जरा कल्पना करिये कि आपको किसी मार्ग की दूरी कदमों से नापनी है। हर एक कदम समान दूरी पर रखना है। इंच भर भी इधर या उधर नहीं। ...और फिर सटीक दूरी बतानी है। आपको लग गया होगा कि यह काम आसान नहीं है। अगर तिब्बत जैसे पठार और पहाड़ी इलाके में इस तरह से दूरी नापने और मानचित्र तैयार करने का काम किया जाए तो फिर हर कोई यही कहेगा कि यह तो नामुमकिन है। लेकिन पंडित नैन सिंह रावत ने आज से लगभग 150 साल पहले अपने कदमों से मध्य एशिया को नापकर इस क्षेत्र का मानचित्र तैयार कर दिया था। इससे मध्य एशिया के भूगोल, समाज और वहां से जुड़े तथ्यों को समझने में बहुत मदद मिली। चाहे पहाड़ चढ़ना हो या उतरना हो या फिर समतल मैदान हो, पंडित नैन सिंह साढ़े 33 इंच का एक कदम रखते। उनके हाथों में मनकों की एक माला होती थी। एक माला में 108 मनके होते हैं लेकिन वह अपने पास 100 मनके वाली माला रखते थे। वह 100 कदम चलने पर एक मनका गिरा देते और 2000 कदम चलने के बाद वह उसे एक मील मानते थे। इस तरह से 10,000 कदम पूरे होने पर सभी मनके गिरा दिये जाते। यहां पर पांच मील की दूरी पूरी हो जाती थी। इस महान अन्वेषक ने ही पहली बार दुनिया को यह बताया कि तिब्बत की सांगपो और भारत में बहने वाली ब्रह्मपुत्र असल में एक ही नदी है। सिंधु, सतलुज और सांगपो के उदगम स्थल और तिब्बत में उसकी स्थिति से भी विश्व को पंडित नैन सिंह ने ही अगवत कराया था। वह पहले व्यक्ति जिन्होंने तिब्बत की राजधानी ल्हासा की सही स्थिति और ऊंचाई बतायी थी। उन्होंने तिब्बत की कई झीलों का नक्शा तैयार किया जिनके बारे में इससे पहले कोई नहीं जानता था। आईये आज हम उत्तराखंड के इस महान अन्वेषक का संक्षिप्त परिचय आपसे करवाते हैं।
शिक्षक बनकर मिली उपाधि 'पंडित'
पंडित नैन सिंह रावत का जन्म पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील स्थित मिलम गांव में 21 अक्तूबर 1830 को हुआ था। उनके पिता अमर सिंह को लोग लाटा बुढा के नाम से जानते थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जल्द ही पिता के साथ भारत और तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गये। इससे उन्हें अपने पिता के साथ तिब्बत के कई स्थानों पर जाने और उन्हें समझने का मौका मिला। उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी जिससे आगे उन्हें काफी मदद मिली। हिन्दी और तिब्बती के अलावा उन्हें फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। इस महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार ने अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी। उन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर समय खोज और मानचित्र तैयार करने में बिताया।
पंडित नैनसिंह के अलावा उनके भाई मणि सिंह और कल्याण सिंह और चचेरे भाई किशन सिंह ने भी मध्य एशिया का मानचित्र तैयार करने में भूमिका निभायी थी। इन्हें जर्मन भूगोलवेत्ताओं स्लागिंटवाइट बंधुओं एडोल्फ और राबर्ट ने सबसे पहले सर्वे का काम सौंपा था। नैन सिंह दो साल यानि 1857 तक इन भाईयों से जुड़े रहे और इस दौरान उन्होंने मानसरोवर और राकसताल झीलों के अलावा पश्चिमी तिब्बत के मुख्य शहर गढ़तोक से लेकर ल्हासा तक का दौरा किया था। इस दौरे से लौटने के बाद नैनसिंह अपने गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक बन गये थे और यहीं से उन्हें पंडित नाम मिला। तब किसी भी पढ़े लिखे या शिक्षक के लिये पंडित शब्द का उपयोग किया जाता था। वह 1863 तक अध्यापन का काम करते रहे।
