश गाता यानि भाग लगाता और बाकी उसके सुर में सुर मिलाते। होली के गीतों में स्थानीय पुट होने के साथ देवी देवताओं, कृष्ण लीला और प्रकृति का वर्णन होता। जैसे '' हर हर पीपल पात जय देवी आदि भवानी, कहां तेरो जनम निवास जय देवी आदि भवानी ....।'' या फिर '' को जन खेल घड़िया हिंडोला, को जन डोला झुकाये रहे हर फूलों से मथुरा छायी रहे। कृष्ण जी खेलें घड़िया हिंडोला, राधा जी डोला झुकाये रहे हर फूलों से ...।'' हम सभी बच्चों को वैसे कुछ गीत काफी रटे हुए थे। जैसे कि '' चम्पा चमेली के नौ दस फूला ..। '' और '' मत मारो मोहन लाला पिचकारी, काहेे को तेरा रंग बनो है काहे की तेरी पिचकारी, मत मारो ....। '' इसी तरह से ''झुकी आयो शहर में व्योपारी, इस व्योपारी को भूख लगी है, खाना खिला दे नथवाली ...''  बाद में पता चला कि यह कुमांऊ में बैठकी होली का अपभ्रंश था। (कुमांऊ में बैठकी होली काफी प्रसिद्ध है लेकिन गढ़वाल में भी कई जगह बैठकी होली का प्रचलन था और इसमें भी वही गीत होते थे कुमांऊ में गाये जाते हैं। इनमें से कुछ गीत बचपन में हमारे होठों पर भी चढ़े हुए थे जैसे 'मथुरा में खेले एक घड़ी, काहे के हाथ में डमरू बिराजे, काहे के हाथ में लाल छड़ी ...' या ' जल कैसे भरूं जमुना गहरी, ठाडे भरूं राजाराम देखत है बैठी भरूं भीगे चुनरी...। ')
      होली गीत गाते हुए एक नजर उस लड़के पर भी होती थी जो दान मांगने गया हो। जैसे ही पता चला कि होली का दान कहें या इनाम मिल गया है तो फिर आशीर्वाद देने के लिये एक गीत हुआ करता था '' हम होली वाले देवें आशीष, गावें बजावें जी देवें आशीष। बामण जीवें लाखों बरस, बामणि जीवें लाखों बरस, जी रयां पुत्र अमर रयां नाती....। '' अब घर की स्थिति देखकर आशीष आगे बढ़ाया जाता था। यदि लड़का बड़ा हो रहा है तो '' ह्वे जयां तुमरो नौनु बिवोण्या (आपका बेटा शादी के लायक बन जाए) '' यदि शादीशुदा है और बच्चे नहीं हैं तो फिर '' ह्वे जयां तुमरो नाती खिलौण्या (आपके घर में पोते का जन्म हो)। साथ में ही यह भी जतला दिया जाता था कि हमें देने से उन्हें फायदा ही फायदा होगा। कुछ इस तरह से '' जो हम द्यालू, वैथै शिव द्यालु '' या फिर  ''जौंला द्याया होली कु दान, वूं थै द्यालु श्री भगवान '' और कुछ इस तरह भी '' होली कु दान स्वर्ग समान।''
     दान में क्या मिलते थे 10, 25, 50 पैसे या फिर ज्यादा हुआ तो एक रूपया। कोई दो रूपया दे देता तो हमारी नजर में वह महीनों तक सम्मानीय रहता। मुझे याद है कि जब पहली बार मैंने होली खेली थी तो हमारे पास 21 रूपये और कुछ पैसे हुए थे। थोड़ा चावल और गिंदणी भी थी। सात दिन की कमाई। इनमें से कुछ पैसों के रंग लेकर आ गये थे। सातवीं रात को होली खेलने के बाद हम उस घर में जमा हो गये जिसके पास में कूड़ी थी। कूड़ी के आसपास दिन से ही खूब लकड़ियां, घास इकट्ठा कर दिया था। रात ढलते ही होलिका दहन कर दिया। मस्ती के साथ साथ चिल्ला चिल्लाकर गा रहे थे '' होली फुकेगे प्रह्लाद बचिगे''। अगले दिन सुबह उठकर रंग और गुलाल का खेल। पिताजी ने मेरे लिये बांस की पिचकारी बनायी थी जो वर्षो तक चली थी। दूर तक पानी फेंकती थी। जब बच्चे थे तो अपने आपस में रंग गुलाल लगाते और पानी फेंकते लेकिन जब बड़े हुए तो हम भी गांव की भाभियों के साथ होली खेलते थे। भाभियां भी देवरों को छकाने में माहिर हुआ करती थी। सुबह जल्दी उठकर खेतों में काम करने चली जाती थी। इनमें से कुछ रंग और पानी की मार से बच जाती थी तो कुछ फिर भी भिगो दी जाती थी। 
      रंग गुलाल का खेल होने के बाद मां ने गर्म पानी से खूब रगड़कर नहलाया। कुछ रंग फिर भी रह गया था। धूप सेंकी और फिर सारे लड़के इकट्ठे हो गये। जो चावल और गिंदणी मिले थे उसका बढ़िया सा मीठा भात (खुक्सा) बनाया। जो कमाई हुई थी उससे नौगांवखाल जाकर खाने की अन्य चीजें भी खरीदकर ले आये। तब 20 रूपये में काफी सामान आ जाता था। किसी बड़े की मदद से खाना तैयार हुआ, उसे छककर खाया और इस तरह से संपन्न हो गयी थी मेरी पहली होली। जब हम बड़े हुए थे तो हमारे पास बाकायदा एक अदद ढोलकी हुआ करती थी। हारमोनियम थी। बांसुरी वादक था और एक बार तो हम अपने गांव से बाहर दूसरे गांव भी होली खेलने गये थे। 

