बसंत
जितेंद्र मोहन पंत
फूली सरसों ने बासंती चादर फैलाई,
सूखी धरती पर फिर से हरियाली छायी।
गेंहूॅं की बलियों में यौवन रंगत आई,
खिलते बुरांश से वन की आभा मन को भायी।
आओ हम भी इस मौसम से रंग उधार लें,
बहुरंगी रंगों से अपना जीवन निखार लें।
नभचर ने लो शुरू कर दिया कलरव गान,
छेड़ रही है पुरवैया सन सन करती मधुर तान।
बौराये आमों से कोयल बांट रही है शांति ज्ञान,
मोरों के नव—पर भर आए, बढ़ा रहे सौंदर्य शान।
आओ हम भी संगीत को अपने उर में भर दें
रूखेपन को त्याग सुदर्शन खुद को कर दें।
सूखे पत्तों को त्याग हरित अब हर डाली है,
बहुरंगी पुष्पों से भरी हुई धरती थाली है।
पुष्पों पर अली गुंजन से हर्षित माली है,
प्रकृति के मुख पर छायी यौवन लाली है।
आओ हम भी नव किसलयित हो जाएं,
खिलते सुमनों की तरह हर पल मुस्काएं।
सर्दी की सिहरन से तन को मुक्ति मिली है,
देखो! कैसी सौंधी—सौंधी सी धूप खिली है।
तन मन को भाता मौसम सम शीतोष्ण बना है,
ना गर्मी, ना सर्दी ताप मनभावक बना है।
आओ हम भी इस मौसम से 'समता' सीखें,
धैर्य धरें, सुख—दुख में अविचलित रहना सीखें।
लेखक / कवि का परिचय
जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक। इसी दौरान पहाड़ और वहां के जीवन पर कई कविताएं लिखी। बसंत की अनुपम छटा को अभिव्यक्त करने के साथ सकारात्मक संदेश देने वाली यह कविता 20 मार्च 1995 को कवि ने तब लिखी थी जब वह पेट से नीचे वाले हिस्से को लकवा मार जाने के कारण आर्मी हास्पिटल दिल्ली में जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे।
बसंत पर बहुत सुंदर कविता .हर शब्द से परिवेश झांक रहा है....कवि ने अपने संघर्ष को परे रख मौसम को शब्दों से ज़िंदगी दी है .इस सुंदर रचना के कवि को सादर नमन
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