जीएसटी से जुड़कर दी अमूल्य जानकारी
ब्रिटिश राज में सर्वे आफ इंडिया ने दस अप्रैल 1802 को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे (जीटीएस) की शुरुआत की थी। इस सर्वे का उद्देश्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा मध्य एशिया और महान हिमालय का मानचित्र तैयार करना था। इसके कुछ वर्षों बाद 1830 में रायल ज्योगार्फिकल सोसायटी की भी स्थापना हुई थी। यह भी संयोग था कि पंडित नैनसिंह रावत का जन्म भी उसी साल हुआ था। तब तिब्बत ब्रिटेन के लिये भी एक रहस्य ही बना हुआ था और वह जीटीएस के जरिये इसका मानचित्र तैयार करना चाहता था। पंडित नैन सिंह और उनके भाई 1863 में जीटीएस से जुड़े और उन्होंने विशेष तौर पर नैन सिंह 1875 तक तिब्बत की खोज में लगे रहे। नैन सिंह और उनके भाई मणि सिंह को तत्कालीन शिक्षा अधिकारी एडमंड स्मिथ की सिफारिश पर कैप्टेन थामस जार्ज मोंटगोमेरी ने जीटीएस के तहत मध्य एशिया की खोज के लिये चयनित किया था। उनका वेतन 20 रूपये प्रति माह था। इन दोनों भाईयों को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे के देहरादून स्थित कार्यालय में दो साल तक प्रशिक्षण भी दिया गया था।
जीटीएस के अंतर्गत पंडित नैन सिंह काठमांडो से लेकर ल्हासा और मानसरोवर झील का नक्शा तैयार किया। इसके बाद वह सतलुज और सिंध नदी के उदगम स्थलों तक गये। उन्होंने 1870 में डगलस फोर्सिथ के पहले यरकंड यानि काशगर मिशन और बाद में 1873 में इसी तरह के दूसरे मिशन में हिस्सा लिया था। इस मिशन में उनके साथ किशन और कल्याण सिंह भी थे। पंडित नैन सिंह इस दौरे में हालांकि महत्वपूर्ण खोज नहीं कर पाये। इस बीच 1874 की गर्मियों में मिशन लेह पहुंचा तो तब तक कैप्टेन मोंटगोमेरी की जगह कैप्टेन हेनरी ट्रोटर ने ले ली थी। जीटीएस के सुपरिटेंडेंट जनरल जेम्स वाकर के निर्देश पर कैप्टेन ट्रोटर ने पंडित नैन सिंह ने लेह से ल्हासा तक तिब्बत के उत्तरी भाग का मानचित्र तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। उनका यह सबसे कठिन दौरा 15 जुलाई 1874 को लेह से शुरू हुआ था जो उनकी आखिरी खोज यात्रा भी साबित हुई। इसमें वह लद्दाख के लेह से होते हुए ल्हासा और फिर असम के तवांग पहुंचे थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण जानकारियां जुटायी जो बाद में बहुत उपयोगी साबित हुई। उन्हें ल्हासा से बीजिंग तक जाना था लेकिन ऐसा संभव नहीं होने पर सांगपो यानि ब्रह्मपुत्र या भूटान के रास्ते भारत आने के निर्देश दिये गये थे।
लेह से लेकर ल्हासा और तवांग : सबसे दुर्गम लेकिन महत्वपूर्ण यात्रा