कुमांऊ की बैठकी होली


     यदि हम उत्तराखंड की होली की बात करें तो पहले यहां विशेषकर कुमांऊ में बैठकी होली खेली जाती थी। शास्त्रीय संगीत पर आधारित इस होली के बारे में कहा जाता है कि उसकी शुरुआत 1860 के आसपास रामपुर के उस्ताद अमानत उल्ला खां ने किया था। बैठकी होली के गायन की शुरुआत पौष मास के पहले रविवार से शुरू हो जाती है। इसके अलग अलग चरण होते हैं। यह होली रंगों से नहीं रागों से खेली जाती है क्योंकि इसमें आपको दादरा, ठुमरी, राग धमार, राग श्याम कल्याण, राग भैरवी सभी सुनने को मिल जाएंगे। बैठकी होली की शुरुआत आध्यात्मिक और भक्त्मिय होली गायन से होती है। बाद के चरणों में कृष्ण, राधा और गोपियों के बीच हास परिहास, प्रेमी . प्रेमियों की तकरार, देवर भाभी से जुड़े गीतों तक पहुंच जाती है। इन गीतों की विशेषता यह है कि ये ब्रज भाषा में होते हैं। 
    आपने भी अपने गांवों में कभी न कभी होली खेली होगी। कैसी थी आपकी होली जरूर बतायें। घसेरी के सभी पाठकों को होली की हार्दिक शुभकामनाएं। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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5 टिप्‍पणियां:

  1. पन्त जी अति सुन्दर... आलेख पढकर बचपन में खेली गयी होली की रौनक लंबे अरसे बाद मन के अंदर लौट आयी, भूले हुए होली के गीतों ने सच में एक बार बचपन का एहसास करा दिया,मन को उतना ही सूकून मिला जितना इनको गाने पर तब मिला करता था जब हम टोली बनाकार गांव गांव घूमते-नाचते थे. इसे और पढ़ने के इच्छा है. होली की हर भूली-बिसरी यादों को ताजा कराने और इसे जीवंत बनाने के साथ हमें हमारे बचपन में वापस ले जाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. गढवाल-पहाड़ के बार-त्यौहारों पर केंद्रित आपके अगले लेख के इन्जार में. सुभाष रतूड़ी

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  2. तुम्हारे गांव की सैर कर ली .ढोलकी भी देख ली ,रंग भी ,उल्लास भी .हमारे भारतीय पर्व का उल्लास तो गांवों में ही असली रूप में है .शहरों में तो आधुनिकता का रंग है हर चेहरे पर मुखौटे हैं बस .....

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  3. pant ji maja aa gaya...main delhi me hi pala bada hua hu..holi ki itni yadein hai ki mere pitaji ka ek samuh hua karta tha pushp vihar me uttarakhand nav kala sangam ke naam se jo ki ramleela bhi kiya karta tha....tab uss samuh ke jitne bhi sadsya the vo ek dusre ke ghar jakar aise hi holi khelte the or yeh sab holi geet gaate the..
    sunheri yadein taaza karne k liye dhanyawaad

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  4. Kya Bat hai ...chacha ji ... apnde purani yadin taza ker di .. Holi khelne Ap Gajera v aye honge..

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  5. Hamesha ki tarah majedar utkrasht varnan wah ! Yaadein taza karane ka hardik dhanyawad wa Holi ki shubhkamnayein.��

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