पंडित नैनसिंह की इस यात्रा का प्रबंध विलियम जानसन ने करना था जो पहले जीएसटी से जुड़े रहे थे और तब कश्मीर के महाराजा के वजीर थे। पंडित के साथ सामान ढोने के लिये भेड़ों को रखा गया। यह अजीबोगरीब फैसला था। सबसे बड़ी चिंता पंडित और उनके दल की सुरक्षा को लेकर था क्योंकि इस यात्रा के दौरान उन्हें एक नये मार्ग से होकर जाना था और लुटेरे उन पर हमला कर सकते थे। बाद में तय किया गया था कि पंडित नैन सिंह अपने साथ कुछ रुपये लेकर जाएंगे और जब वह ल्हासा पहुंचेंगे तो लोपचाक मिशन के लोग उन्हें बीजिंग(तब पीकिंग) तक की यात्रा के लिये बाकी बची धनराशि सौंप देंगे। लोपचाक मिशन प्रत्येक तीन साल में लद्दाख से ल्हासा तक होने वाली यात्रा थी। उस वर्ष उसे पंडित नैन सिंह की यात्रा के कुछ दिनों बाद ही शुरू होना था। नैन सिंह को बीजिंग में ब्रिटिश मिनिस्टर को कैप्टेन ट्रोटर का पत्र सौंपना था जो फिर समुद्र के रास्ते उन्हें कोलकाता भेजने की व्यवस्था करते। नैन सिंह ने किसी तरह की साजिश से बचने के लिये यह बात फैलायी कि वह फिर से यरकंड जा रहे हैं। उनके साथ उनका नौकर चंबेल, दो तिब्बती और और एक स्थानीय व्यक्ति के अलावा 26 भेड़ें थी। इन सभी ने पुजारियों की पोशाक पहन रखी थी और नौ दिन की यात्रा के बाद वे तिब्बत की सीमा पर पहुंचे। नैनसिंह अपेक्षित तेजी से नहीं चल पा रहे थे क्योंकि उनके साथ भेड़ें भी थी। उन्होंने आसानी से सीमा पार करके तिब्बत में कदम रखा। पंडित और उनके साथी यहां पैंगोंग झील तक पहुंचे और तब पहली बार उन्होंने इस क्षेत्र का मानचित्र तैयार किया। इसके बाद उन्होंने तिब्बत के उत्तरी क्षेत्र में स्थित कई झीलों का मानचित्र तैयार किया जिनके बारे में पहले किसी को भी पता नहीं था। पैंगोंग से टेंगरी नोर के बीच वह खम्पास लोगों के क्षेत्र में भी पहुंचे जिनके बारे में कहा जाता था कि वे ल्हासा से यहां आये थे। खम्पास जाति लूटपाट करने के लिये भी जानी जाती थी लेकिन संयोग से पंडित का एक नौकर पहले भी इन लोगों से मिल चुका था और उनमें से कुछ को जानता था। इसलिए उनका रास्ता आसानी से कट गया। पंडित ने इसके बाद थोक दारूकपा क्षेत्र की स्वर्ण खदानों की स्थिति का पता लगाया। आखिर में कई विषम परिस्थितियों से गुजरने के बाद पंडित और उनके साथियों ने 18 नवंबर 1874 को ल्हासा में प्रवेश किया। तब तक उनके साथ चार या पांच भेड़ ही बच गयी थी। बाकी या तो बीमार पड़ गयी थी या फिर उन्हें मारकर खा दिया गया था।
दुर्भाग्य से उनके ल्हासा पहुंचने से पहले ही यह अफवाह फैल गयी चीनी उनकी यात्रा से वाकिफ हैं और वे जानते है कि एक ब्रिटिश एजेंट भारत से ल्हासा आ रहा है। उन्होंने अपने एक नौकर को यह पता करने के लिये भेजा कि क्या लोपचाक मिशन बाकी पैसे लेकर पहुंच गया है लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी। धन के अभाव में उन्हें बीजिंग तक जाने की योजना छोड़नी पड़ी। वह पहले भी ल्हासा गये थे और उन्हें पहचाने जाने का डर था। उन्होंने लोपचाक मिशन के आने का इंतजार नहीं किया। अब तक जो भी जानकारी उन्होंने जुटायी थी उसे अपने दो विश्वासपात्रों के हाथों वापस लेह पहुंचा दिया ताकि वह कैप्टेन ट्रोटर तक पहुंच सके। पंडित नैन सिंह ने जल्द ही ल्हासा छोड़ दिया और सांगपो यानि ब्रह्मपुत्र के रास्ते भारत के लिये निकल पड़े। उन्होंने दो दिन तक पैदल चलने के बाद नाव से सांगपो नदी पार की और इस दौरान इसकी गति और गहरायी भी नापी। उन्होंने इस नदी के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां जुटायी जो बाद में काफी उपयोगी साबित हुई। वह आखिर में कारकांग दर्रे से असम के शहर तवांग तक पहुंचे थे। (तवांग अब अरूणाचल प्रदेश का हिस्सा है)। पंडित नैन सिंह 24 दिसंबर को तवांग पहुंचे थे लेकिन वहां उन्हें वहां व्यापारी मानकर बंदी बना दिया गया और 17 फरवरी तक वह स्थानीय लोगों के कब्जे में रहे। आखिर में उन्हें छोड़ दिया गया। वह एक मार्च 1875 को उदयगिरी पहुंचे और वहां स्थानीय सहायक कमांडर से मिले जिन्होंने टेलीग्राम करके कैप्टेन ट्रोटर को उनके सही सलामत लौटने की खबर दी। सहायक कमांडर ने ही उनकी गुवाहाटी तक जाने की व्यवस्था की जहां उनका फिर से सांगपो से मिलन हुआ जो अब ब्रह्मपुत्र बन चुकी थी। गुवाहाटी से वह कोलकाता गये थे। इस तरह से पंडित ने लेह से लेकर उदयगिरी तक 1405 मील की यात्रा की थी। द ज्योग्राफिकल मैगजीन में 1876 में पहली बार उनका कार्यों पर लेख प्रकाशित हुआ था।
भारत सरकार ने ली 139 साल बाद सुध
पंडित नैन सिंह को उनके इस अद्भुत कार्यों के लिये देश और विदेश में कई पुरस्कार पदक भी मिले। रायल ज्योग्राफिकल सोसायटी ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था। उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान करते हुए कर्नल युले ने कहा था कि किसी भी अन्य जीवित व्यक्ति की तुलना में एशिया के मानचित्र तैयार करने में उनका योगदान सर्वोपरि है। पेरिस के भूगोलवेत्ताओं की सोसायटी ने उन्हें स्वर्णजड़ित घड़ी प्रदान की। ब्रिटिश सरकार ने 1877 में उन्हें भारतीय साम्राज्य का साथी यानि सीआईई की उपाधि से नवाजा। उन्हें रूहेलखंड में एक गांव जागीर के रूप में और साथ में 1000 रूपये दिये गये थे। भारतीय डाक विभाग ने उनकी उपलब्धि के 139 साल बाद 27 जून 2004 को उन पर डाक टिकट निकाला था। उनकी यात्राओं पर कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। इनमें डेरेक वालेर की 'द पंडित्स' तथा शेखर पाठक और उमा भट्ट की 'एशिया की पीठ पर' महत्वपूर्ण हैं। इस महान अन्वेषक का 1895 में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था।
कैसे लगी आपको इस महान खोजकर्ता के बारे जानकारी जरूर बतायें आपका धर्मेन्द्र पंत ।
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gyaan wardhak post
जवाब देंहटाएंGreat job chachu
जवाब देंहटाएंThis story should be included in the school syllabus and someone try to make a documentary, if available,please mention.
जवाब देंहटाएंरूद्रादित्य, प्रयास यही है कि उत्तराखंड की इन महान हस्तियों से लोगों को अवगत कराया जाए। उत्तराखंड सरकार प्रयास करे तो यह संभव है। आपको यह प्रयास अच्छा लगा। आभार।
हटाएंविचार अच्छा है
जवाब देंहटाएंउत्तराखंड सरकार से तो बात की ही जा सकती है
राजीव बात बढ़ाओ। बाकी मैं हूं न।
हटाएंबहुत ही ज्ञान वर्धक। पहाड़ी होने के नाते बहुत है गर्व के अनुभूति हुई।
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